सुबह के काम से फारिग हो कर सुरेश खिड़की पर खड़ा सब्जी वाले का इंतजार कर रहा था. वह हाथ में मोबाइल पर रील्स देखने में बिजी था कि अचानक ‘लूणी घी चाहिए, लूणी...’ की आवाज ने उसे बाहर देखने को मजबूर कर दिया. खिड़की के बाहर राजस्थानी कुरतेघाघरे में सजी, सिर पर मटकियां रखे 2 अनजान लड़कियां खड़ी पुकार लगा रही थीं.
‘‘क्या है?’’ सुरेश ने बेहद रुखाई से पूछा, लेकिन उन लड़कियों के ठेठ राजस्थानी लहजे में बोले गए शब्द उस के पल्ले नहीं पड़े थे.
‘लूणी चाहिए, लूणी घी. खारा वाला घी लूणी,’ कहते हुए वे दोनों खिड़की के और निकट सरक आईं.
‘‘नहीं चाहिए,’’ कह कर सुरेश ने उन की ओर से पीठ मोड़ ली और फिर अपने मोबाइल में ध्यान लगाना चाहा, पर वे कहां पिंड छोड़ने वाली थीं. उन की आपस में कुछ अपनी भाषा में बात करने की आवाज कानों में आती रही.
‘‘ऐ साहब, सुनो. जरा यह बता दो कि यह मोबाइल नंबर सही है क्या?’’
सुरेश ने बेरुखी से पूछा, ‘‘अब क्या चाहती हो?’’
जवाब में उन में से एक लड़की ने कुरते की जेब से एक परची निकाल कर सुरेश की ओर बढ़ा दी.
‘‘क्या करूं इस का?’’ सुरेश ने पूछा.
उसी पहली वाली लड़की ने जवाब दिया, ‘‘जरा अपने मोबाइल से बात करा दो. यह नंबर एक सरदारजी ने दिया है. साहब, हम तो यहां बिलकुल नएनए आए हैं. वे लूणी घी चाहते हैं और कहा था कि इस नंबर पर फोन कर देना, तो स्कूटर पर वे खुद लेने आ जाएंगे.’’
काफी कोशिश करने पर बड़ी मुश्किल से सुरेश उन की बात कुछकुछ समझ पा रहा था. उन दोनों में बड़ी कशिश थी. उन्होंने ओढ़नी ओढ़ी हुई थी, पर उन के ब्लाउज बेहद छोटे थे. उन्हें भी उन्होंने पीछे से ढीला छोड़ा हुआ था. उन के उभार बाहर निकल रहे थे.