आज मुकदमे की आखिरी तारीख थी. पाखी सांस रोके फैसले के इंतजार में थी. उस ने दोनों बच्चों के हाथ कस कर पकड़ रखे थे. वकीलों की दलीलों के आगे वह हर बार टूटती, बिखरती और फिर अपनेआप को मजबूती से समेट कर हर तारीख पर अपनेआप को खड़ा कर देती.
क्याक्या आरोप नहीं लगे थे इन बीते दिनों में. हर तारीख पर जलील होती थी पाखी. 8 साल की शादी. सबकुछ तो ठीक ही था.
अरुण एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. खुद का मकान, खातापीता परिवार, सासससुर और एक छोटा भाई व बहन. एक लड़की को और क्या चाहिए था. फूफाजी ने रिश्ता बताया था. पापा कितने खुश थे. कोई जिम्मेदारी नहीं. एक छोटी बहन है, वह भी शादी के बाद अपने घर चली जाएगी. पाखी उन्हें एक ही नजर में पसंद आ गई थी. पापा बहुत खुश थे.
‘आप लोगों की कोई डिमांड हो तो बता दीजिए…’ पाखी के पिताजी ने कहा था.
पाखी को आज भी याद है… अरुण ने छूटते ही कहा था, ‘अंकल, मैं इतना कमा लेता हूं कि आप की बेटी को खुश रख लूंगा. आप अपनी बेटी को जो देना चाहें, दे सकते हैं, पर हमें कुछ नहीं चाहिए.’
पाखी की नजर में कितनी इज्जत बढ़ गई थी अरुण के लिए, पर…
‘‘कृपया शांति बनाए रखें. जज साहब आ रहे हैं,’’ इस आवाज ने पाखी की सोच को तेजी से ब्रेक लगा दिया. जज साहब ने बड़ी ही सधी आवाज में फैसला सुनाना शुरू किया.
‘‘वाद संख्या 15, साल 2018, अरुण सिंह बनाम पाखी सिंह के द्वारा याचिका दाखिल की गई थी. कोर्ट द्वारा 6 महीने का वक्त दिए जाने पर भी दोनों पक्ष साथ रहने को तैयार नहीं हैं. सो, यह अदालत तलाक के मुकदमे व बच्चों की कस्टडी के सिलसिले में मुकदमे का फैसला सुनाती है.
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‘‘हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13बी के अनुसार, दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलों को सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि अरुण सिंह व पाखी सिंह दोनों की सहमति से उन का संबंध विच्छेद किया जाता है. चूंकि दोनों की संतानें अभी नाबालिग हैं और पाखी सिंह एक सामान्य गृहिणी हैं व आर्थिक रूप से कमजोर हैं, इसलिए अरुण सिंह पाखी सिंह को उन के भरणपोषण के अलावा बच्चों के पालनपोषण व भरणपोषण के लिए भी 10,000 रुपए खर्चे के तौर पर देंगे. साथ ही, यह अदालत महीने में 2 बार यानी हर 15 दिन पर पिता को अपने बच्चों से मिलने का अधिकार देने का फैसला सुनाती है. पाखी सिंह को इस संबंध में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.’’
जज साहब फैसला सुना कर चले गए. धीरेधीरे सभी लोग कमरे से बाहर निकल गए. पाखी बहुत देर तक यों ही बैठी रही. अरुण ने जातेजाते मुड़ कर उसे देखा. दोनों की आंखें टकरा गईं. न जाने कितने सवाल उन की आंखों में तैर रहे थे मानो दोनों एकदूसरे से पूछ रहे थे, अब तो खुश हो न… यही चाहते थे न हम. पर क्या सचमुच वे दोनों यही चाहते थे…
विवाह की वेदी पर ली गईं सारी कसमें एकएक कर के याद आ रही थीं… हिंदू विवाह सिर्फ एक संस्कार नहीं, सात जन्मों का नाता है. इसे कोई नहीं तोड़ सकता. एकदूसरे का हाथ थामे अरुण और पाखी ने भी तो यही कसमें खाई थीं. पर वक्त के थपेड़ों ने रिश्तों के धागों को तारतार कर दिया था.
पारिवारिक अदालत के बाहर तलाक के लिए खड़े दंपतियों को देख कर मन कैसाकैसा हो गया था. आखिर ऐसा क्या हो जाता है, जो संभाला नहीं जा सकता. पाखी भी तो यही सोचती थी. पर उसे क्या पता था, जिंदगी उसे ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर देगी.
पिताजी ने सबकुछ तो दिया. पर कहीं कुछ अधूरा सा था, जिस की भरपाई पाखी अपने आंसुओं से करती रही. बड़ी बहू… बहुत सारी जिम्मेदारियां उस के कंधों पर थीं. दिनभर वह चकरघिन्नी की तरह नाचती रहती, कभी पापा की दवा तो मांजी का नाश्ता, तो कभी सोनल का प्रोजैक्ट. कहने को तो सोनल उस की हमउम्र थी, पर 2 भाइयों की लाड़ली और एकलौती बहन. लाड़ के चलते वह कभी बड़ी न हो पाई.
पाखी हमेशा सोचती थी… हमउम्र हैं, सहेलियों की तरह चुटकियों में हर काम निबटा देंगे और देवर तो मेरे भाई सोनू की तरह ही है. जब सोनू का काम कर सकती थी, उस का क्यों नहीं. पर लोग सच कहते हैं, ससुराल तो ससुराल ही होती है.
पाखी की बचपन की सहेली हमेशा कहती थी, ‘पाखी किसी रिश्ते में कोई रिश्ता न ढूंढ़ना, तो खुश रहोगी.’ कितनी नादान थी वह. उसे क्या पता था, ससुराल पहुंचने से पहले ही एक छवि वहां बन चुकी थी, बड़े बाप की बेटी है, डिगरी वाली है. इन को कौन सम?ा सकता है.
मांजी अकसर कह देतीं, ‘वह तो अरुण ने शराफत में कह दिया कि दो जोड़ी कपड़ों में विदा कर दीजिए. इस के पापा मान भी गए. कितने अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे मेरे लाड़ले के लिए. पर हमारी ही मति मारी गई थी.’
पाखी हैरान सी देखती रह जाती. जिन डिगरियों को देख कर पापा का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, आज वही उलाहनों और तानों का जरीया बन गई थीं.
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अरुण भी खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. पाखी भरेपूरे घर में अकेली रह गई थी. पाखी और अरुण में न के बराबर बातें होती थीं और जब कभी बातें होती भी थीं, धीरेधीरे बहस, फिर ?ागड़े का रूप ले लेतीं.
पाखी और अरुण के बीच ?ागड़े अपने मसलों को ले कर नहीं होते, पर आखिर पिस तो दोनों ही रहे थे. पाखी… पाखी, तुम ने बच्चों की फीस नहीं जमा की, स्कूल से नोटिस आया है.
पाखी अरुण की आवाज सुन कर किचन से दौड़ी चली आई, ‘अरे, अभी तक फीस नहीं जमा हुई? मैं ने तो भैया को बोला था.’
‘मु?ा से… मु?ा से कब बोला भाभी?’
‘अरे भैया, आप उस दिन अपने दोस्त से मिलने जा रहे थे उसी तरफ, तब आप ही ने कहा था कि मैं जमा कर दूंगा,’ पाखी की आवाज सुन कर पापा, मांजी, सोनल कमरे से बाहर निकल आए, ‘क्या बात है भाई, सुबहसुबह इतना शोर क्यों मचा रखा है’.
‘पापा, देखिए न, बच्चों के स्कूल से नोटिस आया है कि अभी तक फीस जमा नहीं हुई है. मैं क्याक्या देखूं… घर या बाहर’.
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अरुण सिर पकड़ कर बैठ गए. मम्मी ने बेटे की ऐसी हालत देख कर पाखी पर ही चिल्लाना शुरू कर दिया, एक काम ठीक से नहीं कर पाती. पता नहीं, दिनभर करती क्या रहती है. हर चीज के लिए आदमी लगा हुआ है, तब भी महारानी को अपनेआप से फुरसत नहीं.’