...और नेताओं की कुर्सी हिलने लगी. आखिर पत्रकार जी ने बाण ही ऐसा चलाया था, जो अचूक था. हमारे शहर में हालांकि पत्रकार तो बहुतेरे हैं. मगर नेताओं की कुर्सी हिला सके, वह तो बस पत्रकार जी के बस या कहें बूते की बात हुआ करती है.

तो नेताओं की कुर्सी हिलने लगी थी.

पत्रकार जी ने ऐसी खोज खबर भरी रिपोर्टिंग की कि मुख्यमंत्री तलक कान खड़े हो गए .आप कहेंगे- भई! आखिर रिपोर्टिंग क्या थी ?...रुकिये!   हमारे पास इतना वक्त नहीं कि आपको एक एक बात तफसील से बताते फिरें.

हम तो सिर्फ यह बता रहे हैं... और जरा कान खोल कर सुन लीजिए... नेताओं की कुर्सी डग-मग, डग-मग हिलने लगी. साधु समान मुख्यमंत्री से  जब कस्बे के नेतागण राजधानी में मिलने पहुंचे तो देखते ही उन्होंने कहा- "अमां! आप लोग क्या खा कर राजनीति कर रहे हो...! "

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सभी एक दूसरे की ओर देखने लगे. सांसद, विधायक की ओर, और विधायक पार्टी के सदर की और प्रश्न वाचक भाव लेकर देखने लगा. सभी की आंखों में असहजता का भाव था.

मुख्यमंत्री सांसद की और दृष्टिपात करते हुए बोले- "कस्बे के एक पत्रकार को तुम लोग काबू में नहीं रख पाये...वह यहां तक आ धमका."

"जी ." सांसद बांसुरीनंद हकलाये.

"हां...अब कस्बे और आसपास के पत्रकारों को तो कम से कम आप लोग सुलटा लिया करो. यह बड़ी कमजोरी की बात है... एक कस्बे का पत्रकार राजधानी और हमारे गिरेबां तक आ पहुंचा.

छी...!" मुख्यमंत्री  डॉ. चमनानंद  का मुंह मानो कड़ुवा हो गया था.

"- माई बाप... जरूर यह यह गलती, इस लखनानंद  की होगी...इसने संसदीय सचिव बनने के बाद न तो पत्रकारों को पार्टी दी, न ही विज्ञापन बांटे...बस यही गलती हो गई इससे. " सांसद बांसुरीनंद  ने आंखों पर चश्मे को ठीक से बैठाते हुए विनम्रता भरे शब्दों में कहा. यह सुन लखनानंद  उचक कर आगे आया-

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