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‘‘सुनिए, ट्रेन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन से जाना होगा.’’

आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.

हमारी ट्रेन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.

अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.

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‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.

‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.

पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.

हमारे भीगने से पहले एक दूसरी ट्रेन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. ट्रेन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं…

आखिरी 3-4 स्टेशन तक जब ट्रेन कुछ खाली हो गई तब मैं उस का नाम जान पाई. अभिन्न कोलकाता से पहली बार गुजर रहा था जबकि यह मेरा अपना शहर था. इसलिए कालिज की छुट्टियों में अकेली ही आतीजाती थी.

हावड़ा पहुंच कर अभिन्न को पता चला कि उस की फ्लाइट छूट चुकी है और अगला जहाज कम से कम कल दोपहर से पहले नहीं था.

‘‘क्या आप किसी होटल का पता बता देंगी?’’ अभिन्न अपने भीगे कपड़ों को रूमाल से पोंछता हुआ बोला.

हम साथसाथ ही टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे थे. कुली ने मेरा सामान उठा रखा था. लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद हम कम से कम अजनबी नहीं रह गए थे. वह भी कालिज का छात्र था और किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए दूसरे शहर जा रहा था. टैक्सी तक पहुंचने से पहले मैं ने उसे 3-4 होटल गिना दिए.

‘‘बाय,’’ मेरे टैक्सी में बैठने के बाद उस ने हाथ हिला कर कहा. उस ने कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं की थी. बस, औपचारिकताएं ही पूरी हुई थीं मगर विदा लेते वक्त उस के शब्दों में एक दोस्ताना आभास था.

‘‘एक बात पूछूं?’’ मैं ने खिड़की से गरदन निकाल कर कुछ सोचते हुए कहा.

एक जोरदार बिजली कड़की और उस की असहज आंखें रोशन हो गईं. शायद थकावट के कारण मुझे उस का चेहरा बुझाबुझा लग रहा था. उस ने सहमति में सिर हिलाया. वैसे तो चेहरा बहुत आकर्षक नहीं था लेकिन आत्मविश्वास और शालीनता के ऊपर बारिश की नन्ही बूंदें चमक रही थीं.

‘‘यह शहर आप के लिए अजनबी है और हो सकता है आप को होटल में जगह न भी मिले,’’ कह कर मैं थोड़ी रुकी, ‘‘आप चाहें तो हमारे साथ हमारे घर चल सकते हैं?’’

उस के चेहरे पर कई प्रकार की भावनाएं उभर आईं. उस ने प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘डरिए मत, आप को ले कर भाग नहीं जाऊंगी,’’ मैं खिलखिला पड़ी तो वह झेंप गया. एक छोटी सी हंसी में बड़ीबड़ी शंकाएं खो जाती हैं.

वह कुछ सोचने लगा. मैं जानती थी कि वह क्या सोच रहा होगा. एक अनजान लड़की के साथ इस तरह उस के घर जाना, बहुत अजीब स्थिति थी.

‘‘आप को बेवजह तकलीफ होगी,’’ आखिरकार अभिन्न ने बहाना ढूंढ़ ही निकाला.

‘‘हां, होगी,’’ मैं गंभीर हो कर बोली, ‘‘वह भी बहुत ज्यादा यदि आप नहीं चलेंगे,’’ कहते हुए मैं ने अपने साथ वाला गेट खोल दिया.

वह चुपचाप आ कर टैक्सी में बैठ गया. इंसानियत के नाते मेरा क्या फर्ज था पता नहीं, लेकिन मैं गलत कर रही हूं या सही यह सोचने की नौबत ही नहीं आई.

मैं रास्ते भर सोचती रही कि चलो, अंत भला तो सब भला. मगर उस दिन तकदीर गलत पटरी पर दौड़ रही थी. घर पहुंच कर पता चला कि पापा बिजनेस ट्रिप से एक दिन बाद लौटेंगे और मम्मी 2 दिन के लिए रिश्तेदारी में दूसरे शहर चली गई हैं. हालांकि चाबी हमारे पास थी लेकिन मैं एक भयंकर विडंबना में फंस गई.

‘‘मुझे होटल में जगह मिल जाएगी,’’ अभिन्न टैक्सी की ओर पलटता हुआ बोला. उस ने शायद मेरी दुविधा समझ ली थी.

‘‘आप हमारे घर से यों ही नहीं लौट सकते हैं. वैसे भी आप काफी भीग चुके हैं. कहीं तबीयत बिगड़ गई तो आप सेमिनार में नहीं जा पाएंगे और मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूं,’’ भले ही मेरे दिल में कई आशंकाएं उठ रही थीं पर ऊपर से बहादुर दिखना जरूरी था.

कुछ देर में हम घर के अंदर थे. हम दोनों बुरी तरह से सहमे हुए थे. यह बात अलग थी कि दोनों के अपने अपने कारण थे.

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मैं ने उसे गेस्टरूम का नक्शा समझा दिया. वह अपने कपड़ों के साथ चुपचाप बाथरूम की ओर बढ़ गया तो मैं कुछ सोचती हुई बाहर आई और गेस्टरूम की कुंडी बाहर से लगा दी. सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था. दुनियादारी के पहले पाठ का शीर्षक है, शक. खींचते धकेलते मैं सूटकेस अपने कमरे तक ले गई और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी.

‘‘लगता है दरवाजा फंसता है?’’ अभिन्न गेस्टरूम के दरवाजे को गौर से देखता हुआ बोला. उस ने कम से कम 5 मिनट तक दरवाजा तो अवश्य ठकठकाया होगा जिस के बारे में मैं भूल गई थी.

‘‘हां,’’ मैं ने तपाक से झूठ बोल दिया ताकि उसे शक न हो, पर खुद पर ही यकीन न कर पाई. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

किचन से मुझे जबरदस्त चिढ़ थी और पढ़ाई के बहाने मम्मी ने कभी जोर नहीं दिया था. 1-2 बार नसीहतें मिलीं भी तो एक कान से सुनी दूसरे से निकल गईं. फ्रिज खोला तो आंसू जमते हुए महसूस होने लगे. 1-2 हरी सब्जी को छोड़ कर उस में कुछ भी नहीं था. अगर घर में कोई और होता तो आसमान सिर पर उठा लेती मगर यहां खुद आसमान ही टूट पड़ा था.

एक बार तो इच्छा हुई कि उसे चुपचाप रफादफा करूं और खुद भूख हड़ताल पर डट जाऊं. लेकिन बात यहां आत्मसम्मान पर आ कर अटक गई थी. दिमाग का सारा सरगम ही बेसुरा हो गया था. पहली बार अफसोस हुआ कि कुछ पकाना सीख लिया होता.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’

आवाज की ओर पलट कर देखा तो मन में आया कि उस की हिम्मत के लिए उसे शौर्यचक्र तो मिलना ही चाहिए. वह ड्राइंगरूम छोड़ कर किचन में आ धमका था.

‘दफा हो जाओ यहां से,’ मेरे मन में शब्द कुलबुलाए जरूर थे मगर प्रत्यक्ष में मैं कुछ और ही कह गई, ‘‘नहीं, आप बैठिए, मैं कुछ पकाने की कोशिश करती हूं,’’ वैसे भी ज्यादा सच बोलने की आदत मुझे थी नहीं.

‘‘देखिए, आप इतनी रात में कुछ करने की कोशिश करें इस से बेहतर है कि मैं ही कुछ करूं,’’ वह धड़धड़ा कर अंदर आ गया और किचन का जायजा लेने लगा. उस के होंठों पर बस, हलकी सी मुसकान थी.

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मैं ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पा रही थी इसलिए आंखें ही इशारों में बात करने लगीं. मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई. कारण कई हो सकते थे मगर मुझे जोरदार भूख लगी थी और भूखे इनसान के लिए तो सबकुछ माफ है. मैं चुपचाप उस की मदद करने लगी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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