टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.
अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.
‘‘क्या फिगर है?’’
उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.
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‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.
‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.
‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.
मैं गुमसुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.
‘‘जरा उधर...हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’
उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.