10 मिनट तक तो उस की एक भी गतिविधि समझ में नहीं आई. मुझे पता होता कि खाना पकाना इतनी चुनौती का काम है तो एक बार तो जरूर पराक्रम दिखाती. उस ने कढ़ाई चढ़ा कर गैस जला दी. 1-2 बार उस से नजर मिली तो इच्छा हुई कि खुद पर गरम तेल डाल लूं, मगर हिम्मत नहीं कर पाई. मुझे जितना समझ में आ रहा था उतना काम करने लगी.
‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’
मैं पूरी तल्लीनता से आटा गूंधने में लगी थी कि उस ने मुझे टोक दिया. एक तो ऐसे काम मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे और ऊपर से एक अजनबी की रोकटोक, मैं तिलमिला उठी.
‘‘दिखता नहीं, आटा गूंध रही हूं,’’ मैं ने मालिकाना अंदाज में कहा, पर लग रहा था कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. मैं ने एक बार उस की ओर नजर उठाई तो उस की दबीदबी हंसी भी दुबक गई.
‘‘आप रहने दें, मैं कर लूंगा,’’ उस ने विनती भरे स्वर में कहा.
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आटा ज्यादा गीला तो नहीं था मगर थोड़ा पानी और मिलाती तो मिल्क शेक अवश्य बन जाता.
हाथ धोने बेसिन पर पहुंची तो आईना देख कर हृदय हाहाकार कर उठा. कान, नाक, होंठ, बाल, गाल यानी कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां आटा न लगा हो. एक बार तो मेरे होंठों पर भी हंसी फिसल गई.
मैं जानबूझ कर किचन में देर से लौटी.
‘‘आइए, खाना बस, तैयार ही है,’’ उस ने मेरा स्वागत यों किया जैसे वह खुद के घर में हो और मैं मेहमान.
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