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लेखक-अरुणा त्रिपाठी

कल्पना ड्यूटी से आने के बाद औंधेमुंह बिस्तर पर लेट गई. छोटी बहन खाना खाने के लिए 2 बार बुलाने आई पर हर बार उसे डांट कर भगा दिया. सुमित्रा खुद आईं और बेटी की पीठ पर हाथ फेरते हुए बडे़ प्यार से पूछा, ‘‘क्या बात है बेटी, खाना ठंडा हो रहा है?’’

कल्पना उठ कर बैठ गई. उस के रोंआसे चेहरे को देख कर सुमित्रा भांप गई कि जरूर कुछ गड़बड़ है. उन्होंने पुचकारते हुए कहा, ‘‘बहादुर बच्चे दुखी नहीं होते. जरूर कुछ आफिस में किसी से कहासुनी हो गई होगी, क्यों?’’

‘‘वह चपरासी, दो टके का आदमी मुझ से कहता है कि मेरी औकात क्या है…’’ कल्पना रो पड़ी.

‘‘वजह?’’ सुमित्रा ने धीरे से पूछा.

‘‘यह सब इस कारण क्योंकि वह मुझ से ज्यादा तनख्वाह पाता है. एक सिपाही की कुछ हैसियत नहीं होती, मां.’’

‘‘ज्यादा तनख्वाह पाता है तो उस की उम्र भी तुम से दोगुनी होगी. इस में इतनी हीनभावना पालने की क्या जरूरत…’’

मां के कहे को अनसुना करते हुए कल्पना बीच में बोली, ‘‘सारे दिन हाथ में डंडा घुमाओ या फिर सलाम ठोंको. इस के अलावा सिपाही का कोई काम नहीं. किसी ताकतवर अपराधी को पकड़ लो तो उलटे आफत. किसी की शिकायत अधिकारी से करने जाओ तो वह ऐसे देखता है मानो वह बहुत बड़ा एहसान कर रहा हो और फिर इस की भी कीमत मांगता है. तुम से क्या बताऊं, मां, इन अधिकारियों के कारण ही तो मैं…’’

आवेश में कहतेकहते कल्पना की जबान एकदम से रुक गई फिर चिंतित स्वर में बोली, ‘‘जीनेखाने की कीमत चुकानी पड़ती है. तुम जाओ मां, मैं आज कुछ भी नहीं खाऊंगी. मुझे भूख नहीं है.’’

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कहते हैं न कि चोर जब तक पकड़ा नहीं जाता चोर नहीं कहलाता. लोग गलत काम करने से उतना नहीं डरते जितना समाज में होने वाली बदनामी से डरते हैं. समाज के सामने यदि सबकुछ ढकाछिपा है तो सब ठीक. अपनी नजर में अपनी इज्जत की कोई परवा नहीं करता. सुमित्रा अपनी बेटी के दफ्तर व वहां के काम के ढंग से वाकिफ थीं इसलिए उन्होंने निष्कर्ष यही निकाला कि बेटी सयानी है, उस की जितनी जल्दी हो सके शादी कर देनी चाहिए.

सुमित्रा को अब किसी सहारे की जरूरत नहीं थी क्योंकि उन की अपनी दुकान अच्छी चलने लगी थी. बेटी अपने घर चली जाए तो वह एक जिम्मेदारी से छुटकारा पा सकें, यही सोच कर उन्होंने कुछ लोगों से कल्पना के विवाह की चर्चा की. चूंकि घर की आर्थिक स्थिति ठीक होने के बाद वे भी अब सुखदुख के साथी बने खडे़ थे जो तंगी के समय उस के घर की ओर देखते भी नहीं थे. अब खतरा नहीं था कि सुमित्रा अपना दुखड़ा सुना कर उन से अपने लिए कुछ उम्मीद कर सकती हैं. अब कुछ देने की स्थिति में भी वह थीं.

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सुमित्रा के बडे़ भाई एक रिश्ता ले कर आए थे. अच्छे खातापीता परिवार था. जमीनजायदाद काफी थी. लड़के के पिता कसबे के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में थे और उन की राजनीतिक पहुंच थी. कल्पना की सुंदरता से प्रभावित हो कर वह यह शादी 1 रुपए में करना चाहते थे. दहेज न ले कर वह चाहते थे लाखों लोगों की वाहवाही व प्रचार, क्योंकि उन की नजर अगले विधानसभा चुनाव पर टिकी थी और सुमित्रा जैसी विधवा दर्जी की सिपाही बेटी के साथ अपने बेरोजगार बेटे का विवाह कर वह न केवल एक विधवा बेसहारा को धन्य कर देना चाहते थे बल्कि उस पूरे इलाके में वाहवाही पाना चाहते थे.

कल्पना का विवाह हो गया. सुमित्रा ने राहत की सांस ली. बेटी के पांव पूज वह अपने को धन्य मान रही थीं. बेटी को विदा करते समय सभी बड़ीबूढ़ी व खुद सुमित्रा उसे समझा रही थीं कि अब वही तुम्हारा घर है. सुख मिले या दुख सब चुपचाप सहना. मां के घर से बेटी की डोली उठती है और पति के घर से अर्थी.

कल्पना की सुहागरात थी. फूलों से महकते कमरे में एक विशेष मादकता बिखरी थी. वह डरीसहमी सेज पर बैठी थी. तमाम कुशंकाओं से उस का जी घबरा रहा था. एक तरफ खुशी तो दूसरी तरफ भय से शरीर में विचित्र संवेदना हो रही थी. नईनवेली दुलहन जैसी उत्तेजना के स्थान पर आशंकित उस का मन उस सेज से उठ कर भाग जाने को कर रहा था. वह अजीब पसोपेश में पड़ी थी कि उस के पति प्रमेश ने कमरे में प्रवेश किया. वह बिस्तर पर सिकुड़ कर बैठ गई और उस का दिल जोर से धड़कने लगा. चेहरे पर रक्तप्रवाह बढ़ जाने से वह रक्तिम हो उठा था. इतने खूबसूरत तराशे चेहरे पर पसीने की बूंदें फफोलों की तरह जान पड़ रही थीं.

प्रमेश ने जैसे ही घूंघट उठाया और दोनों की नजरें मिलीं वह सकते में आ गया. उस का हाथ पीछे हट गया. उस ने कल्पना को परे ढकेलते हुए कहा, ‘‘ऐसा लगता है हम पहले भी कहीं मिल चुके  हैं.’’

‘‘मुझे याद नहीं,’’ कल्पना ने धीमे स्वर में कहा.

क्रोध के मारे प्रमेश की मांसपेशियां तन गईं. उस के माथे पर बल पड़ गए और होंठ व नथुने फड़कने लगे. शरीर कांपने से वह उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘तुम झूठ बोल रही हो, तुम्हें सब अच्छी तरह से याद है.’’

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कल्पना को जिस बात का भय था वही हुआ. प्रमेश के हावभाव को देखते हुए वह अब अपने को संयत कर चुकी थी. आने वाले आंधी, तूफान व बाढ़ से सामना करने की शक्ति उस में आ गई थी. वह इस सच को जान गई थी कि अब उसे सच के धरातल पर सबकुछ सहना, झेलना व पाना था.

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