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लेखक- अरुणा त्रिपाठी

कल्पना किंकर्तव्यविमूढ़ हो थोड़ी देर खड़ी सोचती रही कि संभव है प्रमेश उसे माफ कर दे. एक नई ईमानदार जिंदगी जीने का संकल्प ले एकदूसरे के दोषों को भुला दे तो दूसरे की निगाह में गिरने से भी बच जाएंगे और उसे तो नवजीवन ही मिल जाएगा. वह सारा जीवन प्रमेश की दासी बन कर काट देगी. इसी मनमंथन में डूबी थी कि बाहर नातेरिश्तेदारों की हलचल सुनाई पड़ने लगी.

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कल्पना के मामा रस्मोरिवाज के अनुसार उसे विदा करा ले गए. घर पहुंच कर कल्पना के मामा सुमित्रा से बोले, ‘‘दीदी, कल्पना ने तो सब का मन मोह लिया है. सब ने बडे़ प्रेम से इसे विदा किया. मेरे स्वागत- सत्कार में भी कोई कमी नहीं रखी. पैसे का घमंड उन्हें छू नहीं सका है. क्यों कल्पना बेटी, मैं गलत तो नहीं कह रहा?’’

कल्पना मानो नींद से जागी हो. वह अपने ही खयालों में डूबी थी. बनावटी हंसी हंस कर बोली, ‘‘हां मामाजी, आप सही कह रहे हैं.’’

इतना सुनना था कि सुमित्रा ने तो पूरे महल्ले में उस की ससुराल के बखान में खूब गीत गाए. जो कोई बेटी से मिलने आता उसी से आगे बढ़ कर वह बतातीं :

‘‘देखो, इतना बड़ा घर, जमीन- जायदाद पर घमंड छू नहीं गया है इस के ससुराल वालों को. मेरी बेटी को रानी की तरह सम्मान देते हैं. मुझ बेवा का उन्हें आशीर्वाद लगे कि वे दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें. चौधरीजी जबजब चुनाव लड़ें तबतब जीतें.’’

महल्ले में कभी कोई हंस कर कह देता, ‘‘कल्पना जैसी सुंदर लड़की पूरे महल्ले में नहीं है. इस का रूपरंग इसे इतने बडे़ घर में ले गया. इस मामले में चौधरीजी की तारीफ तो करनी ही पडे़गी क्योंकि दहेज के आगे लड़की के रूपगुण की कद्र आज के जमाने में कौन करता है. यह तो उन का बड़प्पन है.’’

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