‘दादाजी, हमें आप की और दादी की याद आ रही है. हमें न तो कोई अपने साथ बाजार ले कर जाता है, न चीज दिलाता है. नानी कहानी भी नहीं सुनातीं. बस, सारा दिन हनी व सनी के साथ लगी रहती हैं. हम क्या करें दादाजी?’
दादाजी रास्ता सुझाते, ‘बेटा, धरा और तानी सुनो, तुम अपने पापा को फोन लगाओ और उन से कहो कि हम आप को बहुत मिस कर रहे हैं. आप आ कर ले जाओ.’
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दादाजी की यह तरकीब काम कर जाती. हम रोरो कर पापा से ले जाने के लिए कहते और अगले दिन पापा हमें ले आते. हम दोनों लौट कर दादी और दादाजी से ऐसे लिपट जाते जैसे कब के बिछुड़े हों.
पापा ने हमें पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया. हम लौटते तो दादाजी और दादी को इंतजार करते पाते. उन की अलमारी हमारे लिए सौगातों से भरी रहती. हाईस्कूल पास करने के बाद दादाजी ने मुझे घड़ी दी थी.
हम बड़े हुए तो पता चला कि दादाजी केवल पेंशन पर गुजारा करते हैं. हमारा मन कहता कि हमें अब उन से उपहार नहीं लेने चाहिए, लेकिन जब दादी हमारी मुट्ठियों में रुपए ठूंस देतीं तो हम इनकार न कर पाते. होस्टल जाते समय लड्डूमठरी के डब्बे साथ रखना दादी कभी न भूलतीं.
दोनों बहनों का कर्णछेदन एकसाथ हुआ तो दादी ने छोटेछोटे कर्णफूल अपने हाथ से हमारे कानों में पहनाए. और जब मेरी शादी पक्की हुई तो दादी हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं. जब नहीं रहा गया तो मुझे बुला कर बोली थीं, ‘धरा बेटा, अपना दूल्हा मुझे नहीं दिखाएगी.’