आभा और अमित जब शाम 5 बजे कालिज से लौटे तो अपने दरवाजे पर भीड़ देख कर घबरा गए. दोनों दौड़ कर गए तो देखा कि उन के पापा, लहूलुहान मम्मी को बांहों में भरे बिलखबिलख कर रो रहे हैं. दोनों बच्चे यह सब देख कर चकरा कर गिर पड़े. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. तब पत्नी को धरती पर लिटा कर अपने दोनों बच्चों को छाती से लगा कर वह भी आर्तनाद कर उठे.
पड़ोसियों ने उन्हें संभाला, तब दोनों को ज्ञात हुआ कि घटना कैसे हुई. पड़ोस की कुछ महिलाएं नित्य मिल कर सब्जी- भाजी लेने जाती थीं. गृहस्थी का सब सामान लाद कर ले आतीं. उस दिन भी 4 महिलाएं सामान खरीद कर आटो से लौट रही थीं तभी पीछे से सिटी बस ने टक्कर मार दी. सामान का थैला पकड़े माया किनारे बैठी थीं. वह झटके से नीचे गिर पड़ीं. उधर सिटी बस माया को रौंदती हुई आगे निकल गई. बीच सड़क पर कोहराम मच गया. माया ने क्षण भर में प्राण त्याग दिए. पुलिस आई, केस बना, महेंद्र को फोन किया और वह दौड़े आए.
उन की दुनिया उजाड़ कर समय अपनी गति पर चल रहा था परंतु गृहस्थी की गाड़ी का एक पहिया टूट कर सब अस्तव्यस्त कर गया. मां तो बेटी से अब तक कुछ भी काम नहीं कराती थीं परंतु अब उस के कंधों पर पूरी गृहस्थी का भार आ पड़ा. कुछ भी काम करे तो चार आंसू पहले रो लेती. न पढ़ाई में चित्त लगता था न अन्य किसी काम में. न ढंग का खाना बना पाती, न खा पाती. शरीर कमजोर हो चला था. तब उन्होंने अपने आफिस के साथियों से कह कर एक साफसुथरी, खाना बनाने में सुघड़ महिला मालती को काम पर रख लिया था. चौकाबर्तन, झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने के लिए पहले से ही पारोबाई रखी हुई थी.
महेंद्र कुमार उच्चपदाधिकारी थे. अभी आयु के 45 वसंत ही पार कर पाए थे कि यह दारुण पत्नी बिछोह ले बैठे. सब पूर्ति हो गई थी, नहीं हुई थी तो पत्नी की. घर आते तो मुख पर हर क्षण उदासी छाई रहती. हंसी तो जैसे सब के अधरों से विदा ही हो चुकी थी. जीवन जैसेतैसे चल रहा था.
धीरेधीरे 6 माह बीत गए. शीत लहर चल रही थी, ठंड अपने पूरे शबाब पर थी. उस दिन आकाश पर घनघोर बादल छाए हुए थे. दोनों एक ही कालिज में पढ़ते थे. अमित एम.ए. फाइनल और आभा बी.ए. फाइनल में थी. कालिज घर से दूर था, तभी बारिश शुरू हो गई. डेढ़ घंटे के बाद वर्षा थमी तो ये दोनों घर आए. कुछकुछ भीग गए थे. पापा घर आ चुके थे और शायद चायनाश्ता ले कर अपने कमरे में आराम कर रहे थे. कपडे़ बदल कर दोनों ने कहा, ‘‘मालती, चायनाश्ता दो, क्या बनाया है आज?’’
‘‘आज साहब ने पकौड़े बनवाए थे. आप लोगों के लिए भी ला रही हूं,’’ कहती हुई वह 2 प्लेटों में पकौड़े रख कर चाय बनाने चली गई परंतु आभा के मन में गहरी चोट कर गई. जब वह दोबारा आ कर चाय की केटलीकप टेबिल पर रख रही थी तब वह मालती को देख कर चिल्लाई, ‘‘यह…यह क्या? यह तो मम्मी की साड़ी है, यह तुम ने कहां से उठाई है?’’
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मालती घबरा गई, ‘‘मैं ने खुद नहीं उठाई बेबी, घर से आते हुए बारिश में भीग गई थी. ठंड से कांप रही थी तो साहब ने खुद निकाल कर दी है. ये 4 कपड़े स्वेटर, पेटीकोट, साड़ी और ब्लाउज…आप पूछ सकती हैं.’’
तभी उस की आवाज सुन कर महेंद्र दौड़े आए, ‘‘आभा, ये मैं ने ही दिए हैं. यह भीग गई थी, फिर अब इन का क्या काम? वह तो चली गई. किसी के काम आएं इस से बढ़ कर दान क्या है. गरीब हैं ये लोग.’’
‘‘नहीं पापा, मैं मम्मी के कपड़ों में इसे नहीं देख सकती. इस से कह दें कि अपने कपड़े पहन ले,’’ वह सिसकसिसक कर रो पड़ी. अमित के भी आंसू छलक आए.
‘‘यह तो पागलपन है, ऐसी नादानी ठीक नहीं है.’’
‘‘तो आप मम्मी के सब कपड़े अनाथालय में दान कर आएं. यह हमें इस तरह पलपल न मारे, मैं सह नहीं पाऊंगी.’’
‘‘आभा, जब इतना बड़ा गम हम उठा चुके हैं तो इतनी सी बात का क्यों बतंगड़ बना रही हो? इस के कपड़े अभी सूखे होंगे क्या? बीमार पड़ गई तो सारा काम तुम पर आ पडे़गा. इंसानियत भी तो कोई चीज है,’’ फिर वह मालती से मुखातिब हुए, ‘‘नहीं मालती, गीले कपडे़ मत पहनना. अभी इस ने पहली बार ऐसा देखा है न, इस से सह नहीं पाई. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. तुम जा कर खाना बनाओ और तुम दोनों अपने कमरे में जाओ,’’ कह कर वह अपने कमरे में घुस गए. उधर वे दोनों भी भारी मन से उठ कर अपने कमरे में चले गए.
एक दिन बहुत सुबह आभा ने देखा कि मालती पापा के कमरे से कुछ बर्तन लिए निकल रही है. मालती 5 बजे सुबह आ जाती थी, क्योंकि पानी 5 बजे सुबह ही आता था.
‘‘मालती, पापा के कमरे से क्या ले कर आई है?’’
‘‘रात को दूध लेते हैं. साहब, इस से ये बर्तन उठाने पड़ते हैं.’’
‘‘परंतु पापा तो कभी दूध पीते ही नहीं हैं?’’ आभा अचरज से बोली.
‘‘वह कई दिन से दूधबादाम ले रहे हैं, मैं रात में भिगो देती हूं. वह सोते समय रोज ले लेते हैं.’’
‘‘बादाम कौन लाया?’’ आभा शंका में डूबती चली गई.
‘‘वह आप की मम्मी के समय के रखे थे. एक दिन डब्बा खोला तो देखा वे घुन रहे थे, सो उन से पूछा कि क्या करूं इन का, तो बोले कि रोज 5-6 भिगो दिया कर, दूध के साथ ले लिया करूंगा. तभी से दे रही हूं.’’
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सुन कर आभा सोच में डूब गई. कुछ दिनों बाद आभा को फिर झटका लगा, देखा कि वह मम्मी की महंगी साड़ी और चमड़े की चप्पल पहने रसोई में खाना बना रही है. उस का मन जल उठा. उस की मम्मी कभी चमडे़ की चप्पल पहन कर रसोई में नहीं जाती थीं और यह नवाबजादी मजे से पहने खड़ी है. वह तेज स्वर में बोली, ‘‘मालती, तुम चमडे़ की चप्पल पहने खाना बना रही हो? यह मम्मी की महंगी साड़ी और यह नई पायल तो मम्मी करवा चौथ पर पहनने को लाई थीं, ये चीजें तुम्हें कहां मिलीं?’’ क्रोध से उस का मुंह लाल हो गया.
‘‘ये सब तुम अपने पापा से पूछो बेबी, उन्होंने मुझ से अलमारी साफ करने को कहा तो पालिथीन की थैली नीचे गिरी. मैं ने साहब को उठा कर दी तो वह बोले तुम ले लो मालती, आभा तो यह सब नहीं पहनती, तुम्हीं पहन लो. उन्होंने ही सैंडिल भी दी, सो पहन ली.’’
‘‘देखो, यहां ये लाट साहिबी नहीं चलेगी, चप्पल उतार कर नंगे पांव खाना बनाओ समझी,’’ वह डांट कर बोली तो मालती ने सकपका कर चप्पल आंगन में उतार दीं.
अमित भी बोल उठा, ‘‘पापा, यह आप क्या कर रहे हैं? क्या अब मम्मी के जेवर भी इस नौकरानी को दे देंगे? उन की महंगी साड़ी, सैंडिल भी, ये सब क्या है?’’
‘‘अरे, घर का पूरा काम वह इतनी ईमानदारी से करती है, और कोई होता तो चुपचाप पायल दबा लेता. इस ने ईमानदारी से मेरे हाथों में सौंप दी. साड़ी आभा तो पहनती नहीं है, इस से दे दी. इसे नौकरानी कह कर अपमानित मत करो. तुम्हारी मम्मी जैसा ही सफाई से सारा काम करती है. थोड़ा उदार मन रखो.’’
‘‘तो अब आप इसे मम्मी का दर्जा देने लगे,’’ आभा तैश में आ कर बोली.
‘‘आभा, जबान संभाल कर बात करो, क्या अंटशंट बक रही हो. अपने पापा पर शक करती हो? तुम अपने काम और पढ़ाई पर ध्यान दो. मैं क्या करता हूं, क्या नहीं, इस पर फालतू में दिमाग मत खराब करो. परीक्षा में थोड़े दिन बचे हैं, मन लगा कर पढ़ो, समझी,’’ वह क्रोध से बोले तो आभा सहम गई. इस से पहले पापा ने इतनी ऊंची आवाज में उसे कभी नहीं डांटा था.