लेखिका- विभावरी सिन्हा
अभी मेरी नींद खुली ही थी कि मधुरिमा की मधुर आवाज सुनाई दी. वास्तव में यह खतरे की घंटी थी. मैं अपना मोरचा संभालती, इस से पहले ही स्थूल शरीर की वह स्वामिनी अंदर पहुंच चुकी थी. मैं अपने प्रिय प्रधानमंत्री की मुद्रा में न चाहते हुए भी मुसकरा कर खड़ी हो गई.
वह आते ही शुरू हो गईं, ‘‘अरे, नीराजी, आप सो कर उठी हैं? आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही. अभी मैं सिरदर्द की दवा भेज देती हूं. और हां, भाई साहब और छोटी बिटिया नहीं दिख रहे?’’
मैं जबरदस्ती मुलायमियत ला कर बोल पड़ी, ‘‘यह तो अभी स्नानघर में हैं और बिटिया सोई है.’’
‘‘आप की बिटिया तो कमाल की है. बड़ी होशियार निकलेगी. और हां, खाना तो बनाना शुरू नहीं किया होगा.’’
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मैं उन की भूमिका का अभिप्राय जल्दी जानना चाह रही थी. सारा काम पड़ा था और यह तो रोज की बात थी. ‘‘नहीं, शुरू तो नहीं किया, पर लगता है आप के सारे काम हो गए.’’
‘‘ओह हो,’’ मधुरिमा हंस कर बोलीं, ‘‘नहीं, मैं तो रोज दाल बनाती हूं न.’’
मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘‘दाल तो मैं भी रोज बनाती हूं.’’
‘‘पर मैं तो दाल में जीरे का छौंक लगाती हूं.’’
‘‘वह तो मैं भी करती हं, इस में नई बात क्या है?’’
‘‘वह क्या है, नीराजी कि आज दाल बनाने के बाद डब्बा खोला तो जीरा खत्म हो गया था. सोचा, आप ही से मांग लूं,’’ मधुरिमा ने अधिकार से कहा. फिर बड़ी आत्मीयता से मेरी पत्रिकाएं उलटने लगीं.
मैं ने तो सिर पकड़ लिया. थोड़ा सा जीरा मांगने में इतनी भूमिका? खैर, यह तो रोज का धंधा था. मुझे तो आदत सी पड़ गई थी. यह मेरे घर के पास रहती हैं और मेरी सभी चीजों पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार जताती हैं. इस अधिकार का प्रयोग इन्होंने दूसरों के घरों पर भी किया था, पर वहां इन की दाल नहीं गली. और फिर संकोचवश कुछ न कहने के कारण मैं बलि का बकरा बना दी गई.
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अब तो यह हालत है कि मेरी चीजें जैसे इस्तिरी, टोस्टर वगैरह इन्हीं के पास रहते हैं. जब मुझे जरूरत पड़ती है तो कुछ देर के लिए उन के घर से मंगवा कर फिर उन्हीं को वापस भी कर देती हूं क्योंकि जानती हूं कुछ ही क्षणों के बाद फिर मधुर आवाज में खतरे की घंटी बजेगी. भूमिका में कुछ समय बरबाद होगा और मेरा टोस्टर फिर से उन के घर की शोभा बढ़ाएगा.
पूरे महल्ले में लोग इन की आदतों से परिचित हैं. और घर में इन के प्रवेश से ही सावधान हो जाते हैं. यह निश्चित है कि यह कोई न कोई वस्तु अपना अधिकार समझ कर ले जाएंगी. फिर शायद ही वह सामान वापस मिले. सुबह होते ही यह स्टील की एक कटोरी ले कर किसी न किसी घर में या यों कहिए कि अकसर मेरे ही घर में प्रवेश करती हैं. मैं न चाहते हुए भी शहीद हो जाती हूं.
यह बात नहीं कि इन की आर्थिक स्थिति खराब है या इन में बजट बनाने की या गृहस्थी चलाने की निपुणता नहीं है. यह हर तरह से कुशल गृहिणी हैं. हर माह सामान एवं पैसों की बचत भी कर लेती हैं. पति का अच्छा व्यवसाय है. 2 बेटे अच्छा कमाते भी हैं. बेटी पढ़ रही है. खाना एवं कपड़े भी शानदार पहनती हैं. फिर भी न जाने क्यों इन्हें मांगने की आदत पड़ चुकी है. जब तक कुछ मांग नहीं लेतीं तब तक इन के हाथ में खुजली सी होती रहती है.
इन की महानता भी है कि जब आप को किसी चीज की अचानक जरूरत आ पड़े और इन से कुछ मांग बैठें तो सीधे इनकार नहीं करेंगी. अपनी आवाज में बड़ी चतुराई से मिठास घोल कर आप को टाल देंगी और आप को महसूस भी नहीं होने देंगी. पहले तो आप का व परिवार का हालचाल पूछती हुई जबरदस्ती बैठक में बैठा लेंगी. फिर चाय की पत्ती में आत्मीयता घोल कर आप को जबरन चाय पिला देंगी. आप रो भी नहीं सकतीं और हंस भी नहीं सकतीं. असमंजस में पड़ कर उन की मिठास को मापती हुई घर लौट जाएंगी.
इधर कुछ दिनों से मैं इन की आदतों से बहुत परेशान हो गई थी. मेरे पास चीनी कम भी होती तो उन के मांगने पर देनी ही पड़ती. इस से मेरी दिक्कतें बढ़ जातीं. दूध कम पड़ने पर भी वह बड़े अधिकार से ले जातीं. पहले तो मेरे घर पर न होने पर वह मेरे नौकर से कुछ न कुछ मांग ले जाती थीं. अब खुद रसोई में जा कर अपनी आवश्यकता के अनुसार, हलदी, तेल वगैरह अपनी कटोरी में निकाल लेती हैं.
इस बीच अगर मैं लौट आई तो मुझ पर मधुर मुसकान फेंकती हुई आगे बढ़ जाती हैं. अदा ऐसी, मानो कोई एहसान किया हो मुझ पर. मैं तो बिलकुल आज की पुलिस की तरह हाथ बांध कर अपनी चीजों का ‘सती’ होना देखती रहती. उन के चले जाने पर पति से इस की चर्चा जरूर करती पर झुंझलाती खुद पर ही. मेरा बजट भी गड़बड़ाने लगा, सामान भी जल्दी खत्म होने लगा.
होली के दिन तो गजब ही हो गया. मैं जल्दीजल्दी पुए, पूरियां, मिठाई वगैरह बना कर मेज पर सजा रही थी. मेहमान आने ही वाले थे. इधर मेहमान आने शुरू हुए उधर मधुरिमा खतरे की घंटी बजाती हुई आ पहुंचीं. दृढ़ निश्चय कर के मैं अपना मोरचा संभालती कि उन्होंने एक प्यारी सी मुसकान मुझ पर थोप दी और मेरी मदद करने लगीं. मैं भीतर ही भीतर मुलायम पड़ने लगी.
सोचा, आज होली का दिन है, शायद आज कुछ नहीं मांगेंगी. पर थोड़ी भूमिका के बाद उन्होंने भेद भरे स्वर में मुझे अलग कमरे में बुलाया. मैं शंकित मन से उधर गई. उन्होंने अधिकारपूर्वक मुझ से कहा, ‘‘नीराजी, आज तो पिंकू के पिताजी बैंक नहीं जा सकते. कुछ रुपए, यही करीब 200 तक मुझे दे दो. मैं कल ही लौटा दूंगी.’’
मेरे ऊपर तो वज्र गिर पड़ा. मैं इनकार करती, इस के पहले ही वह बोल पड़ीं, ‘‘नीरा बहन, तुम तो दे ही दोगी. मैं जानती थी.’’
मैं असमंजस में थी. वह फिर बोलीं, ‘‘देखो, जल्दी करना. तुम रुपए निकालो, तब तक मैं रसोई से 1 किलो चीनी ले आती हूं. थैली मेरे पास है. आज मेवों की गुझिया बनाने की सोच रही हूं. तुम लोगों को भी चखने को दे जाऊंगी.’’
मैं अभी कुछ कहना ही चाहती थी कि और भी मेहमान आ पहुंचे. मैं ने जल्दी से पर्स से 200 रुपए निकाले. सोचा, आगे देखा जाएगा. मधुरिमा ने जल्दी से रुपए लपक लिए और रसोई की ओर चली गईं. मैं इधर मेहमानों में फंस गई.