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लेखिका- विभावरी सिन्हा
मैं ठंडी पड़ गई, ‘‘हांहां, क्यों नहीं?’’
थोड़े से मालपुए बचे थे. कुछ निकाल कर मैं ने उन्हें दिए.
‘‘नहीं, नीराजी, मैं तो बस थोड़ा सा चख लूंगी,’’ यह कह कर उन्होंने पूरा खाना खाया. फिर बोलीं, ‘‘वाह, बहुत स्वादिष्ठ हैं. अभी मैं बच्चों को बुला कर लाती हूं. वे भी थोड़ा चख लेंगे. फिर रात को पूरा खाना खाने हम लोग आएंगे’’
मेरी आंखों के आगे तो पूरी पृथ्वी घूम गई. अभी इस आघात से उबर भी नहीं पाई थी कि वह सपरिवार चहकते हुए आ पहुंचीं. साथ में फफूंदी लगा आम का मरियल सा अचार एक छोटी कटोरी में था. पति व बिटिया मेहमानों को छोड़ने बस अड्डे गए थे. सोचा, आज हमारा उपवास ही सही. किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से रसोई की ओर बढ़ी.
पर उस से पहले मधुरिमा ने कहा, ‘‘आप बैठिए, नीराजी. थक गई होंगी. मैं निकाल लेती हूं.’’
मेरे मना करतेकरते उन्होंने सारी बचीखुची रसद निकाल कर बाहर की और सब लोग चखने बैठ गए.
मेरे हाथ में अचार की कटोरी थी और मैं मन ही मन सुलग रही थी. सोचा, कटोरी कूड़ेदान में फेंक दूं. खैर, सब लोग रात में खाना खाने का वादा कर के जल्दी ही मेरे पुए चख कर चले गए. मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा था.
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पति के आने पर मैं ने सारी बातें कहीं. वह भी बहुत दिनों से इसी समस्या पर विचार कर रहे थे. पहले तो उन्होंने मेरी बेवकूफी पर मेरी ख्ंिचाई की. फिर होटल से ला कर खाना खाया. शाम तक वह कुछ विचार करते रहे और फिर रात में खुश हो कर मधुरिमा के आने से पहले ही हमें सैर कराने ले गए. बाहर ही हम ने खाना खा लिया. उन्होंने 10 दिन की छुट्टी ली. मैं ने कारण पूछा तो बोले कि समय पर सब जान जाओगी. मैं मूक- दर्शक बन कर अगली खतरे की घंटी का इंतजार करने लगी.
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