रक्षाबंधन का दिन था, इसलिए आज सांवरी को अपने छोटे भाई राहुल की बहुत याद आ रही थी. उस का चाय का ठेला लगाने का बिलकुल भी मन नहीं था, लेकिन फिर भी वह अपनी यादों को परे रख कर बेमन से अपना ठेला सजा रही थी. चूल्हा, गैस का छोटा सिलैंडर, दूध का भगौना, चायपत्ती व शक्कर का डब्बा, चाय के साथ खाने के लिए समोसा वगैरह... और भी न जाने क्याक्या.

सुबह के 5 बज चुके थे, इसीलिए सांवरी जल्दीजल्दी अपना ठेला तैयार कर रही थी, क्योंकि अगर वह अपना ठेला ले कर जल्दी नहीं पहुंची तो कोई दूसरा उस की जगह पर अपना ठेला खड़ा कर लेगा और फिर उसे ठेला ले कर इधरउधर भटकना पड़ेगा.

दूसरी बड़ी वजह यह भी थी कि सुबहसुबह सांवरी की चाय की बिक्री अच्छी हो जाती थी, क्योंकि सुबहसुबह चौराहे पर काम पर जाने वाले मजदूरों की अच्छीखासी भीड़ रहती थी और

वहीं से लोगों को काम करवाने के लिए मजदूर भी मिल जाते थे. उन में बहुत से ऐसे मजदूर भी थे, जो सांवरी की हर रोज चाय जरूर पीते थे, जिस से उस की कुछ आमदनी भी हो जाती थी.

पहले सांवरी को चाय का ठेला लगाने में बहुत शर्म महसूस होती थी, लेकिन पेट की आग, मां की बीमारी और मजबूरी की जंग के बीच उस की शर्म हमेशा हार जाती थी.

ठेला तैयार होते ही सांवरी मां के पास पहुंची. वे अभी सो रही थीं, इसीलिए उस ने उन्हें जगाना उचित नहीं समझा और वह चुपचाप कमरे से बाहर आ गई.

आज कितने दिनों के बाद मां को गहरी नींद में सोते देख कर सांवरी को बहुत सुकून महसूस हो रहा था. वे बेचारी सो भी कहां पाती हैं, बस दर्द में कराहती रहती हैं.

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