रात्रि के 11 बजे होंगे. बड़े भैया टीवी पर एक रोचक धारावाहिक देख रहे थे. तभी अचानक दरवाजे पर घंटी तो बजी ही, साथ ही कोई धड़ाधड़ बड़बड़ा भी रहा था. बड़े भैया को दहशत हुई कि कहीं कोई लुटेरा या आतंकवादी तो नहीं. धीरेधीरे सोचते हुए दरवाजे तक आए. दरवाजे में लगे शीशे में झांक कर देखा, पर अंधेरे में कुछ समझ में नहीं आया.
‘‘कौन है?’’ उन्होंने धमकाते हुए पूछा.
‘‘मैं हूं,’’ एक मिमियाता स्वर आया, ‘‘दरवाजा खोलिए.’’ आवाज कुछ परिचित सी लगी, पर धोखा भी तो हो सकता है. सोच कर बड़े भैया ने कड़क कर पूछा, ‘‘मैं कौन?’’
‘‘सिम्मी,’’ लगा कि आवाज में जान ही न थी. बड़े भैया प्यार से उसे सिम्मी बुलाते थे. बड़े भैया ने झट से दरवाजा खोला. स्मिता हाथ में एक छोटा सूटकेस लिए खड़ी थी, ठीक किसी फिल्मी नायिका की तरह. पहले तो बड़े भैया की छाती से चिपट कर रोई और फिर सीधे अपने कमरे में चली गई. बड़े भैया ने कुछ नहीं कहा. केवल गंभीरता से सोचते रहे कि सुबह होने पर ही पूछेंगे. वैसे पूछने की आवश्यकता भी क्या है?
सवेरे वे अखबार पढ़ रहे थे. स्मिता सामने बैठी बेचैनी से प्याले, प्लेट इधरउधर करते हुए सोच रही थी कि ये बड़े भैया हैं कैसे? कोई चिंता ही नहीं... अंत में जब सब्र का बांध टूट गया तो उस ने भैया के हाथों से अखबार छीनते हुए कहा, ‘‘पूछोगे नहीं, मैं क्यों आई हूं?’’
शरारतभरी मुसकाराहट से उन्होंने कहा, ‘‘पूछने की क्या जरूरत है? पतिपत्नी में तकरार तो होती ही रहती है. सब ठीक हो जाएगा.’’ स्मिता ने क्रोध से कहा, ‘‘यह तकरार नहीं है, बड़े भैया. मैं वह घर हमेशाहमेशा के लिए छोड़ आई हूं.’’