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21 साल के अजीत कुमार के पिताजी सफाई मुलाजिमों के सुपरवाइजर थे. इस बस्ती में रहने वाले लोग उन्हें दिल से इज्जत देते थे. एक बार बस्ती में कलुआ की अम्मां बीमार पड़ गईं. उन्हें तेज बुखार था. आसपास के लोग फौरन एक ओझा के पास पहुंचे और उन्हें ठीक करने की गुहार लगाई. ओझा ने अम्मां की कलाई पकड़ी और उन की पलकों को देखा. अम्मां के आसपास कुछ धुआं सा फैलाने के बाद एक अनूठी भाषा में न जाने क्याक्या बोलने लगा.

इस सारे काम को अजीत कुमार बड़ी देर से देख रहा था. पहले तो वह जिज्ञासावश ओझा की हरकतों का रस लेता रहा, पर थोड़ी देर बाद उसे लगा कि यह तरीका किसी भी बीमारी को भगाने का तो हो नहीं सकता, इसलिए वह कलुआ के पास जा कर खड़ा हो गया और उस ने लोगों से मरीज को डाक्टर के पास ले जाने के लिए कहा. एक छोटे लड़के की बात सुन कर ओझा उसे घूरने लगा. ‘‘नहीं भैया, यह वाला बुखार तो हमारे ओझाजी ही सही करते हैं, कोई भी डाक्टर सही नहीं कर पाएगा,’’ किसी ने कहा. बस्ती वालों के दिमाग में जो सालों से कूड़ा भरा गया था, वे बेचारे उसी के हिसाब से बात कर रहे थे, पर अजीत कुमार लगातार कलुआ की अम्मां को डाक्टर के पास ले जाने की जिद कर रहा था, जबकि बस्ती के लोग झाड़फूंक पर ही जोर दे रहे थे. जब काफी देर तक ओझा से कोई फायदा होता नहीं दिखा,

तब अजीत कुमार से रहा नहीं गया और वह कलुआ की अम्मां को उन के सिर के पास से पकड़ कर उठाने लगा, जिस पर बहुत से लोगों ने विरोध प्रकट किया और उसे ऐसा करने से रोक भी दिया. ‘‘हमारा इलाज ऐसे ही होता आया है और आगे भी ऐसे ही होता रहेगा,’’ एक आदमी बोला और ओझा को उस का काम आगे बढ़ाने को कहने लगा. अजीत कुमार ने हार मान ली, क्योंकि वह समझ गया था कि इन लोगों का जाति के नाम पर इस तरह से ब्रेन वाश किया जा चुका है कि ये सभी अपनेआप को समाज की मुख्यधारा से अलग ही मानने लगे हैं. ओझा का तंत्रमंत्र काम न आया.

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