बड़े शहरों में छोटे उद्योग पूरी तरह से बंद हो गए थे और उन में काम करने वाले मज़दूर बेरोज़गार हो गए थे. ऐसी हालत में जब मजदूरों की आय का स्रोत भी बंद था और शहर में रहते हुए अब उन्हें कोई भविष्य नहीं दिख रहा था, तो मजदूरों के पास अपने घर अपने गांव लौटने के अलावा कोई चारा नहीं नज़र आ रहा था.
हालांकि सरकार ने सभी से सामाजिक दूरी बना कर रखने को कहा था और किसी को भी घर से बिना मास्क लगाए बाहर जाने की अनुमति नहीं दी थी, फिर भी सैकड़ों मज़दूर ऐसे थे जिन की आय के सारे स्रोत बंद हो चुके थे और शहर में रहते हुए उन के भूखे मरने की नौबत आ गई थी. उन्हें अब शहर में रहने में डर लग रहा था और बेरोज़गारी के कारण उन के लिए इस बड़े शहर में रह पाना संभव भी नहीं दिख रहा था. इसलिए सैकड़ों मज़दूर अपनेअपने गांव जाने के लिए अपना ले जाने लायक सामान ले कर वाहनों की खोज में घूमते देखे जा रहे थे.
राजू सड़कों और टीवी पर जो भी देख रहा था, उस पर उसे विश्वास नहीं आ रहा था. उस के विश्वास को एक झटका उस के पड़ोसी चाचा ने दिया, “अरे, का देख रहे हो बबुआ, गांव लौट चलो, गांव, ये शहर बहुत बेवफा होत हैं. अब यहां कुछ नहीं बचा बबुआ. यहां रहे, तो बीमारी से भले न मरें पर भूख से ज़रूर मारे जाएंगे.”
“पर चाचा, हमारा गांव तो यहां से 400 सौ किलोमीटर दूर है और जाने का कोई साधन भी तो नहीं है. छोटे बच्चे और औरत को ले कर हम कैसे जाएंगे.”
“वह सब हम को नाही मालूम. पर इतना मालूम है कि यहां रहे, तो मर ज़रूर जाएंगे,” चाचा ने घबराए स्वर में कहा.
“हां, देखो न, मुनिया के पापा…सब लोग गांव जा रहे हैं. और अब तो यहां भी कमाई का कोई जरिया नहीं दिख रहा है, हमें अपने गांव ही लौट जाना चाहिए,” राजू की पत्नी ललिया ने अपनी राय रखी.
यह पहली बार था जब राजू ने हालात से हार कर गांव जाने का विचार किया था. पर गांव जाएगा तो दुकान का सामान कहां ले जाएगा और फिर उस ने दुकान लेने के लिए एडवांस भी तो दिया है, उसका क्या होगा?
‘तो क्या हुआ, मैं जा कर सेठ के पास सारी बात बताता हूं और अपना एडवांस वापस मांगता हूं. आखिर दुकान नहीं, तो पैसा किस बात का?’ अपने मन में सोच कर राजू सेठ के पास पंहुचा और अपना एडवांस वापस करने की बात कही. पर सेठ यह कह कर एडवांस देने से मुकर गया कि –
“अरे भैया, एडवांस भी कभी वापस किया जाता है भला?”
और राजू को खाली हाथ ही वापस आना पड़ा.
शहर से मज़दूर गांव की तरफ भागते दिख रहे थे. अफरातफ़री का माहौल था. राजू शहर छोड़ना तो नहीं चाह रहा था पर लगातार रोज़गार ठप रहने के कारण इस अजीब से माहौल ने उस के मन में भुखमरी का डर पैदा कर दिया था. इस कारण न चाहते हुए भी उस ने पत्नी से सामान बांधने को कहा.
सामान ले कर किसी बस की उम्मीद में वह कैसरबाग बसअड्डे पंहुचा और पूछताछ की. लोगों ने बताया कि कोई बस नहीं जा रही है, इसलिए हम लोग अपनेअपने गांव पैदल ही जा रहे हैं.
पैदल…मगर उस का गांव तो काफी दूर है. इतनी दूर यह सारा सामान ले कर वह गांव तक कैसे पहुंचेगा अपनी फोम की कुरसी में जंजीर डाल कर तो वह वहीँ सड़क के किनारे अपनी दुकान में ही छोड़ आया है. इस उम्मीद में कि कल को शहर वापस आना पड़े, तो कुछ तो सहारा रहेगा. पर सामान के नाम पर तीनचार पोटलियां हो गई थीं. उन्हें न तो छोड़ते बनता था और न ही ले जाते.
पर इतने सारे लोग मेरे गांव के तो नहीं दिखते ? यह रास्ता तो मेरे गांव को ही जाता है. फिर ये सारे मज़दूर भाई कहां जा रहे हैं ? अरे कहीं भी जा रहे हों, मुझे तो साथ चलने से मतलब. यह सब सोच कर राजू अपनी 4 साल की बेटी और पत्नी को ले कर पैदल ही गांव की तरफ चल पड़ा.
सिर पर सूरज चमक रहा था और पैरों के नीचे तारकोल की सड़क व आंखों के सामने एक अंतहीन रास्ता… पर एक उम्मीद ही थी जिस के सहारे राजू और उस का परिवार बढ़े चले जाता था. राजू की पत्नी ललिया की गोद में उस की बेटी थी और राजू की पीठ और दोनों हाथों में सामान के गट्ठर. राजू का जी चाहता था कि सामान यहीं कहीं फेंक दे और खाली हाथ ही चलता चले, पर सामान का लोभ ऐसा था कि यह उसे ऐसा करने नहीं दे रहा था. लिहाजा, मन कड़ा कर के राजू छोटेछोटे कदम बढ़ा रहा था.
अगर जीवन अपनी गति से चलता है तो पेट भी अपना काम पूरी ईमानदारी से करता है. इसलिए राजू और उस की पत्नी को पेट ने बता दिया था कि अब उसे भोजन चाहिए. पत्नी की आंखों में भी भूख पढ़ ली थी राजू ने. खाने के नाम पर कुछ रोटियां थीं. सही छायादार जगह देख कर सामान रख कर सब ने रोटी खाई, पानी पिया.
दोनों थकान से बेहाल हो रहे थे. पेट में रोटी गई तो राजू की पत्नी को झपकी आने लगी. “अरे, यह सोने का टेम नहीं है. अभी थोड़ा और चल लें, थोड़ी रात हो जाएगी तब कहीं डेरा डाल लेंगे,” राजू ने पत्नी को जगाते हुए कहा.
और एक बार फिर वही दृश्य, राजू अपने सामान के साथ और उस की पत्नी अपनी बेटी के साथ, कभी उसे गोद से उतार कर पैदल चलाती तो कभी गोद में ले लेती. शहर अब पीछे छूट चुका था. साथ चलते बाकी के मज़दूर साथी राजू से आगे निकल चुके थे. फिर भी राजू और उस की पत्नी चले जा रहे थे.
आगे चलने पर चारपांच लड़के बड़े बाल और लंबी सी दाढ़ी बढाए, हाथों में कैमरा ले कर राजू और उस की पत्नी की विभिन्न कोनों से तसवीर उतारने में लगे हुए थे. इस तरह के लोगों को अपने निकट देख कर राजू की पत्नी थोड़ा चौंक गई थी और इस चौंकने में उस को सड़क पर पड़ा एक नुकीला पत्थर नहीं दिखाई दिया, उस का पैर उस पत्थर के टुकड़े से टकरा गया. वह कराह उठी. उस के पैर से खून बहने लगा. खून देख राजू भी विह्वल हो उठा. राजू की पत्नी ने अपनी साड़ी का पल्ला फाड़ कर अपनी चोट पर बांध लिया. किसी तरह खून का बहना बंद हो सका.
खून तो बंद हो गया था पर इस चोट ने राजू की पत्नी की चाल में लंगड़ापन ला दिया था. वैसे भी शाम हो चली थी और पत्नी को लंगड़ाता देख कर राजू ने रात वहीं गुजारने की सोची. अपना डेरा वहीँ किनारे डाल कर राजू ने पास में बंधा चना और सत्तू खाया और पूरा परिवार घोड़े बेच कर सो गया.
फिर सुबह… और फिर वही यात्रा. पीछे से भीड़ आती और राजू के परिवार से आगे चली जाती. पर फिर भी राजू एक विश्वास के साथ आगे बढ़ा जा रहा था. तभी पीछे से एक पुलिस की जीप आई और राजू के पास आ कर रुकी. उस में 3 पुलिस वाले बैठे हुए थे. उन में से एक ने राजू को घूरा, “ए, कहां जा रहे हो ? और ये सामान चोरी का है ?”
“नहीं साहब, हम अपने गांव जा रहे हैं और ये हमारा सामान है, चोरी का नहीं,” राजू बोला.
“और यह तुम्हारी लुगाई है,” एक पुलिसवाले ने राजू की पत्नी को घूरते हुए कहा.
“जी साहब.”
“ऐसा करो, पीछे जा कर बैठ जाओ. हम आगे जा रहे हैं. तुम्हें थोड़ी दूर तक छोड़ देंगे,” एक पुलिस वाला बोला.
पैदल चलतेचलते दोनों के पैरों में छाले पड गए थे. आंखों के सामने सवारी दिखी, तो राजू की आंखों में खुशी की लहर दौड़ गई. वह फ़ौरन अपना सामान ज़मीन पर पटक कर लाली को जीप में चढ़ाने लगा.
पर यह क्या, जैसे ही ललिया अपनी बेटी को ले कर जीप मे बैठ पाई और राजू अपना सामान जीप में सामान लादने के लिए झुका, उतनी ही देर में जीप एक झटके के साथ आगे बढ़ गई. जीप ने तुरंत ही रफ़्तार भी पकड़ ली.