“भैया नमस्ते, आइए, बड़े दिन बाद आए इस बार.” इन शब्दों के साथ एक निश्च्छल मुसकराहट के साथ अपने सभी ग्राहकों का स्वागत करता था राजू. पूरी ईमानदारी से काम करना राजू के स्वभाव में ही था.
ग्राहकों की चाहे लाइन लंबी हो या छोटी, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उस की आंखें और तेज़ी से चलते हुए हाथ उस के काम की कसौटी होते थे. जब तक राजू स्वयं संतुष्ट न हो जाता तब तक ग्राहक को बैठाए रहता. स्वयं ग्राहक भी पूरी तरह राजू के काम से संतुष्ट ही दिखते.
सड़क के किनारे एक कोने पर टिन के टुकड़ों को मोड़तोड़ कर एक छतनुमा शक्ल दे दी गई और 2 टुकड़ों को इस तरह से अड़ा कर लगा दिया गया जिस से तेज़ हवा का झोंका राजू और उस के ग्राहक को डिस्टर्ब न कर सके.
टिन की छत के नीचे एक फोम वाली कुरसी, उस के सामने एक शीशा और लकड़ी की एक तिपाई पर रखा हुआ राजू की दुकान का सामान, मसलन शेविंगक्रीम, कैंची, आफ्टरशेव लोशन और एक बोतल में पानी वाला स्प्रे जिसे अपने ग्राहकों के सिर पर फिस्स की आवाज़ से पानी मारा करता था वह.
वैसे, सड़क के किनारे दुकान लगाने से पहले राजू एक सैलून में काम करता था. साफ़सुथरा सैलून, हमेशा ही एक अलग खुशबू से महकता हुआ. राजू की तरह 2 और लड़के उस सैलून में काम करते थे. आने वाले ग्राहक देर तक इंतज़ार करना मंज़ूर कर लेते थे पर राजू को छोड़ कर किसी और से कटिंग या शेविंग करवाना उन्हें मंज़ूर न था. यही कारण था कि सैलून में काम करने वाले लड़के राजू से बहुत चिढ़ते थे. वे सैलून के मालिक से अकसर राजू की शिकायतें करते रहते थे. इन्हीं शिकायतों से तंग आ कर राजू अपना अलग काम ज़माने की कोशिश कर रहा था.
जब राजू इस शहर में आज से 5 वर्षों पहले आया था तो उस के पास सिर्फ उस के हाथों का हुनर और एक उस्तरा व एक कैंची थी. जो कुछ कमाया, यहीं इसी लखनऊ शहर में ही कमाया और जब इतना कमाने लगा कि एक ठीकठाक कमरा किराए पर ले सके, तो बाबूजी ने राजू की पत्नी को भी उस के साथ शहर में रवाना कर दिया. इस के पीछे उन का तर्क यह था कि बहुरिया साथ में रहेगी तो कम से कम राजू को दो रोटी तो चैन की मिलेगी.
और यही हुआ भी. पत्नी के आने से राजू का मन भी खुश रहता और तन भी. दिनभर के काम के बाद जब उस की उंगलियां अकड़न से बेहाल हो रही होतीं तो पत्नी अपने नर्म हाथों को उस की उंगलियों के गिर्द लपेटती तो राजू आंखें मूंद लेता और स्पर्श का आनंद लेता. जल्द ही इन दोनों के बीच प्रेम का प्रतिफलन एक बेटी के रूप में आया. महल्ले के लोग कहते थे कि बेटी एकदम राजू पर ही गई है. राजू बेटी के प्रेम में दीवाना हुआ कभी अपनी बेटी के मुख को निहारता तो कभी अपनी पत्नी के मुख को. वह यह सोच कर खुश होता कि उस के हिस्से में दुनियाजहान की खुशियां आ गई हैं.
राजू की बेटी धीरेधीरे 4 साल की हो गई थी. अब राजू को जीवन से वैसे कोई शिकायत नहीं थी पर वह अपने काम से अब भी खुश नहीं था. उस की इच्छा थी एक अच्छा सा सैलून खोलने की. पर नए सैलून के लिए दुकान और फर्नीचर आदि लेने में एक लाख से ऊपर का खर्चा था. किसी तरह से पाईपाई जोड़ कर राजू ने 30 हज़ार रुपए जमा किए थे. महल्ले में ही एक दुकान दिखी, जो सैलून चलाने के लायक थी. वह राजू को पसंद आ गई. दुकान के मालिक से बात की, तो उस ने कहा, “दुकान किराए पर तो दे सकता हूं पर बेचूंगा नहीं. और किराए पर भी उस को दूंगा जो काम से कम 50 हज़ार रुपए पेशगी मेरे पास जमा कर देगा.”
“जी सेठजी, 50 हज़ार तो मेरे पास नहीं हैं, अगर आप 30 में मान जाओ तो..,” राजू ने लगभग गिड़गिड़ा कर कहा.
सेठ मान गया. राजू ने मेहनत की कमाई से जोड़े हुए पैसे उसे दे दिए और वह दुकान किराए पर ले ली और बाकी पैसों का भुगतान करने के लिए राजू नए उत्साह से लग गया. पर अचानक उसे अगलबगल की दुकान वालों व अपने ग्राहकों से पता चला कि पूरे देश और दुनिया में कोई महामारी फ़ैल रही है और कई देशों की सरकारें भी उस से घबराई हुई हैं. भारत की सरकार ने भी तत्काल प्रभाव से ही पूरा बाजार व तमाम उद्योगधंधे बंद करने की नसीहत दी है. सरकार ने यह भी कहा है कि जो जहां है वहीँ पर रुक जाए. शायद ऐसा करने की पीछे सरकार की बीमारी को न फैलने देने की मंशा रही होगी. कुछ इसी प्रकार के कयास राजू और उस की दुकान के आसपास वाले लोग लगा रहे थे.
“ए…ए…सुनाई नहीं देता क्या, अपनी दुकान समेट और भाग जा यहां से,” चारपांच पुलिस वाले अचानक से आए और राजू से अकड़ते हुए बोले.
“पर साहब, बात क्या है, हम क्यों बंद करें दुकान ?” राजू ने प्रतिवाद किया.
“तुम स्साले, अनपढ़ और जाहिल लोग. अरे, जब कुछ पता ही नहीं है तो जो हम कह रहे हैं वही करो. अपनी दुकान समेटो और भागो.”
“ज…जी.”
“स्साले, तुम ही लोगों के कारण आज कोरोना फ़ैल रहा है. किसी की बीमारी किसी को बड़ी आसानी से छुआ देते हो तुम लोग,” एक पुलिस वाले ने कहा.
“क्या साहब ? भला, हम लोग काहे को बीमारी फैलाएंगे. अरे, हम गरीब लोग है. और फिर हम तो लोगों के बाल काटने का काम करते है. लोगों के शरीर से गंदगी हटाते है. भला हम काहे को बीमारी फैलाएंगे ?” राजू ने कहा.
“बहुत बहस करता है, अभी बताता हूं तुझ को,” कह कर एक पुलिस वाले ने अपनी बेंत राजू पर तानी ही थी कि राजू ने समय की नज़ाकत को भांप लिया और दुकान समेटने लगा.
पुलिस वाले वाहन से जातेजाते यह ताकीद करते गए कि जब तक सरकार अगला आदेश नहीं देती है तब तक दुकान खोलने की कोई भी ज़रूरत नहीं है. अब, पूरा देश लौकडाऊन में रहेगा.
और यही हुआ भी. अगले कई दिनों तक बाजार पूरी तरह से बंद रहा. शहर में कोरोना नामक बीमारी से ग्रसित व्यक्ति लगातार मिल रहे थे और किसी भी देश की सरकार के पास इस बीमारी की दवाई अब भी नहीं थी.
लगातार काम करते रहने से राजू का शरीर थक गया था, इसलिए पहले कुछ रोज़ काम बंद करना पड़ गया तो आमदनी न होने का मलाल होते हुए भी राजू मन में खुश था कि चलो, इसी बहाने ही सही कुछ दिन तो अपने परिवार के साथ गुजारेंगे और यही सोच कर वह अपनी पत्नी व बेटी के साथ समय बिताने लगा.
देश की कई राजनीतिक पार्टियां कोरोनाकाल को भी फायदे के लिए भुनाने लगीं. हर नेता ने अपनेआप को इस महामारी के समय में गरीबों का मसीहा साबित करने का भरपूर प्रयास किया था. इस बीच कई बार प्रधानमंत्री राष्ट्रीय चैनल पर आ कर जनता को बिना घबराए इस बीमारी से लड़ने की नसीहत दे रहे थे. पर जनता का पेट बातों और वादों से नहीं भरता बल्कि उसे भरने के लिए गेंहू की रोटी ही काम आती है.
यही दशा अब राजू के घर पर भी हो रही थी. घर का राशन खत्म हो चुका था. बाहर की आमदनी बंद हो चुकी थी. पूरे देश में बीमारी ने पैर और भी पसार दिए थे, इसलिए लौकडाउन कहीं से भी खुलने की हालत में नहीं था.
‘और फिर किसी बीमारी को रोकने के लिए सबकुछ बंद कर के बैठ जाना एक निवारण हो सकता है पर बड़े लोगों को हम गरीबों से क्या. हमारा काम भी उन्हें बीमारी फ़ैलाने वाला लगता है. बड़े लोग, बड़ी बातें. हमारा पेट तो यह सब नहीं जानता, इसे तो दोनों टाइम खाना चाहिए,’ कमरे में बैठा राजू बुदबुदा उठा.