सरिता ने जब गांव छोड़ कर शहर में अपना नया ठिकाना बनाया तब भी उस के कष्टों ने सालों तक उस का साथ नहीं छोड़ा. पर जब उस ने इन कष्टों में से खुशियों को निकाल कर अपनी संदूक में रखने का प्रयास किया तब ही लौकडाउन ने संदूक के सारे सामान को बिखरा दिया.
वैसे भी था ही क्या उस के पास. 2 जोड़ी कपड़े और जरूरत का सामान. पर वह तो इतने में ही खुश थी न. दोनों वक्त रूखीसूखी खाने को मिल रही थी और कमाने को काम मिल रहा था. दिनभर काम कर के ऐसे थक जाते कि नंगे फर्श पर लेटते ही नींद की आगोश में समा जाते. रात का बचाखुचा खा कर फिर काम पर चले जाते.
राजू के लिए जरूर रोज दूध लेते और कभीकभी बिस्कुट का पैकेट ले लेते जिन्हें राजू दिनभर खाता रहता. राजू की बालसुलभ क्रीड़ाओं ने उन के कष्टों को हलका कर दिया था.
सरिता ने उस दिन काम से लौटते समय कुछ पैसे मांगे थे सेठ से, ‘सेठ जी, राजू को दूध लेना पड़ता है, पैसे बिलकुल नहीं हैं, सौ रुपए भी दे देंगे तो हमारा काम चल जाएगा.’
‘कल तुम्हारा हफ्ता होगा तब ही पैसे मिलेंगे. चलो, जाओ.’
सरिता कुछ नहीं बोली. पर उस के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं. उस ने साड़ी के पल्लू को टटोला जिस में 10 रुपए का सिक्का बंधा था. वह इस से आज तो राजू के लिए दूध ले ही लेगी, फिर कल तो पैसे मिल ही जाएंगे. उसे कुछ तसल्ली हुई.
दूसरे दिन सरिता और उस का पति जल्दीजल्दी नहाधो कर घर से निकले. जब वे काम पर जाने के लिए घर से निकलते थे तो चौराहे पर हलचल हो जाया करती थी. आसपास लगी चायनाश्ते की दुकानें खुल जाती थीं. यहीं से वे राजू के लिए दूध ले लेते और एकाध बिस्कुट का पैकेट भी. पर आज तो सारा चौराहा सुनसान पड़ा था. दुकानें भी बंद थीं. अब वे राजू के लिए दूध कैसे लेंगे.
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