मां की गोद में एक बेजान देह रखी थी, जिस के माथे को वे हौलेहौले सहला रही थीं, ‘‘मेरा बेटा… मेरा राजा बेटा… आंखें खोलो बेटा…’’

उस बेजान देह में मां के छूने का भी कोई असर नहीं पड़ रहा था. मां ने लोरी गानी शुरू कर दी थी, ‘‘उठ जा राजदुलारे… मेरा प्यारा बेटा… उठ जा बेटा…’’

देह खामोश थी. सारा माहौल गमगीन था. मां और बापू के घर का चिराग बु?ा गया था.

चारों ओर जमा भीड़ भारी मन से यह सब देख रही थी. किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह उस देह को अंतिम संस्कार के लिए मां की गोद से उठा सके. एक कोने में बूढ़ा पिता बेसुध पड़ा था. अंतिम संस्कार की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. इस परिवार में ऐसा कोई था भी नहीं, जिस के आने की राह देखी जा सके. एक बूढ़ी मां और एक बुजुर्ग पिता, बस इतना ही तो परिवार था.

साकेत अपने मांबाप की एकलौती औलाद था. मांबाप मजदूरी करते थे. साकेत की लाश आज ही शहर के बाहर एक पेड़ से लटकी मिली थी. पुलिस को शक था कि साकेत ने खुदकुशी की है, पर जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई, तो साफ हो गया कि उस की हत्या कर के उस की लाश को पेड़ से लटका दिया गया था.

30 साल का साकेत एक प्राइवेट कंपनी में चीफ इंजीनियर था. वैसे तो उसे नौकरी करते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था, पर उस की मेहनत और लगन के चलते उस की तरक्की जल्दी हो गई थी. मांबाप के दिन फिर गए थे.

साकेत अपने मांबाप का बहुत ध्यान रखता था. दूर शहर में होने के बावजूद वह महीने में एक बार अपने गांव जरूर आता था. घर आ कर वहां के सारे इंतजाम करता था. महीनेभर का राशन ला कर रख देता था. उस ने मांबाप को मजदूरी करने से रोक दिया था. वह ढेर सारे रुपए उन्हें दे जाता था, ताकि उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो.

पिताजी बीमार रहने लगे थे. वह उन का इलाज एक बड़े अस्पताल में करा रहा था. मां भी कुछ ज्यादा ही बूढ़ी नजर आने लगी थीं. जिंदगीभर उन्होंने मेहनत जो की थी.

एक दिन की बात है, साकेत अपनी मां की गोद में सिर रख कर बोला था, ‘‘मां, आप बाबूजी को सम?ाओ न… मेरे साथ चलें… वहीं रहना. यहां अकेले रहने से क्या मतलब है.’’

‘‘तेरे बाबूजी भला मानते कहां हैं मेरी. उन्हें तो बस अपना यही गांव अच्छा लगता है. तू ही बोलना उन से,’’ मां ने साकेत का सिर सहलाया था. साकेत की बोलने की हिम्मत नहीं हुई थी. वैसे तो वह जब भी गांव आता था, हर बार अपने मांबाप के लिए नए कपड़े लाना नहीं भूलता था. इस बार भी वह नए कपड़े ले कर आया था.

‘‘बाबूजी, आप पुराने कपड़े क्यों पहनते हैं? आप इन्हें उतारिए और ये पहनें. देखो, कितने अच्छे लग रहे हैं.’’

‘‘अरे बेटा, अब इस उम्र में मैं ऐसे कपड़े पहन कर क्या करूंगा.’’

‘‘नहीं, आप को पहनने ही पड़ेंगे,’’ साकेत ने जिद की. पिताजी को उस की जिद के आगे ?ाकना पड़ा.

नए कपड़ों में बाबूजी बहुत अच्छे लग रहे थे. मां ने जब नई साड़ी पहनी, तो उन की आंखों में आंसू आ गए थे.

‘‘अरे मां, रो क्यों रही हो…? इतनी अच्छी लग रही हो… बिलकुल साकेत की मां ही लग रही हो… चीफ इंजीनियर साकेत,’’ साकेत ने मां की आंखों से आंसू पोंछ दिए थे.

‘‘बेटा, तू जब छोटा था, तो नए कपड़ों के लिए रूठ जाया करता था और हम दिला भी नहीं पाते थे. बस, यही सोच कर आंखें भर आईं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मुझे तो आप ने कभी शर्ट कभी पैंट, ऐसे करकर के नए कपड़े तो पहनाए ही हैं, पर आप को तो मैं ने कभी नए कपड़े पहनते नहीं देखा,’’ आंसू की एक बूंद उस की आंखों से भी बह निकली थी.

एक बार रक्षाबंधन पर साकेत अड़ गया था, ‘‘मां देखो, सब बच्चों ने नए कपड़े पहने हैं, मुझे भी चाहिए.’’

मां ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, पर वह माना नहीं था. मां सेठ के पास गई थीं और कुछ सामान गिरवी रख कर उस के लिए नया कपड़ा ले कर आई थीं. नए कपड़े पहन कर ही वह मुंहबोली बहन के घर राखी बंधवाने गया था.

‘‘तुझे याद है बेटा, तू दीवाली पर फुलझड़ी और मिठाई के लिए कितना रोया था,’’ मां उस घटना की कल्पना से ही सुबक पड़ी थीं. इस बार पिताजी के गालों पर भी आंसुओं की लड़ी दिखाई देने लगी थी.

‘‘हां मां, सच कहूं तो मुझे आज भी दीवाली केवल इसी वजह से अच्छी नहीं लगती. मां, आप कितनी परेशान हुई थीं उस दिन. धिक्कार है मुझे खुद पर मां.’’

मां ने साकेत को छाती से लगा लिया, ‘‘तब तू छोटा था बेटा. नासमझ.’’ साकेत के सामने वह दीवाली की रात कौंध गई थी. पटेल साहब का घर छोटेछोटे बल्बों से रोशन था. उन का बेटा गौरव नए कपड़े पहन कर एक हाथ में मिठाई और एक हाथ में पटाखे ले कर आया था.

‘‘चलो यार, पटाखे फोड़ते हैं,’’ गौरव ने कहा, तो साकेत उस के साथ चला गया था. साकेत गौरव को मिठाई खाते देख रहा था.

‘‘मिठाई बड़ी मीठी लगती है क्या?’’ साकेत ने कभी मिठाई नहीं चखी थी. एक बार गांव में एक तेरहवीं हुई तो उसे बेसन की बर्फी खाने को मिली थी. वह उसे मिठाई समझाता था, पर गौरव तो सफेद रस में डूबी मिठाई खा रहा था. ऐसी मिठाई उस ने खाने की तो छोड़ो देखी तक नहीं थी.

‘‘हां, बहुत मीठी लगती है. पर, मैं तुझे दे नहीं सकता, क्योंकि जूठी हो गई है न,’’ गौरव बोला था.

साकेत ललचाई निगाहों से गौरव को तब तक देखता रहा था, जब तक उस की मिठाई खत्म नहीं हो गई. मिठाई खत्म होने के बाद गौरव ने फुल?ाड़ी जलाई. फुल?ाड़ी ने रंगबिरंगी चिनगारियां छोड़नी शुरू कर दी थीं.

‘‘एक फुलझाड़ी मुझे भी दो न. मैं भी जलाऊंगा,’’ साकेत गिड़गिड़ाया था.

‘‘अपनी मां से बोलो,’’ गौरव बोला था. गौरव भी बच्चा ही था न और बड़े घर का होने के चलते उसे साकेत की लालसा की कद्र नहीं थी.

साकेत रूठ गया और घर आ कर वह मां के सामने यह बोलते हुए अड़ गया था, ‘‘मुझे वह वाली मिठाई ही चाहिए…’’

मां को तेज बुखार था. पिताजी ने साकेत को समझने की काफी कोशिश की थी, पर वह नहीं माना था. पिताजी उसे उंगली पकड़ कर मिठाई की दुकान पर ले गए थे, पर उस दुकान पर वह मिठाई नहीं थी. उस दिन वह बीमार मां की छाती से चिपक कर बहुत देर तक रोता रहा था.

‘‘आप ने मुझे मिठाई भी नहीं दिलाई और फुलझड़ी भी नहीं दिलाई. मैं आप से कभी बात नहीं करूंगा,’’ सुबक उठा था साकेत. साथ ही, दीवाली की रात में उस के मांबाप भी रोते रहे थे, रातभर अपनी बेबसी पर.

स्कूल जाने के लिए भी साकेत ऐसे ही अड़ा था. मांबाप को उस की जिद के आगे झाकना पड़ा था. पिताजी तो वैसे भी बहुत मेहनत करते ही थे, मां ने भी मजदूरी करनी शुरू कर दी थी. जैसेजैसे उस की पढ़ाई आगे बढ़ती गई, उस का खर्चा भी बढ़ता गया, वैसेवैसे ही मां और पिताजी की मेहनत भी बढ़ती चली गई. पेट काट कर पढ़ाया था उसे.

यादों का बवंडर खत्म ही नहीं हो रहा था. मां ने साकेत के आंसू पोंछे, ‘‘चलो, भूल जाओ. ये कपड़े देखो, मैं कैसी लग रही हूं?’’ मां बात को बदलना चाह रही थीं.

मां ने हलुआपूरी बनाई थी. उन के लिए खुशी में यही सब से बेहतर पकवान थे.

‘‘मां, याद है जब मैं इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे कर आया था तो आप ने मेरी पुरानी पैंट में पैबंद लगाते हुए कहा था, ‘बेटा, हमेशा बड़े सपने देखो, वे जरूर पूरे होते हैं.’’’

‘‘हां, तू इतनी ऊंची पढ़ाई कर रहा था, तब भी हम तुझे एक जोड़ी कपड़े तक नहीं सिलवा पा रहे थे.’’

‘‘पुराने कपड़े पहनना तो मेरी आदत हो गई थी मां, पर मैं यह बोल रहा हूं कि मैं ने हमेशा ऊंचे सपने देखे और इसी वजह से ही तो आज चीफ इंजीनियर बन पाया हूं.’’ मां चुप थीं, तब पिताजी ने कहा था, ‘‘तुम हमेशा सचाई पर डटे रहना, तभी हमारी मेहनत कामयाब होगी.’’

‘‘पिताजी, आप लोगों ने मेरी वजह से बहुत परेशानियां झोली हैं, पर अब आप को इतना खुश रखूंगा कि आप अपने सारे दुख भूल जाएंगे,’’ साकेत भावुक हो गया था.

लौटते समय साकेत ने मां को बोल दिया था, ‘‘मां अगली बार जब आऊंगा, तो आप लोगों को साथ ले कर ही जाऊंगा. आप पिताजी को तैयार कर लेना. मैं किसी की बात नहीं मानूंगा.’’

पर साकेत इस हालत में ही वापस आया था बेजान बन कर. उस की देह को रखे बहुत देर हो चुकी थी. लोगों में अब बेसब्री नजर आने लगी थी. कुछ औरतों ने मां को जबरदस्ती अलग किया था.

‘‘मत छीनो मेरे बेटे को मुझसे. वह अभी सो रहा है. जाग जाएगा.’’

सैकड़ों आंखें नम थीं. वहां जुटे समूह को अब अंतिम क्रिया करनी ही थी, इस वजह से साकेत के शरीर को अर्थी पर रख दिया था.

साकेत की मौत खुदकुशी नहीं, बल्कि हत्या थी. साकेत उन लोगों की हैवानियत का शिकार बना था, जिन के बेईमानी वाले कामों को चीफ इंजीनियर होने के नाते वह मान नहीं रहा था.

वह कोई बड़ा ठेकेदार था, सत्ता से जुड़ा. साकेत ने उस के बनाए पुल के भुगतान के कागजों को फेंक दिया था और बोला था, ‘‘इस पुल से लाखों लोग आनाजाना करेंगे और तुम थोड़े से लालच में इसे कमजोर बना रहे हो. मैं तुम्हारा भुगतान नहीं कर सकता.’’

साकेत के इनकार से उस ठेकेदार का खून खौल गया था, ‘‘आप जानते नहीं हैं कि मेरी कितनी पकड़ है,’’ उस ने अपने  कुरतेपाजामे की सिलवटों को दूर करते हुए कमर में खुंसी पिस्तौल की ?ालक साकेत को दिखाते हुए कहा था.

साकेत डरा नहीं और बोला, ‘‘आप जो चाहें कर लें, पर मैं इस पुल को पास नहीं कर सकता.’’

इस के बाद साकेत के पास किसी नेता का भी फोन आया था, ‘क्यों अपनी जान गंवाना चाहते हो…’ पर वह कुछ नहीं बोला था.

बिल का भुगतान तो नहीं हुआ, पर एक दिन साकेत की लाश पेड़ से लटकती जरूर मिली.

मांबाप अपनी एकलौती औलाद के यों गुजर जाने से दुखी थे. साकेत के गुजरने के बहुत दिनों बाद तक माहौल गमगीन बना रहा था. उस के पिताजी बीमारी के शिकार हो चुके थे. मां ने अब साकेत के हत्यारों को पकड़वाने के लिए कमर कस ली थी. वे जानती थीं कि यह सब इतना आसान नहीं है, पर वे हिम्मत नहीं हारना चाह रही थीं.

एक बैनर को अपने शरीर से लपेटे मां शहर दर शहर घूम रही थीं. उस बैनर पर लिखा था, ‘इंजीनियर साकेत के हत्यारों को पकड़वाने में मदद करें’.

लोग उस बैनर को पढ़ते, बुजुर्ग मां की हालत पर दुख भी जताते, पर मदद करने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था. समाज पंगु जान पड़ रहा था. सभी के चेहरे पर एक खौफ दिखाई देता था.

वह बूढ़ी औरत समाज के इस खोखलेपन से नाराज नहीं थी. वह जानती थी कि कोई भी अपने साकेत को नहीं खोना चाहता और इसी खौफ से लोग मदद करने के लिए आगे नहीं आ रहे थे.

बूढ़ी मां इस सब की परवाह किए बगैर दौड़ रही थीं अनजान रास्ते पर बगैर किसी सहारे के. वे प्रदेश की राजधानी जा पहुंची थीं और विधानसभा के सामने खड़े हो कर अपने बेटे के हत्यारों को पकड़ने की अपील कर रही थीं.

चारों ओर से भारी भीड़ ने उन्हें घेर लिया था. वे रो रही थीं और अपील कर रही थीं कि कोई तो आगे आए उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए. भीड़ तो केवल तमाशा देख रही थी.

सिक्योरिटी वालों ने मां को गिरफ्तार कर लिया, पर उन का चिल्लाना जारी था. धीरेधीरे वे निढाल हो गईं और मर गईं अपने बेटे को इंसाफ दिलाए बगैर.

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