अभी तक मामा अस्पताल से नहीं लौटे थे. मामी बड़ी बेचैनी से बारबार हर आनेजाने वाली गाड़ी के रुकने की आवाज सुन कर दरवाजे की ओर भागतीं और निराश हो कर फिर लौट आतीं.

दीपक ने मामी से कहा, ‘‘मामी, कब तक इंतजार कीजिएगा, पकौड़े बिलकुल ठंडे हो जाएंगे. अब आप भी खाना खा लीजिए. कोई मरीज आ गया होगा.’’

‘‘नहीं, इतनी देर तो वे कभी नहीं लगाते. आज तो कोई बड़ा आपरेशन भी नहीं करना था. पता नहीं, क्यों…’’ इतना कह कर मामी बिस्तर पर लेट कर एक पत्रिका पलटने लगीं.

उधर, सुमित्रा ड्राइंगरूम से मामी के चेहरे को एकटक निहार रही थी. मामी के चेहरे पर डर, चिंता और शक के मिलेजुले भाव उभरे थे. अकसर ऐसी हालत में यह सब देख कर सुमित्रा के चेहरे का रंग उड़ जाता था. शायद मामी की चिंता उस की भी चिंता थी. मामी को खुश देख कर वह भी खुश होती थी.

सुमित्रा ने अपने कामकाज से मामी का मन मोह लिया था. वह मामी को तो एक भी काम नहीं करने देती थी. खुद झपट कर उन का काम करने लग जाती थी. तब मामी दुलार से उसे ऐसे देखतीं, जैसे कह रही हों, ‘तुम मेरी कोख से क्यों नहीं जनमी?’

इतने में मामाजी आ गए. उन के हाथों में ढेर सारी मालाओं को देख कर मामी अचरज से भर उठीं. मामी कुछ पूछें, इस से पहले मालाओं का ढेर टेबल पर रखते हुए मामा ने बताया कि वे अंबेडकर जयंती में गए थे.

सुमित्रा फूलों को बड़े प्रेम से निहार रही थी. उस के पल्ले मामा की बात नहीं पड़ी.

‘‘वह क्या बाई?’’ उस ने पूछा.

‘‘अरे, छोटी जाति वालों ने साहब को बुलाया था. उन्हीं ने इन को माला पहनाई है. वे सब साहब को बहुत मानते हैं. ऊंचनीच, छोटी जाति, बड़ी जाति में हम लोग भेद नहीं करते. समझी?’’ मामी ने चहक कर कहा.

‘‘सच बाई?’’ सुमित्रा के पूछने में अचरज, शक और भरोसा, तीनों का मिलान था.

‘‘हांहां, एकदम सच,’’ मामी ने कहा.

उसी दिन शाम को कुछ लोगों का जुलूस जा रहा था. दूर से कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे कौन लोग हैं और क्या चिल्ला रहे हैं. मामी को जब कुछ समझ में नहीं आया, तो जुलूस में जा रहे एक लड़के को बुला कर उन्होंने पूछा.

वह ‘जलगार जना, जलगार जना,’ कह कर चला गया. मामी ‘जलगार जना’ का मतलब नहीं समझ पाईं. उन्होंने सुमित्रा से पूछा.

तब पलभर के लिए सुमित्रा सकपका गई. मामी को ताकते हुए दोनों हाथ उस ने इनकार में नचा दिए. शायद मामी की पेशानी पर चिड़चिड़ाहट भरी सिलवटें उभरी देख कर वह सहम गई थी या ‘जलगार जना’ शब्द की पहचान तक से अपने को अलग रखना चाहती थी.

दरअसल, सुमित्रा काम बड़ा अच्छा करती थी. अकसर उस के काम की बड़ाई मामी बड़े साफ दिल से अपनी सखीसहेलियों के बीच करती रहती थीं. इस का नतीजा यह हुआ कि उस से फायदा उठाने के लिए मामी की एक सहेली सीता ने उसे चुपके से फोड़ लेना चाहा.

एक दिन जब मामी के घर से काम निबटा कर सुमित्रा अपने घर जा रही थी, तभी रास्ते में खड़ी सीता उसे अपने घर ले गई. कुछ लगाईबुझाई की और अगले महीने से ज्यादा तनख्वाह पर काम करने के लिए राजी कर लिया जैसा कि अकसर लोग नौकरानी रखने से पहले करते हैं.

सीता एक दिन चुपके से सुमित्रा के पीछेपीछे गई. उसे शक था कि कहीं पूछने पर गलत घर न दिखा दे. गली तक उस के पीछे पैदल चलने के बाद उस ने एक घर में उसे घुसते देखा. वह उसी समय तेज चल कर उस के सामने पहुंची और पूछ बैठी, ‘‘तुम यहां रहती हो?’’

‘हां,’ में जवाब सुन कर सीता वहां से जल्दी हट गई, जैसे अंधे कुएं में गिरतेगिरते बची हो. उस के मन में एक खलबली सी थी, जिसे कहने के लिए वह बेचैन थी.

सीता दूसरे ही दिन मामी के पास आई और बोली, ‘‘देखिए, बुरा मत मानिएगा. आप की नौकरानी एक दिन मेरे घर आई और कहने लगी कि भूखी हूं. उस वक्त तो घर में कुछ था नहीं, इसलिए मैं ने होटल से मिठाई और डोसा मंगवा कर खिला दिया. पर वह तो खा भी नहीं रही थी. कह रही थी कि छोटे भाई के लिए घर ले जाऊंगी. फिर कहने लगी कि मेरा लहंगा फटा है. मुझे तरस आ गया और अपनी एक मैक्सी दे दी.’’

इतना सुनना था कि मामी गुस्से में उबलने लगीं. उन का तमतमाता चेहरा देख कर सीता असली बात तेजी से कह गई, ‘‘अरे, वह एससी कास्ट वाले सफाई का काम करते हैं.

मैं तो उस का घर चुपके से देख आई हूं. फिर, मैं ने चौकीदार को भी भेज कर पता लगवाया. वह भी यही कह रहा था.’’

ये बातें सुनने के बाद भी मामी के चेहरे पर कोई तीखे भाव नहीं दिखे, तो सीता सपाट शब्दों में कहने लगी, ‘‘मैं तो इन लोगों से काम नहीं करा सकती, क्योंकि ये लोग बहुत गंदे होते हैं.’’

तब भी मामी को गुस्सा उस के एससी होने पर नहीं के बराबर और अपनी सहेली पर ज्यादा हो रहा था. वे तो सोच रही थीं, ‘कैसी सहेली है? भला सुमित्रा क्या जाने इस का घर? आज तक उन से तो उस ने कभी मजाक में भी ‘भूख लगी है’ नहीं कहा. इस के घर जा कर क्यों कहेगी? जरूर उस ने काम करने से इनकार कर दिया होगा, तभी यह लगाईबुझाई कर रही है.’

मामी को सहीगलत तो सूझ नहीं रहा था. अलबत्ता, सहेली के सामने वे अपने को बड़ा शर्मिंदा महसूस कर रही थीं. ठीक उसी तरह जब छोटा बच्चा पड़ोस में जा कर ‘भूख लगी है, कुछ खाने को दो,’ कह कर मां को शर्मिंदा करता है.

इस झेंप को ढकने के लिए मामी अपनी सहेली से पूछने लगीं, ‘‘एससी होने का क्या सुबूत है तुम्हारे पास?’’

सीता तपाक से बोली, ‘‘अरे, क्या इस की दादी को नहीं देखा? रोज सिर पर एक टोकरी रख कर निकलती है. रास्तेभर कागज बटोरती, प्लास्टिक का टूटाफूटा सामान कूड़े से ढूंढ़ती इसी रास्ते से जाती है. ये जितनी औरतें सिर पर टोकरी रख कर निकलती हैं, सब छोटी जात हैं.’’

‘‘उसी वक्त एक औरत सिर पर टोकरी रखे सामने से आती दिखाई पड़ी. मामी ने सीता से पूछा, ‘‘क्या यह औरत भी?’’

‘‘हांहां, यह भी. अभी देखिएगा,’’ सीता ने कहा.

तभी वह औरत सड़क के उस पार वाले घर में घुस गई और टोकरी नीचे रख कर घर की मालकिन को बुलाने लगी. पता लगा कि वह तो सब्जी बेचने वाली थी. तब सीता ने कई और दलीलें दीं, पर मामी ने तो यह मान लिया था कि सीता झूठी है.

सुमित्रा को अचानक हटा देने का डर भी मामी के मन में कहीं न कहीं था. एक तो जल्दी नौकरानी मिलती नहीं, दूसरे एससी मान कर हटाना भी तो गलत होगा.

अब सीता की एकएक बात मामी की समझ में आने लगी. अपनी सहेली द्वारा लगाए गए जाति के लांछन की सचाई भी उन्होंने देख ही ली थी. वे मुसकरा रही थीं कि सीता कैसे अपनी ही बात से झूठी साबित हो गई.

दूसरे दिन मामी ने सुमित्रा को डांटा, ‘‘मुझे क्यों नहीं बताया कि सीता ने तुझे मैक्सी दी है?’’

तब सीधीसादी सुमित्रा ने जोकुछ बताया, उस से सबकुछ साफ हो गया. उस ने बताया कि किस तरह सीता उसे घर ले गई. अहाते की सफाई कराई. पौधों की जड़ों में गोबर डलवाया और 3 घंटे की मजदूरी की एवज में उसे पैसे के बदले पुरानी मैक्सी दी और डोसा खिलाया. साथ में मामी को कुछ भी नहीं बताने की हिदायत भी दी.

यह सुन कर मामी चिढ़ कर सीता पर बुदबुदाने लगीं, ‘‘कौन कहता है उसे पागल? वह तो खुद दूसरों को पागल बना दे. वह तो दूसरों की हमदर्दी का नाजायज फायदा उठाती रहती है और इसी ओट में चालें भी चलती रहती है.’’

उस दिन के बाद सीता ने मामी के घर आना बंद कर दिया. मामी ने कई बार देखा कि वह पड़ोस के घरों में आतीजाती थी, पर मामी को इस बात का बिलकुल भी दुख या मलाल नहीं था कि वह उन के घर नहीं आती. उन्हें उस का दूर रहना ही अच्छा लग रहा था.

एक बार सड़क पर दीपक से सीता मिली थी. दीपक के पूछने पर सीता ने कहा था, ‘‘मैं तो तुम्हारी मामी के घर पानी भी नहीं पी सकती.’’

यह बात दीपक ने मामी से नहीं कही थी, क्योंकि उस से मामी के घाव फिर हरे होते. दीपक ऐसा नहीं चाहता था.

उस दिन सुमित्रा बड़ी लगन से मामी के पैर दबा रही थी और वह बड़े दुलार से उस की ओर देख रही थीं. उसे कुछ खोया देख मामी ने पूछा, ‘‘क्या बात है सुमित्रा?’’

वह हंस कर बोली, ‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ बात तो जरूर है. बड़ा सन्नाटा छाया है. बता, क्या बात है?’’

भोलीभाली सुमित्रा दुखभरी आवाज में कहने लगी, ‘‘बाई, उस जमाने में मेरी दादी को बड़े दुख उठाने पड़े थे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अब भी मेरी दादी बड़ी जाति वालों से डरती हैं.’’

‘‘यह बड़ी जाति और छोटी जाति क्या होती है?’’ मामी ने डपटा.

सुमित्रा बड़ी सावधान थी. साफसाफ न बता कर इशारों में बता रही थी, जैसे दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. वह बोली, ‘‘गांव में मेरी दादी को एक बार पुलिस वालों ने खूब मारा था.’’

फिर वह थोड़ा ठहर कर बोली, ‘‘शहर में डर नहीं है बाई.’’

मामी समझ नहीं पा रही थीं कि आखिर सुमित्रा कहना क्या चाह रही थी.

मामी को हैरानी में पड़ा देख सुमित्रा बोली, ‘‘गांव में तो दादी की परछाईं से भी लोग दूर भागते थे. यहां तो हम लोग मंदिर भी जाते हैं, कोई नहीं रोकता.’’

मामी ने पूछा, ‘‘तुम्हारी दादी गांव में करती क्या थीं?’’

‘‘सूअर चराती थीं,’’ जल्दी में या असावधानी में सुमित्रा के मुंह से सच निकल गया. फिर सफाई देते हुए वह बोली, ‘‘अब नहीं चराती हैं.’’

मामी तो मानो आसमान से धरती पर गिरी हों. वह अपने पैर उस के हाथों से धीरे से छुड़ा कर बैठ गईं. सीता की जानकारी में थोड़ा सा भी झूठ उन्हें दिखलाई नहीं पड़ रहा था. उन की आंखों के सामने वह सीन भी घूम गया, जब उन्होंने ‘जलगार जना’ का मतलब सुमित्रा से पूछा था, तब उस का चेहरा फक्क पड़ गया था. उन्होंने भी इधर जवान लड़कियों और औरतों को सड़क से कचरा बीनते देखा था, लेकिन उन में से किसी ने कभी आपस में बातचीत नहीं की थी. उन्हें इतमीनान होता चला गया था कि ये एससी होतीं, तो आपस में बोलतीं जरूर, पर नहीं.

आज मामी को याद आ रहा था उन लड़कियों को देख कर सुमित्रा या तो ठिठक कर कठोर चेहरा बना लेती थी या दूसरी तरफ मुंह मोड़ लेती थी. ऐसा वह क्यों करती थी, यह पहेली मामी सुलझा नहीं पा रही थीं.

मामी को यह भी याद आ रहा था कि अंबेडकर जयंती के दूसरे दिन सुमित्रा अपने देर से आने की सफाई देते हुए बोली थी, ‘‘बाई, कल हमारे दादीबाबा 20 कोस गए थे.’’

‘‘भला क्यों?’’

‘‘50-50 रुपए और एक जून का खाना

मिला था,’’ फिर थोड़ा रुक कर वह बोली थी,

‘‘मैं भी जाती तो 50 रुपए पाती, पर आप के डर से नहीं गई.’’

‘‘किसलिए रुपए मिले थे?’’

‘‘पता नहीं,’’ दोनों हाथ बड़ी सरलता व ईमानदारी से चमका कर सुमित्रा ने कहा था. तब मामी आदतन झुंझला गई थीं. आज दीपक को लग रहा है कि जहां दो जून की रोटी के लाले पड़े हों, पीने के लिए पानी न हो, वहां बौराई आबादी यही

तो करती है. उन का सारा समय तो जुगाड़ में बीत जाता है. ऊपर से उन का ठग मुखिया साल में एक बार 50 रुपए व एक वक्त के भोजन के बल पर चुनाव के आसपास नेताओं की सभा की शोभा बढ़ाता है, वोट दिलाता है.

एकाएक मामी को सुमित्रा में अनेक कमियां नजर आने लगी थीं. चूंकि महीना पूरा होने में एक हफ्ता बाकी था, इसलिए मामी ने उसे अचानक हटाने का पाप अपने सिर पर नहीं लिया. महीना पूरा होते ही उन्होंने उसे आगे से काम पर न आने को कह दिया.

उस वक्त यह बात देखने को मिली कि सुमित्रा के निकालते ही पड़ोसी बड़े खुश हो गए थे. बहुत लोग तो मामी को बधाई देने लगे थे मानो मामी ने सच में बड़ी होशियारी का काम किया.

कुछ ही दिनों बाद मामी अंदर ही अंदर अपने से लड़ती हुई बीमार पड़ गईं. एक हफ्ते बुखार में तपती रहीं.

दीपक को पता था कि मामी के मन में कुछ टीस रहा है. पर वे कह नहीं पा रही थीं मानो वे खुद से जूझते हुए पूछ रही थीं, ‘छुआछूत की प्रथा गई कहां है? बस, गंदगी के ऊपर कालीन बिछा दिया गया है. इतनी जवान, गरीब छोकरियां सड़क पर घूमा करती हैं. कोई उन्हें काम पर नहीं रखता. मैं ही कौन भली हूं? भूल से रख लिया, तो सचाई जानते ही निकाल दिया.’

यह सब देखने के बाद दीपक के दिमाग में एक महापुरुष के शब्द घूमने लगे, ‘यदि अछूतों को अछूत इसलिए माना जाता है कि वे जानवरों को मारते हैं, मांस, रक्त, हड्डियां और मैला छूते हैं, तब तो हर नर्स और डाक्टर को भी अछूत माना जाना चाहिए, जो खाने या बलि देने के लिए जानवरों की हत्या करते हैं.’

ये शब्द बारबार घंटे की तरह दीपक के दिमाग में बज रहे थे. तब वह मामी से यह पूछने के लिए बेचैन हो उठा, ‘तो क्या हम सब और मामा अछूत नहीं हुए?’

उधर सुमित्रा यह जान चुकी थी कि ऊंची जाति वाले आसानी से नहीं बदलने वाले. वे उन लोगों को बारबार एहसास दिलाएंगे कि तुम्हारा जन्म नीच कुल में हुआ है, नीचे रहोगे. वक्तजरूरत पर जरूर काम के लिए बुला लेंगे. कुरसी पर बैठा भी देंगे, पर उतरते ही उसे छींटे मार कर धोने से बाज नहीं आएंगे.

दीपक की मामी भी उस मकड़जाल से नहीं निकल पाईं, जो समाज ने उन के चारों ओर बुन रखा था. उन्हें सुमित्रा की जाति से न कोई शिकायत थी, न अलगाव पर पड़ोसियोंरिश्तेदारों का वे क्या करें. सुमित्रा ने उन्हें कब का माफ कर दिया, पर मामी खुद को सालों तक माफ नहीं कर पाईं.

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