ट्रेन अहमदाबाद स्टेशन से अपने तय समय पर शाम के पौने 6 बजे रवाना हुई. सामान के नाम पर एकलौता बैग राजन ने ऊपर लगेज स्टैंड पर रखा और फर्स्ट क्लास कंपार्टमैंट की आरामदायक सीट पर अधलेटा सा खिड़की के कांच से बाहर पीछे छूटते लोगों को देखता अपने घर के खयालों में गुम हो गया.

ट्रेन जितनी रफ्तार से मंजिल की ओर दौड़ रही थी, राजन का दिमाग उतनी ही रफ्तार से यादों के पथरीले रास्तों पर दौड़ रहा था. उन रिश्तों के आसपास, जिन में 2 छोटे भाई, बहन स्नेहा और रवि थे. रवि जिस से राजन के परिवार का खून का रिश्ता नहीं था.

वे स्कूल के खुशगवार दिन थे. पढ़ने की लगन के बीच शाम को खेलना और मस्त रहना राजन के साथ एक आम दिनचर्या हुआ करती थी. इसी बीच पापा का खेत के काम में हाथ बंटाने का आदेश मिलना एक तरह का बदलाव ले कर आता था.

‘‘साहब, रात में खाना चाहिए क्या?’’ ट्रेन कैटरिंग स्टाफ का एक लड़का सामने आ कर खड़ा हो गया, तो राजन वर्तमान में लौट आया.

‘‘क्या है खाने में?’’

‘‘वैज या नौनवैज?’’ उस स्टाफ ने बड़े अदब से पूछा.

‘‘वैज...’’ राजन ने भी उतनी ही सहजता के साथ जवाब दिया.

‘‘मटरपनीर, दाल अरहर, मिक्स वैज, चावल, चपाती, रायता और सलाद.’’

कुछ सोच कर राजन बोला, ‘‘ठीक है, भेज देना.’’

लड़का चला गया, तो राजन ने एक बार खिड़की से बाहर नजर डाली. ट्रेन खेतों, पेड़पौधों और छितराई बस्तियों को पीछे छोड़ते हुए सरपट दौड़ रही थी.

राजन ने उठ कर बैग से आज ही बुक स्टौल से खरीदी पत्रकार रवीश कुमार की एक किताब ‘बोलना ही है’ निकाली और बर्थ पर बैठ कर पढ़ने लगा.

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