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मेरा 5 वर्षीय बेटा वरुण उन दिनों बहुत गुमसुम रहने लगा था. जब से उस की दादी की मृत्यु हुई तभी से उस का यह हाल था. मांजी की अचानक मृत्यु ने हमें भी हतप्रभ कर दिया था, पर वरुण पर तो यह दुख मानो पहाड़ बन कर टूट पड़ा था. मुझे आज भी याद है, हमें रोते देख कर किस तरह वरुण भी अपनी दादी की मृतदेह पर गिर कर पछाड़ें खाखा कर रो रहा था. उस की हालत देख कर मैं ने अपनेआप को संभाला और उसे वहां से उठा कर भीतर वाले कमरे में ले गई थी. मेरे साथ मेरा देवर प्रवीर भी भीतर आ गया था.

‘दादी हिलडुल क्यों नहीं रहीं?’ उस ने सिसकियों के बीच पूछा.

‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं,’ प्रवीर बोला.

‘पर वे तो यहीं हैं. बाहर लेटी हैं. आप लोगों ने उन्हें जमीन पर क्यों लिटा रखा है?’

‘उन की मृत्यु हो चुकी है,’ प्रवीर दुखी स्वर में बोला.

‘मृत्यु, क्या मतलब?’

उस ने पूछा तो मैं एक क्षण के लिए चुप हो गई फिर उसे डांटते हुए कहा, ‘बेकार सवाल नहीं पूछते.’ मगर वह मेरी डांट से अप्रभावित फिर अपना सवाल दोहराने लगा. इस बार प्रवीर ने शांत स्वर में उसे समझाया कि उस की दादी अब उसे कभी नजर नहीं आएंगी. न वे उसे कहानियां सुनाएंगी, न उस से स्कूल की बातें सुनेंगी.

‘ये सब तुम क्यों बता रहे हो उस नन्ही जान को?’ मैं ने भर्राए कंठ से पूछा.

‘बताना जरूरी है भाभी, आजकल के बच्चों को बहलाया नहीं जा सकता. सचसच बता देना ही ठीक रहता है,’ प्रवीर की आवाज नम हो आई थी.

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