कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

मैंअपने बैडरूम में लगे आदमकद आईने के सामने खड़ी अपनेआप को देख रही थी. मेरे चेहरे पर खुशी और गम के मिलेजुले भाव आजा रहे थे. पता नहीं क्यों आज मेरा अतीत मुझे बारबार याद आ कर परेशान कर रहा था. कमरे के बाहर से शादी में बजने वाली शहनाई की धुन की धीमी आवाज आ रही थी. एक बात बताऊं, शादी किसी और की नहीं, बल्कि मेरी ही हो रही थी.

घर में अभी मेरी ही विदाई की तैयारी चल रही थी. सभी उसी में बिजी थे. मैं भी अभी दुलहन के लिबास में ही आईने के सामने खड़ी थी.

शादी से पहले तकरीबन सभी लड़कियां अपनी ससुराल और पति के बारे में ढेर सारे सपने संजोती हैं, मगर मैं ने आज तक कभी कुछ नहीं सोचा था. अगर मैं कुछ सपने संजोती भी तो कितने…? वैसे भी मेरी जैसी बदनसीब लड़की को सपने देखने का हक कहां होता है. फिर भी मैं जितने सपने देखती, उस से सैकड़ों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों गुना ज्यादा अच्छा परिवार और पति मुझे मिलने जा रहा था.

मेरे होने वाले पति किसी फिल्मी हीरो से कम दिखने में नहीं थे. अच्छी सरकारी नौकरी थी. पिता के एकलौते बेटे थे. पूरा परिवार सुखी और अमीर था.

ऐसा पति और परिवार पाने के बावजूद भी मैं आज अंदर से खुश नहीं थी, जबकि मुझे तो खुशी से पागल हो कर खूब नाचना चाहिए था, मगर मैं अभी अपनी पुरानी यादों के भंवर में ही उलझी बुझीबुझी सी खुद से ही बातें करने में लगी थी.

आप को एक बात बताऊं, सुन कर आप भी चौंक जाएंगे. मैं जिस घर में अभी दुलहन बनी आईने के सामने खड़ी थी, उस घर की मैं नौकरानी थी… नौकरानी कश्मीरा. मगर आज तक मेरे मालिक और मालकिन ने कभी मुझे घर की नौकरानी नहीं समझा था. वे दोनों हमेशा मुझे अपनी बेटी मानते थे.

मैं आई तो थी इस घर में 14 साल पहले नौकरानी बन कर ही, लेकिन आज इस घर की बेटी बन कर शादी के सुर्ख लाल जोड़े में विदा होने जा रही थी.

मगर, अब मैं जो बात आप को बताने जा रही हूं, उसे सुन कर तो आप के पैर तले की जमीन खिसक जाएगी. आप को पता है कि मेरी अपनी मां, जिस ने मुझे जन्म और यह नाम दिया था, भी अभी जिंदा थीं.

मेरी बात सुन कर आप के होश उड़ गए न? जरा सोचिए, मैं कैसेकैसे और किनकिन हालात से गुजर रही होऊंगी. मैं आज आप को अपनी पूरी कहानी सुनाती हूं, शायद आप को बताने से मेरे दिल का भी बोझ कुछ कम हो जाएगा.

बात आज से 35 साल पहले की है. उस समय मेरे पिता यानी गणेश गिरी की उम्र 10 साल की थी. परिवार में मेरे दादाजी यानी दीनानाथ गिरी और मेरे पिताजी के अलावा कोई और नहीं था. दादीजी 5 साल पहले ही मर गई थीं.

मेरा परिवार उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक छोटे से शहर सिकंदरपुर में रहता था. यह बलिया से तकरीबन

30-35 किलोमीटर दूर है.

मेरे दादाजी को धर्मग्रंथ और हस्त विज्ञान का अच्छा ज्ञान था. वे पूजापाठ और लोगों का हाथ देख कर उन का भविष्य बताने का काम करते थे. सभी उन की बहुत इज्जत करते थे.

मेरे दादाजी की प्रबल इच्छा थी कि उन का बेटा यानी मेरे पिताजी भी पढ़लिख कर धर्मग्रंथों के अच्छा ज्ञाता बनें और उन से भी बड़े विद्वान बनें, मगर मेरे दादाजी की सोच के एकदम सब उलटा हो रहा था.

मेरे पिताजी को संस्कृत कौन कहे, उन का तो पढ़नेलिखने में ही मन नहीं लगता था. दादाजी बहुत डांटते और समझाते, मगर कोई फायदा नहीं होता था. मेरे पिताजी दिनभर अपने दोस्तों के साथ सिर्फ मटरगश्ती करने में लगे रहते थे.

और आखिर में वही हुआ, जिस का मेरे दादाजी को डर था. मेरे पिताजी मैट्रिक में फेल हो गए थे, 1-2 बार नहीं, बल्कि 4-4 बार. दादाजी ने पिताजी को मैट्रिक का इम्तिहान दिलवाया था, मगर हर बार पिताजी फेल ही होते थे.

मेरे दादाजी ने गुस्से में आ कर यह सोच कर कि शायद शादी करने से वह संभल जाएगा, इसलिए उन्होंने मेरे पिताजी की शादी करवा दी थी.

पूरे सिकंदरपुर में मेरे दादाजी का अच्छाखासा नाम था, जिस के चलते मैट्रिक फेल होने के बावजूद मेरे पिताजी की शादी एक अच्छे परिवार में हो गई थी.

मेरी मां पुष्पा गिरी दुलहन बन कर मेरे पिताजी के घर आ गई थीं. वे बहुत खूबसूरत और पढ़ीलिखी थीं, पर दादाजी ने जिस सोच के साथ मेरे पिताजी का ब्याह कराया था, वह कामयाब नहीं हुआ. मेरे पिताजी ने पढ़ाईलिखाई तो छोड़ ही दी थी, वे अब भी कोई कामधंधा नहीं करते थे. सिर्फ दिनभर दोस्तों के साथ घूमा करते थे.

शादी के एक साल बाद ही मेरा यानी इस कश्मीरा गिरी का धरती पर आना हुआ और ठीक 2 साल बाद मेरे छोटे भाई अमर गिरी का. अब हम परिवार में 5 सदस्य हो गए थे, मगर कमाने वाले अभी भी सिर्फ मेरे दादाजी ही थे. नतीजतन, घर चलाने में अब बहुत दिक्कतें होने लगी थीं.

पहले सिर्फ दादाजी ही मेरे पिताजी को उन की फालतू हरकतों पर डांटा करते थे, मगर अब मां भी बातबात पर पिताजी को ताने देने लगी थीं.

इस बात से घर में अब आएदिन पतिपत्नी, बापबेटे में पारिवारिक झगड़े शुरू हो गए थे. दादाजी भी अब इस चिंता में बीमार रहने लगे थे.

मुझे आज भी वे दिन याद थे, क्योंकि तब तक मैं 5 साल की हो गई थी. पिताजी दादाजी से किसी बात को ले कर बहस कर रहे थे. पहली बार मेरी मां ने भी पिताजी के पक्ष में हो कर दादाजी को कुछ बोला था.

मां का साथ पा कर पिताजी का जोश और बढ़ गया. इस का नतीजा यह हुआ कि मेरे दादाजी गुस्से में अपने खुद के बनाए घर को हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए थे. मेरे पिताजी ने मना करना तो दूर उलटे उन्हें तुरंत घर से जाने को कह दिया था.

सिकंदरपुर से कुछ ही दूरी पर एक शहर है मऊ. वहां मेरी बूआ रहती थीं, जो मेरे दादाजी को हमेशा अपने पास बुलाती थीं. दादाजी अभी तक मना करते आ रहे थे, मगर उस दिन मेरे पिताजी के रवैए से ऊब कर वे वहीं रहने के लिए चले गए थे.

मेरे दादाजी के घर छोड़ कर जाने से सब से ज्यादा खुशी शायद मेरी मां को हुई थी, क्योंकि दादाजी के जाते ही मेरी मां का बरताव और चालचलन एकदम बदल गया था. जहां पहले घर में भी वे घूंघट निकाले रहती थीं, वहीं अब सूटसलवार और जींसटीशर्ट पहनने लगी थीं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...