ऐसा लगता है कि वक्त की कीमत नहीं समझना और आधा घंटा देरी संबंधी भारतीय मानक समय के कुख्यात मुहावरे को हमारे सरकारी कर्मचारियों ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है, वरना इस बारे में सरकार को बारबार अपनी चिंता नहीं प्रकट करनी पड़ती. इस का एक उदाहरण तब देखने को मिला, जब दिल्ली के नवनियुक्त चीफ सैक्रेटरी एम एम कुट्टी ने दिसंबर 2016 के आखिरी हफ्ते में सभी विभागों के सचिवों को निर्देश जारी कर के लेटलतीफ बाबुओंकर्मियों का पता लगाने और आदतन ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ा ऐक्शन लेने को कहा. मोदी सरकार पहले भी दफ्तरों में देर से आने वाले कर्मचारियों से परेशान है और वह सरकारी मंत्रालयों, विभिन्न विभागों और दफ्तरों में कामकाज की लुंजपुंज शैली में लगातार आग्रह के बावजूद, सुधार होता नहीं देख कर लेटलतीफ कर्मचारियों पर नजर रखने व उन पर कार्यवाही करने का संकेत देती रही है. पर लगता है कि सरकारी बाबुओं ने ठान रखा है कि सरकार चाहे जितने डंडे चला ले वे अपनी लेटलतीफी की आदत नहीं बदलेंगे.
उल्लेखनीय है कि डिपार्टमैंट औफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) वर्ष 2015 में जारी एक निर्देश में साफ कह चुका है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए आदतन देर से दफ्तर आना दंडनीय अपराध है और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही की जा सकती है. इस के लिए सर्विस रूल्स (नौकरी संबंधी नियमावली) का हवाला दिया गया था. जारी आदेश में कहा गया था कि सरकारी कर्मचारियों के लिए समय की पाबंदी सुनिश्चित करने का दायित्व मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों का है, इसलिए उन के अधिकारी विभाग के कर्मचारियों की उपस्थिति का रिकौर्ड रखें.
डीओपीटी ने सभी अधिकारियों से कहा था कि वे उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक सिस्टम को ही आधार मानें और उसी आधार पर कार्यवाही करें. पर लेटलतीफी की आदत से मजबूर सरकारी कर्मचारियों ने बायोमैट्रिक सिस्टम से बचने के कई उपाय कर रखे थे और वे उपस्थिति दर्ज करने के लिए दूसरे तरीकों को अपनाए हुए थे.
यही नहीं, जिन कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने के आधुनिक तौरतरीके अपना लिए गए हैं, वहां भी उपस्थिति का रिकौर्ड नहीं रखा जाता. इस से कुछ समय बाद यह पता नहीं चलता कि एक निश्चित समयावधि के बीच कौन सा कर्मचारी आदतन समय पर नहीं आता रहा है.
डीओपीटी के निर्देश में यह भी सुझाया गया था कि एक सरकारी कर्मचारी के लिए एक हफ्ते में 40 घंटे (8 घंटे प्रतिदिन) की उपस्थिति अनिवार्य है. ऐसी स्थिति में यदि कोई कर्मचारी महीने में 2 बार 30 मिनट की देरी से आता है, तो उसे समय की पाबंदी में छूट मिल सकती है, लेकिन तीसरी बार इतनी ही देरी पर उस की आधे दिन की छुट्टी काट ली जाएगी. यदि वह आदतन ऐसा करता रहता है, तो वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट (अप्रेजल) में उस के बारे में नकारात्मक टिप्पणी की जा सकती है.
आदत से मजबूर
सरकारी विभागों में काम के वक्त अधिकारियों व कर्मचारियों का नदारद रहना और अपनी कुरसी पर देर से आना खास कर तब अखरता है, जब उस अधिकारी व कर्मचारी के जिम्मे जनता से जुड़े कामकाज हों. ऐसी स्थिति में लोग लंबी लाइन लगा कर कर्मचारी व अधिकारी के दफ्तर और अपनी सीट पर विराजमान होने का लंबा इंतजार करते रहते हैं. ऐसे कर्मचारी को यदि कोई व्यक्ति भूलवश देरी से आने के लिए कोई बात कह दे, तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का कोई काम हो पाना नामुमकिन ही हो जाता है.
यही नहीं, दफ्तर आ कर भी अपनी सीट से गायब हो जाना भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों की आदत में शुमार हो गया है, वे घंटों तक दफ्तर तो क्या, उस के आसपास तक नजर नहीं आते, भले ही लाइन में जनता अपने सौ काम छोड़ कर सिर्फ उन का वहां इंतजार ही क्यों न कर रही हो. इन मुश्किलों का समाधान क्या है?
बायोमैट्रिक सिस्टम का तोड़
देश की राजधानी दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में भले ही अटैंडेंस के लिए बायोमैट्रिक सिस्टम की शुरुआत हो चुकी है, पर अन्य हिस्सों में मौजूद ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में उपस्थिति दर्ज कराने का पुराना सिस्टम चला आ रहा है, जिस में कर्मचारी औफिस में रखे रजिस्टर में अपने नाम के आगे हस्ताक्षर करते हैं. इस में अकसर समय के उल्लेख का कोई प्रावधान नहीं होता.
यदि समय दर्ज किया जाता है, तो जरूरी नहीं कि वह एकदम सही लिखा जाए और महीने के आखिर में उस उपस्थिति के आधार पर कर्मचारी की छुट्टियों और वेतन का समायोजन किया जाए. इस में भी बाबुओं की मिलीभगत से कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वर्षों तक अपनी उपस्थिति लगवाता रह सकता है. ऐसे दर्जनों किस्से उजागर हो भी चुके हैं जब कोई कर्मचारी दफ्तर आए बिना वेतन लेता रहता है.
उपस्थिति के सिस्टम के आधुनिकीकरण का तब भी कोई फायदा नहीं, जब तक कि दफ्तर आए कर्मचारी की अनिवार्य मौजूदगी के प्रमाण न जुटाए जाएं. कार्ड पंचिंग के तौरतरीकों के दुरुपयोग की भी सैकड़ों शिकायतें मिल चुकी हैं. ऐसे सिस्टम में भी तब मिलीभगत एक कामयाब नुस्खे के तौर पर आजमाई जाती रही है, जब एकदूसरे के कार्ड से कर्मचारी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे हैं. यही वजह है कि अब सरकार उपस्थिति दर्ज करने के मौजूदा तौरतरीकों को खत्म कर उन की जगह ऐसा बायोमैट्रिक सिस्टम लागू करना चाहती है जो सारे मैन्युअल सिस्टम की जगह ले सके. आधार एनेबल्ड बायोमैट्रिक अटैंडेंस सिस्टम (एईबीएएस) नामक इस प्रणाली में कर्मचारी की उंगलियों व आंखों की पुतलियों की छाप ली जा सकेगी, जिस से उपस्थिति की धांधलियों पर काफी हद तक रोकथाम की उम्मीद है. पर ये सिर्फ यांत्रिक उपाय हैं. ऐसे में इस की भरपूर आशंका आगे भी रहेगी कि कामचोर व बेईमान कर्मचारी इन का कोई न कोई तोड़ निकाल लें.
सवाल कार्य संस्कृति का
नियमों का पालन डंडे के बल पर करवाना पड़े, तो किसी देश और समाज के लिए इस से ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है. आखिर हमारे देश में ऐसी कार्य संस्कृति क्यों नहीं जग पा रही है जिस में वक्त पर दफ्तर आना, सौंपे गए काम और जिम्मेदारी का समर्पण के साथ निर्वाह करना और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना लोग जरूरी समझते हों.
देश में जो नई कौर्पोरेट संस्कृति पनप रही है उस में देर से दफ्तर आने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती है. वहां देर से दफ्तर आने वालों के लिए पर्याप्त दंड की व्यवस्था है. इस से कर्मचारी वक्त के पाबंद रहते हैं. अचरज इस बात को ले कर होता है कि सरकारी कर्मचारियों ने इस बदलाव का जरा भी नोटिस नहीं लिया है और इस का इंतजार कर रहे हैं कि सरकार जब तक उन पर पाबंदियां नहीं लगाएगी, तब तक वे नहीं सुधरेंगे.
इस सिलसिले में एक दावा यह किया जाता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही जिस प्रकार सरकारी कार्यालयों में बायोमैट्रिक अटैंडेंस लागू करवाने की बात कही थी, उस से सरकारी कर्मचारियों में काफी नाराजगी थी. बताते हैं कि इस का बदला उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनावों में लिया और केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को करारा झटका दिया.
ऐसी सूरत में सरकारी कर्मचारियों को सख्त कायदों के बल पर दफ्तरों में उपस्थित रहने को मजबूर करना सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होता है. इसलिए ज्यादा जरूरत लोगों को यह समझाने की है कि समय को ले कर उन की काहिली देश और समाज ही नहीं, खुद उन के लिए भी दिक्कतें पैदा करती है. उन्हें ऐसे उदाहरण देने की जरूरत है कि जिन पिद्दी से देशों ने मामूली संसाधनों के बल पर पूरी दुनिया में छा जाने के करिश्में किए हैं, उस में उन की कार्यसंस्कृति का बड़ा भारी योगदान है.
जापान इसी एशिया का एक मुल्क है जहां लोग देर से दफ्तर आने को सिर्फ अपराध नहीं मानते हैं, बल्कि औफिस पहुंचने पर दिए गए काम को नहीं कर पाना भी खुद उन के लिए गुनाह है. जापानी वक्त के किस कदर पाबंद हैं, इस का एक उदाहरण भारत में करीब एक दशक पहले देखने को मिला था. वर्ष 2004 में एक जापानी इंजीनियर मत्सू काजू हिरो अपनी कंपनी के काम से भारत आया था. दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर उतरने के एक घंटे बाद तक जब भारत स्थित कंपनी की इकाई की गाड़ी उसे लेने नहीं पहुंची, तो देरी से खफा मत्सू ने फौरन जापान वापसी की फ्लाइट पकड़ ली थी. हवाईअड्डे पर विलंब का यह नजारा डेढ़ दशक में भी नहीं बदला.
एयरइंडिया की लेटलतीफी
यह किस्सा सरकार के वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू से जुड़ा है. वर्ष 2016 में एक अवसर पर उन्हें एयर इंडिया की जिस फ्लाइट से हैदराबाद में आयोजित एक महत्त्वपूर्ण सरकारी बैठक में जाना था, वह फ्लाइट पायलट के नहीं पहुंचने के कारण समय पर उड़ान ही नहीं भर पाई. घंटों इंतजार के बाद वेंकैया नायडू घर वापस लौट गए और नाराजगी में सोशल मीडिया पर ट्वीट करते हुए एयर इंडिया से यह कहते हुए जवाब मांगा कि प्रतिस्पर्धा के इस युग में एयर इंडिया इतनी लेटलतीफी आखिर कैसे कर सकती है.
एयर इंडिया ने इस मामले में मंत्रीजी से माफी मांग ली, पर इस सरकारी उपक्रम में विलंब का यह पहला वाकेआ नहीं था. ऐसा तकरीबन हर रोज होता है पर उन उड़ानों में कोई वीआईपी नहीं होने के कारण देरी कोई मुद्दा नहीं बनती.
ध्यान रहे कि छोटेछोटे देशों ने घड़ी की सूइयों के साथ कदमताल कर के ही विकसित होने की राह खोली है. अब तो ऐसे उदाहरण देश में ही कई निजी कंपनियां पेश कर रही हैं. उन्होंने लगभग हर कायदे में सरकारी प्रतिष्ठानों से आगे निकल कर साबित कर दिया है कि कार्यसंस्कृति को बदलने का कितना बड़ा फर्क किसी संस्थान की तरक्की पर पड़ता है. सरकारी और निजी बैंकों के कामकाज में अंतर आज हर व्यक्ति महसूस करता है.
ऐट द इलेवैंथ आवर
सवाल यह है कि डीओपीटी के निर्देश और बायोमैट्रिक सिस्टम सरकारी कर्मचारियों को वक्त का पाबंद बनाते हैं या फिर सरकारी दफ्तरों में ये कायदे और उपाय सिर्फ आधुनिकीकरण का एक पैबंद बन कर रह जाते हैं. असल में बात भारतीय आदतों की है. अंतिम क्षणों यानी ‘ऐट द इलेवैंथ औवर’ पर ही जगने का उपक्रम करने की इस मानसिकता के दर्शन देश में हर जगह होते हैं.
आयकर रिटर्न दाखिल कराना हो, स्कूलकालेज में फीस भरनी हो, बिजली व टैलीफोन के बिल जमा करने हों या कोई अन्य काम निबटाना हो, अमूमन ये सभी काम एक औसत भारतीय अंतिम दिन और आखिरी घंटे तक टालता है. नतीजा है लंबीलंबी, बोझिल कतारें. यही मनोवृत्ति दफ्तरों, विशेषरूप से सरकारी कार्यालयों में बाबुओं के पहुंचने को ले कर भी है और शायद इसलिए भारतीय मानक समय यानी तय समय से आधा घंटा लेट का तंजभरा मुहावरा प्रचलित है.