इस अजीबोगरीब कहानी की शुरुआत होती है सन 1985 से. मशहूर पत्रिका ‘नैशनल ज्योग्राफिक’ के फोटो जर्नलिस्ट स्टीव मैकरी अपने एक असाइनमेंट के लिए सोवियत रूस के सैन्य कब्जे वाले अफगानिस्तान पर एक फोटोफीचर तैयार कर रहे थे. इस के लिए वह न केवल मुजाहिदीनों द्वारा रेड आर्मी के खिलाफ लड़ी जा रही जंग को कवर कर रहे थे, बल्कि अफगानी जनजीवन को भी कैमरे में कैद करने की कोशिश में लगे थे. वह रोजाना सैकड़ों की तादाद में फोटो उतार कर पत्रिका के औफिस फिल्म रोल्स भेजते थे, जहां उन्हें डेवलप कर के चुनिंदा चित्रों को एक फाइल में संजोया जाता था. इसी तरह स्टीव मैकरी ने पेशावर के नासिर बाग इलाके में स्थापित एक रिफ्यूजी कैंप में गमगीन बैठे कुछ बच्चों की तसवीरें खींची थीं.
उन बच्चों में 13-14 साल की एक लड़की ने अपनी तसवीर उतारने पर नाराजगी जताई थी. गुस्से में उस ने एक पत्थर भी उठा कर स्टीव मैकरी पर फेंका था, लेकिन खुशकिस्मती से उन्हें वह पत्थर नहीं लगा था. फोटो उतारते वक्त स्टीव मैकरी ने भी शायद इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. लेकिन जब फोटो डेवलप हो कर सामने आई तो उस ने सब का मन मोह लिया. दरअसल, उस लड़की की आंखों की पुतलियां विलक्षण थीं. उस की आंखों में जैसे एक जादू सा झलकता था. पूरे संपादकीय मंडल को एकबारगी तो यही लगा कि ऐसा अद्भुत व्यक्तित्व पहले कहीं नहीं देखा गया. फोटो उतारा भी बड़ी खूबसूरती के साथ गया था. असाइनमेंट वाले फोटो फीचर को फिलहाल दरकिनार कर के तय किया गया कि पत्रिका के आगामी अंक का कवर इसी अद्वितीय चित्र से तैयार किया जाए. उस समय नैशनल ज्योग्राफिक के जून, 1985 अंक पर काम चल रहा था. उस के कवर पर छपने वाले फोटो को उठा कर उस लड़की का फुलसाइज फोटो छाप दिया गया.
अंक तैयार हो कर मार्केट में आया तो जैसे तहलका मच गया. इस चित्र ने लोगों को इस कदर आकर्षित किया कि महज इसे संजोए रखने के लिए लोग धड़ाधड़ पत्रिका को निजी प्रति के रूप में खरीदने लगे. इस फोटो की जगहजगह चर्चा होने लगी. यों तो अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के रूप में नैशनल ज्योग्राफिक पहले से मशहूर थी, लेकिन इस अंक के बाद तो जैसे यह पूरी दुनिया की खासमखास पत्रिका बन गई. पत्रिका को छपते 114 साल हो गए थे. जो काम इतनी लंबी अवधि में नहीं हो पाया था, वह केवल इस के एक अंक ने कर दिखाया था. पत्रिका के औफिस में आने वाली डाक भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई. इन में से अधिकांश पत्र इस फोटो के गुणगान के लिए ही लिखे होते थे. उस फोटो की इस तरह की लोकप्रियता देख कर नैशनल ज्योग्राफिक के प्रकाशकों ने इसे अपने कई संग्रहों के कवर पर भी छापा. इन संग्रहों में ‘वन हंडरेड बेस्ट पिक्चर्स’ व ‘दि फोटोग्राफिक’ भी केवल इस फोटो की वजह से काफी चर्चा में रहे.
इस फोटो को ले कर एक क्रांतिकारी बात यह हुई कि उन सामाजिक संस्थाओं ने इसे पोस्टर के रूप में छपवा कर बेचना शुरू कर दिया, जो अफगानी शरणार्थियों के लिए चंदा इकट्ठा कर के उन की सहायता का बंदोबस्त किया करती थीं. संदर्भवश बता दें कि तब पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों ने यह पोस्टर खरीद कर अफगानी शरणार्थियों की सहायता करने में अपना योगदान दिया था. एक तरफ यह सब चल रहा था, दूसरी ओर एक जिज्ञासा भी जबरदस्त रूप से जोर पकड़ती जा रही थी. पत्रिका के औफिस में रोजाना सैकड़ों पत्र ऐसे भी आ रहे थे, जिन के जरिए लोग फोटो वाली लड़की के बारे में जानकारी हासिल करना चाहते थे. अब तक इस चित्र को एक टाइटल भी दे दिया गया था— अफगानी मोनालिसा. अब समस्या यह थी कि लोगों की जिज्ञासा शांत करने के लिए पत्रिका वालों के पास लड़की के बारे में किसी तरह की कोई जानकारी नहीं थी. यहां तक कि फोटो जर्नलिस्ट स्टीव मैकरी भी उस के बारे में कुछ नहीं जानते थे.
उधर लोगों ने लड़की के बारे में जानने की जिद नहीं छोड़ी. कुछ प्रबुद्ध किस्म के पाठकों ने तो पत्रिका को कानूनी नोटिस भेज कर इस बात की धमकी भी दी कि अगर इस लड़की के बारे में पूरा खुलासा नहीं छापा गया तो वे अदालत का सहारा लेंगे. देखतेदेखते फोटो को छपे 17 साल का लंबा दौर गुजर गया. लेकिन लोगों ने लड़की के बारे में अपनी जिज्ञासा को ठंडा न पड़ने दिया. उन्होंने पत्रिका का पीछा न छोड़ा. आखिर पूरे 17 सालों बाद इस विलक्षण आंखों वाली लड़की को तलाश कर उस पर डाक्युमेंट्री फिल्म बनाने की जिम्मेदारी स्टीव मैकरी के कंधों पर डाल दी गई. इस के लिए उन्हें 5 सदस्यों की विशेष टीम भी दी गई. जनवरी, 2002 के पहले सप्ताह में वह अपनी टीम के साथ पत्रिका के औफिस से रवाना हो कर पेशावर के उसी नासिरबाग में पहुंचे, जहां के रिफ्यूजी कैंप में 17 साल पहले उन्होंने उस लड़की की फोटो खींची थी. अब वहां वह कैंप नहीं था. स्टीव व उन के साथियों ने अन्य कई शरणार्थी शिविरों में जा कर लड़की का फोटो दिखा कर उस के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की. हालांकि सब जानते थे कि उस की शक्लोसूरत अब वैसी नहीं रही होगी. यह भी बड़ी बात नहीं कि उस की आंखों में भी अंतर आ गया हो.
जो भी था, प्रयास तो करना ही था. स्टीव मैकरी अपनी टीम के सदस्यों के साथ दिनरात अपनी इस अनूठी खोज में लगे रहे. उल्लेखनीय है कि सन 2001 में अमेरिकी फौजें अलकायदा को तहसनहस करने और ओसामा बिन लादेन को जिंदा अथवा मुरदा पकड़ने के लिए अफगानिस्तान में घुसी थीं. इस से जो तबाही हुई थी, उसी के मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांग उठी थी कि अफगानियों की हर तरह से सहायता की जाए. उस वक्त भी कथित अफगानी मोनालिसा का चित्र खासी चर्चा में था. उस के पोस्टरों की भी खूब बिक्री हुई थी. तब तक अभिनेत्री मर्लिन मुनरो और ब्रिटिश राजकुमारी डायना की तसवीरें बिकने का रिकौर्ड था. उस वक्त चर्चा हुई थी कि अफगानी मोनालिसा के पोस्टरों की बिक्री ने बिक्री के पुराने सारे रिकौर्ड पीछे छोड़ दिए थे. खैर, स्टीव मैकरी का एक ही मकसद था अचानक खींची गई तसवीर वाली लड़की को ढूंढना. इस के लिए वह भूखप्यास सब भूल बैठे थे. कई बार सुनीसुनाई बातों के आधार पर वह अपने साथियों सहित गलत लोगों के घेरे में भी फंसे. यहां तक कि एकदो बार तो उन की जान पर भी बन आई.
लेकिन अब पीछे हटना उन के लिए अपने प्रोफैशन से गद्दारी करने जैसा था. इसलिए वह सिर पर कफन बांध कर टीम के सदस्यों के साथ अपने मकसद में लगे रहे. आखिर एक दिन उन्हें एक बूढ़ा आदमी मिला, जिस ने फोटो देखने के बाद दावा किया कि वह इस लड़की को जानता है. उस ने जानने की वजह यह बताई कि वह भी उसी शरणार्थी कैंप में रहता था, जहां पर वह लड़की रहती थी. वह अकसर उस के बच्चों के साथ खेला करती थी. वह जब कभी उस के सामने आती थी, वह उस की अजूबे सरीखी आंखों को देखता रह जाता था. बूढ़े का कहना था कि जहां तक वह जानता है, उस की शादी हो चुकी है और वह अपने पति और बच्चों के साथ तोराबोरा की पहाडि़यों में कहीं रहती है. यह उन दिनों की बात है, जब तोराबोरा की पहाडि़यां अमेरिकी बमबारी का निशाना बनी हुई थीं. वहां जाना किसी भी तरह के खतरे से खाली नहीं था. स्टीव मैकरी की टीम को वहां की भौगोलिक स्थिति की भी ज्यादा जानकारी नहीं थी. आखिर किसी तरह उन्होंने बूढ़े को साथ चलने को राजी कर लिया.
तोराबोरा की पहाडि़यों में पहुंच कर उन्हें पता चला कि वह लड़की पास के किसी गांव में रहती है, जिसे तलाश करने में उन्हें 3 दिन लग गए. चौथे दिन लगातार 6 घंटे चलते रहने के बाद ये लोग आखिर उस गांव तक पहुंचने में सफल हो गए, जहां वह लड़की रहती थी. उस का घर भी मिल गया. टीम के सदस्यों को बाहर रोक कर बूढ़ा अकेला घर के भीतर गया. करीब आधे घंटे बाद वह बाहर निकला और अकेले स्टीव मैकरी को साथ ले कर फिर से भीतर चला गया. भीतर वाकई वही लड़की मौजूद थी, जिस की स्टीव को तलाश थी. हालांकि अब वह कमसिन लड़की न रह कर परिपक्व औरत बन चुकी थी. लेकिन स्टीव ने उसे उस की आंखों की वजह से पहचान लिया. बातें शुरू करते हुए स्टीव ने सब से पहले उस से उस का नाम पूछा.
उस ने अपना नाम बताया और उम्र बताई 31 साल. फोटो दिखा कर याद दिलाने पर उसे 17 साल पुराना वाकया भी याद आ गया. उस ने बताया कि पेशावर के एक रिफ्यूजी कैंप में जब एक गोरेचिट्टे अंजान आदमी ने अचानक सामने आ कर उस की तसवीर खींची थी तो गुस्से में उस ने वहां पड़ा एक पत्थर उठा कर उस की तरफ फेंका था. शरबत गुल के अनुसार, तब तक उस ने कभी भी अपना फोटो नहीं खिंचवाया था. उस के बाद भी 17 सालों के अंतराल में उस ने कोई फोटो नहीं खिंचवाया था. वह उस का अब तक का पहला और आखिरी फोटो था. वह मात्र 6 साल की थी, जब उस के मातापिता सोवियत फौजों द्वारा की गई जबरदस्त बमबारी में मारे गए थे. घटना के वक्त परिवार के सभी लोग घर में सो रहे थे. बमबारी से घर इस तरह मलबे का ढेर बन गया था कि उस में किसी का भी बच पाना मुश्किल था. लेकिन यह एक करिश्मा ही था कि इस बड़े हादसे में भी वह अपने एक भाई के साथ जीवित बच गई थी.
लेकिन इस के बाद उस छोटी उम्र से ही वह कभी रात में निश्चिंत हो कर नहीं सो पाई. आसमान में जरा सी कोई आवाज होते ही यह सोच कर वह कांप उठती थी कि अभी ऊपर से बमबारी होगी, जिस में वह और उस का भाई मारा जाएगा. लेकिन संयोग से वह और उस का भाई कासर खान दोबारा किसी हमले का शिकार नहीं हुए. उस ने आगे बताया कि उस वक्त समूचे अफगानिस्तान में हर तरफ सोवियत फौजें ही दिखाई दिया करती थीं, जो उन के लिए एक तरह से मौत का पर्याय थीं. ऐसे में उन लोगों के पास सिवाय अफगानिस्तान से पलायन करने के दूसरा कोई रास्ता नहीं था. वह अपनी नानी, भाई और रिश्ते की 4 बहनों के साथ अफगानिस्तान को अलविदा कह कर पाकिस्तान की ओर चल पड़ी थी. रास्ते में पड़ने वाले पर्वतीय इलाके पार करने में उन्हें हफ्तों लग गए. अफगानी पर्वतों को पार कर के जब वे पाकिस्तान की सीमा में पहुंचे तो उन का खानेपीने का सारा सामान खत्म हो गया था.
पाकिस्तान में उन्हें अजनबी लोगों के बीच रिफ्यूजी कैंपों में रहना पड़ा. सन 1990 में सोवियत सेनाओं के जाने के बाद वे अपने गांव लौट आए. वहीं रहते हुए शरबत गुल की शादी रहमत गुल से हुई, जिस से उसे 4 बच्चे हुए. लेकिन उन में से एक के इंतकाल के बाद 3 लड़कियां रूबीना, जाहिदा और आलिया बची थीं. 16 बरस की उम्र में जब शरबत गुल की शादी हुई थी, तब उस का शौहर रहमत गुल पेशावर की एक बेकरी में काम करता था. लेकिन वहां रहते हुए वह कई बीमारियों का शिकार हो गया. उस समय वह अस्थमा से परेशान था, इसलिए नौकरी छोड़ कर गांव में रह कर छोटामोटा काम करने लगा था. बहरहाल, बाहरी दुनिया शरबत गुल की जिस तसवीर की दीवानी थी, वह तसवीर उस ने पहली बार स्टीव मैकरी के पास ही देखी थी. उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि उस की उस तसवीर ने किस कदर तहलका मचाया था. शरबत गुल से बातचीत के दौरान उस के कई रिश्तेदार और परिचित वहां आ गए थे. बाद में स्टीव मैकरी की टीम के सदस्यों को भी भीतर आने की अनुमति दे दी गई थी. उन लोगों ने शरबत गुल के खूब फोटो खींचे. उस के अकेली के भी और उस के परिवार के सदस्यों के साथ भी. उस के भाई की आंखें भी करीबकरीब बहन की आंखों जैसी ही थीं. उस का भी एक विशेष फोटो लिया गया.
खैर, अपना यह अद्भुत अभियान सफलता से पूरा कर के जिस वक्त स्टीव मैकरी अपनी टीम के साथ वाशिंगटन स्थित नैशनल ज्योग्राफिक के औफिस पहुंचे, संपादकीय मंडल के सामने यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि इस का क्या प्रमाण है कि शरबत गुल ही वह महिला है, जिस का फोटो 17 साल पहले स्टीव मैकरी ने खींचा था. ऐसे में अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई (फेडरल ब्यूरो औफ इनवैस्टीगेशन) से मदद की गुजारिश के अलावा कैंब्रिज यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड के कंप्यूटर विज्ञान विशेषज्ञ प्रो. जौन डोमेन से भी सहयोग मांगा गया. आखिर काफी जद्दोजहद के बाद एफबीआई के अपराध अनुसंधान विभाग के प्रोफैसर थौमस मुसेनो ने सन 1985 व 2002 में खींचे गए शरबत गुल के फोटो का वैज्ञानिक तरीके से अति सूक्ष्म निरीक्षण किया. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि दोनों फोटो एक ही औरत के थे. कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रो. डोमेन ने भी अपने तमाम परीक्षणों के बाद यही राय दी कि दोनों फोटो एक ही महिला के थे. हां, दोनों फोटो में एक असमानता जरूर नोटिस की गई थी, वह यह कि पुराने फोटो में लड़की के होंठ पर दाईं तरफ एक तिल था, जोकि मौजूदा चित्र में गायब था. निस्संदेह तिल कभी अपने आप नहीं मिटता. इस संबंध में व्यापक अध्ययन और चित्रों के बारीकी से किए गए निरीक्षण के बाद यह अनुमान लगाया गया कि हो सकता है, फोटो खींचते वक्त लड़की के चेहरे पर मिट्टी अथवा रेत का कोई कण चिपका रहा हो. क्योंकि इस के अलावा दोनों फोटो में कोई असमानता नहीं थी. मतलब स्टीव मैकरी और उन के साथियों का दावा एकदम सही प्रमाणित हुआ.
इस के बाद फिर से शरबत गुल के फोटो छपे, कहानियां प्रकाशित हुईं. उस के जीवन पर डाक्युमेंट्री फिल्में बनाई गईं. लेकिन शरबत गुल केवल इन अफसानों की पात्र के रूप में बस प्रसिद्धि की हकदार बन कर रह गई. किसी ने भी उसे अन्य किसी तरह का लाभ देने की कोई कोशिश नहीं की. उस की आर्थिक परेशानियों का भी किसी ने कोई नोटिस नहीं लिया. अफगानिस्तान के हालात फिर से खराब होने पर उस का पति अचानक गायब हो गया. वह किसी तरह अपने तीनों बच्चों को ले कर पाकिस्तान जा पहुंची, जहां एक शख्स ने पहले उसे अपने यहां पनाह दी, फिर उस से निकाह कर के उसे अपनी बेगम बना लिया. 26 अक्तूबर, 2016 को पाकिस्तान की फेडरल जांच एजेंसी ने पेशावर स्थित उस के घर से शरबत गुल को इस आरोप में गिरफ्तार कर लिया कि वह जाली दस्तावेजों पर गैरकानूनी रूप से पाकिस्तान में रह रही थी. इस मामले में उसे 13 दिन की जेल और 1 लाख 10 हजार रुपए के जुरमाने की सजा हुई थी. लेकिन गिरफ्तारी के बाद करवाई गई मैडिकल जांच में यह बात सामने आई कि वह जानलेवा बीमारी हेपेटाइटिस-सी से पीडि़त थी.
आखिर पाकिस्तानी कोर्ट ने फैसला बदल दिया कि सजा पूरी होने के बाद उसे पाकिस्तान से नहीं निकाला जाएगा. अफगानिस्तान का कहना है कि शरबत गुल की बीमारी का इलाज न पाकिस्तान में संभव है और न अफगानिस्तान में, इसलिए वह मर जाएगी. ऐसे में इंसानियत के आधार पर भारत को चाहिए कि वह उसे अपने यहां शरण दे कर उस की बीमारी का इलाज करवाए. भारत इस मदद के लिए सहर्ष तैयार भी हो गया है. 13 नवंबर, 2016 को भारत में अफगानिस्तान के राजदूत शैदा अब्दाली ने प्रैस विज्ञप्ति के माध्यम से अपना छोटा सा बयान भी जारी किया है, ‘भारत सरकार ने शरबत गुल का इलाज कराने की बात अधिकृत तौर पर कह दी है. यह इलाज बिलकुल मुफ्त होगा और शरबत गुल व उस के घर वालों के वहां ठहरने वगैरह की व्यवस्था भी भारत सरकार अपने स्तर से करेगी. शरबत गुल का इलाज बंगलुरु के एक नामी अस्पताल में करवाए जाने का इंतजाम कर दिया गया है.