शहर की एक पौश कालोनी की 2 युवतियां चुस्त जींस व टीशर्ट पहने अंगरेजी में बातचीत करते हुए मंदिर की ओर जा रही थीं. मंदिर के बाहर दुकान से प्रसाद, नारियल, अगरबत्ती आदि लीं. मंदिर में दोनों बड़ी श्रद्धा से लेट कर नाक रगड़ कर भगवान की मूर्ति के आगे नतमस्तक हुईं, पूजा की, बुदबुदा कर कुछ कहा और बाहर आ गईं.

एक युवती दूसरी से बोली, ‘‘मैं ने भगवान से कहा है कि यदि मेरा मेडिकल में चयन हो जाएगा तो मैं 5 मंगलवार, 5 शुक्रवार और 5 सोमवार तक व्रत रखूंगी, बराबर मंदिर आऊंगी और प्रसाद चढ़ाऊंगी.’’

यह सुन कर दूसरी युवती बोली, ‘‘तेरे साथ मैं भी मंदिर आया करूंगी, जब भगवान तेरी सुनेंगे तो मेरी मनोकामना भी जरूर पूरी होगी और ऐसा होने पर मैं भगवान की एक मार्बल की मूर्ति खरीद कर लाऊंगी.’’

इस तरह के दृश्य हर जगह मंदिरों में देखने को मिलते हैं. पहनावे, रहनसहन में भले ही हम कितने ही आधुनिक हो गए हों, बातें मोबाइल फोन, सुपरकंप्यूटर व इंटरनेट की करते हों, लेकिन विचारों से आज भी हम सब मध्ययुग में जी रहे हैं. धार्मिक अंधविश्वासों, कर्मकांडों, कुरीतियों, ऊंचनीच, ढोंगियों, साधुओं की जमात को ले कर हमारी सोच आज भी पुरातन ही है. शिक्षित होने के बाद भी लोगों में वैज्ञानिक सोच का विकास नहीं हुआ, यही कारण है कि बिना सोचेसमझे ही उच्च शिक्षित डाक्टर, इंजीनियर तथा कान्वेंट शिक्षित युवतियां भी गणेश की मूर्ति को दूध पिलाने चली जाती हैं. इन धार्मिक अंधविश्वासों ने जनसामान्य के विवेक, चिंतन व अध्ययन को तो लगभग क्षीण ही कर दिया है.

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