भूखे को खाना खिलाने से लाख गुना ज्यादा पुण्य मिलता है. यह सिद्धांत धर्म के ठेकेदारों ने काफी पहले झटक लिया था. नतीजतन, भूख का सामाजिक पहलू और दूसरी आर्थिक विसंगतियां समझने के लिए अपने देश में ज्यादा व्यावहारिक कोशिशें हुई ही नहीं और जो हुईं भी वे अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन कर रह गईं. मुद्दे की बात आम लोग समझ नहीं पाए कि पंडितों ने भूख, गरीबी और दरिद्रता को भाग्य और पूर्वजन्मों का फल बता कर एक धार्मिक मान्यता की शक्ल में स्थापित कर अपनी साजिश को अंजाम दे दिया है.

आज भी ज्यादातर गरीब लोग छोटी जातियों के हैं और इन पर अपना दबदबा बनाए रखने को ऊंची जाति वालों ने बड़े पैमाने पर नया चलन भंडारों के आयोजन का शुरू कर दिया है.

आजकल पूरे देश में भंडारे इफरात से हो रहे हैं, जहां भूखेनंगे, गरीबों की फौज पंडालों में बैठी देखी जा सकती है. अब तो झुग्गीझोंपड़ी वाले मेहनतकश भी भंडारों में शिरकत करने लगे हैं, जो भिखारी कहीं से नहीं हैं पर खाने का पैसा बचना इन के लिए अहमियत रखता है.

भंडारों का खतरनाक सच

अमीरों को चूंकि धर्म के नाम पर कुछ करना होता है इसलिए वे भंडारों में दिल खोल कर सहयोग करते हैं. भंडारे के आयोजकों की इच्छा भी अपनी दुकानदारी चमकाए रखने की होती है. इसलिए उन की कोशिश यह रहती है कि भंडारों में मैलेकुचैले लोगों की भीड़ दिखे जिस से पैसे वालों को पुण्य की झलक दिखला कर यह बताया जा सके कि दिया गया चंदा बेकार नहीं गया.

भंडारा एक शुद्ध धार्मिक आयोजन है, जो झांकियों, देवीदेवताओं की जयंती या फिर नवरात्रि के दिनों में ही किया जाता है. एक पंडाल में सैकड़ों भूखे पूरी, सब्जी, रायते और खीर पर टूटे हों इस से ज्यादा फख्र की कोई बात धार्मिक दुकानदारों और दानदाता के लिए हो भी नहीं सकती.

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