देश भर में अकसर जहांतहां तरहतरह के धार्मिक आयोजन होते रहते हैं और धर्म के ठेकेदार अपनी मोटी कमाई के लिए मंत्रों का भरपूर प्रचार करते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा श्रद्धालु आ सकें और धर्म के नाम पर चढ़ावा चढ़ा कर अपनी जेबें ढीली कर सकें. इसी भीड़भाड़ में कई बार हादसे भी हो जाते हैं जिन में श्रद्धालु भक्तजन घायल ही नहीं, मौत के शिकार तक हो जाते हैं.
इस तरह से जान गंवाने वाले श्रद्धालुओं की रक्षा न तो भगवान करते हैं और नहीं उन के मुफ्तखोर एजेंट. इस में असल दोष तो उन का है जो खुद देखादेखी आंखें मूंद कर दबने, कुचलने और मरने के लिए भीड़ में शामिल होते हैं.
अंध भक्ति
दरअसल, भारी प्रचार के चलते ज्यादातर धार्मिक जगहों पर श्रद्धालुओं की खूब रेलपेल रहती है. जिन में ऐसे लोगों की भी भीड़ रहती है जो छेड़छाड़, ठगी, चोरी व गुंडागर्दी की नीयत से वहां आते हैं. वे जूतेचप्पलों, पर्स, जेवर और दूसरी चीजों पर धड़ल्ले से हाथ साफ करते हैं, लेकिन भगवान उन की इस बदनीयती का उन्हें कोई दंड नहीं देता.
हर तरह से नुकसान तो बस, श्रद्धालुओं का ही होता है. इस के बावजूद श्रद्धालुओं की आंखें व दिमाग की खिड़की बंद पड़ी रहती है और पुण्य लूटने के चक्कर में खुद ही लुटतेपिटते और मरतेखपते रहते हैं.
श्रद्धा का ज्वार
दाढ़ीचोटी वालों की मनगढं़त बातों पर आंख मूंद कर भरोसा करने वाले अपनी ग्रह चाल सुधारने, पुण्य कमाने और धर्म लाभ उठाने में लगे रहते हैं ताकि भगवान उन पर खुश हो जाए. इस चक्कर में धर्मभीरु भीड़ अपना कामधाम और मेहनत छोड़ कर बेमतलब के कर्मकांड करती है और जब कोई दुर्घटना घटती और उस में जो लोग मरते हैं तो उन पर रोया जाता है. सरकार भी मरने वालों के परिजनों को कुछ रकम दे कर उन के आंसू पोंछ देती है.
आजकल ज्यादातर मंदिरों में भगवान के दर्शन भी बड़ी मुश्किल से होते हैं, क्योंकि पंडेपुजारी जानबूझ कर ऐसे नियम बनाते हैं जिन से बेहिसाब भीड़ लगी रहे और उन की तिजोरी भरती रहे. यदि दिन भर मंदिरों के कपाट खुले रहें तो भीड़ नहीं बढ़ेगी और न ही कोई हादसा होगा.
दर्शन करने वालों की भीड़ काबू में रहे वे ऐसे इंतजाम भी नहीं करते. अत: धार्मिक जगहों पर भीड़ व अराजकता बढ़ रही है. इस बारे में कोई सोचता तक नहीं. सचाई यह है कि धर्म एक धंधा है और बिना भीड़ के हर धंधा मंदा रहता है.
दोषी आयोजक
बेहद लापरवाही, बदइंतजामी व गैरजिम्मेदारी के नमूने धार्मिक मेलों के आयोजनों में आमतौर पर देखने को मिलते हैं, वजह उन का असली मकसद तो महज श्रद्धालुओं की जेब ढीली करना भर होता है. लोग मरते हैं तो मरें. इस की परवा कौन करता है?
रेल और बसों में रोज जहरीला प्रसाद खिलाने की घटनाएं होती हैं. धर्म की आड़ में लोग बेवकूफ बनाए जाते हैं. कई भक्त तो बेहोश व जख्मी हो जाते हैं फिर भी आयोजकों का बाल बांका नहीं होता.
आस्था लोगों की जान व उन के माल से भी ऊपर निकल जाती है इसलिए जराजरा सी बात पर भक्तों की भीड़ में भगदड़ मच जाती है. इस तरह के हर मामले में खता आयोजकों की होती है किंतु भोगते श्रद्धालु हैं जबकि बेवजह होने वाले अनचाहे हादसों से बचना बहुत जरूरी है.
टूटती सड़कें मरती नदियां
मंदिरों के साथसाथ नदी किनारे होने वाले धार्मिक आयोजनों में जुड़ने वाली भीड़ से कई तरह की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं. भगदड़ मचने पर हिंसा होने व जाम लगने की स्थिति आ जाती है, रास्ते बंद हो जाते हैं. आपस में तनाव बढ़ जाता है. इस की परवा किसे है?
जहांतहां नदियों में पूजा सामग्री, फूल, शव, राख और मूर्तियां आदि बहाने से गंदगी बढ़ रही है, मछलियां मर रही हैं. रोज टनों कूड़ाकचरा इन सूखती हुई नदियों में बहाया जा रहा है. नतीजा हमारे सामने है कि बड़ीबड़ी नदियां भी अब गंदे नालों में तब्दील हो रही हैं. उन्हें साफ रखना क्या भक्तों व श्रद्धालुओं की जिम्मेदारी नहीं है?
बेकाबू भीड़, अंजाम बुरा
1954 में लगे इलाहाबाद के कुंभ मेले में 800 लोग मरे थे. हरिद्वार में 1984 में 200, 1986 में 50 तथा 1989 के अर्धकुंभ में 350 तीर्थयात्री अपनी जान से हाथ धो बैठे थे.
केरल के सबरीमला मंदिर में मची भगदड़ से 51 भक्तों की मौत हुई थी. यही नहीं नासिक कुंभ में 39 भक्तों की जान गई थी.
धार्मिक उत्सवों में हिंसा, उपद्रव व आग लगने से हुए हादसे भी कोई नई बात नहीं हैं. बीते दशहरा मेले में अकेले उत्तर प्रदेश में ही बाराबंकी, हरदोई व कोशांबी आदि कई जिलों में हिंसक घटनाएं हुईं. कहीं मूर्ति विसर्जन पर तो कहीं जुलूस का रास्ता बदलने भर की जरा सी बात पर भक्त इतना भड़के कि तोड़फोड़ व पथराव करने पर उतारू हो गए थे.
खुद ही संभलना होगा
भक्ति के नाम पर लोग जान देने तक से भी नहीं हिचके, ऐसे किस्सेकहानी हिंदू धर्म की किताबों में भरी पड़ी हैं. कथा सत्संग में भी ऐसी बातें खूब बताई जाती हैं कि भगवान के रास्ते पर चलते हुए मरोगे तो सीधे स्वर्ग, मोक्ष और बैकुंठ मिलेगा.
मरने के बाद यह सब किस ने देखा है? इसलिए श्रद्धालुओं के हिस्से में तो सिर्फ दुख तकलीफ ही आती हैं. हां, भक्तों की भीड़ से मुफ्तखोर खूब माल बटोरने व मलाई खाने में लगे रहते हैं. ऐसे लोग कभी नहीं चाहते कि धार्मिक जगहों पर या धार्मिक जलसों में लोग कम जुटें, भीड़ न हो.