लंबेचौड़े और ऊंचे मंच पर हजारों की भीड़ के सामने रेशमी गेरुआ वस्त्र धारण किए, रुद्राक्ष, मोती व चंदन की माला पहने, गुलाब के फूलों से महकते सिंहासन पर बैठ, सुंदर रूपसी बालाओं से घिरे हुए धर्मगुरु का देश की गरीबी पर कंरदन करते हुए यह कहना कि संसार मिथ्या है, घरपरिवार माया है, धन की इच्छा लोभ है, मोहमाया के बंधन से मुक्त हो जाओ...और फिर प्रवचन समाप्त कर के उन का अपने भक्तों की भीड़ के बीच से हो कर गुजरना, भक्तों का उन्हें देख कर जयकारा लगाना...इस धर्मगुरु के पैर छूने में एकदूसरे को कुचल डालने की होड़ और अंत में अपनी चमचमाती लग्जरी गाडि़यों के बेड़े से स्टैंडर्ड बढ़ाते चेलों की लंबी लाइन के साथ अपने आलीशान पांचसितारा सुविधाओं वाले आश्रम की तरफ प्रस्थान कर जाने का यह दृश्य किसी फिल्म का नहीं बल्कि किसी भी धर्मगुरु के सत्संग में होने वाली फुजूलखर्ची का नजारा है.

धर्मगुरु बनाने का यह चलन कोई नया नहीं, बल्कि बहुत पुराना है. समाज में इस तरह का प्रचार कर दिया गया है कि भगवान से बड़ा ‘गुरु’ है और लोग भी भगवान को भूल कर गुरु की शरण में आ रहे हैं. शिष्य आजकल गुरुओं की पूजा करने लगे हैं.

इस तरह के प्रचार के चलते ही धर्मभीरु जनता भयभीत हो गुरु को ढूंढ़ती है और गुरु मिल जाने पर उस के द्वारा गुरुमंत्र दिया जाता है, जिस के बदले दीक्षा लेने वाले को मोटी दक्षिणा गुप्त दान के रूप में देनी होती है. इन तथाकथित गुरुओं द्वारा बताया जाता है कि जो जितनी अधिक दक्षिणा देगा उसे उतना ही अधिक लाभ होगा. दक्षिणा के साथ फल का संबंध एक प्रकार का व्यावसायिक संबंध ही है और इस के बाद तो यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है.

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