योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश से शुरू हुई इस महामारी ने धीरेधीरे दूसरे राज्यों को भी अपनी चपेट में ले लिया है. हालिया उदाहरण दिल्ली का है. अप्रैल महीने में ‘हनुमान जयंती’ पर एक शोभायात्रा निकल रही थी, जो कुछ असामाजिक तत्त्वों की कारिस्तानी से बवाल में बदल गई और जिसे बाद में सांप्रदायिक रूप देने की कोशिश की गई.

दंगे होना अपनेआप में गलत है और इसे फैलाने वाले पर कानूनी कार्यवाही जरूर करनी चाहिए, पर बुलडोजर से घरदुकान गिरा कर किसी को सजा देना कहां का कानून है? यह तो सरकार की तानाशाही है कि जिस बात की इजाजत देश की बड़ी अदालत भी नहीं देती है, उसे कैसे लागू किया जा सकता है.

पर ऐसा हुआ और ‘हनुमान जयंती’ के बाद केंद्र सरकार के आदेश पर जहांगीरपुरी में गरीबों के घरों, दुकानों पर बुलडोजर चला और कानून की धज्जियां उड़ा दी गईं.

लेकिन इस पूरे मामले में एक सवाल और उठता है कि जो लोग किसी धार्मिक या सामाजिक आयोजन की आड़ में दंगाफसाद करते हैं, वे फितरत से होते कैसे हैं? क्या वे सभ्य होते हैं और अपने वाजिब हक के लिए लड़ते हैं या फिर वे बेवजह के लड़ाईझगड़े से डरते नहीं हैं और समाज में हिंसा का माहौल बनाना ही उन का एकलौता मकसद होता है?

हिंसा की एक छोटी सी घटना से इस बात को समझते हैं. एक 7 सीटर बड़ी गाड़ी में 6 दोस्त कहीं घूमने जा रहे थे. चूंकि वे मस्ती के मूड में थे, तो उन्होंने गाड़ी में ही शराब भी पी ली थी.

चलती गाड़ी में शराब के सेवन से उन दोस्तों की मस्ती दोगुनी हो गई थी कि तभी एक दोस्त ने कहा, ‘‘भाई, अब तो भूख लग गई है. कहीं कुछ खा लेते हैं.’’

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