फुटपाथों पर बनी झुग्गियों और बाजारों से सरकार और प्रशासन अनजान नहीं होते हैं या गरीबों पर रहम खा कर उन्हें फुटपाथों पर कारोबार करने या बसने के लिए छोड़ दिया जाता है. इस के पीछे हरे नोटों की चमक काम करती है.
रिटायर्ड पुलिस अफसर एसके भारद्वाज बताते हैं कि फुटपाथ पर रहने वालों या कोई कामधंधा करने वालों को इस के एवज में अच्छीखासी रकम चुकानी पड़ती है. फुटपाथियों को पुलिस वाले और लोकल रंगदार दोनों की मुट्ठी गरम करनी पड़ती है.
इस से तो अच्छा है कि अगर सरकार फुटपाथ से कब्जे को हटा नहीं सकती, तो उसे वहां रहने वालों या कारोबार कराने वालों को पट्टे पर दे दे. इस से सरकार के खजाने में काफी पैसा आ सकता है.
पटना के ऐक्जिबिशन रोड पर वड़ा पाव और औमलेट का ठेला लगाने वाले एक दुकानदार ने नाम नहीं छापने की गारंटी देने के बाद बताया कि वह दिनभर में 2 हजार रुपए का धंधा कर लेता है. रोज शाम होते ही पुलिस वाले और लोकल दादा टाइप लोग ‘टैक्स’ वसूलने के लिए पहुंच जाते हैं.
2 सौ रुपए पुलिस वालों और 3 सौ रुपए गुंडों को हर रोज चढ़ाने पड़ते हैं. इस के बाद भी वे लोग वड़ा पाव और आमलेट मुफ्त में हजम करना नहीं भूलते हैं.
समूचे देश में मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, पटना से लेकर किसी भी बड़े या छोटे शहर के फुटपाथों पर रहने वालों की जिंदगी एकजैसी ही होती है. टूटेफूटे बांस और लकडि़यों के टुकड़ों और पौलीथिनों को जोड़जोड़ कर बनाई गई झोंपडि़यों के पास पहुंचते ही नथुनों में तेज बदबू का एहसास होता है. बगल में बह रही संकरी नाली में बजबजाती गंदगी... कचरा भरा होने की वजह से गंदा पानी गली की सतह पर आने को बेचैन दिखता है... तंग और सीलन से भरी छोटी छोटी झोंपडि़यों से झांकते चेहरे... खांसते और लड़खड़ाती जिंदगी से बेजार हो चुके बूढ़े... पास की सड़कों और गलियों में हुड़दंग मचाते मैलेकुचैले बच्चे... यही है फुटपाथों की जिंदगी.