अभिनेता कमल हासन जल्द ही तमिलनाडु में अपनी राजनीतिक पार्टी का आगाज करने वाले हैं. सियासत को लेकर उनके दोस्त और सहकर्मी रजनीकांत भी पिछले दो दशक से गंभीर रहे हैं और पिछले कुछ महीनों से हवा का रुख भांपने की कोशिश में हैं. तमिलनाडु में सियासत और सिनेमा के बीच हमेशा से करीबी रिश्ता रहा है. यह सही है कि कुछ सिने अदाकारों ने राजनीति में खासी लोकप्रियता कमाई और अपना एक प्रभावशाली मुकाम बनाया, पर कई ऐसे भी हैं, जिनके हिस्से असफलताएं आईं. शिवाजी गणोशन इसका उदाहरण हैं.

तमिलनाडु की राजनीति में अभी जो शून्य दिख रहा है, उसकी वजह जे जयललिता जैसी नेता का पिछले वर्ष निधन होना और उम्र संबंधी दिक्कतों के कारण एम करुणानिधि की सक्रिय राजनीति से बढ़ती दूरी है. बावजूद इसके तमिलनाडु की राजनीति में कमल हासन या रजनीकांत के लिए वह मुकाम हासिल करना आसान नहीं, जो कभी एमजीआर को हासिल था. एमजीआर यानी एमजी रामचंद्रन अन्नाद्रमुक के संस्थापक थे और उन्हें सूबे में अपार जन-समर्थन हासिल था. वह ऐसा नेता बनकर उभरे, जिसने गरीबों, हाशिये के लोगों और वंचितों की कल्पनाओं को मूर्त रूप दिया. उन्होंने अपनी एक ऐसी सजग छवि बनाई, जिसने द्रविड़ आंदोलन को मजबूती दी और बाद में तमिल जनता ने जिसे अपना आदर्श माना.

हालांकि, ऐसे सूबे में, जहां द्रविड़ राजनीति तमिल पहचान और भाषा को समेटे हुए हो, वहां थियेटर और सिनेमा लोगों को एकजुट करने व प्रभावित करने के प्रभावशाली उपकरण बन चुके हैं. लेखक व अनुवादक आजी सेन्थिलनाथन कहते हैं, ‘सिनेमा या थियेटर संचार का माध्यम थे. अतीत में इसे एक कारगर औजार की तरह इस्तेमाल किया गया था. राजनीति में महज सेलिब्रिटी स्टेटस का जादू नहीं चल पाता’.आलोचकों की नजर में कमल हासन और रजनीकांत, दोनों अभिनेता अवसरवादी हैं. इन्होंने वर्षो चुप्पी साधे रखी और अब जाकर अपना मुंह खोला, जब तमिलनाडु बीते कई दशकों में अब तक की सबसे कमजोर सरकार के हवाले है. लेकिन हाल में ‘मुख्यमंत्री की कुरसी संभालने को तैयार’ होने की इच्छा जताने वाले कमल हासन का दावा है कि वह तो ‘हमेशा से राजनीति में रहे हैं’.

इस पर प्रतिक्रियाएं भी हुई हैं. मत्स्य मंत्री डी जयकुमार कहते हैं कि सिर्फ ट्विटर पर सक्रियता से कोई अभिनेता मुख्यमंत्री नहीं बन जाता, ‘उसे जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होना चाहिए, इसलिए पहले उन्हें (कमल हासन) विधायक तो बनने दीजिए.’ सेन्थिलनाथन भी रजनीकांत को घेरते हैं कि वह ‘राजनीति का इस्तेमाल अपनी फिल्मों की मार्केटिंग रणनीति के तौर पर करते रहे हैं’.

इस सूबे ने वर्ष 2005 में विजयकांत को भी राजनीति में उतरते देखा. वह दो प्रमुख खिलाड़ियों के विकल्प के तौर पर सियासत में उतरे और एक साल के भीतर उनकी पार्टी डीएमडीके ने आठ फीसदी वोट हासिल कर लिए. मगर बाद में वह विफल रहे. सेन्थिलनाथन कहते हैं कि ‘दस साल पहले, जब विजयकांत राजनीति में उतरे थे, तब उन्होंने अपनी एक जमीन तैयार की थी. उनके पास बाकायदा पार्टी का झंडा और निशान भी था. मगर हासन और रजनीकांत अब तक अपना कोई सियासी ढांचा तक तैयार नहीं कर सके हैं’.

एमजीआर की बात करें, तो बकौल सेन्थिलनाथन, ‘द्रमुक समर्थकों में एक बड़ा हिस्सा एमजीआर के प्रशंसकों या फैन्स क्लबों का था. एमजीआर बाद में जब द्रमुक से अलग हुए, तो तमाम प्रशंसक और फैन्स क्लब समर्थक में तब्दील हो गए. करुणानिधि की राजनीति से नाराज रहने वालों के लिए वह उनकी टक्कर के नेता बनकर सामने आए.’1936 से लेकर 1978 तक एमजीआर ने 133 फिल्मों में काम किया और कमोबेश एक चौथाई फिल्में द्रविड़ विचारधारा के इर्द-गिर्द थीं. इसी तरह, करुणानिधि फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखते रहे, क्योंकि वह इसी विचारधारा का प्रसार करना चाहते थे. जयललिता भी पार्टी की मुखिया बनने से पहले अन्नाद्रमुक की प्रचार सचिव और राज्यसभा सदस्य रही थीं. स्पष्ट है, सिनेमा और सियासत में चोली-दामन सा रिश्ता होने के बावजूद फिल्मी कलाकारों ने राजनीति को पूरी तरह से शायद ही प्रभावित किया. सच तो यह है कि दक्षिण में राजनीति ही सिने अभिनेताओं को प्रभावित करती आई है.

(साभार : धरानी थांगवेलू)

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