देश की जनता, बौद्धिक वर्ग और उच्चतम न्यायालय को यह देखना परखना चाहिए कि आज नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार द्वारा नियुक्त विभिन्न प्रदेशों के राज्यपाल की भूमिका इतनी विवादास्पद क्यों है. विशेष रूप से उन राज्यों में जहां भाजपा की सरकारें नहीं है चाहे पंजाब हो या दिल्ली, झारखण्ड, बिहार यहां के महामहिम राज्यपाल की भूमिका अक्सर मुख्यमंत्री से एक टकराव लिए क्यों होती है और गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पर बैठे विभूतियां शांत भाव से सही गलत सब क्यों देखते रहते हैं.
सच तो यह है कि आम जनमानस में राज्यपालों की भूमिका पर चर्चा हो रही है और निष्कर्ष रूप से कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के "प्रसाद स्वरूप राज्यपाल" पद मिलने के बाद यह शख्सियत भाजपा की कार्यकर्ता की तरह व्यवहार कर रही है जो लोकतंत्र के लिए मुफीद नहीं है.

दरअसल,एक बार फिर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित पर राज्य सरकार के कामकाज में लगातार हस्तक्षेप करने का गंभीर आरोप लगाया है. मान ने यह आरोप पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के कुलपति को हटाने के लिए कहे जाने के दो दिन बाद लगाया है.

राज्यपाल किसके "खिलौने" है

राज्यपाल पुरोहित ने हाल में भगवंत मान से कहा था कि वह विश्वविद्यालय के कुलपति सतबीर सिंह गोसल को पद से हटाएं. पुरोहित का कहना था कि कुलपति को आयोग (यूजीसी) के मानदंडों के अनुपालन बैगर किया गया था.
अब बनवारीलाल पुरोहित को लिखे पत्र में मुख्यमंत्री मान ने कहा है- "गोसल को कानून के अनुसार नियुक्त किया गया था."
हाल ही में पंजाब के चुनाव हुए और भगवंत मान मुख्यमंत्री बन गए भाजपा को यहां करारी हार मिली सवाल है क्या भाजपा आलाकमान राज्यपाल के माध्यम से आप पार्टी की चुनी हुई सरकार को कंट्रोल कर रही है.
देश ने देखा है कि किस तरह राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने पिछले महीने विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी वापस ले ली थी और बाबा फरीद यूनिवर्सिटी आफ हेल्थ साइंसेज, फरीदकोट के कुलपति के रूप में प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डा गुरप्रीत सिंह वांडर की नियुक्ति को मंजूरी देने से भी इनकार कर दिया था. क्या यह सब एक चुनी हुई सरकार के साथ अपने अधिकारों के बल पर अनुचित प्रयोग नहीं कहा जाएगा.
संविधान में राज्यपाल की अपने अधिकार और कर्तव्य है और उसमें साफ-साफ लिखा हुआ है कि राज्यपाल चुनी हुई सरकार की सहमति से कार्य करेंगे.

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