राजनीतिक दलों को मिलने वाला विदेशी चंदा एक बार फिर विवाद में आ गया है. मामला 2016 में बने विदेशी चंदा नियमन कानून और 2018 में उसमें किए गए संशोधन का है. वैसे और पीछे जाएं, तो यह मामला 1976 में शुरू हुआ था, जब विदेशी चंदा लेने पर पूरी तरह रोक लगा दी गई थी. यह रोक उन कंपनियों से चंदा लेने पर भी थी, जिसमें 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी विदेशी हो.

1976 वह समय था, जब देश में आपातकाल लगा हुआ था. तब यह तर्क बार-बार दिया जाता था कि सरकार विरोधी या इंदिरा गांधी विरोधी विदेशी शह पर काम कर रहे हैं. सरकार के लिए ऐसे में कुछ करते हुए दिखना जरूरी था, इसलिए यह कानून पास कर दिया गया. यह कहना मुश्किल है कि राजनीतिक दलों को विदेश से मिलने वाली मदद इस कानून के बाद कितनी रुकी.

साल 2010 में इस कानून में संशोधन करके इस रोक को खत्म कर दिया गया. जब ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया चल रही हो और अनिवासी भारतीय देश की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभा रहे हों, तो इस नियम का कोई अर्थ भी नहीं था.

बाद में इसमें 2016 व 2018 में दो और संशोधन हुए. दूसरे संशोधन में न सिर्फ दलों को विदेशी चंदा लेने की पूरी छूट मिल गई, बल्कि यह छूट 1976 के बाद के सभी विदेशी चंदों पर लागू कर दी गई.

इस संशोधन की जरूरत क्यों पड़ी, इसे समझने के लिए हमें राजनीतिक दलों को मिलने वाले घरेलू चंदे के किस्से को समझना पड़ेगा. पहले नियम यह था कि राजनीतिक दल अगर किसी से 20,000 रुपये तक का चंदा लेते हैं, तो उन्हें उसके नाम का खुलासा नहीं करना पड़ेगा, लेकिन इससे ज्यादा चंदा लेने पर उन्हें चंदा देने वाले का नाम आयकर विभाग को बताना पडे़गा. हालांकि उन्हें इससे ज्यादा चंदे की रकम भी मिलती थी, लेकिन उद्योगपति अपना नाम किसी दल विशेष के साथ जोड़े जाने से बचाते रहे हैं, इसलिए ऐसे कई ट्रस्ट बनाए गए थे, जो राजनीतिक दलों को चंदा देते थे.

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