मंगलवार को महबूबा मुफ्ती अपनी सरकार के वरिष्ठ अफसरों के साथ रमजान के बाद उपजे हालात पर चर्चा कर रही थीं. तभी एक अफसर के मोबाइल पर संदेश आया कि भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला कर लिया है और बहुत जल्द गवर्नर हाउस में चिट्ठी पहुंचने वाली है. महबूबा मुफ्ती के लिए भी यह फैसला चौंकाने वाला ही था क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा नेतृत्व उन्हें एक मौका और देगा. लेकिन ऐसा हो न सका.

महबूबा मुफ्ती की सरकार को गिराकर भाजपा ने 2019 के लिए सबसे बड़ा जुआ खेला है. एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘एक प्रदेश की आधी सरकार गिराकर अगर अगले साल दिल्ली में पूरी सरकार बन सकती है तो इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता. बस इतना डर है कि कहीं ये फैसला लेने में डेढ़-दो साल ज्यादा तो नहीं लग गए’.

सुनी-सुनाई से कुछ ज्यादा है कि महबूबा सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला मुख्यत: तीन व्यक्तियों का था. गृह मंत्री और अरुण जेटली को बाद में बताया गया कि अगर भाजपा और वक्त लगाएगी तो जम्मू-कश्मीर की सरकार बचाने के चक्कर में पार्टी 2019 का लोकसभा चुनाव भी हार सकती है. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को कुछ ऐसी ही रिपोर्ट मिली थी. पिछले दो हफ्तों के दौरान जब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह संघ के नेताओं से मिले तो उन्हें साफ नसीहत दी गई. देश भर में फैले अपने स्वयंसेवकों की फीडबैक के हवाले से संघ पदाधिकारियों ने अमित शाह को बताया कि महबूबा मुफ्ती की सरकार के साथ भाजपा का साथ जितना लंबा खिंचता जाएगा मोदी सरकार की साख घटती जाएगी.

संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने कहा कि भाजपा की सबसे बड़ी पूंजी उसकी राष्ट्रवादी पार्टी की छवि है और नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी कमाई उनकी कड़े फैसले लेने वाले नेता की छवि है. उनके मुताबिक महबूबा मुफ्ती की सरकार को सहारा देते-देते भाजपा धीरे-धीरे ये दोनों ही छवियां खोती जा रही थी. रमज़ान में कश्मीर में सीज़फायर को संघ पूरी तरह से मुस्लिम तुष्टिकरण के चश्मे से देख रहा था.

उधर, भाजपा नेतृत्व की दलील थी कि वह अपने सहयोगी दल को दिए वादे को पूरा करने के लिए एक जोखिम उठा रहा है. सूत्रों के मुताबिक संघ एक इस पदाधिकारी ने कहा कि इस जोखिम को उठाने में भाजपा की छवि पर बट्टा लग चुका है और जितनी जल्दी हो सके उस जख्म पर राष्ट्रवादी फैसले का रहम लगाया जाए नहीं तो बहुत देर हो जाएगी. संघ को जो अच्छी तरह जानते हैं वे समझ चुके होंगे कि ऐसी इशारों में कही गई भाषा का क्या मतलब होता है. वही हुआ. रमज़ान खत्म हुआ. सीज़फायर खत्म हुआ और साथ ही गठबंधन भी खत्म हो गया.

भाजपा नेतृत्व के पास दूसरी रिपोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की थी. सुनी-सुनाई है कि पिछले एक महीने में जिस तरह की खबरें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक पहुंची वे बेहद गंभीर थीं. इन रिपोर्टों के आने के बाद भी आंखें बंद रखना सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक साबित हो सकता था. खुफिया विभाग के एक अफसर की मानें तो पिछले एक महीने में जैसी घटनाएं घाटी में हुई उसके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मन बना चुके थे कि अब कश्मीर में हालात तभी सुधर सकते हैं जब वहां सिर्फ राज्यपाल शासन हो.

उदाहरण के तौर पर कुछ बातें पता चली. जैसे जैश-ए-मोहम्मद के जिस ग्रुप ने सेना के जवान औरंगज़ेब खान की हत्या की थी उसके बारे में खबर मिल चुकी थी. कुछ इंटरसेप्ट मिले थे जिससे उसके ठिकाने तक पहुंचा जा सकता था. सेना उसी वक्त ऑपरेशन चलाना चाहती थी. लेकिन सुनी-सुनाई है कि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ईद के वक्त ऐसे किसी ऑपरेशन के एकदम खिलाफ थीं.

जम्मू-कश्मीर पुलिस को ऐसे किसी ऑपरेशन में शरीक होने से रोक दिया गया. इसके बाद इफ्तार के लिए जाते वक्त रोज़ेदार शुजात बुखारी की हत्या ने केंद्र सरकार को कड़ा फैसला लेने के लिए मजबूर कर दिया. जैसा कि गृहमंत्री ने एक कार्यक्रम में कहा, ‘रोजे के वक्त रोजेदार को गोली से भूनते हैं. ये कौन सा धर्म है? अब इंसाफ होगा’.

पीडीपी की खबर रखने वाले कश्मीर के एक पत्रकार की मानें तो महबूबा मुफ्ती को सोमवार रात तक यकीन नहीं था कि भाजपा अचानक समर्थन वापस लेने का फैसला लेगी. वे बताते हैं, ‘जम्मू-कश्मीर के भाजपा नेताओं को सोमवार रात तक दिल्ली पहुंचने का फरमान भेजा गया था. भाजपा महासचिव राम माधव आंध्र प्रदेश के कार्यक्रम में व्यस्त थे. उन्हें भी मंगलवार सुबह दिल्ली में रहने के लिए कहा गया. केंद्रीय मंत्री जीतेंद्र सिंह को भी राजधानी में टिके रहने का संदेश भेजा गया. जम्मू से दिल्ली निकले भाजपा के प्रदेश नेताओं को भी इसका अंदाज़ा नहीं था कि क्या होने वाला है.’

जम्मू से निकलने से पहले एक पार्टी नेता ने पत्रकारों को बताया था कि जम्मू के सभी विधायक चाहते हैं कि सरकार से समर्थन वापस लिया जाए क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो 2019 का आम चुनाव और तीन साल बाद विधानसभा चुनाव भी हारना तय है. लेकिन ऐसा वे पिछले तीन साल से कहते आए थे और दिल्ली से हर बार यही जवाब मिलता था कि अभी थोड़ा धीरज रखें और इंतजार करें, वक्त रहने पर फैसला किया जाएगा.

जब प्रदेश के नेता इस बार अमित शाह से मिले तब तक फैसला हो चुका था. अमित शाह के दफ्तर से ही इन नेताओं ने अपना संदेश जम्मू-कश्मीर के राजभवन में भेजा. फिर महबूबा मुफ्ती को भी बताया गया कि भाजपा ने उनकी सरकार गिराने का फैसला कर लिया है. प्रेस कांफ्रेंस करने से पहले भाजपा इतना सब कुछ कर चुकी थी. दोपहर ढाई बजे तक यह तय हो चुका था कि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस भी महबूबा को समर्थन नहीं देगी और कश्मीर में राज्यपाल शासन ही इकलौता विकल्प है.

मंगलवार को अमित शाह से मिलने वालों में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पहले चंद लोगों में से थे. सुनी-सुनाई है कि अजीत डोभाल ने अपनी स्थिति बिल्कुल साफ कर दी थी. उन्होंने अपने साथ-साथ प्रधानमंत्री का संदेश भी भाजपा अध्यक्ष तक पहुंचा दिया था. इस बार फैसला अमित शाह का नहीं था. समर्थन वापसी का फैसला प्रधानमंत्री ने किया था. अमित शाह को उस फैसले को अक्षरश: लागू करना था.

अब भाजपा के पास करीब 10 महीने बचे हैं. दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘तीन साल लंबी दोस्ती के बाद तलाक का गम मनाने का वक्त भी नहीं बचा है. अब मोदी सरकार को अगले 10 महीने में कुछ ऐसा कर दिखाना होगा जिससे जनता ये भूल जाए कि कभी महबूबा और मोदी की दोस्ती भी हुई थी.’ फिलहाल कश्मीर में ऑपरेशन ऑलआउट चलाने का आदेश दिया जा चुका है. मुख्यमंत्री के जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के लिए नए गवर्नर की खोज भी शुरू हो गई है.

(साभार : सत्याग्रह)

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