जब से ‘आप’ के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, तब से उन्होंने दिल्ली वालों के हकों की लड़ाई लड़ने में कसर नहीं छोड़ी है. आज आलम यह है कि वे दिल्ली में मुख्यमंत्री की ताकत को बढ़वाने के लिए उपराज्यपाल के साथसाथ केंद्र सरकार से भी लोहा ले रहे हैं.

दरअसल, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला हुआ है. ऐसे में इस आधेअधूरे राज्य को ले कर कुछ फैसले लेने का हक केंद्र सरकार के पास है तो कुछ राज्य सरकार के पास.

जब तक अरविंद केजरीवाल की पार्टी के चुनाव चिह्न ‘झाड़ू’ ने दिल्ली से कांग्रेस के ‘हाथ’ और भारतीय जनता पार्टी के ‘कमल’ को पिछले विधानसभा चुनाव में बुहारा नहीं था, तब तक यहां इस तरह की नौबत नहीं आई थी कि बागडोर उपराज्यपाल के हाथ में है या मुख्यमंत्री के हाथ में, क्योंकि दोनों एक ही पार्टी के होते थे.

असली घमासान तभी शुरू हो गया था जब साल 2014 में दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटें जीत कर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने सीना तान कर विधानसभा में ऐंट्री मारी थी.

लोकसभा चुनावों के कुछ महीनों बाद ही अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के माथे पर काला टीका जड़ दिया था. तभी से केंद्र सरकार की शह पर उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री में ‘दिल्ली का बौस कौन ’की लड़ाई का बिगुल बज गया था.

खेल मानहानि का

इस अदालती खेल की शुरुआत कांग्रेस ने की थी. साल 2013 में दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी शीला दीक्षित के राजनीतिक सचिव पवन खेड़ा ने अरविंद केजरीवाल पर केस किया था.

इस मामले पर तब अरविंद केजरीवाल ने खुद को बेकुसूर बताते हुए दलील दी थी कि पवन खेड़ा पीडि़त शख्स नहीं हैं और उन के खिलाफ शिकायत गलत है. पवन खेड़ा के पास यह मामला दर्ज करने का कोई हक नहीं है. शिकायत करने वाले पवन खेड़ा न तो कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं, न ही उन्होंने शीला दीक्षित के साथ अपने संबंधों का साफतौर पर खुलासा किया है.

साल 2013 में ही अमित सिब्बल ने भी अरविंद केजरीवाल पर मानहानि का केस कर दिया था. केजरीवाल ने उन पर आरोप लगाया था कि उन्होंने एक दूरसंचार कंपनी की पैरवी करने के लिए अपने पिता कपिल सिब्बल के पद का फायदा उठाया था.

साल 2014 में अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के दिग्गज नेता नितिन गडकरी को भारत के सब से भ्रष्ट नेताओं की लिस्ट में शुमार किया था. साथ ही, उन्होंने अरुण जेटली पर भी दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन में हो रही धांधली में चुप्पी साधे रहने पर सवाल उठाए थे. उन का कहना था कि उन की नाक के नीचे भ्रष्टाचार हुआ था और उन्होंने कुछ नहीं किया.

अरविंद केजरीवाल ने ऐसे जो भी आरोप लगाए थे उन में उन के खिलाफ मानहानि के केस दर्ज करा दिए गए थे. बाद में उन्हें एहसास हुआ कि इस तरह के मसलों में उलझे रहने से वे बतौर मुख्यमंत्री दिल्ली की जनता की भलाई के काम नहीं कर पाएंगे और साथ ही उन की इमेज पर भी बुरा असर पड़ रहा था. लिहाजा, इन केसों से नजात पाने के लिए उन्होंने संबंधित नेताओं से बात करना शुरू किया.

आम आदमी पार्टी के नेता सौरभ भारद्वाज ने इस मसले पर बताया कि ये मानहानि के मामले हमारे राजनीतिक विरोधियों द्वारा हमें कमजोर करने और हमारे नेतृत्व को इन कानूनी मामलों में उलझाए रखने के लिए दर्ज कराए गए हैं. सभी मामलों को आपसी सहमति से सुलझाने का फैसला पार्टी की लीगल टीम की सलाह पर लिया गया.

दूसरों को भी तंग किया

जब अरविंद केजरीवाल या उन की पार्टी के दूसरे नेताओं ने मानहानि के मुकदमों में माफी मांगी तो पहली नजर में लगा कि वे हार गए हैं. उन्होंने केवल चर्चा में बने रहने के लिए ये मामले उछाले थे ताकि भ्रष्टाचार की परतें उघाड़ने के नाम पर दिल्ली की जनता की वाहवाही लूट सकें.

लेकिन माफी मांग कर अरविंद केजरीवाल ने सियासत में लंबे समय तक टिके रहने का टिकट पा लिया था क्योंकि मानहानि के किसी भी केस में अगर कोई कोर्ट उन्हें सजा सुना देती तो शायद उन का राजनीतिक कैरियर ही खत्म हो जाता.

लेकिन भारतीय जनता पार्टी को कहां चैन था. साल 2016 में ‘आप’ के विधायक सोमनाथ भारती के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज किया था. इस से पहले विधायक संदीप कुमार और अमानतुल्ला खान पर भी मामला दर्ज किया था.

विधायक सोमनाथ भारती पर एम्स के चीफ सैक्रेटरी ने मामला दर्ज कराया था. उन्होंने सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और एम्स के चीफ सिक्योरिटी अफसर को धमकाने का आरोप लगाया था.

साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि विधायक ने बिना किसी सरकारी आदेश के जेसीबी मशीन से जबरन एम्स का गेट तुड़वाने की कोशिश की.

दरअसल, दिल्ली पुलिस की बागडोर दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है. यह केंद्र सरकार के अधीन है और अरविंद केजरीवाल की सरकार ने बारबार जनता को यह बताने की कोशिश की थी कि चूंकि भाजपा सरकार का उन पर बस नहीं चलता है, लिहाजा वह उन के विधायकों को तंग करने के मकसद से पुलिस में मामले दर्ज करा कर उन के हौसलों को तोड़ना चाहती है.

इसी तरह दिल्ली के प्रमुख सचिव अंशु प्रकाश के साथ तथाकथित मारपीट के आरोप में आम आदमी पार्टी के ओखला के विधायक अमानतुल्ला खान और देवली से विधायक प्रकाश जारवाल को गिरफ्तार कर 14 दिनों की हिरासत में भेज दिया था.

इस मसले पर दिल्ली पुलिस के वकील की दलील थी कि जांच जारी रहने तक उन विधायकों को जमानत न दी जाए. बाद में कोर्ट ने विधायकों की याचिका रद्द कर उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया था.

आम आदमी पार्टी ने इस केस के सिलसिले में आरोप लगाया था कि दिल्ली पुलिस ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सलाहकार बीके जैन पर बयान बदलने का दबाव बनाया था. बीके जैन को हिरासत में ले कर पूछताछ के बाद छोड़ दिया गया था.

आम आदमी पार्टी के लिए सब से बड़ा मामला लाभ के पद पर बैठे विधायकों की लड़ाई से जुड़ा था कि लाभ के पद के मामलों में चुनाव आयोग ने विधायकों की मान्यता रद्द कर दी थी. इस पर विपक्ष खासकर भारतीय जनता पार्टी ने जम कर चुटकी ली थी और इसे मीडिया की सुर्खियां बना दिया था.

पर आप वालों ने हिम्मत नहीं हारी और हाईकोर्ट में याचिका दे दी. दिल्ली हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग की सिफारिश को खारिज करते हुए निर्देश दिया कि विधायकों की अयोग्यता पर फिर से विचार किया जाए.

हाईकोर्ट के इस फैसले पर खुशी जाहिर करते हुए तब अरविंद केजरीवाल ने सोशल मीडिया पर मैसेज किया था, ‘सत्य की जीत हुई. दिल्ली के लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों को गलत तरीके से बरखास्त किया गया था. दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के लोगों को न्याय दिया. दिल्ली के लोगों की बड़ी जीत.’

दरअसल, मार्च 2015 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया था, जिस के बाद विपक्ष ने विधायक रहते हुए इन्हें लाभ का पद देने का आरोप लगाया था. हाईकोर्ट ने उन के 20 विधायकों को राहत दी थी.

उलझे उपराज्यपाल

भारतीय जनता पार्टी पिछले 3 साल से उपराज्यपाल के मारफत दिल्ली पर राज करना चाहती है ताकि अरविंद केजरीवाल को निकम्मा साबित कर सके.

अरविंद केजरीवाल सुप्रीम कोर्ट से 3 चीजें चाहते हैं जो अगर मिल जाएं तो केजरीवाल के मुताबिक दिल्ली में गवर्नेंस नए लैवल पर दिखाई देगी. वे 3 चीजें इस तरह हैं:

सलाह : इस शब्द पर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार में लंबी लड़ाई चली है. दरअसल, संविधान का एक आर्टिकल 239ए है. इस के तहत दिल्ली में विधानसभा, मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल की व्यवस्था की गई है.

इस में ही एक हिस्सा है आर्टिकल 239एए (4). इस में लिखा गया है कि दिल्ली में उपराज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर काम करेंगे, पर पूरे कानून में यह कहीं पर नहीं लिखा है कि चुने हुए मुख्यमंत्री की सलाह मानना उपराज्यपाल के लिए जरूरी है या नहीं.

दूसरे राज्यों में वहां के राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह मानने को बाध्य होते हैं, पर दिल्ली में ऐसा नहीं है.

दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कहा है कि उपराज्यपाल जरूरत पड़ने पर मुख्यमंत्री या मंत्रिमंडल की सलाह ले सकते हैं, पर सलाह मानने को बाध्य नहीं हैं.

अरविंद केजरीवाल चाहते हैं कि कुछ विषयों को छोड़ कर उपराज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह मानने को बाध्य हों, ताकि दिल्ली में चुनी हुई सरकार अपने हिसाब से काम कर सके.

सर्विसेज : दिल्ली की केजरीवाल सरकार के पास किसी भी कार्मचारी या अधिकारी की ट्रांसफरपोस्टिंग का अधिकार नहीं है क्योंकि केंद्र सरकार ने नोटिफिकेशन जारी कर के इस को केंद्र सरकार का विषय बताया था. बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी थी.

केजरीवाल सरकार कहती है कि शीला दीक्षित के समय में सर्विसेज विभाग चुनी हुई सरकार के पास था लेकिन केंद्र ने केजरीवाल सरकार से यह अधिकार छीन लिया, जिस से एक अधिकारी या कर्मचारी पर चुनी हुई सरकार का कंट्रोल खत्म हो गया है.

एंटी करप्शन ब्रांच : अरविंद केजरीवाल और उन की आम आदमी पार्टी का उदय ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के मुद्दे पर हुआ था, तभी तो सरकार में आने के बाद अरविंद केजरीवाल ने अपनी एंटी करप्शन ब्रांच के लिए भ्रष्टाचार पर कार्यवाही शुरू की और बड़ी तेजी से केस दर्ज किए लेकिन जून, 2015 में उपराज्यपाल ने अपनी पसंद के अधिकारी को एंटी करप्शन ब्रांच में नियुक्त कर दिया जिस से केजरीवाल का यह बड़ा हथियार उन के हाथ से निकल गया.

जहां तक सर्विसेज की बात है तो अरविंद केजरीवाल ने यहां तक कहा कि आईएएस अफसर तो एक तरह से हड़ताल पर चले गए हैं और इसी सिलसिले पर वे 11 जून, 2018 को उपराज्यपाल से मिलने उन के दफ्तर गए थे. तब दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने सोशल मीडिया पर अपनी 3 मांगों को गिनाया था.

मनीष सिसोदिया ने कहा था कि वे हड़ताल के बारे में उपराज्यपाल से 5 बार मिले लेकिन उन्होंने इसे खत्म कराने के लिए कुछ नहीं किया.

गौरतलब है कि मुख्य सचिव अंशु प्रकाश पर अरविंद केजरीवाल के आवास पर फरवरी, 2018 में हुए तथाकथित हमले के बाद से दिल्ली सरकार और नौकरशाही के बीच तीखी तकरार चल रही थी.

जब यह मामला सुलझने के बजाय उलझता चला गया तो 11 जून, 2018 को अरविंद केजरीवाल और उन की कैबिनेट के कुछ सदस्यों ने उपराज्यपाल अनिल बैजल से राजनिवास पर मुलाकात की और मनीष सिसोदिया द्वारा बताई गई अपनी तीनों मांगों के स्वीकार होने तक उन के दफ्तर में बैठे रहने का फैसला किया.

उसी दिन शाम के 6 बजे अरविंद केजरीवाल ने सोशल मीडिया के जरीए अपनी बात जनता के सामने रखते हुए कहा कि उन्होंने उपराज्यपाल अनिल बैजल को एक चिट्ठी सौंपी. उपराज्यपाल ने कार्यवाही करने से इनकार कर दिया.

अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और गोपाल राय के इस धरने पर उपराज्यपाल अनिल बैजल ने कहा कि अधिकारी किसी हड़ताल पर नहीं हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री को विश्वास का माहौल बनाने और नौकरशाही की वास्तविक समस्याओं को हल करने की सलाह दी.

लेकिन अरविंद केजरीवाल राजभवन से टस से मस न हुए. धरने के चौथे दिन उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री को भी इस आरपार की लड़ाई में शामिल कर लिया.

इस मुद्दे पर उन्होंने नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी कि उपराज्यपाल हमारी बातें नहीं सुन रहे हैं. मैं आप से अपील करता हूं कि आप इस मामले में दखल दें और पिछले 3 महीने से जो आईएएस अधिकारियों की हड़ताल जारी है उसे खत्म कराएं.

उपराज्यपाल के निवास पर मुख्यमंत्री का धरना हो और सियासत न गरमाए, ऐसा हो नहीं सकता. आम आदमी पार्टी के नेता और राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने कहा कि आईएएस अधिकारी और उपराज्यपाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कठपुतली हैं.

दिल्ली में विपक्ष के नेता भाजपाई बिजेंद्र गुप्ता ने अरविंद केजरीवाल के इस धरने पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘वे लोग एयरकंडीशंड कार्यालय में धरने पर बैठे हुए हैं और बाहर उन्हें स्वादिष्ठ भोजन दिया जा रहा है, जबकि दिल्ली के लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं. यह काम से भागने का एक नया तरीका है.’’

धरने का यह हाई वोल्टेज ड्रामा

9 दिनों तक चला. 4 जुलाई, 2018 को अपने ऐतिहासिक फैसले में जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उपराज्यपाल दिल्ली में फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं. उपराज्यपाल को कैबिनेट की सलाह के अनुसार ही काम करना होगा.

इस के अलावा सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ कर दिया है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना मुमकिन नहीं है.

इस फैसले के बाद अरविंद केजरीवाल ने कहा कि यह दिल्ली के लोगों और लोकतंत्र की जीत है.

इस के उलट केंद्र सरकार में केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने इस मुद्दे पर ब्लौग लिख कर केजरीवाल सरकार को जवाब दिया. उन्होंने लिखा कि इस फैसले को किसी एक की जीत और दूसरे की हार के तौर पर नहीं देखना चाहिए. दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में पुलिस नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में न तो किसी की शक्तियों को बढ़ाया है और न ही किसी की शक्तियां पहले की तुलना में कम की हैं.

अब देखना यह होगा कि आने वाले समय में कौन कहलाएगा दिल्ली का असली सर्वेसर्वा.

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