सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर कहा है कि भारतीय दंड विधान 1973 की धारा 295 ए के अंतर्गत धार्मिक भावनाओं का जो प्रावधान है वह बहुत सीमित है. आज अंधभक्तों की संख्या इस कदर बढ़ती जा रही है कि वे छोटी सी बात पर भी पुलिसस्टेशन या अदालत में लेखकों, संपादकों, खिलाडि़यों फिल्म अभिनेताओं, नेताओं आदि पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में मुकदमे दर्ज करा देते हैं.

मजे की बात यह है कि मुकदमा दर्ज करने वाला अपने शहर में ही मुकदमा डालता है क्योंकि वहीं उस की भावना को ठेस पहुंची थी जबकि अभियुक्त बन जाता है दूरदराज के शहर का जहां वह रहता है या काम करता है. कोर्ट के पूर्व फैसलों के बावजूद पुलिस थाने, छोटी कई अदालतों से सम्मन, वारंट जारी कर दिए जाते हैं कि तुरंत 2-4 दिनों में अदालत में पेश हो जाओ.

सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि अपराध तब होता है जब जानबूझ कर उत्पात खड़ा करने के मकसद से कुछ कहा, लिखा या दर्शाया गया हो. जानबूझ कर और उत्पात पैदा करने की मंशा  आवश्यक अंश हैं अपराध के. पर न पुलिस वाले इस पर ध्यान देते हैं और न पहली अदालत.

हालांकि दंडप्रक्रिया संहिता में साफ प्रावधान है कि राज्य या केंद्र सरकार की अनुमति ली जाए पर आमजन को इस अनुमति के बिना ही वारंट तक जारी कर दिए जाते हैं. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ताक पर धरा रह जाता है.

खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी को एक पत्रिका द्वारा देवता के रूप में दिखाने पर दर्ज मुकदमे को खारिज कर सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है. पर असल में खेद की बात तो यह है कि निचली अदालतें सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व फैसलों पर ध्यान नहीं देतीं और आम आदमी बनाम खास आदमी का सा मामला मान कर बेमतलब का मुकदमा दर्ज कर लेती हैं.

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