10 विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने 5 सीटें जीत कर एक बार फिर साबित कर दिया कि मेहनत तो राजनीति में भी करनी होती है चाहे आप के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा संगठन क्यों न हो जो लगातार काम कर रहा है वरना जीत संभव नहीं है. कांग्रेस ने बुरा प्रदर्शन नहीं किया पर आम आदमी पार्टी ने तो दिल्ली में अपने ढोल की पोल खोल दी. जहां अमित शाह और नरेंद्र मोदी रातदिन मतदाताओं को लुभाने के लिए दौड़भाग करते रहे, वहीं अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की बागडोर मनीष सिसोदिया पर छोड़ कर एक तरह से राजनीतिक मौजमस्ती का रास्ता अपना लिया.
राजनीति में रातदिन मेहनत करना जरूरी है. पर कुछ को लगता है कि यह तो मुफ्त की रोटी दिलाने वाला धंधा है. सत्ता पाना एक टेढ़ा और मेहनती काम है जिस में जूते घिसने भी पड़ते हैं, खाने भी पड़ते हैं. जहां भाजपा 2014 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में 70 में से केवल 3 सीटें पा कर भी सक्रिय बनी रही, वहीं आम आदमी पार्टी 67 सीटें पा कर भी निष्क्रिय हो कर बैठेबिठाए पंजाब व गोवा में पके फल टपकने का इंतजार करने लगी.
राजनीति में सही बात कहने से ज्यादा सफलता का राज हरदम कुछ करते रहना दिखना है. 2004 से पहले 5 साल सोनिया गांधी ने देशभर में तूफानी दौरे किए थे. वे पार्टी में सक्रिय थीं, लोकसभा में सक्रिय थीं, जमीन पर सक्रिय थीं. 2010-11 से, बीमारी के बाद, उन की गति धीमी हो गई और राहुल गांधी राजनीति को पिकनिक समझ कर कभी आते, कभी सो जाते.
इन उपचुनावों में यह भी दिख रहा है कि यदि नेता काम करें तो नीतियां गलत हों या सही, फल निकलता ही है. कर्नाटक के सिद्धारमैया ने दोनों सीटे जीत लीं क्योंकि वे लगातार अखबारों में छाए रहे और सही छवि के कारण विवादों में नहीं आए. इधर, अरविंद केजरीवाल सिर्फ उपराज्यपाल से झगड़ने के मौके ढूंढ़ते रहे.
देश में अब भाजपा के नेताओं के अलावा बाकी सब ने, ममता बनर्जी अपवाद हैं, एक तरह से अपनी जैसी भी हालत है, का मजा लेना शुरू कर दिया है और उन्हें दरबारियों, चाटुकारों, हुक्मबरदारों के बीच घिरा रहना ही पसंद आ रहा है.
जब लड़ाई के मैदान में एक राजा औरतों का नाच देख रहा हो तो दूसरा जीतेगा ही, चाहे उस के पास फौज कम ही हो. यहां तो भाजपा की फौज अब कहीं अधिक पावरफुल, रिसोर्सफुल और एनर्जीफुल है. उस की जीत पर क्या आश्चर्य.