लोकतंत्र में सत्ताधारी पार्टी की अहमियत के सामने मजबूत विपक्ष की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन देश के मौजूदा हालात में विपक्ष के मुखर न रहने से पार्टी कार्यकर्ता बैकफुट पर आ गए हैं.

किसी भी राजनीतिक दल का मुख्य आधार उस का कार्यकर्ता होता है. उस का ही जोश और जनून होता है जो बिना खाएपिए, भूखेपेट नेता का झंडा उठाए घूमता रहता है. इस की मेहनत से ही नेता की हवा बनती है. जिस पार्टी के कार्यकर्ता में हताशा और निराशा होती  है वह अपनी आधी लड़ाई तो पहले ही हार चुकी होती है. उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह समझ ही नहीं आ रहा था कि वे मुलायम, अखिलेश या शिवपाल में से किस के साथ हैं. परिवार की लड़ाई में कार्यकर्ता हताश हुए और पार्टी सत्ता से बाहर हो गई.

केंद्र और प्रदेश में सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता आज हताशा के दौर में है. वह भी बैकफुट पर है. आपसी बातचीत में वह पहले की तरह मुखर हो कर आक्रामक बातें नहीं कर पा रहा. वह अपनी जगह किसी और दल में बना नहीं पा रहा, इस कारण वह मजबूरी में पार्टी को डिफैंड भर कर रहा है.

आज सोशल मीडिया के जमाने में कार्यकर्ता इसलिए भी महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि इस के बल पर काफी लड़ाई लड़ी जाती है. मैसेज ट्रोल और वायरल होते हैं. 2 साल पहले वाले हालात अब नहीं हैं. भाजपा से जुड़ी खबरों पर प्रतिक्रिया कम आ रही है. भाजपा के खिलाफ आने वाली खबरों को भी कार्यकर्ता स्वीकार करने लगे हैं. केवल धर्म और राष्ट्र के मुद्दे पर बात करते समय वे पार्टी का पक्ष लेते दिखते हैं. इन मुद्दों पर भी इन का पक्ष कमजोर होने लगा है.

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के शेल्टर होम में सैक्स रैकेट को ले कर विरोधियों ने योगी सरकार पर जब हमला शुरू किया तो सोशल मीडिया पर भाजपा का पक्ष लेने वाले पीछे खिसक गए. पिछले साल जब गोरखपुर में अस्पताल में बच्चों की मौत हुई तो भी भाजपा के कार्यकर्ता सरकार की कमी मानने को तैयार नहीं थे.

खाली हाथ कार्यकर्ता

कुछ समय पहले ‘पद्मावत’ फिल्म पर इस वर्ग के लोग बेहद मुखर थे. भाजपा के पक्ष में प्रचार हो रहा था कि सरकार के दबाव में नाम बदल गया और कहानी में कई बदलाव हुए. इस साल दलित एक्ट को ले कर कार्यकर्ता निराशा में चला गया. दलित एक्ट को ले कर केंद्र सरकार की आलोचना शुरू हुई तो बचाव में कार्यकर्ता बाहर दिखा. कई कट्टर कार्यकर्ता खुद पार्टी का विरोध करते नजर आने लगे.

उत्तर प्रदेश में यह हालत विधानसभा चुनाव के बाद से ही होने लगी थी. यही कारण है कि भाजपा गोरखपुर, फूलपुर, कैराना और नूरपुर में हुए उपचुनाव हार गई.

कार्यकर्ताओं को लग रहा था कि उन की सरकार बनेगी तो कुछ नया होगा. चुनावी जीत के बाद पार्टी वर्करों को कुछ देना जरूरी होता है ताकि वे पार्टी के साथ बने रहें. कांग्रेस ने 1947 में अपने वर्करों को स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर सुविधाएं और पैंशन दी थीं. वामपंथी दलों ने हड़ताल कराने के अधिकार अपने लोगों को दे दिए. कांग्रेस ने अपने लोगों की सरकारी कंपनियों में खूब भरती भी कराई थी.

भाजपा के पास न नौकरियां हैं और न पैंशन, न सुविधाएं देने की योजना. इसीलिए निराश कार्यकर्ताओं को भीड़ बना कर लोगों को पीटने का अधिकार दे दिया है. यही वजह है कि बड़ी संख्या में भीड़तंत्र ने हिंसक घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया है.

युवकों को खुश करने के लिए योगी सरकार ने कांवड़ यात्रा में जाने वालों पर हैलिकौप्टर से फूल बरसाने का काम सरकारी मशीनरी को दे दिया. भाजपा सोच रही है कि  इस तरह की आजादी से युवक उस के साथ कार्यकर्ता बन कर रहेंगे. यहां समझने वाली बात यह भी है कि जो युवक इस तरह की घटनाओं के चक्कर में पुलिस और मुकदमों का शिकार हो जाते हैं उन को नुकसान उठाना पड़ता है. युवकों को लग रहा था कि उन की सरकार बनने के बाद वे कमाई कर सकेंगे. कुछ रोजगार मिलेगा. उन को केवल दलितों, पिछड़ों और मुसलिमों पर धौंस जमा कर सुख नहीं मिल रहा.

निराशा का दौर

भाजपा के पास वोटबैंक के रूप में जो लोग थे उन में से बड़ी संख्या सवर्णों की थी. बिजनैसमैन इन का वोटर था. अब केंद्र सरकार की नोटबंदी और जीएसटी कानून के कारण उन पर इंस्पैक्टर राज चलने लगा है. दूसरे सवर्णों को यह उम्मीद थी कि भाजपा की सरकार आरक्षण के मुद्दे पर कुछ अलग करेगी. प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर जिस तरह से भाजपा ने सवर्णों की आवाज को दरकिनार किया वह नाराजगी का कारण बना. इस से बनिया के बाद नौकरीपेशा पार्टी से नाराज हुआ.

भाजपा ने दलित एक्ट को ले कर जिस तरह से कोर्ट की मंशा के खिलाफ काम किया वह सब से बड़ा नाराजगी का मुद्दा बन गया. आज सवर्णों को यह लग रहा है कि भाजपा से बेहतर तो मायावती ही थीं जिन्होंने बिना जांच के मुकदमा होने और मुकदमा होते ही गिरफ्तार होने की बात को कानून से हटा दिया था.

भाजपा को लगता है कि वह अपने लोगों को धर्म और राष्ट्रवाद से जोड़ कर वापस पार्टी में ले आएगी. दलित एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दों पर वह दलित को अपने साथ ले आएगी. यह सोच पुराने राजाओं जैसी है जो खुद की कही बात को ही सही मानते थे.

भावी लोकसभा चुनाव में भाजपा का सब से बड़ा सिरदर्द बसपा नेता मायावती हो गई हैं. इस कारण भाजपा अपने कुछ वर्करों को नाराज कर बसपा को कमजोर करना चाहती है. भाजपा यह नहीं समझ पा रही है कि केवल बातों से सवर्ण और अवर्ण एकसाथ नहीं आने वाले. उत्तर प्रदेश में सहारनपुर के बाद मेरठ में भड़की जातीय हिंसा ने सामाजिक समरसता की पोल खोल दी है. कार्यकर्ता केवल धर्म और राष्ट्रवाद के खोखले दावों पर पार्टी का साथ नहीं देने वाला.

भाजपा इस बात को समझ रही है. इस कारण उस ने तमाम नए लोगों को नाममात्र वाली कुरसी देनी शुरू कर दी है. इन कुरसियों पर नाममात्र के लोग बैठ सकते हैं. आम कार्यकर्ता निराशा के दौर में है. उस ने भाजपा के साथ रह कर जो त्याग किया, उस का कोई लाभ उसे नहीं मिल रहा. अब तक जनता की आलोचना का जवाब देने वाला कार्यकर्ता खुद अपने अंदर के सवालों का कोई जवाब नहीं दे पा रहा.

नौकरशाही का मनोबल बढ़ने से भ्रष्टाचार और इंस्पैक्टर राज बढ़ गया है. इस बात की शिकायत ले कर जब कोई कार्यकर्ता मंत्री के सामने अपनी बात रखता है तो मंत्री महोदय कहते हैं  कि रिश्वत लेने वाले कर्मचारीअधिकारी का नाम व रिश्वत लेने का प्रमाण दो. रिश्वत का प्रमाणपत्र लेना कितना सरल है, यह समझने वाली बात है. जनता भी समझ रही है कि केवल उस को गुमराह किया जा रहा है. कावंड़ यात्रा में गए लोग फूलवर्षा के लिए नहीं, अपने लिए भगवान से सुखद भविष्य की कामना ले कर जाते हैं. उन को भी निराशा हाथ लग रही है. कुल मिला कर भाजपा के कार्यकर्ता अपनी सरकार की नीतियों से संतुष्ट नहीं हैं. हालांकि, वे इस बाबत खुल कर बोल नहीं रहे.

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