अग्निवीर में 4 साल तक परेड करने के बाद क्या युवाओं को मिलेगी नौकरी ?

देश के कई गरीब राज्यों में गरीब किसानों में घरों में जीने का मकसद एक ही होता रहा है, सेना की नौकरी. ब्रिटीश सरकार ने अपने राज के दौरान बड़ी भारी गिनती में हरियाणा, बुंदेलखंड, पंजाब, मद्रास आदि से सैनिक गांवों में जमा किए थे, उन्हें ट्रेङ्क्षनग दी थी और उन के बल पर दुनिया भर में अपना राज जमाया था. तब से सेना की नौकरी का फायदा देश के गरीब किसान घरों को मालूम है और सेना में होने वाली मौतों के खतरे के बावजूद लाखों जवान सेना में नौकरी पाने के लिए रिक्रूटमैंट सैंटरों में जमा होते रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी सरकार के जैसे पढ़ाई, रेलों, हवाई अड्डïों, प्रैस, अदालतों, संसद, विधानसभाओं, जांच ऐजेसियों का अपनी अधमरी पोलिसियों से कचरा किया है वैसा की कचरा सेना केे  साथ करने की योजना बनाई है जिस में 17.5 साल से 21 साल तक के जवानों को थल, वायु और नौ सेना में 4 साल के भर्ती किया जाएगा और 21 से 25 साल की उम्र में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा, एक चैक पकड़ा कर जिस में एक कार तक नहीं खरीदी जा सकती, एक प्लाट तक नहीं मिल सकता, एक दुकान तक नहीं खरीदी जा सकती.

4 साल तक इन अग्निवीरों को पकापकाया खाना, बनीबनाई ड्रेस, अच्छा मकान, आर्मी ट्रकों में आनेजाने की सुविधा देकर इन्हें समाज से काट कर बंदूकों गोलियों

से घेर कर रखा जाएगा और फिर उम्मीद की जाएगी कि ये उस देश में नौकरियां ढूंढ़ें जहां इन 4 सालों में इन के साथी अपनेअपने हुनर सीख चुके होंगे, पढ़ाई की 2-3 बाधाएं दूर कर चुके होंगे या फिर व्यापार या किसानी में कुछ जानकार बन चुके हुए. इन रिटायर्ड अग्निवीरों को 4 साल में सिर्फ परेड करना, अफसर का हुक्म मानना, हथियार चलाना सिखाया जाएगा, ऐसी ट्रेङ्क्षनग जिस की देश का कोई जरूरत नहीं.

अगर देशभर के युवा सडक़ों पर निकल कर इस नई भगवाई स्कीम को ओपोज कर रहे हैं और वह कर रहे हैं जो किसान या मुसलमान करते तो उन पर बुलडोजर चलवा दिए जाते, तो बड़ी बात नहीं. इस नई स्कीम से सरकार लाखों को चाहे हर साल सेना नौकरी न मिलती पर उन के सपने तक चकनाचूर कर दिए. सेना की नौकरी मिलने पर भी उन का कल भरोसेमंद नहीं रहेगा और सैनिक होने पर ङ्क्षजदगी भर पटरी पर रहने की उम्मीद चली जाएगी. सैनिकों से शादी करने के लिए आज लड़कियां विधवा होने के रिस्क के बावजूद तैयार हो जाती है क्योंकि सेना की नौकरी करने के बाद आॢथक सुरक्षा मिलती रहती थी. अग्निवीरों को कोई पेंशन नहीं मिलेगी, कोई हैल्थ कार्ड नहीं मिलेगा, ङ्क्षजदगी का कोई खूंटा नहीं रहेगा. लाखों लड़कियों के सपने भी चकनाचूर हो गए कि वे सैनिक से शादी कर के पक्की गृहस्थी बना सकेंगी.

अब शादी तो रिटायर्ड होने के बाद हो सकेगी और बिना पक्की नौकरी वाले को कौन लडक़ी अपनाएगी? अगर बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, आंध्र के युवा सडक़ों पर उतरे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जिन सपनों के महलों में वे रह रहे थे, उन को एक झटके उन की भगवा सरकार ने चकनाचूर कर दिया. जिन्हें मुसलमानों के घर जलाने के ट्रेङ्क्षनग दी गई थी, वे अब अपनी सरकार की रेलें, पोस्टऔफिस और भाजपा दफ्तर जला रहे हैं.

देश के सारे युवाओं को सेना में चाहे नौकरी नहीं मिलती पर उम्मीद तो रहती थी और अब वह भी गई क्योंकि 4 साल की नौकरी के लिए कौन मगजमारी करेगा?

गांव तब और अब: पैसा आया, हालात वही

गांव तब और अब पैसा आया, हालात वही पिछले कुछ सालों की तुलना करें, तो गांवों में बहुत सारे बदलाव देखने को मिल रहे हैं. वहां तक सड़कें पहुंच गई हैं, भारी तादाद में मकान पक्के हो गए हैं, साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का इस्तेमाल होने लगा है, खेती के काम ट्रैक्टर और दूसरी मशीनों से होने लगे हैं. यहां तक कि कुएं और नदी की जगह पीने का पानी हैंडपंप या वाटर सप्लाई से मिलने लगा है, बिजली तकरीबन हर गांव तक पहुंच गई है, रसोई गैस और बिजली से चलने वाले हीटर का इस्तेमाल खाना बनाने में होने लगा है,

खेती की जमीनों के बिकने से एकमुश्त पैसा भी मिलने लगा है, गांव के स्कूल पहले से बेहतर हो गए हैं, शादीब्याह और दूसरे मौकों पर खर्च और दिखावा बढ़ गया है. लेकिन इतने सारे बदलाव के बाद भी गांवों में आज भी गरीबी है, लोग सरकारी राशन लेने के लिए मजबूर हैं, बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा नहीं पा रहे हैं और अपना इलाज अच्छे अस्पताल में नहीं करा पा रहे हैं. कुलमिला कर हालात परेशानी वाले हैं. किसान खेती से पैसा नहीं कमा पा रहे हैं. गांव के नौजवान रोजगार के लिए शहरों की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं. जिन किसानों के ऊपर पूरे देश की जनता का पेट भरने की जिम्मेदारी है, वे खुद के खाने के लिए सरकारी राशन की दुकानों पर जाने लगे हैं. गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है. सवाल उठता है कि सड़क और बिजली पहुंचने के बाद भी गांवदेहात में गरीबी क्यों है? खेती से दूर भागते नौजवान इस मसले पर यादवेंद्र सिंह बताते हैं,

‘‘गांवों में रहने वाला नौजवान तबका खेतीबारी में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है. वह छोटीमोटी नौकरी करना बेहतर समझता है. जो लोग खेतीकिसानी करते भी हैं, वह खेती के बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखते हैं. ‘‘किस फसल की कब बोआई करनी है? किस मंडी में ज्यादा कीमत मिलती है? सरकार की क्या योजनाएं हैं? फसल को कब बेचा जाए, जिस से ज्यादा मुनाफा हो? ऐसे सवालों के जवाबों से वे अनजान हैं. ‘‘आज बहुत सारी जानकारियां मोबाइल फोन पर मौजूद हैं, पर गांव के लोग मोबाइल का इस्तेमाल गाना सुनने और वीडियो देखने में करते हैं. खेतीकिसानी के बारे में वे ज्यादा नहीं पढ़ते हैं. ‘‘देश में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है. बहुत सारे किसान एक हजार रुपए प्रति माह में भी अपनी जिंदगी की गुजरबसर करते दिखते हैं. ऐसे लोग हमेशा ही इस चाहत में रहते हैं कि सरकार की तरफ से कुछ न कुछ मिल जाए. पर सरकार के मदद करने के बाद भी गांव के लोगों की हालत इसलिए नहीं बदलती है, क्योंकि लोग काम नहीं करना चाहते हैं. वे अपनी जरूरतों को बढ़ा लेते हैं.

‘‘सरकार भी छोटे किसानों को फायदा देने के लिए बुनियादी ढांचा नहीं तैयार करती है. वह केवल छोटीमोटी मदद कर के किसानों को खुश रखना चाहती है, जिस से मदद की चाहत में किसान उसे वोट देते रहें. सरकारी मदद के मुकाबले महंगाई इस कदर बढ़ी है कि किसान की माली हालत जस की तस बनी हुई है.’’ रोजगार की कमी ऋतुजा सिंह बघेल कहती हैं, ‘‘गांव में पहले कुटीर उद्योगधंधे चलते थे. लोहे का काम वहां के रहने वाले लुहार करते थे. लकड़ी का काम भी गांव में होता था. मिट्टी के बरतन गांव में बनते थे. दोनापत्तल भी गांव में बनते थे. सूत कातने, ऊन का काम, अचार, पापड़ जैसी खाने की चीजें गांव में ही बनती थीं. ‘‘भले ही यह बड़ा रोजगार न रहा हो, पर गांव की जरूरतों को पूरा करता था. गांव का पैसा गांव में ही रह जाता था. जैसेजैसे ये काम बाजार के हवाले हो गए, गांव का पैसा बड़ी कंपनियों को जाने लगा. गांव में पैसा आने के बाद भी गरीबी दिखने लगी.

‘‘आज के समय में गांवों में होने वाले शादीब्याह से ले कर छोटेमोटे आयोजनों तक में बाहर का सामान और लोग आते हैं. गांव का पैसा इस तरह से बाहर के लोगों के पास जा रहा है. दिखावा बढ़ गया है. जिन के पास पैसा है, वे भी और जिन के पास पैसा नहीं है, वे भी कर्ज ले कर या जमीन बेच कर अपना काम अच्छे से अच्छा कर रहा है. ‘‘इसे देख कर शहरी लोगों को लगता है कि गांव अमीर हो गए हैं, पर गांव की यह अमीरी केवल हाईवे के किनारे से दिखती है. गांव के अंदर घुसते ही गांव की रहने वाली 80 फीसदी आबादी गरीबी में गुजरबसर करती दिखती है.’’ गरीब होते गांव भारत एक विकासशील देश है, जहां विकास की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उस देश का विकास कैसे हो सकता है, जिस की आधे से ज्यादा आबादी गांव की हो और गरीबी से जूझ रही हो.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे पर आधारित नीति आयोग ने पहली रिपोर्ट जारी कर दी है, जिस के मुताबिक भारत के शहरों के बजाय गांवों में रहने वाले लोग चौगुना ज्यादा गरीब हैं. यह रिपोर्ट 2015-16 के स्वास्थ्य सर्वे पर बनी है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल 25.1 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा में आती है, वहीं गांवों के तकरीबन 37.75 फीसदी लोग गरीबी में आते हैं. शहरों की कुल आबादी का 8.81 फीसदी हिस्सा गरीबों में आता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सब से ज्यादा गरीबी वाला राज्य है, केरल सब से कम गरीबी वाला राज्य है. सब से ज्यादा गरीबी वाले राज्यों में मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर है, वहीं झारखंड और उत्तर प्रदेश दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. सब से कम गरीबी वाले राज्य में गोवा और सिक्किम दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. तेंदुलकर समिति के मुताबिक,

गरीबी में कमी आई है और ग्रामीण आबादी में गरीबी घट कर 33.8 फीसदी से 25.7 फीसदी रह गई है और शहरों में गरीबी आबादी घट कर 29.8 फीसदी से 21.9 फीसदी रह गई है. यहां गौर करने की बात यह है कि गांव की ज्यादातर आबादी किसान तबके की है और खेती पर निर्भर है, लेकिन किसानों को उन की फसल के लिए न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है और न ही उन्हें खेती से जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, जिस से गांव का नौजवान तबका खेती नहीं करना चाहता है और शहरों की तरफ भागता है. गांवदेहात के बहुत से लोग आज भी पढ़ाईलिखाई से दूर हैं और ऐसे न जाने कितनी वजहें हैं, जिन के चलते गांव का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित है. सरकार को चाहिए कि वह जमीनी लैवल पर ऐसे कदम उठाए, जिस से गरीबी कम हो सके. ‘गरीबी हटाओ’ का सच गांव की गरीबी के साथ अपनेअपने समय में सभी नेताओं ने राजनीति की. 70 के दशक में कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. 80 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लागू करते समय यह कहा था कि इस से पिछड़ी जातियों को मजबूत किया जा सकेगा. साल 2004 में जब कांग्रेस की सरकार बनी,

तो गांव में हर घर को रोजगार देने के लिए ‘मनरेगा योजना’ चलाई गई. इस के बाद साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने गांव में रहने वाले किसानों की आमदनी को दोगुना करने का वादा किया. मोदी सरकार बनने के 8 साल बाद भी किसानों और गांव के दूसरे लोगों की हालत जस की तस रही है. किसानों की मदद के लिए 500 रुपए प्रति माह की ‘किसान सम्मान निधि’ और सरकारी राशन की दुकान से राशन देना पड़ा. किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा दरकिनार हो गया. देश की आजादी के 74 साल से ज्यादा बीतने के बाद भी किसानों की हालत जस की तस है. इस का सब से बड़ा उदाहरण राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की हालत को मुद्दा बनाया जाना है. अगर इंदिरा गांधी के समय में गरीबी दूर हो गई होती, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात नहीं करनी पड़ी होती. धर्म और नशाखोरी गांव के लोग अब काम नहीं करना चाहते हैं. महंगी होने के बाद भी वे बाजार में बिकने वाली चीजों का इस्तेमाल करते हैं. इस से गांव की आमदनी खत्म हो रही है.

कामचोरी के साथसाथ गांव में बहुत तेजी से नशा करने की आदत फैल रही है. आज हर तरह का नशा गांव के लोग करने लगे हैं. इस में तंबाकू और शराब के साथसाथ गांजा, भांग और अफीम जैसा नशा भी शामिल है. नशे के चलते अपराध बढ़ रहे हैं. थाना और तहसील में खर्च बढ़ रहा है. कानूनी झगड़े में खेत और जमीनें बिक रही हैं, जो गांव के लोगों पर भारी पड़ रहा है. नशे का दूसरा असर यह है कि शरीर कमजोर होता जा रहा है. दवा और अस्पताल का खर्च बढ़ने लगा है. आज गांवदेहात में भी फास्ट फूड का चलन बढ़ने लगा है. इस से ब्लड प्रैशर और डायबटीज जैसी कई बीमारियां बढ़ रही हैं. गांवदेहात में जो पैसा है, वह किसी उत्पादक काम में नहीं लग रहा है. सब से पहले तो नशाखोरी, उस के बाद धर्म के काम जैसे पूजापाठ, चढ़ावा, दानदक्षिणा में फुजूल का खर्च होता है.

हाल के दिनों में गांवदेहात में भी मंदिरों की तादाद बढ़ गई है. लोग स्कूल और अस्पताल पर खर्च नहीं करते हैं, पर मंदिरों पर जरूर खर्च करते हैं. जब पैसा उत्पादक कामों पर खर्च नहीं होता, तो फायदे की उम्मीद कम हो जाती है. गांवदेहात के लोग अब मेहनत की जगह भाग्य पर भरोसा करने लगे हैं, जिस से ज्यादातर पैसा ऊपर वाले को खुश करने के लिए पंडित को चढ़ावा चढ़ाने में निकल जाता है. गांव छोड़ते लोग गांवदेहात की एक बड़ी आबादी शहरों की तरफ भाग रही है. हर शहर के आसपास ऐसे छोटेछोटे महल्ले बन गए हैं, जहां गांव जैसा ही माहौल देखने को मिलता है. इस से शहरों की व्यवस्था भी खराब होती जा रही है. गांव में अगर रोजीरोजगार का ढांचा तैयार होगा, तो गांव के लोगों का शहरों की तरफ भागना नहीं होगा. बहुत सारे ऐसे रोजगार हैं, जिन की जानकारी देने से गांव के लोगों का फायदा हो सकता है. खेतीबारी से जुड़े रोजगार बढ़ाने की जरूरत है.

अगर ऐसा नहीं किया गया, तो गांव के लोग और भी गरीब होते जाएंगे. शहर में रहने वाले और बिजनैस करने वाले लोगों के पास पैसा बढ़ता जाएगा. इस से गरीबी और अमीरी के बीच की खाई चौड़ी होती जाएगी. गांवदेहात में रोजगार होने से लोगों का शहरों की तरफ भागना रुकेगा. गांव का पैसा गांव में रहेगा, तो तरक्की केवल सड़क तक नहीं दिखेगी, बल्कि गांव के अंदर भी बदलाव दिखेगा. इस के लिए गांव के लोगों को काम करना पड़ेगा, उन्हें नशाखोरी, कामचोरी और धार्मिक अंधविश्वास से दूर होना होगा. नौजवानों की पढ़ाईलिखाई रोजगार देने वाली हो, वह गांव के काम आए, उस तरह की योजना बनाई जाए. भारत की आबादी का सब से बड़ा हिस्सा गांव में रहता है. ऐसे में गांव गरीब रहें और देश तरक्की करे, ऐसा मुमकिन नहीं है. देश की तरक्की गांव के बिना नहीं हो सकती. गांवों को साथ ले कर चलना पड़ेगा, तभी पूरा देश खुशहाल होगा. सरकारी मदद किसी समस्या का समाधान नहीं है. योजना बना कर गांव का रोजगारपरक विकास ही समस्या का एकमात्र हल है.

सेना ही क्यों

सेना ही क्यों जज्बा और हिम्मत कहीं भी काम आ सकते हैं मैंसुबह कसरत करने अपने लोकल पार्क में जाता हूं. वहां कुछ लड़के दौड़ लगाने आते हैं. उन में से ज्यादातर गरीब घर के नौजवान होते हैं और वे बनियान, निक्कर और ‘सैगा’ ब्रांड के जूते पहने हुए होते हैं. पंजाब की इस कंपनी के जूते इसलिए, क्योंकि इतने सस्ते और टिकाऊ रनिंग जूते शायद ही कोई कंपनी बना कर देती होगी. भार में भले ही ये जूते बहुत हलके होते हैं, पर इन्हें पहनने वाले गरीब घरों के लड़कों पर रोजगार पाने का बोझ बहुत ज्यादा होता है. कम जमीन, आमदनी न के बराबर, पर फिर भी ऐसे लड़कों की मेहनत में कोई कमी नहीं होती है और इस बात की गवाही उन के बदन से बहता पसीना दे देता है.

पर चूंकि एक तो भारत में सरकारी नौकरियां वैसे ही कम हैं, ऊपर से बेरोजगारी की हद. लिहाजा, 1-1 सरकारी नौकरी पाने में कंपीटिशन काफी तगड़ा हो जाता है. और जब कोई नौजवान इस कंपीटिशन में लास्ट स्टेज पर चूक जाता है, तो वह कई बार इतने कड़े और दुखदायी कदम उठा लेता है कि देशभर में सुर्खियां बन जाता है. हाल ही में एक 23 साल के लड़के ने इस बात के चलते तनाव में आ कर अपनी जान दे दी कि चूंकि अब वह ओवर एज हो गया है तो सेना में नहीं जा पाएगा, तो फिर जीने से क्या फायदा और उस ने फांसी लगा ली.

यह घटना हरियाणा के भिवानी जिले की है, जहां गांव तालु का रहने वाला 23 साल का नौजवान पवन कुमार पिछले 9 साल से भारतीय सेना में भरती होने के लिए तैयारी कर रहा था, पर सरकार द्वारा भरतियां न निकालने से हताश हो कर उस ने अपनी जान दे दी. पवन कुमार ने खुदकुशी करने से पहले एक हैरान कर देने वाला सुसाइड नोट लिखा, जो किसी कागज पर नहीं, बल्कि रनिंग ट्रैक पर लिखा था. उस सुसाइड नोट में पवन कुमार ने अपने पिताजी से कहा कि इस बार सेना में भरती नहीं हुआ, लेकिन पिताजी अगले जन्म में मैं फौजी जरूर बनूंगा, क्योंकि सेना में भरती न निकलने पर मेरी उम्र भी निकल गई… फिर अपने प्रैक्टिस वाले मैदान में एक पेड़ पर रस्सी का फंदा लगा कर उस ने जान दे दी.

इसी मुद्दे पर तालु गांव में एक सामाजिक संगठन चला रहे इंजीनियर कुलदीप पंघाल ने बताया, ‘‘पवन को सब गांव में ‘पौना’ कहते थे. उस के पिता का नाम जसवंत उर्फ ‘लीला’ है. जब पवन 5 साल का था, तब उस की मां का देहांत हो गया था. परिवार की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी. पिता ने ही किसी तरह दोनों बेटों की परवरिश की थी. पवन दोनों भाइयों में बड़ा था. ‘‘इस बात में कोई दोराय नहीं है कि पवन को सेना में जाने का जुनून था. उसी जुनून को पूरा करने के लिए वह दिन में 3 टाइम ट्रैक पर रेस लगाता था और उस ने क्षेत्रीय लैवल पर रेस में कई बार मैडल भी जीते थे.

वह 3 बार टीए की भरती क्लियर कर चुका था, पर फाइनल रिजल्ट में उस का नाम नहीं आ पाया था. ‘‘साल 2018 में पवन मेरे पास पढ़ने आता था, तब उस की बातों से गहरा सेना प्रेम झलकता था. उस के परिवार के सदस्य बताते हैं कि उन्होंने कई बार प्राइवेट नौकरी लगवाने के लिए उस से पूछा था, पर वह मना करता रहा. ‘‘हरियाणा के तकरीबन हर गांव में पवन जैसे सैकड़ों नौजवान मिल जाएंगे, जिन का सपना केवल भारतीय सेना में जाने का है.

इस बात को सच साबित करने के लिए आप सोशल मीडिया पर ऐसे नौजवानों द्वारा डाली जाने वाली पोस्टों को देख सकते हैं. ‘‘इस के बावजूद अगर सरकार नौकरियां नहीं दे पर रही है तो उसे भी कठघरे में खड़ा करना चाहिए. क्या सरकारी भरतियां समय पर निकाली जा रही हैं? क्या हर सरकारी महकमे में पद खाली नहीं हैं? सेना की भरती में छूट क्यों नहीं दी जाती है,

जबकि हर साल 2.5 लाख नौजवान भरती की उम्र खो देते हैं? सरकार को अपनी इस उदासीनता पर जवाबदेह होना चाहिए.’’ इंजीनियर कुलदीप पंघाल की बात में दम है, क्योंकि अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो सेना का हर 10वां जवान हरियाणा से आता है. रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, भिवानी और रोहतक जिले से सब से ज्यादा नौजवान भारतीय सेना में भरती होते हैं. सेना में जाने और देश के लिए अपनी सेवाएं देने में कोई बुराई नहीं है, पर क्या कुछ करगुजरने का जज्बा और हिम्मत सिर्फ सेना में ही जा कर दिखाए जा सकते हैं? ऐसा नहीं है.

पवन एक होनहार, लगनशील और मेहनती लड़का था. सब से बड़ी बात तो यह कि उस में जुनून की भी कोई कमी नहीं थी. पर सिर्फ सेना में भरती न हो पाने की हताशा से वह पार नहीं पा सका, जबकि अगर वह किसी भी फील्ड में मन लगा कर उतरता, तो यकीनन उसे कामयाबी ही मिलती, क्योंकि वह तन और मन से सेहतमंद था. बस, पवन में इस बात की कमी रह गई कि उस ने अपने मन की पीड़ा किसी से शेयर नहीं की और जिस रनिंग ट्रैक पर वह रोज दौड़ता था,

वहीं अपनी जिंदगी की रेस भी हार गया. लेकिन क्या एक मनचाही नौकरी न मिलने से किसी को अपनी जिंदगी ही दांव पर लगा देनी चाहिए? बिलकुल नहीं. तालु गांव के ही एक चार्टर्ड अकाउंटैंट नरेश शर्मा की मिसाल लेते हैं, जो आज एक प्राइवेट कंपनी में चीफ फाइनैंशियल औफिसर हैं. नरेश शर्मा ने बताया, ‘‘मुझे इस घटना के बारे में जान कर बहुत बुरा लगा. हमारे गांव में हमेशा से आपसी सहयोग का माहौल रहा है. सब एकदूसरे को बढ़ावा देते हैं और ढांढस भी बंधाते हैं.

‘‘मैं जब पढ़ाई कर रहा था तो पड़ोस में सब ने लाउडस्पीकर बजाना बंद कर दिया था कि लड़के की पढ़ाई में बाधा न आए. गांव में किसी के नाकाम होने पर बड़ेबूढ़े दिलासा देते थे कि कोई बात नहीं हारजीत तो होती रहती है. ‘‘लेकिन, समय के साथसाथ नई पीढ़ी में नाकामी को झेलने की ताकत कम हो रही है. बच्चों में डिप्रैशन आ जाता है. यह समस्या शहरों में और भी ज्यादा है. लगता है कि इस बच्चे ने भी बस हताशा में ही यह कदम उठा लिया. ‘‘एक बात तो साफ है कि बढ़ते औटोमेशन के चलते सरकारी नौकरियों में कमी आएगी. प्राइवेट क्षेत्र में भी औटोमेशन बहुत तेजी से बढ़ रहा है, जिस से अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव हो रहे हैं. पारंपरिक दक्षता की जगह नई कुशलता ले रही है.

ऐसे में नौजवानों पर भविष्य की अनिश्चितताओं को ले कर बहुत दबाव है. कोरोना ने जो 2 साल बरबाद कर दिए हैं, उस से भी नौजवानों और छात्रों पर बहुत गहरा मानसिक दबाव पड़ा है. ‘‘पर, जब एक रास्ता बंद होता है, तो और भी कई रास्ते खुल जाते हैं. आगे चल कर लगता है कि वह दरवाजा सही बंद हुआ था. मेरा 10वीं क्लास के बाद एयरफोर्स में सिलैक्शन हो गया था, बस मैडिकल में यह कह कर निकाल दिया था कि तुम्हारे दांत व कान साफ नहीं हैं. ‘‘तब मुझे बहुत दुख हुआ था, लेकिन आज मैं सोचता हूं कि अगर तब नाकाम नहीं हुआ होता तो शायद और ज्यादा पढ़ाई नहीं करता. ‘‘याद रखें कि यह जिंदगी अनमोल है. कामयाबी और नाकामी का फैसला तो जिंदगी जी लेने के बाद ही पता लगेगा कि कौन सी घटना कामयाबी की तरफ ले गई और कौन सी सबक दे गई.’’

हकीकत तो यह है कि पूरे भारत में पवन की खुदकुशी के तूल पकड़ने की वजह देश के हर उस नौजवान की उम्मीद है, जो पवन में अपनेआप को देखता है. फर्क बस इतना है कि उस ने अभी तक खुदकुशी नहीं की है. यह उस की समझदारी कहेंगे या मजबूरी, यह आप को तय करना है. द्य क्या है सरकार की ‘टूर औफ ड्यूटी’ योजना सेना में जवानों की तादाद बढ़ाने और अपना खर्च कम करने के लिए सरकार एक ऐसी ‘टूर औफ ड्यूटी’ योजना पर काम कर रही है, जिस के तहत नौजवान 3 से 5 साल के लिए सेना में अपनी सेवाएं दे सकते हैं. इसे ‘अग्निपथ एंट्री स्कीम’ का नाम दिया जाएगा. बताया जा रहा है कि जो भी लोग इस योजना के तहत सेना में शामिल होंगे, उन में से कुछ को 3 साल के बाद भी सेवा जारी रखने का रास्ता खुला रहेगा. इस योजना के तहत नौजवानों को बतौर सैनिक शौर्ट टर्म करार पर शामिल कर ट्रेनिंग दी जाएगी और अलगअलग इलाकों में तैनात किया जाएगा. साथ ही, बता दें कि उम्मीदवारों को चयन प्रक्रिया में किसी तरह की कोई रियायत नहीं मिलेगी और उन की हर महीने तनख्वाह 80,000 से 90,000 रुपए हो सकती है. इस योजना के तहत सेना में सेवा पूरी करने के बाद नौजवानों को दूसरी नौकरी के लिए सेना मदद करेगी. लिहाजा,

इन ऐसे नौजवानों को कारपोरेट सैक्टर के लिए तैयार करने की योजना भी सेना बना रही है. पर चूंकि फिलहाल यह योजना अभी कागजों पर है, तो यह कब अमल में लाई जाएगी और कितनी कारगर साबित होगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर भारत में जिस तरह से बेरोजगारी बढ़ी है, खासकर सरकारी सैक्टर में नौकरियां कम होने की वजह से, यहां के नौजवानों में इतना सब्र नहीं है कि वे ‘टूर औफ ड्यूटी’ जैसी योजना का इंतजार करें. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर, 2021 तक भारत में बेरोजगार लोगों की तादाद 5.3 करोड़ रही. इन में महिलाओं की तादाद 1.7 करोड़ है. घर बैठे लोगों में उन की तादाद ज्यादा है,

जो लगातार काम खोजने की कोशिश कर रहे हैं. सीएमआईई के मुताबिक, लगातार काम की तलाश करने के बाद भी बेरोजगार बैठे लोगों का बड़ा आंकड़ा चिंताजनक है. रिपोर्ट के मुताबिक, कुल 5.3 करोड़ बेरोजगार लोगों में से 3.5 करोड़ लोग लगातार काम खोज रहे हैं. इन में तकरीबन 80 लाख महिलाएं शामिल हैं. बाकी के 1.7 करोड़ बेरोजगार काम तो करना चाहते हैं, पर वे ऐक्टिव हो कर काम की तलाश नहीं कर रहे हैं. ऐसे बेरोजगारों में 53 फीसदी यानी 90 लाख महिलाएं शामिल हैं. सीएमआईई का कहना है कि भारत में रोजगार मिलने की दर बहुत ही कम है और यह ज्यादा बड़ी समस्या है.

हकीकत: फुटपाथ- बिखरते सपने, जलालत जिंदगी

पौलीथिनों को जोड़जोड़ कर बनाई गई ?ोंपडि़यों के पास पहुंचते ही नथुने में तेज बदबू का अहसास होता है. बगल में बह रही संकरी नाली में बजबजाती गंदगी. कचरा भरा होने की वजह से गंदा पानी गली की सतह पर आने को मचलता दिखता है.

तंग और सीलन भरी छोटीछोटी ?ोंपडि़यों से ?ांकते चीकट भरे चेहरे… खांसते और लड़खड़ाते जिंदगी से बेजार हो चुके बूढ़े, पास की सड़कों और गलियों में हुड़दंग मचाते मैलेकुचैले बच्चे…

यही है फुटपाथों की जिंदगी. सुबह होते ही शहर की चिल्लपौं… गाडि़यों की तेज आवाज और कानफोड़ू हौर्न से ले कर शाम ढलने के बाद के सन्नाटे को आसानी से ?ोलने की कूवत होती है फुटपाथ के बाशिंदों में.

ऐसा नहीं है कि फुटपाथों पर बनी ?ाग्गियों और बाजारों से प्रशासन अनजान होता है या गरीबों पर रहम खा कर उन्हें फुटपाथों पर कारोबार करने या बसने के लिए छोड़ दिया जाता है. इस के पीछे हरे नोटों की चमक काम करती है.

एक पुलिस अफसर बताते हैं कि फुटपाथ पर रहने वालों या कोई धंधा करने वालों को उस के एवज में खासी रकम चुकानी पड़ती है. फुटपाथियों को पुलिस वाले और लोकल रंगदार दोनों की ही मुट्ठी गरम करनी पड़ती है.

सरकार फुटपाथ से कब्जे को हटा तो नहीं सकती, पर उसे वहां रहने वालों या कारोबार करने वालों को पट्टे पर दे दे, तो सरकार के खजाने में काफी पैसा आ सकता है.

पटना के ही ऐक्जीबिशन रोड पर बड़ा पाव और आमलेट का ठेला लगाने वाला एक दुकानदार नाम नहीं छापने की गारंटी देने के बाद कहता है कि वह दिनभर में 2,000 रुपए का धंधा कर लेता है.

रोज शाम होते ही पुलिस वाले और लोकल दादा टाइप लोग ‘टैक्स’ वसूलने के लिए पहुंच जाते हैं. 200 रुपए पुलिस वालों और 300 रुपए गुंडों को चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है. इस के बाद भी वे लोग बड़ा पाव और आमलेट मुफ्त में हजम करना नहीं भूलते हैं.

मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, पटना से ले कर किसी भी बड़े या छोटे शहर के फुटपाथों की जिंदगी एकजैसी ही होती है. आजादी के 74 सालों में शहर का रंगरूप बदला. चमचमाती बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गईं. कोलतार की जगह कंक्रीट की ठोस सड़कें बन गईं. फुटपाथों पर रंगबिरंगी टाइल्स लग गईं. कई सरकारें बदल गईं. तरक्की के हजारों दावे और वादे हुए, पर फुटपाथों पर रहने वालों का कुछ भी नहीं बदला.

शहर के लोग ही फुटपाथियों को मखमल में टाट का पैबंद की तरह मानते हैं और उन्हें हिकारत की नजर से देखा जाता है. सरकार उन्हें अपने वोट बैंक के तौर पर ही देखती है.

दरअसल, इन फुटपाथियों में ज्यादातर दुकानदार पिछड़ी और दलित जातियों के होते हैं, जिन से वसूली का हक तो पौराणिक है और कोई अफसर या नेता इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहता.

एक समाज विज्ञानी कहते हैं कि दलित या भूमिहीन गरीब लोग गांव छोड़ कर शहर इसलिए आते हैं कि उन्हें कोई बढि़या और पक्का काम मिलेगा, लेकिन ज्यादातर लोग मजदूर, रिकशा या ठेला गाड़ी चलाने वाले और भिखारी बन कर रह जाते हैं, शहरों में इधरउधर भटकते हुए फुटपाथों पर टिक जाते हैं.

फुटपाथ पर ही बसना और उजड़ना उन की नियति बन जाती है. कभीकभार जब लोकल पुलिस थानों पर ‘ऊपरी प्रैशर’ आता है, तो आननफानन में ही मुहिम शुरू कर फुटपाथ को साफ करा दिया जाता है और पुलिस की ‘हल्ला गाड़ी’ (बुलडोजर या जेसीबी) के वापस लौटते ही फुटपाथों पर फिर से कब्जा होने लगता है.

सड़कों के किनारे फुटपाथ बनाने का मकसद यही है कि पैदल चलने वाले लोगों को परेशानी न हो और सड़कों पर तेज चलती गाडि़यों से उन की हिफाजत की जा सके.

संविधान के अनुच्छेद 20 के पैरा 2 और 3 में सड़कों पर पैदल चलने वालों को सुरक्षा का अधिकार दिया गया है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि शहरों में 28 फीसदी आबादी ऐसी है, जो पैदल चलती है. इस के बाद भी सरकारें पैदल चलने वालोंकी हिफाजत के लिए गंभीर नहीं रही हैं.

शहरों में कुल सड़कों की लंबाई का 30 फीसदी ही फुटपाथ है और उस के बाद करेले पर नीम वाली हालत यह है कि फुटपाथों पर गैरकानूनी कब्जा है.

पटना शहर का मुख्य और पुराना इलाका है अशोक राजपथ. इसी सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर भिखारियों की झोंपडि़यां बसी हुई हैं. अपने गुजर चुके परिवार वालों की आत्मा को शांति पहुंचाने के टोटके के नाम पर लोग यहां के लोगों के बीच पूरी, सब्जी और मिठाई का पैकेट बांटते रहते हैं.

समाज में फैले अंधविश्वास ने भी फुटपाथों को जिंदा रखने में अहम रोल अदाकिया है. शहर में रोज कोई न कोई मरता ही है और उन के परिवार वाले फुटपाथ पर रहने वाले गरीबों के बीच खाने का पैकेट बांटने की रस्म निभा कर सम?ाते हैं कि मरे हुए परिवार वालों की आत्मा को शांति मिलेगी.

इसी दकियानूसी सोच की वजह से शहरी फुटपाथों के बाशिंदों को कभी पकवानों की कमी नहीं होती है. फुटपाथ पर पिछले 26 सालों से रह रहा जीतन बताता है कि महीने में 15-17 दिन पूरी, सब्जी और मिठाई खाने का मजा मिलता है. वह अपने 3 बच्चों और बीवी के साथ छोटी सी झोंपड़ी में रह रहा है.

कोविड 19 के दिनों में लोगों ने इन लोगों को भरपेट खाना खिला कर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी कम निभाई, पुण्य ही ज्यादा कमाया. उन्हें गरीब रखने से ही तो पुण्य मिलेगा और वैसे भी ये गरीब फटेहाल पिछले जन्मों के पापों के फल भोग रहे हैं.

जब मुफ्त में बैठेठाले खाने को तर माल मिल रहा हो और हराम का खाना खाने की आदत पड़ गई हो, तो कोई काम करने के लिए हाथपैर क्यों चलाए? भिखारियों की इस गली के बसने, पनपने और बढ़ने के पीछे पोंगापंथ का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है.

जब एक बच्चे से पूछा गया कि उसे लोग बढि़याबढि़या खाना खाने के लिए क्यों दे जाते हैं, तो वह छूटते ही कहता है, ‘‘जब तक लोग हम कंगालों को खाना नहीं खिलाएंगे, तब तक मरने वाले की आत्मा भटकती रहेगी. दूसरा जीवन पाने के लिए उसे कोई शरीर ही नहीं मिलेगा.’’

उस बच्चे की बातों को सुन कर यही लगता है कि उस के मांबाप ने भी उसे यह बात घुट्टी में पिला दी है कि लोग उसे खाना खिला कर या दान दे कर कोई अहसान नहीं करते हैं. यह सब काम लोग अपना मतलब साधने के लिए ही करते हैं.

?ारखंड की राजधानी रांची के मेन रोड इलाके में फुटपाथ पर रहने वाले ज्यादातर लोग किसी भी सूरत से अपंग और लाचार नहीं हैं. इस के बाद भी वे कोई काम नहीं करना चाहते हैं. उन्हें कोई काम नहीं देना चाहता है. मेहनतमजदूरी का पैसा कमाने और पेट पालने के बारे में वे लोग सोचते ही नहीं हैं.

अपने 4 बच्चों के साथ रहने वाले डोमन दास से जब पूछा गया कि वह कोई कामधंधा क्यों नहीं करता है? अपंग नहीं होने के बाद भी भीख और दान के भरोसे क्यों रहता है? इन सब सवालों के जवाब में वह उलटा सवाल करता है, ‘‘अगर हम लोग दूसरा कामधंधा करने लगेंगे, तो पैसे वालों के दानपुण्य का काम कैसे चलेगा? गरीबों को दान दे कर ही तो रईस लोग पुण्य बटोरते हैं.’’

हर सरकार और प्रशासन फुटपाथ और ?ाग्गियों में बसे लोगों को हटाने या दूसरी जगह बसाने के बजाय उन्हें बनाए रखने में दिलचस्पी रखते हैं. कभीकभार आम जनता की आंखों में धूल ?ोंकने के लिए प्रशासन पर सनक सवार होती है, तो फुटपाथ पर से कब्जा हटा दिया जाता है और उस के बाद दोबारा कान में तेल डाल कर सो जाता है.

झुग्गियां उखाड़ने के चंद घंट बाद ही फिर से तिनकातिनका जोड़ कर लोग फुटपाथों पर झोंपडि़यां बना लेते हैं. प्रशासन के इसी रवैए की वजह से फुटपाथ पर रहने वालों को पुलिस के डंडों और बुलडोजरों से अब डर नहीं लगता है.

हालांकि वे सम?ा चुके हैं कि साल 2 साल में उन्हें फिर से उजाड़ा जाएगा और वे फिर उसी जगह बस जाएंगे. उस के बाद कुछ सालों तक उन्हें कुछ नहीं होने वाला है.

दरअसल, उजड़ना और बसना ही फुटपाथियों की जिंदगी रही है. पटना के पीरमुहानी महल्ले में फुटपाथ पर बसे कल्लू गोप कहता है कि वह पिछले 8 सालों से उस जगह पर रह रहा है, लेकिन रोजाना ही उस के सिर पर उजड़ने की तलवार लटकी रहती है.

पास ही में खड़ा उस का 12 साल का बेटा बड़ी ही मासूमियत से कहता है कि उस के साथ कई बच्चों ने मिल कर मुख्यमंत्री अंकल और डीएम अंकल से कहा था कि उन्हें रहने के लिए छोटा सा घर दिया जाए, जिस से झोंपड़ी के बच्चे मन लगा कर पढ़ सकें और बड़ा आदमी बन सकें, पर कोई सुनता ही नहीं है.

इलाके के लोग सर्किल अफसर से ले कर गवर्नर तक गुहार लगा चुके हैं, इस के बाद भी गरीबों को उन के हाल पर छोड़ दिया गया है. बेलगाम पुलिस ने गंगा बिंद के 3 साल के मासूम बच्चे को भी लाठी से पीट डाला.

अपनी झोंपड़ी के सामने खड़ी तकरीबन 70 साल की बीना देवी पर भी पुलिस ने रहम नहीं दिखाया और उस के पेट में लाठी मार दी. वह तड़प कर जमीन पर गिर पड़ी. उस के इलाज पर 2,000 रुपए खर्च हो गए.

फुटपाथ पर रहने वालों की जिंदगी को देख कर यही महसूस होता है कि गांवघर को छोड़ कर बेहतर जिंदगी का सपना देखने वालों के लिए शहर का फुटपाथ ही बिछौना और घर है. 6-7 फुट के झोंपड़े में न जाने कितनी जिंदगियां खाक हो गईं और न जाने कितने खाक होने के इंतजार में तिलतिल कर रोज ही मर रहे हैं.

गांवों में तो उन का और भी बुरा हाल है, क्योंकि वहां तो उन के ?ोंपड़ों में आग भी लगा दी जाती है और औरतों को उठा कर ले जाया जाता है.

समस्या: औनलाइन ज्ञान से जिंदगी के साथ खिलवाड़

आजकल यूट्यूब पर वीडियो देख कर घर पर ही कुछ भी करने का चलन बढ़ा है, लेकिन यह खतरनाक भी हो सकता है.

हाल ही में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में 25 साल की एक लड़की ने यूट्यूब पर एक वीडियो देख कर घर पर ही अपना भ्रूण (पेट का बच्चा) निकालने की कोशिश की. नतीजतन, उस की हालत बिगड़ गई और उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, उस लड़की को ऐसी सलाह उस के प्रेमी ने दी थी.

उस लड़की ने पुलिस को बताया कि उस का प्रेमी साल 2016 से उस के साथ रेप कर रहा था और शादी का ?ांसा दे रहा था. अब जब वह पेट से हुई, तब उस के प्रेमी ने सलाह दी कि वह यूट्यूब से वीडियो देख कर बच्चा गिरा ले और उस की बताई हुई दवाएं खा ले.

जब लड़की ने ऐसा करने की कोशिश की, तब उस की हालत बिगड़ गई और उस के बाद उसे अस्पताल में भरती कराया गया.

यूट्यूब वीडियो देख कर खुद पर तजरबा करने का एक ऐसा ही मामला केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के वेंगानूर इलाके में भी देखने को मिला.

7वीं जमात का एक छात्र शिवनारायण सोशल मीडिया या यूट्यूब वीडियो देखने का आदी था. यूट्यूब पर बालों को स्ट्रेट यानी सीधा करने का वीडियो देख कर उस ने खुद पर उस तरीके को आजमाने की कोशिश की.

जब घर में कोई नहीं था, तब उस छात्र ने अपने बालों में मिट्टी का तेल लगा दिया और जलती हुई माचिस की तीली से बालों को सीधा करने की कोशिश करने लगा. इस दौरान वह आग की चपेट में आ गया.

तब वह छात्र अपने घर के बाथरूम में था और घर में सिर्फ उस की दादी थीं. आग की चपेट में आने के बाद वह रोनेचिल्लाने लगा. दादी ने आसपास के लोगों को बुलाया. लोगों ने जैसेतैसे आग बु?ाई और उसे तुरंत अस्पताल ले गए, लेकिन वह छात्र बच नहीं सका.

हम ने देखा है कि आजकल अगर कोई कुछ नया करना चाहता है या कुछ नया सीखना चाहता है, तो यूट्यूब पर उस के बारे में जरूर खोजबीन करता है. यूट्यूब पर कई लोग अलगअलग मुद्दों पर अपने खुद के वीडियो या ट्यूटोरियल पोस्ट करते रहते हैं.

यह सच है कि यूट्यूब और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफार्म आज हमारी जिंदगी में काफी मददगार साबित हो रहे हैं. उन के कई अच्छे नतीजे भी हम सब के सामने आते रहते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम औनलाइन वीडियो से लिए गए उपायों को इतना जीने लगे हैं कि हम अपनी जान तक जोखिम में डाल रहे हैं?

यह सच है कि दुनिया पूरी तरह से डिजिटल हो रही है और यकीनी तौर पर लोगों को इस से काफी फायदा हो रहा है. औनलाइन साधनों के सही इस्तेमाल का हमें तब पता चला, जब दुनिया कोरोना के चलते लगे लौकडाउन में फंस गई थी, लेकिन औनलाइन काम की सहूलियत होने के चलते न केवल लोगों का कारोबार चलता रहा, बल्कि बच्चों की पढ़ाईलिखाई में कोई बड़ी दिक्कत नहीं आई.

पर इस का मतलब यह नहीं है कि हमें हर उस काम के लिए औनलाइन जरीए का सहारा लेना चाहिए, जिस के लिए फिजिकल होना जरूरी है.

दरअसल, इंटरनैट या यूट्यूब पर दी गई जानकारी के कई मकसद हो सकते हैं. मसलन, मशहूर होना, कारोबार करना, चैनल चलाना, सब्सक्राइबर बढ़ाना या किसी सब्जैक्ट पर थोड़ी जानकारी देना.

ध्यान रहे कि कोई भी चैनल पूरी जानकारी देने को तैयार नहीं है और न ही सारी जानकारी दी जा सकती है.

आमतौर पर यूट्यूब के वीडियो लोगों को जागरूक करने के लिए होते हैं. वे हमें देश और दुनिया की जानकारी देने के लिए होते हैं, लेकिन इस का यह कतई मतलब नहीं है कि हम इन वीडियो को देख कर खुद को किसी खास फील्ड का मास्टर मान बैठें.

बच्चा गिराने से जुड़ा जो काम एक माहिर डाक्टर का है, वह कैसे यूट्यूब के जरीए खुद घर पर हो सकता है? अगर ऐसा ही होता तो सालों तक पढ़ने और रिसर्च करने वाले डाक्टरों की जरूरत ही क्या है?

अगर आधीअधूरी जानकारी के साथ खुद पर तजरबा करेंगे तो इस से आप का नुकसान ही होगा. क्या यूट्यूब वीडियो देख कर हम किसी भी सब्जैक्ट के माहिर बन सकते हैं?

कतई नहीं, क्योंकि किसी सब्जैक्ट को सीखना केवल उसे जानना नहीं होता है, बल्कि उसे होते हुए देखना और खुद करना भी पड़ता है.

आप किसी डाक्टर या माहिर की बराबरी नहीं कर सकते हैं. किसी भी काम में ज्ञान के साथसाथ माहिर के सधे हाथ और तजरबे बेहद खास होते हैं. उन्हें सब्जैक्ट के हर पहलू का बारीकी से पता होता है.

अगर हालात बिगड़ें या कोई मुश्किल आ जाए, तो उन के पास इस से निबटने के तरीके और साधन होते हैं. इसलिए बेहतर होगा कि सेहत से जुड़े हर मामले में यूट्यूब वीडियो पर भरोसा न करें और डाक्टर या माहिर की सलाह लें.

हमें न केवल इसे सम?ाना है, बल्कि अपनी नई पीढ़ी को यह भी सम?ाना है कि यूट्यूब या सोशल साइटों पर मौजूद सामग्री की संजीदगी को सम?ों और यह तय करना भी सीखें कि जिंदगी में उस की कहां और कितनी अहमियत है.   द्य

हकीकत: गरीब घरों में बूढ़ों की हालत

अच्छन मियां का पूरा परिवार पहले साथ में एक छत के नीचे रहता था. अच्छन मियां के 2 भाई और उन का परिवार और अच्छन मियां के अपने 4 बेटे औ 3 बेटियां सब मिलजुल कर रहते थे.

अच्छन मियां की चाबीताले की एक दुकान थी. बाद में दुकान उन का बड़ा लड़का चलाने लगा. अच्छन मियां जब तक दुकान पर बैठते थे, उन की और उन की बेगम सायरा बी की पूरा घर इज्जत करता था और प्यार करता था. बड़े 2 बेटों की शादियां हुईं और उन के बच्चे हुए तो अच्छन मियां और सायरा बी दादादादी की पदवी पा कर और भी ज्यादा प्यार और इज्जत के पात्र हो गए.

लेकिन तीनों बेटियों की शादी के बाद घर की खुशियों में कमी आ गई. अच्छन मियां और सायरा बी भी बुढ़ापे की ओर तेजी से बढ़ने लगे. आंख से दिखाई देना भी कम हो गया. अब चाबी बनाने का हुनर भी किसी काम का नहीं बचा. ऐसे में अच्छन मियां ने दुकान पूरी तरह बड़े बेटे को सौंप दी. उन का छोटा लड़का एक कंपनी में चपरासी लग गया.

अच्छन मियां के दोनों भाइयों के परिवार भी जब बढ़े तो उन लोगों ने गांव वाली अपनी जमीन पर मकान बनवा लिया. अच्छन मियां के दोनों छोटे लड़के अपने बीवीबच्चों को ले कर दूसरे शहर में नौकरी के लिए चले गए.

अब घर में 2 बेटों का परिवार बचा. बहुओं के आगे सायरा बी के फैसले कमजोर पड़ने लगे. उन की रसोई पर अब पूरी तरह बहुओं का कब्जा हो गया. वे अपनी मनमरजी की चीजें पकातीं और खिलातीं. कुछ कहो तो सुनने को मिलता, ‘यहां क्या होटल खुला है कि सब की फरमाइश का अलगअलग खाना बनेगा?’

कई बार ऐसा खाना सामने आता है, जो दांत न होने की वजह से चबाया ही नहीं जाता है. ऐसे में दोनों सत्तू घोल कर पी लेते हैं. दूधदही कभी खाने में दिखता ही नहीं है. एक रोटी और थोड़ी सी दाल देना ही दोनों बहुओं को भारी लगता है.

यही हाल गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश की शारदा रानी का है. शारदा रानी की उम्र 76 साल की है. पति जवानी में ही नहीं  रहे थे. 2 लड़के थे. छोटा लड़का अपना परिवार ले कर शुरू से ही अलग रहता था.

बड़ा लड़का मां को अपने साथ रखता था, मगर उस की पत्नी को हर काम में सास की दखलअंदाजी बरदाश्त नहीं थी, तो उस ने कुछ पैसा लोन ले कर और कुछ जमापूंजी जुटा कर एक अलग घर खरीद लिया. उस में उस के चारों भाइयों ने भी पैसे की मदद की थी.

नए घर में उस ने सास के आने पर बैन लगा दिया. अब बूढ़ी शारदा रानी अपने घर में अकेले रहती हैं. बेटा 2 दिन में एक बार चक्कर लगा लेता है और जरूरत का सामान खरीद कर रख जाता है.

इस उम्र में शारदा रानी जैसेतैसे अपने लिए रोटीदाल बनाती हैं. खुद सुबह सोसाइटी के नल से पानी लाती हैं. दिनभर अकेले पड़े बीते दिनों को याद कर के आंसू बहाती हैं. कोई नहीं है, जो उन से बात करे या उन का हाल जाने.

कोरोना काल में वे एक हफ्ते तक बुखार में तपती रहीं. बेटा बुखार की गोली का पत्ता पकड़ा गया और कोरोना के डर से कई हफ्ते तक मां को देखने भी नहीं आया.

शारदा रानी बुखार की हालत में खुद ही थोड़ाबहुत खाने को बनातीं और माथे पर पानी की पट्टियां रखरख कर बुखार कम करतीं. किसी तरह कोरोना को मात दी और जान बच गई, मगर बेटे के रूखे बरताव ने मां का दिल छलनी कर दिया.

दिल्ली के मोती नगर मैट्रो स्टेशन के नीचे सीढि़यों पर आप हर दिन एक बेहद बुजुर्ग आदमी को कंबल में लिपटा बैठा देखेंगे. वे बुजुर्ग भिखारी नहीं हैं, मगर सालों से वहां बैठे दिख रहे हैं. कभीकभी वे वहीं सीढि़यों पर सोए हुए दिखते हैं.

वे बुजुर्ग साथ में एक कपड़े का बैग रखते हैं, जिस में एक चादर और कुछ कपड़े रहते हैं. इन का मोती नगर में ही अपना घर है. घर में बेटाबहू और पोतेपोतियां हैं, मगर वे अब घर नहीं जाते हैं.

घर में बहू ने उन का बहुत तिरस्कार किया था. बेटा भी लड़ता?ागड़ता था, इसलिए उन्होंने घर छोड़ दिया. अब बेटा सुबहशाम यहीं सीढि़यों पर उन्हें खाने का पैकेट पकड़ा जाता है, जिसे कई बार वे खा लेते हैं या कई बार आसपास के कुत्तों को खिला देते हैं. नहानेधोने के लिए वे मैट्रो स्टेशन के नीचे बने सुलभ शौचालय में चले जाते हैं.

शौचालय का चौकीदार भला आदमी है. वह उन से कोई पैसा नहीं लेता है. आसपास के दुकानदारों को भी उन से हमदर्दी है. कभी कोई चायसमोसा भी खिला देता है. वे लोग उन बुजुर्ग को सम?ाते हैं कि अपने घर चले जाओ, मगर अपनों के तानों से दिल ऐसा फटा है कि वे घर जाने से मना कर देते हैं.

भारत में बुजुर्गों के साथ बहुत ही शर्मनाक बरताव होने लगा है, खासतौर पर गरीब परिवारों में तो इन्हें अब बो?ा सम?ा जाने लगा है. गरीब परिवार के बुजुर्गों को तिरस्कार, माली परेशानी के अलावा दिमागी और जिस्मानी जोरजुल्म का सामना भी करना पड़ता है.

भारत में संयुक्त परिवार का चरमराना बुजुर्गों के लिए नुकसानदायक साबित हुआ है. ज्यादा उम्र या सुस्त होने की वजह से लोग उन से रूखेपन से बात करते हैं. उन की भावनात्मक कमी को पूरा करने के लिए नई पीढ़ी के पास समय नहीं है.

‘एजवेल फाउंडेशन’ नामक संस्था के एक सर्वे में सामने आया है कि कोरोना काल में बुजुर्गों के प्रति हिंसात्मक बरताव में बढ़ोतरी हुई है. तकरीबन हर तीसरे बुजुर्ग (35.1 फीसदी) ने दावा किया कि लोग बुढ़ापे में घरेलू हिंसा (शारीरिक या मौखिक) का सामना करते हैं.

इस फाउंडेशन के अध्यक्ष हिमांशु रथ का कहना है कि कोविड-19 और संबंधित लौकडाउन और प्रतिबंधों ने तकरीबन हर इनसान को प्रभावित किया है, लेकिन बुजुर्ग अब तक सब से ज्यादा प्रभावित रहे हैं. सब से बुरी तरह प्रभावित बुजुर्ग औरतें हैं.

बड़ों के साथ होने वाले गलत बरताव के ज्यादातर मामले पैसे से जुड़े होते हैं. कभी बच्चों का जमीनजायदाद अपने नाम करवाने का दबाव, तो कभी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी बच्चों से गुजारिश करते रहने के हालात ज्यादातर परिवारों में देखने को मिलते हैं.

भारत में साढ़े 7 करोड़ बुजुर्ग या 60 साल से ज्यादा उम्र के हर 2 में एक इनसान किसी लंबी और पुरानी बीमारी से पीडि़त है. ज्यादातर बुजुर्गों में शारीरिक कमजोरी की परेशानी है.

20 फीसदी से ज्यादा बुजुर्ग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारी से जू?ा रहे हैं. साथ ही, 27 फीसदी बुजुर्ग कई दूसरी तरह की बीमारियों से घिरे हुए हैं, जिन की तादाद साढ़े 3 करोड़ के आसपास है.

ऐसे में पहले से ही पीड़ा और परेशानियों के पहाड़ तले दबे बूढ़ों के लिए कोरोना की मुसीबत ने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं.

अगर अपनों का साथ व सहयोग मिले, तो जिंदगी की हर जद्दोजेहद आसान हो जाती है. अपनेपन का भाव और अपनों का लगाव उम्र के हर मोड़ पर मन को ऊर्जा देता है, पर अफसोस कि थके शरीर व कमजोर होती सोच के चलते बुजुर्गों को अपनों का साथ नहीं, बल्कि शोषण का व्यवहार मिलता है.

बच्चों की मासूमियत से खिलवाड़ करते परिजन

कम उम्र में बच्चे लाखों रुपए हासिल कर मातापिता की कमाई का जरिया बन रहे हैं. टीवी और विज्ञापनों की चकाचौंध अभिभावकों की लालसा को इस कदर बढ़ा रही है कि इस के लिए वे अपने बच्चों की मासूमियत और उन के बचपन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. घंटों मेकअप और कैमरे की बड़ीबड़ी गरम लाइट्स के बीच थकाऊ शूटिंग बच्चों को किस कदर त्रस्त करती होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन, इन सब से बेखबर मातापिता अपने लाड़लों को इस दुनिया में धकेल रहे हैं. कुछ समय पहले कानपुर में भारी बरसात के बीच दोढाई हजार बच्चों के साथ उन के मातापिता 3 दिनों तक के चक्कर लगाते एक औडिटोरियम में आते रहे ताकि साबुन बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन में उन बच्चे नजर आ जाएं. कंपनी को सिर्फ 5 बच्चे लेने थे. सभी बच्चे चौथी-पांचवीं के छात्र थे और ऐसा भी नहीं कि इन 4-5 दिनों के दौरान बच्चों के स्कूल बंद थे, या फिर बच्चों को मोटा मेहनताना मिलना था.

विज्ञापन में बच्चे का चेहरा नजर आ जाए, इस के लिए मांबाप इतने व्याकुल थे कि इन में से कई कामकाजी मातापिता ने 3 दिनों के लिए औफिस से छुट्टी ले रखी थी. वे ठीक उसी तरह काफीकुछ लुटाने को तैयार थे जैसे एक वक्त किसी स्कूल में दाखिला कराने के लिए मांबाप डोनेशन देने को तैयार रहते हैं.

30 लाख बच्चे कंपनियों में रजिस्टर्ड : महानगर और छोटे शहरों के मांबाप, जो अपने बच्चों को अत्याधुनिक स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए हायतौबा करते हुए मुंहमांगा डोनेशन देने को तैयार रहते हैं अब वही अपने बच्चों का भविष्य स्कूलों की जगह विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में रुपहले परदे पर चमक दिखाने से ले कर सड़क किनारे लगने वाले विज्ञापनबोर्ड पर अपने बच्चों को टांगने के लिए तैयार हैं.

आंकड़े बताते हैं कि हर नए उत्पाद के साथ औसतन देशभर में सौ बच्चे उस के विज्ञापन में लगते हैं. इस वक्त 2 सौ से ज्यादा कंपनियां विज्ञापनों के लिए देशभर में बच्चों को छांटने का काम इंटरनैट पर अपनी अलगअलग साइटों के जरिए कर रही हैं. इन 2 सौ कंपनियों ने 30 लाख बच्चों का पंजीकरण कर रखा है. वहीं, देश के अलगअलग हिस्सों में करीब 40 लाख से ज्यादा बच्चे टैलीविजन विज्ञापन से ले कर मनोरंजन की दुनिया में सीधी भागीदारी के लिए पढ़ाईलिखाई छोड़ कर भिड़े हुए हैं.

इन का बजट ढाई हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का है. जबकि देश की सेना में देश का नागरिक शामिल हो, इस जज्बे को जगाने के लिए सरकार 10 करोड़ रुपए का विज्ञापन करने की सोच रही है. यानी, सेना में शामिल हों, यह बात भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर मौडलिंग करने वाले युवा ही देश को बताएंगे.

सवाल सिर्फ पढ़ाई के बदले मौडलिंग करने की ललक का नहीं है, बल्कि जिस तरह शिक्षा को बाजार में बदला गया और निजी कालेजों में नएनए कोर्सों की पढ़ाई हो रही है, उस में छात्रों को न तो कोई भविष्य नजर आ रहा है और न ही शिक्षण संस्थान भी शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए कोई खास मशक्कत कर रहे हैं. वे अपनेअपने संस्थानों को खूबसूरत तसवीरों और विज्ञापनों के जरिए उन्हीं छात्रों के विज्ञापनों के जरिए चमका रहे हैं, जो पढ़ाई और परीक्षा छोड़ कर मौडलिंग कर रहे हैं.

मातापिता की महत्त्वाकांक्षा : चिंता की बात यह है कि बच्चों से ज्यादा उन के मातापिता के सिर पर चकाचौंध, लोकप्रियता व ग्लैमर का भूत सवार है. वे किसी भी तरह अपने बच्चों को इन माध्यमों का हिस्सा बनाना चाहते हैं. होड़ इतनी ज्यादा है कि सिर्फ कुछ सैकंडों के लिए विज्ञापनों में अपने लाड़लों का चेहरा दिख जाने के बदले में मातापिता कई घंटों तक बच्चों को खेलनेखाने से महरूम रख देते हैं. तो क्या बच्चों का भविष्य अब काम पाने और पहचान बना कर नौकरी करने में ही जा सिमटा है या फिर शिक्षा हासिल करना इस दौर में बेमानी हो चुका है या शिक्षा के तौरतरीके मौजूदा दौर के लिए फिट नहीं हैं?

मांबाप तो हर उस रास्ते पर बच्चों को ले जाने के लिए तैयार हैं जिस रास्ते पर पढ़ाईलिखाई माने नहीं रखती है. असल में यह सवाल इसलिए कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि सिर्फ छोटेछोटे बच्चे नहीं, बल्कि 10वीं और 12वीं के बच्चे, जिन के लिए शिक्षा के मद्देनजर कैरियर का सब से अहम पड़ाव परीक्षा में अच्छे नंबर लाना होता है, वह भी विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में कदम रखने का कोई मौका छोड़ने को तैयार नहीं होते.

डराने वाली बात यह है कि परीक्षा छोड़ी जा सकती है, लेकिन मौडलिंग नहीं. भोपाल में 12वीं के 8 छात्र परीक्षा छोड़ कंप्यूटर साइंस और बिजनैस मैनेजमैंट इंस्टिट्यूट की विज्ञापन फिल्म में 3 हफ्ते तक लगे रहे. यानी पढ़ाई के बदले पढ़ाई के संस्थान की गुणवत्ता बताने वाली विज्ञापन फिल्म के लिए परीक्षा छोड़ कर काम करने की ललक ज्यादा महत्त्व वाली हो चली है.

सही शिक्षा से दूर बच्चे : महज सपने नहीं, बल्कि स्कूली बच्चों के जीने के तरीके भी कैसे बदल रहे हैं, इस की झलक इस से भी मिल सकती है कि एक तरफ सीबीएसई की 10वीं व 12वीं की परीक्षाओं के लिए छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय सरकार से 3 करोड़ रुपए का बजट पास कराने के लिए जद्दोजेहद कर रहा है तो दूसरी तरफ स्कूली बच्चों की विज्ञापन फिल्म का हर बरस का बजट 2 सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का हो चला है.

एक तरफ सरकार मौलिक अधिकार के तहत 14 बरस तक की उम्र के बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने के मिशन में जुटी है, तो दूसरी तरफ 14 बरस तक की उम्र के बच्चों के जरिए टीवी, मनोरंजन और रुपहले परदे की दुनिया हर बरस एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा मुनाफा बना रही है. जबकि मुफ्त शिक्षा देने का सरकारी बजट इस मुनाफे का 10 फीसदी भी नहीं है. यानी वैसी पढ़ाई यों भी बेमतलब सी है, जो इंटरनैट या गूगल से मिलने वाली जानकारी से आगे जा नहीं पा रही है.

वहीं, जब गूगल हर सूचना उपलब्ध कराने का सब से बेहतरीन साधन बन चुका है और शिक्षा का मतलब भी सिर्फ सूचना के तौर पर जानकारी हासिल करना भर बन कर रह गया है तो फिर देश में पढ़ाई का मतलब अक्षर ज्ञान से आगे जाता कहां है. ऐसे में देश की नई पीढ़ी किधर जा रही है, यह सोचने के लिए इंटरनैट, गूगल या विज्ञापन की जरूरत नहीं है. बस, बच्चों के दिमाग को पढ़ लीजिए या उन के मातापिता के नजरिए को समझ लीजिए, जान जाइएगा.

उम्र 6 माह, कमाई 17 लाख : मुंबई की विज्ञापन एजेंसी द क्रिएटिव ऐंड मोटिवेशनल कौर्नर के चीफ विजुअलाइजर अक्षय मोहिते के अनुसार, विज्ञापन मातापिता के लिए तिजोरी भरने जैसा है. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि 6 माह से ले कर डेढ़ साल तक के बच्चे, जो न तो बोल पाते हैं और न ही जिन्हें लाइट, साउंड, ऐक्शन का मतलब पता है, अपने मातापिता को लाखों कमा कर दे रहे हैं.

आजकल टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में 65 फीसदी विज्ञापनों को शामिल किया जाता है. मोहिते बताते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डायपर बनाने वाली एक कंपनी ने महज 17 सैंकंड के विज्ञापन के लिए 6 माह के बच्चे को 17 लाख रुपए की फीस दी.

सिंदूर का बोझ उठाती औरतें

तना कमजोर होता है और एक उच्च शिक्षिता, स्वावलंबी, आत्मनिर्भर स्त्री का मन भी. पति छोड़ कर चला जाता है, दूसरी शादी कर लेता है लेकिन वह उस के नाम का सिंदूर कभी नहीं छोड़ती. वह परित्यक्ता का जीवन बिताती है लेकिन सिंदूर की आड़ में अपने पारिवारिक अलगाव को छिपाना चाहती है. पति साथ में नहीं है और सिंदूर भी नहीं लगाएगी तो समाज सवाल उठाएगा. इस से उस के मतभेद बाहर आ जाएंगे और न चाहते हुए भी वह दोषी ठहराई जाएगी.

आज हम बेटी को बेटे की ही तरह उच्चशिक्षा दे रहे हैं. उसे किताबी ज्ञान तो हासिल हो जाता है लेकिन साथ ही उसे जन्म से ही लड़की होने का एहसास भी कराते हैं और यह एहसास उस के इस मन में जहर बन कर फैल जाता है, जिस से वह कभी बाहर नहीं आ पाती.

बेटी में कभी इतना साहस नहीं आता कि वह अपनी खुशियों के लिए समाज को ठोकर मार सके. उस की सोच में, उसे उसी समाज में रहना है और वह उसी समाज का हिस्सा है, तो समाज के खिलाफ वह कैसे जाए. गरीब अनपढ़ को तो समझ में आता है कि उस का समाज वैसा ही है, उस की मान्यताएं वैसी ही हैं. लेकिन उच्चशिक्षा हासिल करने के बाद भी अगर स्त्री समाज के डर से खुद को सुरक्षित रखने के लिए सिंदूर लगाती है, तो उस की शिक्षा का क्या महत्त्व रह जाता है?

अगर वह शिक्षित हो कर भी समाज की बेडि़यों को तोड़ने का साहस नहीं दिखाती तो फिर उस ने शिक्षित हो कर नारी के उत्थान में, समाज के विकास में, सामाजिक परिवर्तन में क्या योगदान दिया?

कभी पढ़ा था, एक स्त्री एक परिवार को शिक्षित करती है लेकिन यह तो पुराने जमाने की बात थी. यदि तब एक स्त्री एक परिवार को शिक्षित करती थी, तो आज की एक शिक्षित स्त्री को तो एक गांव, एक समुदाय या एक वर्ग को शिक्षित करना चाहिए. पर वह शिक्षित हो कर भी समाज का सामना करने से डरती है. पति के छोड़ जाने के बाद खुद को सुरक्षित रखने के लिए सिंदूर का सहारा लेती है.

एक समय था जब चाहे जितने भी मतभेद हो जाएं, विवाहविच्छेद नहीं होते थे जैसे भी हो औरत तड़प कर सताई जाने पर भी रिश्ते निभाती थी. आज की स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, इसलिए वह साहस करती है ऐसे बोझ बन चुके रिश्तों से छुटकारा पाने का. लेकिन थोड़ा और साहस क्यों नहीं जुटाती, क्यों नहीं वह गर्व से कहती कि वह एक शिक्षित, आत्मनिर्भर एकल महिला है, उसे अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं. उसे भी अपनी जिंदगी, पुरुष की ही तरह, अपनी शर्तों पर बिताने का पूरा हक है. शिक्षा और तकनीक के युग में सिंदूर का बोझ न उठाएं, बल्कि अपनी जिंदगी को अपने अधिकारों के साथ जीएं.

औनलाइन बिक्री में अब रिश्ते भी हैं मौजूद

अपनेपन से पनपने वाले रिश्ते यों तो अनमोल होते हैं लेकिन अगर यही रिश्ते कुछ कीमत में या किराए पर मिल जाएं तो? यह सवाल इसलिए है कि अब तकनीक के दौर में रिश्ते औनलाइन शौपिंग वैबसाइटों पर प्यार की गारंटी के साथ तय समय के लिए भी मिलने लगे हैं.

पत्नी के प्यार के साथ, मातापिता ममता के दिखावे के साथ तो बच्चे फैमिली पैकेज के तौर पर डिस्काउंट के साथ उपलब्ध हैं, वह भी एक फोन कौल पर. अभी तक ये हालात जापान और चीन जैसे देशों में थे, लेकिन कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जल्दी ही भारत में भी इन की शुरुआत हो जाए.

ऐसा अंदेशा उन घटनाओं से जन्म ले रहा है जो बीते कुछ समय में सामने आई हैं जिन में पत्नी की बोली पति ने औनलाइन लगा दी तो सास से त्रस्त बहू ने सास को ही बेचने का विज्ञापन औनलाइन चस्पां कर दिया. पत्नी ने पति को कम कीमत में बेचने का विज्ञापन दे डाला.

उन लोगों के लिए यह सुनना अजीब हो सकता है जिन्होंने रिश्तों की बुनियाद को प्रेम से सींचते देखा है, लेकिन रिश्तों की अहमियत से बेफिक्र और ब्रेकअप, बौयफ्रैंड जैसी पश्चिमी संस्कृति में रंगे एक खास तबके के लिए यह एक सहूलियत और अवसर है. यही वजह है कि अब रिश्ते औनलाइन दुकानों पर बिक रहे हैं. साथ ही, ब्रेकअप कराने वाली वैबसाइट्स भी वजूद में आ गई हैं जो ब्रेकअप को ज्यादा रोचक व आसान बना रही हैं.

भारत जैसे देश में इस तरह की घटनाएं इसलिए भी ज्यादा ध्यान खींचती हैं क्योंकि यहां रिश्तों की मर्यादा जिंदगी से भी बड़ी मानी जाती है. इस के बावजूद इसी देश में औनलाइन दुकानों पर किफायती कीमत पर रिश्तों का कारोबार जन्म ले रहा है.

हालांकि ऐसी घटनाएं भी सामने आती रही हैं जब जिगर के टुकड़े चंद रुपयों में बेच दिए गए तो बेटियों, पत्नियों के भी खरीदनेबेचने के मामले सुने गए, जो कभी पेट की खातिर तो कभी परंपरा के नाम पर अंजाम दिए गए. मगर ये चंद ही घटनाएं है जो अज्ञानता और भुखमरी की तसवीरें बयां करती हैं, लेकिन तकनीक से कदम मिला कर चलते उन लोगों की सोच पर कौन लगाम लगाए जो रिश्तों की बोली भी लगा रहे हैं और इन की खरीदफरोख्त भी कर रहे हैं.

औनलाइन संस्कृति

अपनी आदर्श संस्कृति के लिए मशहूर देश भारत में कोई भी धर्म मजहब हो, दासप्रथा जैसी बुराइयों से सभी त्रस्त रहे. नए हिंदुस्तान में इस बुराई को कानून बना कर दूर करने की कोशिश की गई. इस से काफी रोक भी लगी. इस के बावजूद महाराष्ट्र के नांदेड़ के वैधु समाज जैसे कुछ समुदायों में परंपराओं के नाम पर चोरी छिपे बेटियों को बेचने का चलन आज भी जारी है. लेकिन, यहां सवाल उस नई प्रथा की शुरुआत का है जिसे आज की औनलाइन संस्कृति जन्म दे रही है.

रिश्तों के कारोबार के चलन से यह आशंका भी जोर पकड़ रही है कि कहीं यह चलन समाज को खींच कर फिर उसी कबीलाई दौर की तरफ न ले जाए जहां इंसान बेचे खरीदे जाते थे. दासप्रथा में तो फिर भी दूसरे समुदाय के बंदी बनाए गए लोगों को बेचा जाता था लेकिन इस नए समाज में तकनीक घर बैठे सास, पत्नी और पति को बेचने की सहूलियतें भी मुहैया करा रही है, जो समाज के लिए कहीं ज्यादा खतरनाक है.

ऐसी ही एक घटना ने रिश्तों  को शर्मसार कर दिया जब पति ने ही पत्नी की औनलाइन बोली लगा दी. हरियाणा के पटियाकार गांव में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को पौर्न फिल्म मेकर को बेच दिया क्योंकि पत्नी दहेज नहीं लाई थी और उसे दहेज की कीमत वसूल करनी थी.

मार्च 2016 में मिनी मुंबई के नाम से मशहूर मध्य प्रदेश के इंदौर में दिलीप माली ने अपनी पत्नी और बेटी की बोली सोशल साइट पर लगा दी. इस के लिए उस ने सोशल साइट पर पत्नी और बेटी की फोटो अपलोड की और लिखा, ‘‘मैं कर्ज के बोझ तले दबा हूं, मुझे किसी को पैसे लौटाने हैं, इसलिए मुझे रुपयों की जरूरत है. जो मेरी बीवी, बच्ची को खरीदना चाहे, मुझ से संपर्क करे.’’

उस ने पत्नी की कीमत भी तय कर दी 1 लाख रुपए. साथ ही, अपना मोबाइल नंबर भी दर्ज कर दिया ताकि लोग आसानी से उस से संपर्क कर सकें.

अपना प्राइस टैग

वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो रातों रात अमीर बनने के ख्वाब देखते हैं और इस सपने को साकार करने की कोशिश में वे अपनी ही बोली लगा देते हैं. आईआईटी खड़गपुर के एक छात्र आकाश नीरज मित्तल ने खुद को फ्लिपकार्ट पर बेचने की कोशिश की. इस के लिए उस ने फ्लिपकार्ट की वैबसाइट पर खुद ही एक विज्ञापन भी चस्पां कर डाला. साथ ही, छात्र ने विज्ञापन में अपनी कीमत 27,60,200 रुपए भी लिखी और फ्री डिलीवरी का विकल्प भी दिया. उच्च शिक्षित युवा की ऐसी सोच किस तरह के समाज को गढ़ रही है, समझा जा सकता है.

वर्ष 2015 में औनलाइन खरीदफरोख्त का ऐसा एक मामला सामने आया जिस ने सोचने पर मजबूर कर दिया था. सासबहू सीरियल बुद्धूबक्से पर महिलाओं के मनोरंजन का खास जरिया बनते रहे हैं. इन में खासकर सासबहू के रिश्तों की जो कड़वाहट परोसी जाती है उस ने भी महिलाओं की सोच को काफी हद तक प्रभावित किया है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. यही वजह है कि नफरत की आग में जल रही एक बहू ने शौपिंग साइट पर अपनी सास की तसवीर को न सिर्फ अपलोड किया बल्कि उस ने शब्दों में भी अपनी नफरत उजागर की.

कंपनी की साइट पर विज्ञापन में उस ने लिखा, ‘‘मदर इन-ला, गुड कंडीशन, सास की उम्र 60 के करीब है, लेकिन कंडीशन फंक्शनल है, आवाज इतनी मीठी कि आसपास वालों की भी जान ले ले. खाने की शानदार आलोचक. आप कितना ही अच्छा खाना बना लें, वे खामी निकाल ही देंगी. बेहतरीन सलाहकार भी हैं. कीमत कुछ भी नहीं, बदले में चाहिए दिमाग को शांति देने वाली किताबें.’’

कीमत के स्थान को खाली छोड़ दिया गया. इस तरह का विज्ञापन देख वैबसाइट ने कुछ ही देर में विज्ञापन हटा दिया. बहू की इस हरकत को आईटी कानून के तहत अपराध माना गया और उस के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही हुई.

एक महिला ने क्विकर के पैट्स सैगमैंट में अपने पति की फोटो डाल कर लिखा था, ‘हसबैंड फौर सेल’ और पति की कीमत मात्र 3,500 रुपए. उस ने पैट टाइप में लिखा था, ‘‘हसबैंड, कीमत 3,500 रुपए.’’ वहीं, इसी साइट पर एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को मात्र 100 रुपए में बेचने का विज्ञापन इन शब्दों के साथ दिया, ‘‘यह आदर्श पत्नी है, घर का काम बहुत अच्छे से करती है पर बोलती बहुत है, इसलिए इतने कम दाम में बेच रहा हूं.’’

कुछ भी बेचने की संस्कृति

रिश्तों की यह कौन सी परिभाषा है जो नएपन के इस दौर में लोगों में अपने आप ही पनपने लगी है. कुछ भी बेच दो की संस्कृति कम से कम भारतीय समाज के स्वभाव से तो मेल नहीं खाती. हालांकि इसी समाज में कुछ लोग अपने बच्चों का सौदा करते रहे हैं. बिहार राज्य के गरीबी से त्रस्त लोग बेटियों को बेचने के लिए बदनाम हैं ही. वहीं, हरियाणा में बेटियों को पेट में ही मारने के चलन के साथ महिलाओं को खरीद कर उन से विवाह करने के मामले सामने आना नई बात नहीं है.

गरीबी और प्राकृतिक आपदाओं से तबाह हुए लोगों के बारे में भी सामने आता रहा है कि वे कुछ वक्त की रोटी के लिए अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर हो जाते हैं. बीते साल पटना के नंदनगर में पति की प्रताड़ना और आर्थिक तंगी से मजबूर एक महिला ने अपनी दुध मुंही बच्ची को महज 10 हजार रुपयों के लिए बेच दिया.

जुलाई 2015 में रांची के करमटोली की गायत्री ने भुखमरी से तंग आ कर अपनी 8 माह की बेटी को 14 हजार रुपए में बेचा. इसी साल मध्य प्रदेश के मोहनपुर गांव के एक किसान लाल सिंह ने 1 साल के लिए अपने 2 बेटों को 35,000 रुपयों में बेच दिया. वजह थी तबाह हुई फसल और कर्ज.

उत्तर प्रदेश के मेरठ में एक महिला का बयान रिश्तों के खोखले पन को उजागर कर गया जब उस ने अपने पति पर अपने ही 5 बच्चों को बेचने का आरोप लगाया. वहीं बुंदेलखंड के सहरिया आदिवासी लोगों द्वारा कर्र्ज की वजह से अपने बच्चों को बेचने की घटनाएं देश की बदहाली की दास्तां पेश करती रही हैं.

भारत और इंडिया दोनों में ही इंसानों को बेचने का चलन जारी है, फिर वजह चाहे खुशी से किसी को खरीदने की हो या बदहाली में बेचने की. हर हाल में यहां इंसान बिक रहे हैं. ऐसे में भला भविष्य में संबंधों के प्रति सम्मान की संस्कृति बने रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

 यह कैसा नया समाज है जहां पुराने समाज की कुरीतियां आधुनिकता के नाम पर अपनाई जा रही हैं. जापान में तो ‘रैंट ए वाइफ औटटावा डौट कौम’ नाम की वैबसाइट बनी हुई है जिस पर मांबाप, पत्नी और पति किसी भी रिश्ते को किराए पर लेने की सुविधा दी जा रही है. वहीं, चीन जैसे तेजी से विकसित हो रहे देश में भी बेच दो संस्कृति पैर पसारे हुए है. वहां के फुजियान प्रांत में एक दंपती ने अपनी 18 माह की बच्ची को महज 3,530 डौलर यानी 2.37 लाख रुपए में सिर्फ इसलिए औनलाइन बेचने का विज्ञापन पोस्ट किया क्योंकि उन्हें आईफोन खरीदना था. एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन में हर साल

2 लाख बच्चों का अपहरण कर उन्हें औनलाइन बेचा जाता है.

वहीं, अमेरिका में एक आदमी ने अपनी बाइक के साथ अपनी पत्नी की फोटो भी औनलाइन सेल के लिए डाल दी और लिखा, ‘‘मेरी बाइक 2006 की मौडल है और मेरी पत्नी 1959 मौडल है जो दिखने में बहुत ही खूबसूरत है.’’

ब्राजील में 2013 में एक व्यक्ति का अपने बच्चे को बेचने का औनलाइन विज्ञापन चर्चा का विषय बना था, क्योंकि वह बच्चे के रोने के शोर से बचने के लिए उसे बेचना चाहता था. देशदुनिया में इंसान नहीं बिक रहे, बल्कि औनलाइन पशुओं को बेचने की भी शुरुआत हो गई है और इंसानों की कीमत से कहीं ज्यादा में पशु बिक रहे हैं. साथ ही, उन के गोबर की भी बिक्री हो रही है. दिसंबर 2014 में अमेरिका में औनलाइन कंपनी ‘कार्ड्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी’ ने 30 हजार लोगों को महज 30 मिनट में गोबर तक बेच दिया. लोगों ने गोबर क्यों खरीदा, यह जिज्ञासा का विषय हो सकता है.

मनपसंद डेटिंग पार्टनर

आखिर औनलाइन खरीदारी की तरफ लोगों का अंधझुकाव क्यों है? इस की वजह शायद आकर्षक औफर और घर बैठे खरीदारी की सहूलियत है. एसोचैम और प्राइसवाटर हाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) ने अपने अनुमान में कहा है कि बाजार में सुस्ती के बावजूद 2017 में औनलाइन शौपिंग में 78 फीसदी बढ़ोतरी की संभावना है. 2015 में यह 66 फीसदी थी. लोगों के इसी रुझान को देख कर वे लोग भी लाभ उठाने को तैयार बैठे हैं जो औनलाइन इंसानी रिश्तों को बेचने के मौके तलाश रहे हैं. तकनीक ने ऐसे लोगों के हाथ में औनलाइन खरीदारी के तौर पर एक नया विकल्प दे दिया है.

इतना ही नहीं, रिश्तों के साथ ही किसी महिला या पुरुष के साथ वक्त गुजारने का जरिया भी कुछ वैबसाइट दे रही हैं. हाल में महिलाओं के लिए डेटिंग औनलाइन शौपिंग वैबसाइट्स लोगों की तवज्जुह अपनी तरफ खींच रही है. इस पर महिलाएं अपनी पसंद का पुरुष चुनने, उन के साथ डेटिंग करने की सहूलियत पा सकती हैं.

अमेरिकी समाचार पत्र ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इंटरनैट डेटिंग का ट्रैंड तो बढ़ ही रहा है, साथ ही अपराध भी पनप रहा है. वहीं कुछ साइट्स समलैंगिकों के लिए भी जारी हैं. चूंकि भारत में इस तरह के रिश्ते अपराध माने जाते हैं, ऐसे में समलैंगिक औनलाइन डेटिंग के जरिए अपना पार्टनर तलाश कर रहे हैं.

इस के लिए कई साइट्स औनलाइन डेटिंग ऐप, ग्रिडर, एलएलसी, प्लैनेट रोमियो बीवी ऐप्स उपलब्ध करा रही हैं. भारत में ये ऐप्स काफी लोकप्रिय हो रहे हैं.

इंटरनैट, औनलाइन खरीदारी जैसी सहूलियतें जीवन को आसान बनाने के लिए हैं, मगर इन्हीं पर रिश्तों का मजाक बन रहा है. प्राइस टैग के साथ औनलाइन रिश्तों की बिक्री समाज में किस तरह का बदलाव लाएगी, समझने की जरूरत है.

बच्चे जब होस्टल से घर आएं तो उन्हें मेहमान न बनाएं

नुपूर की मां की तबीयत थोड़ी खराब रहती थी तो वे उम्मीदकर रही थीं कि बेटी घर आएगी तो उन्हें कुछ आराम मिलेगा, यानी बेटी उन के काम में हाथ बंटाएगी. लेकिन बेटी कुछ कहने पर भड़क जाती.

वह  कहती कि घर पर भी इंसान थोड़ी आजादी से नहीं रह पाता. हर बात पर टोकाटाकी. नुपूर की मां ने सोचा कि घर में शांति बनी रहे, इसलिए बेटी से कुछ कहना ही छोड़ दिया. उस का मन करे सोए या जागे. लेकिन जल्द इस खातिरदारी से वे थकने लगीं.

इंजीनियरिंग तृतीय वर्ष का छात्र रक्षित 2 महीने की लंबी छुट्टियों में  होस्टल से घर आया था. कई दिनों से उस के मम्मीपापा उस का इंतजार कर रहे थे. लेकिन वह घर आ कर अलगथलग रहने लगा था. दोपहर तक सोता रहता, पापा कब दफ्तर जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता. मम्मी नाश्ता ले कर उस का इंतजार करतीं कि कब वह सो कर उठे और वे सुबह के कामों से फारिग हों, जब खाना खाने बैठता तो काफी नखरे करता.

रात को जब सब सोने चले जाते तो वह देररात तक जागता रहता. पेरैंट्स के साथ कुछ मदद करना तो दूर, वह उलटा उन के रूटीन को बिगाड़ उन से अपेक्षा करता कि उसे कोई कुछ न कहे.

ऐसा व्यवहार एकदो घरों में ही नहीं, बल्कि आजकल सभी घरों में आम हो चला है. बच्चों पर आरोप लगते हैं कि वे तो खुद को नवाब समझते हैं. शुरू में लाड़प्यार में मातापिता को भी अच्छा लगता है कि बच्चा थक कर आया है, कुछ दिन आराम करे. पर बच्चों को यह एहसास ही नहीं होता कि उन का भी कुछ फर्ज बनता है. जिस तरह वे बचपन में हर चीज के लिए मां पर निर्भर रहते थे, वही सोच उन की अब भी बरकरार रहती है.

जिम्मेदारियों का एहसास कराएं

उन के घर से बाहर जाने पर इन वर्षों में मां पर भी उम्र की चादर चढ़ी है, यह उन्हें पता ही नहीं चलता. मां भावनाओं में बहती हुई स्नेहवश अपनी क्षमता से अधिक उसी तरह बच्चों की देखभाल और सेवा करती नहीं अघाती है, जैसे करती आई है.

ऐसा नहीं है कि सभी बच्चे आलसी और स्वार्थी होते हैं. जिन घरों में होस्टल या नौकरी से आए हुए बच्चों के साथ मेहमान की तरह नहीं, बल्कि घर के सदस्य की तरह व्यवहार किया जाता है, वहां बच्चे वक्त के साथ घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भी अपडेट होते रहते हैं.

समृद्धि की मां का पेट का औपरेशन हुआ था. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी, उसी दौरान समृद्धि के कालेज की लंबी छुट्टियां हो गईं. समृद्धि हर छुट्टी की तरह इन छुट्टियों में भी देर तक सोने व घर के कामों से दूर रहने की फिराक में थी. दरअसल, उसे एहसास ही नहीं था कि उस की मां इस बार काम करने में असमर्थ हैं. 2-3 दिनों के बाद समृद्धि के पापा ने कड़े शब्दों में उसे उस की जिम्मेदारी का एहसास करवाया.

पापा के खुल कर समझाते ही उस का दिमाग मानो ठिकाने पर आ गया. फिर तो समृद्धि ने घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं और अपनी मां को पूरी तरह आराम करने दिया. उस की छुट्टी खत्म होने तक जहां समृद्धि की मां स्वस्थ हो गई थीं, वहीं वह भी इस दौरान रसोई और घर के कई काम सीख चुकी थी, जो जीवन में उसे बहुत काम आए.

हेमंत और हेमा जब भी लंबी छुट्टियों में घर आते तो दोनों भाईबहन अपनी मां को व्यस्त रखते. दोनों मम्मी से नईनई फरमाइशें करते. लेकिन इस बार मम्मी ने अपनी शर्त रख दी कि वे तभी उन की पसंद की डिशेज बनाएंगी जब वे दोनों उन की मदद करेंगे. दोनों ने काफी नानुकुर की क्योंकि ज्यादातर समय वे या तो सोते रहते या फिर अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते और मां उन की फरमाइशों में व्यस्त रहतीं. नतीजा उन के जाने के बाद वे अकसर बीमार पड़ जातीं.

लेकिन इस बार उन्होंने ठान रखी थी कि उन्हें घर के रूटीन वर्क में शामिल करना है. आखिर उन्होंने सहयोग करना शुरू किया. पहले तो बेमन से, लेकिन फिर दोनों भाईबहन पूरी तत्परता से मां के साथ हाथ बंटाने लगे.

सब्जी लाने से ले कर रसोईघर में स्पैशल डिश बनाने के दौरान वे साथ रहते. एक तरफ जहां मां को आराम मिला वहीं दूसरी ओर उन के दिलों के राज और ख्वाइशों से भी वे परिचित हो गईं.

आनंदमोहन तो बेटे के आते ही उसे कई काम सौंप देते हैं, जैसे बिल पेमैंट्स, कार सर्विसिंग या फिर घर की मरम्मत करना आदि.

कहने का मतलब है कि होस्टल या नौकरी से आने वाले ग्रोनअप बच्चों को यह एहसास होना चाहिए कि वे होटल में नहीं, बल्कि घर आए हैं और भविष्य की जिम्मेदारियों की ट्रेनिंग लेनी भी जरूरी है. संयुक्त परिवारों के इतर एकल परिवारों में जब बच्चे आते हैं तो खुशी के मारे पेरैंट्स कुछ सनक सा जाते हैं. खुशी के अतिरेक में वे बच्चों की बिलकुल मेहमानवाजी ही करने लगते हैं.

बच्चों का प्यार से घर में स्वागत सही है पर यही वह समय होता है जब एक बच्चा घरसंसार की बातें सीखता है. बच्चों को अपने बदलते स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति से भी रूबरू कराते रहें. वे घर के सदस्य हैं, उन्हें किसी भ्रम में नहीं रखना चाहिए. दरअसल, बच्चों से बातें छिपा कर हम भी उन्हें बेगाना बनाते हैं.

जिम्मेदारियों का बोध कराना जरूरी है. वरना बेटा हो या बेटी, वे मेहमानों की ही तरह आतेजाते रहेंगे और धीरेधीरे अपनी ही दुनिया में रमते जाएंगे.

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