खोया हुआ आशिक : शालिनी के लौटने पर क्यों परेशान थी विनीता -भाग 1

‘‘हैलोविन्नी… कैसी हो मेरी जान… अरे, मैं शालिनी बोल रही हूं… तुम्हारी शालू’’ सुन कर विनीता को समझने में कुछ समय लगा, मगर फिर जल्दी ही जैसे दिमाग सोते से जागा.

‘‘अरे, शालू तुम? अचानक इतने सालों बाद? तुम तो नितेश से शादी कर के अमेरिका चली गई थी… आज इतने सालों बाद अचानक मेरी याद कैसे आई? क्या इंडिया आई हो?’’ विनीता ने अपने मन की घबराहट छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे बाप रे, इतने सारे सवाल एकसाथ? बताती हूं… बताती हूं… अभी तो बातें शुरू हुई हैं…’’ शालिनी ने अपनी आदत के अनुसार ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘पहले तू यह बता कि मेरे खोए हुए आशिक यानी जतिन के बारे में तुझे कोई खबर है क्या? शायद मेरी तरह उस ने भी हमारे अतीत के कुछ पन्ने संभाल कर रखें हों…’’ शालिनी का सवाल सुनते ही विनीता के हाथ से मोबाइल छूटने को हुआ. वह उसे कैसे बताती कि उस का खोया हुआ आशिक ही अब उस का पाया हुआ प्यार है… जिन अतीत के पन्नों की बात ‘शालू कर रही थी वही पन्ने उस के जाने के बाद विनीता वर्तमान में पढ़ रही है… हां, वही जतिन जो कभी शालू का आशिक हुआ करता था आज विनीता का पति है.’

विनीता को एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा तो उस ने 4-5 बार ‘‘हैलो… हैलो…’’ कह कर फोन काट दिया और फिर उसे स्विच औफ भी कर दिया. वह फिलहाल शालू के किसी भी सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं थी.

विनीता बैडरूम में आ कर कटे पेड़ की तरह ढह गई. न जाने कितनी ही बातें… कितनी ही यादें थीं, जो 1-1 कर आंखों के रास्ते गुजर रही थी. कौन जाने… आंखों से यादें बह रही थीं या आंसुओं का सैलाब… कैसे भूल सकती है विनीता कालेज के आखिरी साल के वे दिन जब शालिनी ने अचानक नितेश से शादी करने के अपने पापा के फैसले को हरी झंडी दे दी थी. विनीता ने क्या कम समझाया था उसे?

‘‘शालू, तुम जतिन के साथ ऐसा कैसे कर सकती हो? उसे कितना भरोसा है तुम पर… बहुत प्यार करता है तुम से… वह टूट जाएगा शालू… मुझे तो डर है कि कहीं कुछ उलटासीधा न कर बैठे…’’ विनीता को शालू की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था. एक वही तो थी इस रिश्ते की चश्मदीद गवाह.

‘‘बी प्रैक्टिकल यार. प्यार अलग चीज है और शादी अलग… नितेश से जो मुझे मिल सकता है वह जतिन कभी नहीं दे सकता… नीतेश एअर इंडिया में पायलट है… महानगर में शानदार फ्लैट… अच्छी नौकरी… हैंडसम पर्सनैलिटी… रोज विदेश के दौरे… क्या

ये सब जतिन दे पाएगा मुझे? उसे तो अभी

सैटल होने में ही बरसों लग जाएंगे… तब तक

तो मैं बूढ़ी हो जाऊंगी…’’ शालू ने आदतन ठहाका लगाया.

‘‘देख शालू, तुझे जो करना है वह कर,

मगर प्लीज… फाइनल ऐग्जाम तक इस बारे में जतिन को कुछ मत बताना वरना वह एग्जाम भी नहीं दे पाएगा… उस का फ्यूचर खराब हो जाएगा…’’ विन्नी उस के सामने लगभग गिड़गिड़ा उठी.

‘‘ओके डन… मगर तू क्यों इतनी मरी जा रही है उस के लिए?’’ शालू विन्नी पर कटाक्ष करते हुए क्लास से चली गई.

फाइनल परीक्षा खत्म हो गई. आखिरी पेपर के बाद तीनों कालेज कैंटीन में मिले थे. तभी शालू ने नितेश के साथ अपनी सगाई की खबर सार्वजनिक की थी. विनीता की नजर लगातार जतिन के चेहरे पर ही टिकी थी. वह संज्ञा शून्य सा बैठा था. उन दोनों को सकते में छोड़ कर शालू कब की जा चुकी थी. विनीता किसी तरह जतिन को वहां से उठा कर ला पाई थी.

नितेश से शादी कर के 2 ही महीनों में शालू अमेरिका चली गई. फाड़ कर फेंक गई थी अपने अतीत के पन्ने… पीछे छोड़ गई थी टूटा… हारा… अपना आशिक… जिसे विनीता ने न केवल संभाला, बल्कि संवार निखार भी दिया. शालू की बेवफाई के गम को भुलाने के लिए जतिन ने अपने आप को पढ़ाई में डुबो दिया. विनीता ने उस के आंसुओं को कंधा दिया. वह लगातार उस का हौसला बढ़ाती रही. आखिर जतिन की मेहनत और विनीता की तपस्या रंग लाई. प्रशासनिक अधिकारी तो नहीं, मगर जतिन एक राजपत्रित अधिकारी तो बन ही गया था. अपनी सफलता का सारा श्रेय विनीता को देते हुए एक दिन जब जतिन ने उसे शादी के लिए प्रोपोज किया तो वह भी न नहीं कह सकी और घर वालों की सहमति से दोनों विवाहसूत्र में बंध गए. बेशक यह पहली नजर वाला प्रेम नहीं था, मगर हौलेहौले हो ही गया था.

तभी लैंडलाइन की घंटी ने उसे वर्तमान में ला दिया.

‘‘अरे, क्या बात है… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? मोबाइल स्विच औफ क्यों आ रहा है?’’ जतिन की आवाज में खुद के लिए इतनी फिक्र महसूस कर विनीता को दिली राहत मिली.

 

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ -भाग 2

अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थीया है…’’

मां ने रोते हुए अमिता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटी, अब तुम्हारे ही ऊपर है, इन्हें जेल जाने से बचाओ…’’

अमिता ने बैंक द्वारा भेजे गए कागज देखने चाहे. पिता का चेहरा उतर गया. बोले, ‘‘बैंक ने अभी तो सम्मन नहीं भेजा है, लेकिन वहां के एक जानपहचान के आदमी ने बताया है कि जल्द भेजने की तैयारी हो रही है. उस ने राय दी है कि मैं मैनेजर से मिल लूं और शीघ्र रुपए की व्यवस्था करूं.’

काली सोच : क्या वो खुद को माफ कर पाई -भाग 1

अंधविश्वास, पुरातनपंथी और कट्टरवादी सोच ने न जाने कितनों का घर उजाड़ा है. शुभा की आंखों पर भी न जाने क्यों इन्हीं सब का परदा पड़ा हुआ था, जिस का परिणाम इतना भयावह होगा, इस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

लेखन कला मुझे नहीं आती, न ही वाक्यों के उतारचढ़ाव में मैं पारंगत हूं. यदि होती तो शायद मुझे अपनी बात आप से कहने में थोड़ी आसानी रहती. खुद को शब्दों में पिरोना सचमुच क्या इतना मुश्किल होता है?

बाहर पूनम का चांद मुसकरा रहा है. नहीं जानती कि वह मुझ पर, अपनेआप पर या किसी और पर मुस्कुरा रहा है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह भी पूनम की ऐसी ही एक रात थी जब मैं अस्पताल के आईसीयू के बाहर बैठी अपने गुनाहों के लिए बेटी से माफी मांग रही थी, ‘मुझे माफ कर दे बेटी. पाप किया है मैं ने, महापाप.’

मानसी, मेरी इकलौती बेटी, भीतर आईसीयू में जीवन और मौत के बीच झूल रही है. उस ने आत्महत्या करने की कोशिश की, यह तो सभी जानते हैं पर यह कोई नहीं जानता कि उसे इस हाल तक लाने वाली मैं ही हूं. मैं ने उस मासूम के सामने कोई और रास्ता छोड़ा ही कहां था?

कहते हैं आत्महत्या करना कायरों का काम है पर क्या मैं कायर नहीं जो भविष्य की दुखद घटनाओं की आशंका से वर्तमान को ही रौंदती चली आई?

हर मां का सपना होता है कि वह अपनी नाजों से पाली बेटी को सोलहशृंगार में पति के घर विदा करे. मैं भी इस का अपवाद नहीं थी. तिनकातिनका जोड़ कर जैसे चिडि़या अपना घोंसला बनाती है. वैसे ही मैं भी मानसी की शादी के सपने संजोती गई. वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खरी उतरी. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. शांत, सुसभ्य, मृदुभाषिणी मानसी घरबाहर सब की चहेती थी. एक मां को इस से ज्यादा और क्या चाहिए?

‘देखना अपनी लाडो के लिए मैं चांद सा दूल्हा लाऊंगी,’ मैं सुशांत से कहती तो वे मुसकरा देते.

उस दिन मानसी की 12वीं कक्षा का परिणाम आया था. वह पूरे स्टेट में फर्स्ट आईर् थी. नातेरिश्तेदारों की तरफ से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. हमारे पड़ोसी व खास दोस्त विनोद भी हमारे घर आए थे मिठाई ले कर.

‘मिठाई तो हमें खिलानी चाहिए भाईसाहब, आप ने क्यों तकलीफ की,’ सुशांत ने गले मिलते हुए कहा तो वे बोले, ‘हां हां, जरूर खाएंगे. सिर्फ मिठाई ही क्यों? हम तो डिनर भी यहीं करेंगे, लेकिन पहले आप मेरी तरफ से मुंह मीठा कीजिए. रोहित का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया है.’

‘फिर तो आज दोहरी खुशी का दिन है. मानसी ने 12वीं में टौप किया है. मैं ने मिठाई की प्लेट उन की ओर बढ़ाई.’

‘आप चाहें तो हम यह खुशी तिहरी कर लें,’ विनोद ने कहा.

‘हम समझे नहीं,’ मैं अचकचाई.

‘अपनी बेटी मानसी को हमारे आंचल में डाल दीजिए. मेरी बेटी की कमी पूरी हो जाएगी और आप की बेटे की,’ मिसेज विनोद बड़ी मोहब्बत से बोली.

‘देखिए भाभीजी, आप के विचारों की मैं इज्जत करती हूं, लेकिन मुंह रहते कोई नाक से पानी नहीं पीता. शादीविवाह अपनी बिरादरी में ही शोभा देते हैं,’ इस से पहले कि सुशांत कुछ कहते मैं ने सपाट सा उत्तर दे दिया.

‘जानती हूं मैं. सदियों पुरानी मान्यताएं तोड़ना आसान नहीं होता. हमें भी काफी वक्त लगा है इस फैसले तक पहुंचने में. आप भी विचार कर देखिएगा,’ कहते हुए वे लोग चले गए.

‘इस में हर्ज ही क्या है शुभा? दोनों बच्चे बचपन से एकदूसरे को जानते हैं, समझते हैं. सब से बढ़ कर बौद्धिक और वैचारिक समानता है दोनों में. मेरे खयाल से तो हमें इस रिश्ते के लिए हां कह देनी चाहिए.’ सुशांत ने कहा तो मेरी त्योरियां चढ़ गईं.

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. आलते का रंग चाहे जितना शोख हो, उस का टीका नहीं लगाते. कहां वो, कहां हम उच्चकुलीन ब्राह्मण. हमारी उन की भला क्या बराबरी? दोस्ती तक तो ठीक है, पर रिश्तेदारी अपनी बराबरी में होनी चाहिए. मुझे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं है.’

‘एक बार खुलेमन से सोच कर तो देखो. आखिर इस में बुराई ही क्या है? दीपक ले कर ढूंढ़ेंगे तो भी ऐसा दामाद हमें नहीं मिलेगा’, सुशांत ने कहा.

 

खोया हुआ आशिक : शालिनी के लौटने पर क्यों परेशान थी विनीता -भाग 3

जतिन की साफगोई के विपरीत विनीता इसे अपने खिलाफ शालिनी की साजिश समझ रही थी. भीतर ही भीतर घुटती विनीता आखिरकार एक दिन हौस्पिटल के बिस्तर पर पहुंच गई. जतिन घबरा गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि हंसतीखेलती विन्नी को अचानक क्या हो गया है. ठीक है वह पिछले दिनों कुछ परेशान थी, मगर स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी, यह उस ने कल्पना भी नहीं की थी. जतिन उस का अच्छे से अच्छा इलाज करवा रहा था. जतिन की गैरमौजूदगी में एक दिन अचानक शालिनी उस से मिलने हौस्पिटल आई. विन्नी अनजाने डर से सिहर गई.

‘‘थैंक यू विन्नी, तुम्हारी बीमारी ने मेरा रास्ता बहुत आसान कर दिया… तुम जतिन से जितनी दूर जाओगी, वह उतना ही मेरे करीब आएगा…’’ शालिनी ने बेशर्मी से कहा. उस ने जतिन के साथ अपनी कुछ सैल्फियां भी उसे दिखाईं जिन में वह उस के साथ मुसकरा रहा था, साथ ही कुछ मनगढ़ंत चटपटे किस्से भी परोस दिए. शालू की बातें देखसुन कर विनीता ने मन ही मन इस रिश्ते के सामने हथियार डाल दिए.

‘‘जतिन, तुम शालू को अपना लो… अब तो तलाक की बाध्यता भी नहीं रहेगी… मैं ज्यादा दिन तुम्हें परेशान नहीं करूंगी…’’

विनीता के मुंह से ऐसी बात सुन कर जतिन चौंक गया. बोला, ‘‘आज तुम ये कैसी पागलों सी बातें कर रही हो? और यह शालू कहां से आ गई हमारे बीच में?’’

‘‘तुम्हें मुझ से कुछ भी छिपाने की जरूरत नहीं है. मुझे शालू ने सब बता दिया,’’ विन्नी ने किसी तरह अपनी सुबकाई रोकी, मगर आंखें तो फिर भी छलक ही उठीं.

‘‘तुम उस सिरफिरी शालू की बातों पर भरोसा कर रही हो मेरी बात पर नहीं… बस, इतना ही जानती हो अपने जतिन को? अरे, लाखों शालू भी आ जाएं तब भी मेरा फैसला तुम ही रहोगी… मगर शायद गलती तुम्हारी भी नहीं है… जरूर मेरे ही प्यार में कोई कमी रही होगी… मैं ही अपना भरोसा कायम नहीं रख पाया… मुझे माफ कर दो विन्नी… मगर इस तरह मुझ से दूर जाने की बात न करो…’’ जतिन भी रोने को हो आया.

‘‘यही सब बातें मैं अपनेआप को समझाने की बहुत कोशिश करती हूं. मगर दिल में कहीं दूर से आवाज आती है कि विन्नी तुम यह कैसे भूल रही हो कि शालू ही वह पहला नाम है जो जतिन ने अपने दिल पर लिखा था और फिर मैं दो कदम पीछे हट जाती हूं.’’

‘‘मुझे इस बात से इनकार नहीं कि शालू का नाम मेरे दिल पर लिखा था… मगर तुम्हारा नाम तो खुद गया है मेरे दिल पर… और खुदी हुई इबारतें कभी मिटा नहीं करतीं पगली…’’

‘‘तुम ने मुझे न केवल जिंदगी दी है,

बल्कि जीने के मकसद भी दिए हैं. तुम्हारे बिना न मैं कुछ हूं और न ही मेरी जिंदगी. अगर इस बीमारी की वजह शालू है, तो मैं आज इसे जड़ से ही खत्म कर देता हूं… अभी होटल के मालिक को फोन कर के शालू को नौकरी से हटाने को कह देता हूं, फिर जहां उस की मरजी हो चली जाए,’’ कह जतिन ने जेब से मोबाइल निकाला.

‘‘नहीं जतिन, रहने दीजिए… शायद सारी गलती मेरी ही थी… मुझे अपने प्यार पर भरोसा रखना चाहिए था… मगर मैं नहीं रख पाई… आशंकाओं के अंधेरे में भटक गई थी… मेरी आशंकाओं के बादल अब छंट चुके हैं… हमारे रिश्ते को किसी शालू से कोई खतरा नहीं…’’ विनीता मुसकरा दी.

तभी जतिन का मोबाइल बज उठा. शालिनी कौलिंग देख कर वह मुसकरा दिया. उस ने मोबाइल को स्पीकर पर कर दिया.

‘‘हैलो जतिन, फ्री हो तो क्या हम कौफी साथ पी सकते हैं? वैसे भी विन्नी तो हौस्पिटल में है… आ जाओ,’’ शालिनी ने मचलते हुए कहा.

‘‘विन्नी कहीं भी हो, हमेशा मेरे साथ मेरे दिल में होती है. और हां, यदि तुम ने मुझे ले कर कोई गलतफहमी पाल रखी है तो प्लीज भूल जाओ… तुम मेरी विन्नी की जगह कभी नहीं ले सकती… नाऊ बाय…’’ जतिन बहुत संयत था.

‘‘बाय ऐंड थैंक्स शालू… हमारे रिश्ते को और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए…,’’ विन्नी भी खिलखिला कर जोर से बोली और फिर जतिन ने फोन काट दिया. दोनों देर तक एकदूसरे का हाथ थामे अपने रिश्ते की गरमाहट महसूस करते रहे.’’

 

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ -भाग 3

था कि जबतब शेयर मार्केट में भी वह जाया करता था. जो हो, सचाई अपनी जगह ठोस थी. पत्नी के नाम साढ़े 5 लाख रुपए निश्चित थे.

आमतौर पर बैंक वाले ऐसी बातें खुद नहीं बताते, नामिनी को खुद दावा करने जाना पड़ता है. वह तो बैंक का क्लर्क सुभाष गली में ही रहता है, उसी ने बात फैला दी. अमिता के घर यह सूचना देने सुभाष निजी रूप से गया था और इसी के चलते गली भर को मालूम हो गई यह बात.

वह नातेदार, पड़ोसी, जो कभी उस के घर में झांकते तक न थे, वह भी आ कर सतीश के गुणों का बखान करने लगे. गली वालों ने एकमत से मान लिया कि सतीश जैसा निरीह, साधु प्रकृति आदमी नहीं मिलता है. अपने काम से काम, न किसी की निंदा, न चुगली, न झगड़े. यहां तो चार पैसे पाते ही लोग फूल कर कुप्पा हो जाते हैं.

अमिता चकराई हुई थी. यह क्या हो गया, वह समझ नहीं पा रही थी.

उसे सहारा देने दूर महल्ले के मायके से मां, बहन और भाई आ पहुंचे. बाद में पिताजी भी आ गए. आते ही मां ने नाती को गोद में उठा लिया. बाकी सब भी अमिता के 4 साल के बच्चे राहुल को हाथोंहाथ लिए रहते.

मां ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नी, यों उदास न रहो. जो होना था वह हो गया. तुम्हें इस तरह उदास देख कर मेरी तो छाती फटती है.’’

पिता ने खांसखंखार कर कहा, ‘‘न हो तो कुछ दिनों के लिए हमारे साथ चल कर वहीं रह. यहां अकेली कैसे रहेगी, हम लोग भी कब तक यहां रह सकेंगे.’’

‘‘और यह घर?’’ अमिता पूछ बैठी.

‘‘अरे, किराएदारों की क्या कमी है, और कोई नहीं तो तुम्हारे मामा रघुपति को ही रख देते हैं. उसे भी डेरा ठीक नहीं मिल रहा है, अपना आदमी घर में रहेगा तो अच्छा ही होगा.’’

‘‘सुनते हो जी,’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी की सूनी कलाई देख मेरी छाती फटती है. ऐसी हालत में शीशे की नहीं तो सोने की चूडि़यां तो पहनी ही जाती हैं, जरा सुखलाल सुनार को कल बुलवा देते.’’

‘‘जरूर, कल ही बुला देता हूं.’’

अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ले जा कर कागजी काररवाई निबटा देगा.

अमिता लगभग 4 बजे घर पहुंची तो सब चिंतित थे. मां ने पूछा, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी, बेटी?’’

‘‘बैंक गई थी मां, कुछ और भी जरूरी काम थे…’’

घर वालों के चेहरे आशंकाओं से घिर गए कि बैंक क्या करने गई थी. पर पूछने का साहस किसी में न हुआ.

2 दिन बाद छोटा भाई ललित आया और बोला, ‘‘दीदी, कालिज से 20 लड़कों का एक ग्रुप विन्टरविकेशन में गोआ घूमने जा रहा है, हर लड़के को 5 हजार जमा करने पड़ेंगे…’’

अमिता ने सख्ती से कहा, ‘‘अभी, गरमियों की छुट्टी में तुम मसूरी घूमने गए थे न? हर छुट्टी में मटरगश्ती गलत है. तुम्हें छुट्टियों में यहीं रह कर वार्षिक परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए. मैं इतने रुपए न जुटा सकूंगी…’’

ललित का चेहरा उतर गया. मां भी अमिता का रुख देख कुछ न कह सकीं.

3 माह पूरे होने पर विवेक आ कर बीमे की किस्त ले गया और कागजों पर उस से हस्ताक्षर भी कराए. अमिता ने साफ शब्दों में मां को बता दिया कि उसे अब राहुल की फीस और ललित की कोचिंग की फीस ही देने योग्य आय होगी, वीणा की फीस पिताजी जैसे पहले देते थे, दिया करें.

विवेक की सलाह से अमिता ने एक स्वयंसेवी संस्था की सदस्यता ग्रहण कर ली. उस के कार्यक्रमों में वह अधिकतर घर के बाहर ही रहने लगी. बाहरी अनुभव बढ़ने और व्यस्तता के चलते अब अमिता का तनमन अधिक खुश रहने लगा.

विवेक से अमिता की अच्छी पटने लगी. अकसर दोनों साथ ही बाहर घूमनेफिरने निकलते. यह देख कर मांपिता सहमते, किंतु सयानी और लखपती बेटी को क्या कहते. उस के कारण घर की हालत बदली थी.

साल भर बाद ही एक दिन अमिता, मां से बोली, ‘‘मां, मैं ने विवेक से विवाह करना तय कर लिया है, तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए…’’

मां को तो कानों पर विश्वास ही न हुआ. हतप्रभ सी खड़ी रह गईं. बगल के कमरे से पिताजी भी आ गए, ‘‘क्या हुआ? मैं क्या सुन रहा हूं?’’

‘‘मैं विवेक के साथ विवाह करने जा रही हूं, आशीर्वाद दें.’’

मां फट पड़ीं, ‘‘तेरी बुद्धि तो ठीक है, भला कोई विधवा…’’ तभी विवेक आ गया. उसे देख कर मां खामोश हो गईं. लेकिन आतेआते उस ने उन की बातें सुन ली थीं, अंतत: हंस कर विवेक बोला, ‘‘मांजी, आप किस जमाने की बात कह रही हैं? अब जमाना बदल गया है. अब विधवा की दोबारा शादी को बुरा नहीं समझा जाता. जब हमें कोई आपत्ति नहीं है तो दूसरों से क्या लेनादेना. खैर, आप लोगों का आशीर्वाद हमारे साथ है, ऐसा हम ने मान लिया है. चलो, अमिता.’’

उसी दिन आर्यसमाज मंदिर में उन का विवाह संपन्न हो गया. मन में सहमति न रखते हुए भी अमिता के मातापिता व भाईबहन विवाह समारोह में शामिल हुए. मांपिता ने कन्यादान किया. विवेक के घर में केवल मां और छोटी बहन थीं और विवेक के आफिस के सहयोगी भी पूरे उत्साह के साथ सम्मिलित हुए. साथियों ने निकट के रेस्तरां में नवदंपती के साथ सब की दावत की.

अमिता ने मांपिता के पैर छुए. फिर अमिता के साथ सभी लोग उस के घर आ गए तो विवेक की मां ने कहा, ‘‘समधीजी, अब अमिता को विदा कीजिए. वह अब मेरी बहू है, उसे अपने घर जाने दें…’’

पिता की जबान खुली, ‘‘लेकिन, राहुल…’’

विवेक की मां ने हंस कर कहा, ‘‘राहुल विवेक को बहुत चाहता है, विवेक भी उसे अपने बेटे की तरह प्यार करता है. बच्चे को उस का पिता भी तो मिलना चाहिए.’’

अमिता बोली, ‘‘पिताजी, मेरे इस घर को फिलहाल किराए पर उठा दें. उस पैसे से भाईबहनों की पढ़ाई, घर की देखभाल आदि का खर्च निकल आएगा.’’

चलते समय विवेक ने अमिता के मातापिता से कहा, ‘‘पिताजी, मैं ने अमिता से स्पष्ट कह दिया है कि तुम्हारा जो धन है वह तुम्हारा ही रहेगा, तुम्हारे ही नाम से रहेगा. मैं खुद अपने परिवार, पत्नी और पुत्र के लायक बहुत कमा लेता हूं. आप ऐसा न सोचें कि उस के धन के लालच से मैं ने शादी की है. वह उस का, राहुल का है.’’

फिर मातापिता के पैर छू कर विवेक और अमिता थोड़े से सामान और राहुल को साथ लेकर चले गए.

काली सोच : क्या वो खुद को माफ कर पाई -भाग 2

‘मुझे जो कहना था मैं ने कह दिया. तुम्हें इतना ही पसंद है तो कहीं से मुझे जहर ला दो. अपने जीतेजी तो मैं यह अनर्थ नहीं होने दूंगी. अरे, रिश्तेदार हैं, समाज है उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दस लोग दस तरह के सवाल पूछेंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें हम?’

मैं ने कहा तो सुशांत चुप हो गए. उस दिन मैं ने मानसी को ध्यान से देखा. वाकई मेरी गुडि़या विवाहयोग्य हो गई थी. लिहाजा, मैं ने पुरोहित को बुलावा भेजा.

‘बिटिया की कुंडली में तो घोर मंगल योग है बहूरानी. पतिसुख से यह वंचित रहेगी. पुरोहित के मुख से यह सुन कर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. मैं मध्यवर्गीय धर्मभीरू परिवार से थी और लड़की के मंगला होने के परिणाम से पूरी तरह परिचित थी. मैं ने लगभग पुरोहित के पैर पकड़ लिए, ‘कोई उपाय बताइए पुरोहितजी. पूजापाठ, यज्ञहवन, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. मुझे कैसे भी इस मंगल दोष से छुटकारा दिलाइए.’

‘शांत हो जाइए बहूरानी. मेरे होते हुए आप को परेशान होने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है,’ उन्होंने रसगुल्ले को मुंह में दबाते हुए कहा, ‘ऐसा कीजिए, पहले तो बिटिया का नाम मानसी के बजाय प्रिया रख दीजिए.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है पंडितजी. इस उम्र में नाम बदलने के लिए न तो बिटिया तैयार होगी न उस के पापा. वे कुंडली मिलान के लिए भी तैयार नहीं थे.’

‘तैयार तो बहूरानी राजा दशरथ भी नहीं थे राम वनवास के लिए.’ पंडितजी ने घोर दार्शनिक अंदाज में मुझे त्रियाहट का महत्त्व समझाया व दक्षिणा ले कर चलते बने.

‘आज से तुम्हारा नाम मानसी के बजाय प्रिया रहेगा,’ रात के खाने पर मैं ने बेटी को अपना फैसला सुना दिया.

‘लेकिन क्यों मां, इस नाम में क्या बुराई है?’

‘वह सब मैं नहीं जानती बेटा, पर मैं जो कुछ भी कर रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कर रही हूं. प्लीज, मुझे समझने की कोशिश करो.’

उस ने मुझे कितना समझा, कितना नहीं, यह तो मैं नहीं जानती पर मेरी बात का विरोध नहीं किया.

हर नए रिश्ते के साथ मैं उसे हिदायतों का पुलिंदा पकड़ा देती.

‘सुनो बेटा, लड़के की लंबाई थोड़ा कम है, इसलिए फ्लैटस्लीपर ही पहनना.’

‘लेकिन मां फ्लैटस्लीपर तो मुझ पर जंचते नहीं हैं.’

‘देखो प्रिया, यह लड़का 6 फुट का है. इसलिए पैंसिलहील पहनना.’

‘लेकिन मम्मी मैं पैंसिलहील पहन कर तो चल ही नहीं सकती. इस से मेरे टखनों में दर्द होता है.’

‘प्रिया, मौसी के साथ पार्लर हो आना. शाम को कुछ लोग मिलने आ

रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगी. मुझे मेकअप पसंद नहीं है.’

‘बस, एक बार तुम्हारी शादी हो जाए, फिर करती रहना अपने मन की.’

मैं सुबकने लगती तो प्रिया हथियार

डाल देती.

पर मेरी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जातीं जब लड़के वाले ‘फोन से खबर करेंगे’, कहते हुए चले जाते या फिर दहेज में मोटी रकम की मांग करते, जिसे पूरा करना किसी मध्यवर्गीय परिवार के वश की बात नहीं थी.

‘ऐसा कीजिए बहूरानी, शनिवार की सुबह 3 बजे बिटिया से पीपल के फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइए,’ पंडितजी ने दूसरी युक्ति सुझाई.

‘तुम्हें यह क्या होता जा रहा है मां, मैं ये जाहिलों वाले काम बिलकुल नहीं करूंगी,’ प्रिया गुस्से से भुनभुनाई, ‘पीपल के फेरे लगाने से कहीं रिश्ते बनते हैं.’

‘सच ही तो है, शादियां यदि पीपल के फेरे लगाने से

तय होतीं तो सारी विवाहयोग्य लड़कियां पीपल के इर्दगिर्द ही घूमती नजर आतीं,’ सुशांत ने भी हां में हां मिलाई.

‘चलो, माना कि नहीं होती पर हमें यह सब करने में हर्ज ही क्या है?’

‘हर्ज है शुभा, इस से लड़कियों का मनोबल गिरता है. उन का आत्मसम्मान आहत होता है. बारबार लड़के वालों द्वारा नकारे जाने पर उन में हीनभावना घर कर जाती है. तुम ये सब समझना क्यों नहीं चाहतीं. मानसी को पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने दो. उसे जो बनना है वह बन जाने दो. फिर शादी भी हो जाएगी,’ सुशांत ने मुझे समझाने की कोशिश की.

‘तब तक सारे अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे, फिर सुनते रहना रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने.’

‘रिश्तेदारों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे. उन की बातों से डर कर क्या हम बेटी की खुशियों, उस के सपनों का गला घोंट दें.’

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं क्या इस की दुश्मन हूं. अरे, लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़लिख जाएं, उन्हें आखिर पराए घर ही जाना होता है. घरपरिवार और बच्चे संभालने ही होते हैं और इन सब कामों की एक उम्र होती है. उम्र निकलने के बाद यही काम बोझ लगने लगते हैं.’

‘तो हमतुम मिल कर संभाल लेंगे न इन की गृहस्थी.’

‘संभालेंगे तो तब न जब ब्याह होगा इस का. लड़के वाले तो मंगला सुनते ही भाग खड़े होते हैं.’

हमारी बहस अभी और चलती अगर सुशांत ने मानसी की डबडबाई आंखों को देख न लिया होता.

सुशांत ने ही बीच का रास्ता निकाला था. वे कहीं से पीपल का बोनसाई का पौधा ले आए थे, जिस से मेरी बात भी रह जाए और प्रिया को घर से बाहर भी न जाना पड़े.

साल गुजरते जा रहे थे. मानसी की कालेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

 

काली सोच : क्या वो खुद को माफ कर पाई -भाग 3

घर में एक अदृश्य तनाव अब हर समय पसरा रहता. जिस घर में पहले प्रिया की शरारतों व खिलखिलाहटों की धूप भरी रहती, वहीं अब सर्द खामोशी थी.

सभी अपनाअपना काम करते, लेकिन यंत्रवत. रिश्तों की गर्माहट पता नहीं कहां खो गईर् थी.

हम मांबेटी की बातें जो कभी खत्म ही नहीं होती थीं, अब हां…हूं…तक ही सिमट गई थीं.

जीवन फिर पुराने ढर्रे पर लौटने लगा था कि तभी एक रिश्ता आया. कुलीन ब्राह्मण परिवार का आईएएस लड़का दहेजमुक्त विवाह करना चाहता था. अंधा क्या चाहे, दो आंखें.

हम ने झटपट बात आगे बढ़ाई. और एक दिन उन लोगों ने मानसी को देख कर पसंद भी कर लिया. सबकुछ इतना अचानक हुआ था कि मुझे लगने लगा कि यह सब पुरोहितजी के बताए उपायोें के फलस्वरूप हो रहा है.

हंसीखुशी के बीच हम शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए थे कि पुरोहित दोबारा आए, ‘जयकारा हो बहूरानी.’

‘सबकुछ आप के आशीर्वाद से ही तो हो रहा है पुरोहितजी,’ मैं ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा.

‘इसीलिए विवाह का मुहूर्त निकालते समय आप ने हमें याद भी नहीं किया,’ वे नाराजगी दिखाते हुए बोले.

‘दरअसल, लड़के वालों का इस में विश्वास ही नहीं है, वे नास्तिक हैं. उन लोगों ने तो विवाह की तिथि भी लड़के की छुट्टियों के अनुसार रखी है, न कि कुंडली और मुहूर्त के अनुसार,’ मैं ने अपनी सफाई दी.

‘न हो लड़के वालों को विश्वास, आप को तो है न?’ पंडित ने छूटते ही पूछा.

‘लड़के वालों की नास्तिकता का परिणाम तो आप की बेटी को ही भुगतना पड़ेगा. यह मंगल दोष किसी को

नहीं छोड़ता.’

‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’ जैसेतैसे मेरे मुंह से निकला. पुरोहितजी की बात से शादी की खुशी जैसे काफूर गई थी.

‘कुछ कीजिए पुरोहितजी, कुछ कीजिए. अब तक तो आप ही मेरी नैया पार लगाते आ रहे हैं,’ मैं गिड़गिड़ाई.

‘वह तो है बहूरानी, लेकिन इस बार रास्ता थोड़ा कठिन है,’ पुरोहित ने पान की गिलौरी मुंह में डालते हुए कहा.

‘बताइए तो महाराज, बिटिया की खुशी के लिए तो मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं,’ मैं ने डबडबाई आंखों से कहा.

‘हर बेटी को आप जैसी मां मिले,’ कहते हुए उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया, फिर मेरे कान के पास मुंह ले जा कर जो कुछ कहा उसे सुन कर तो मैं सन्न रह गई.

‘यह क्या कह रहे हैं आप? कहीं बकरे या कुत्ते से भी कोई मां अपनी बेटी की शादी कर सकती है.’

‘सोच लीजिए बहूरानी, मंगल दोष निवारण के लिए बस यही एक उपाय है. वैसे भी यह शादी तो प्रतीकात्मक होगी और आप की बेटी के सुखी दांपत्य जीवन के लिए ही होगी.’

‘लेकिन पुरोहितजी, बिटिया के पापा भी तो कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन की सलाह के बिना…’

‘अब लेकिनवेकिन छोडि़ए बहूरानी. ऐसे काम गोपनीय तरीके से ही किए जाते हैं. अच्छा ही है जो यजमान घर पर नहीं हैं.

‘आप कल सुबह 8 बजे फेरों की तैयारी कीजिए. जमाई बाबू (बकरा) को मेरे साथी पुरोहित लेते आएंगे

और बिटिया को मेरे घर की महिलाएं संभाल लेंगी.

‘और हां, 50 हजार रुपयों की भी व्यवस्था रखिएगा. ये लोग दूसरों से तो 80 हजार रुपए लेते हैं, पर आप के लिए 50 हजार रुपए पर बात तय की है.’ मैं ने कहते हुए पुरोहितजी चले गए.

अगली सुबह 7 बजे तक पुरोहित अपनी मंडली के साथ पधार चुके थे.

पुरोहिताइन के समझाने पर प्रिया बिना विरोध किए तैयार होने चली गई तो मैं ने राहत की सांस ली और बाकी कार्य निबटाने लगी.

‘मुहूर्त बीता जा रहा है बहूरानी, कन्या को बुलाइए.’ पुरोहितजी की आवाज पर मुझे ध्यान आया कि प्रिया तो अब तक तैयार हो कर आई ही नहीं.

‘प्रिया, प्रिया,’ मैं ने आवाज दी, लेकिन कोई जवाब न पा कर मैं ने उस के कमरे का दरवाजा बजाया, फिर भी कोई जवाब नहीं मिला तो मेरा मन अनजानी आशंका से कांप उठा.

‘सुनिए, कोई है? पुरोहितजी, पंडितजी, अरे, कोई मेरी मदद करो. मानसी, मानसी, दरवाजा खोल बेटा.’ लेकिन मेरी आवाज सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मेरे हितैषी होने का दावा करने वाले पुरोहित बजाय मेरी मदद करने के, अपने दलबल के साथ नौदोग्यारह हो गए थे.

हां, आवाज सुन कर पड़ोसी जरूर आ गए थे. किसी तरह उन की मदद से मैं ने कमरे का दरवाजा तोड़ा.

अंदर का भयावह दृश्य किसी की भी कंपा देने के लिए काफी था. मानसी ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस की रगों से बहता खून पूरे फर्श पर फैल चुका था और वह खुद एक कोने में अचेत पड़ी थी. मेरे ऊलजलूल फैसलों से बचने का वह यह रास्ता निकालेगी, यह मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

पड़ोसियों ने ही किसी तरह हमें अस्पताल तक पहुंचाया और सुशांत को खबर की.

ऐसी बातें छिपाने से भी नहीं छिपतीं. अगली ही सुबह मानसी के ससुराल वालों ने यह कह कर रिश्ता तोड़ दिया कि ऐसे रूढि़वादी परिवार से रिश्ता जोड़ना उन के आदर्शों के खिलाफ है.

‘‘यह सब मेरी वजह से हुआ है,’’ सुशांत से कहते हुए मैं फफक पड़ी.

‘‘नहीं शुभा, यह तुम्हारी वजह से नहीं, तुम्हारी धर्मभीरुता और अंधविश्वास की वजह से हुआ.’’

‘‘ये पंडेपुरोहित तो तुम जैसे लोगों की ताक में ही रहते हैं. जरा सा डराया, ग्रहनक्षत्रों का डर दिखाया और तुम फंस गईं जाल में. लेकिन यह समय इन बातों का नहीं. अभी तो बस यही कामना करो कि हमारी बेटी ठीक हो जाए,’’ कहते हुए सुशांत की आंखें भर आईं.

‘बधाई हो, मानसी अब खतरे से बाहर है,’ डा. रोहित ने आईसीयू से बाहर आते हुए कहा.

‘रोहित, विनोद का बेटा है, मानसी के लिए जिस का रिश्ता मैं ने महज विजातीय होने के कारण ठुकरा दिया था, इसी अस्पताल में डाक्टर है और पिछले 48  घंटों से मानसी को बचाने की खूब कोशिश कर रहा है. किसी अप्राप्य को प्राप्त कर लेने की खुशी मुझे उस के चेहरे पर स्पष्ट दिख रही है. ऐसे समय में उस ने मानसी को अपना खून भी दिया है.

‘क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि रोहित सिर्फ व सिर्फ मेरी बेटी मानसी के लिए ही बना है?

‘मैं भी बुद्धू हूं.

‘मैं ने पहले बहुत गलतियां की हैं. अब और नहीं करूंगी,’ यह सब वह सोच रही थी.

रोहित थोड़ी दूरी पर नर्स को कुछ दवाएं लाने को कह रहा था. उस ने हिम्मत जुटा कर रोहित से आहिस्ता से कहा, ‘‘मानसी ने तो मुझे माफ कर दिया, पर क्या तुम व तुम्हारे परिवार वाले मुझे माफ कर पाएंगे.’’

‘कैसी बातें करती हैं आंटी आप, आप तो मेरी मां जैसी है.’ रोहित ने मेरे जुड़े हुए हाथों को थाम लिया था.

आज उन की भरीपूरी गृहस्थी है. रोहित के परिवार व मेरी बेटी मानसी ने भी मुझे माफ कर दिया है. लेकिन क्या मैं कभी खुद को माफ कर पाऊंगी. शायद कभी नहीं.

इन अंधविश्वासों के चंगुल में फंसने वाली मैं अकेली नहीं हूं. ऐसी घटनाएं हर वर्ग व हर समाज में होती रहती हैं.

मैं आत्मग्लानि के दलदल में आकंठ डूब चुकी थी और अपने को बेटी का जीवन बिगाड़ने के लिए कोस रही थी.

डर: सेना में सेवा करने के प्रति आखिर कैसा था डर

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ -भाग 1

मुहल्ले में जिस ने भी सुना, उस की आंखें विस्मय से फटी की फटी रह गईं… ‘सतीश दास मर गया.’ विस्मय की बात यह नहीं कि मरियल सतीश दास मर गया बल्कि यह थी कि वह पत्नी के लिए पूरे साढ़े 5 लाख रुपए छोड़ गया है. कोई सोच भी नहीं सकता था कि पैबंद लगे अधमैले कपड़े पहनने वाले, रोज पुराना सा छाता बगल में दबा कर सवेरे घर से निकलने, रात में देर से  लौटने वाले सतीश के बैंक खाते में साढ़े 5 लाख की मोटी रकम जमा होगी.

गली के बड़ेबूढ़े सिर हिलाहिला कर कहने लगे, ‘‘इसे कहते हैं तकदीर. अच्छा खाना- पहनना भाग्य में नहीं लिखा था पर बीवी को लखपती बना गया.’’ कुछ ने मन ही मन अफसोस भी किया कि पहले पता रहता तो किसी बहाने कुछ रकम कर्ज में ऐंठ लेते, अब कौन आता वसूल करने.

जीते जी तो सभी सतीश को उपेक्षा से देखते रहे, कोई खास ध्यान न देता जैसे वह कोई कबाड़ हो. किसी से न घनिष्ठता, न कोई सामाजिक व्यवहार. देर रात चुपचाप घर आना, खाना खा कर सो जाना और सवेरे 8 बजे तक बाहर…

महल्ले में लोगों को इतना पता था कि सतीश दास थोक कपड़ों की मंडी में दलाली किया करता है. कुछ को यह भी पता था कि जबतब शेयर मार्केट में भी वह जाया करता था. जो हो, सचाई अपनी जगह ठोस थी. पत्नी के नाम साढ़े 5 लाख रुपए निश्चित थे.

आमतौर पर बैंक वाले ऐसी बातें खुद नहीं बताते, नामिनी को खुद दावा करने जाना पड़ता है. वह तो बैंक का क्लर्क सुभाष गली में ही रहता है, उसी ने बात फैला दी. अमिता के घर यह सूचना देने सुभाष निजी रूप से गया था और इसी के चलते गली भर को मालूम हो गई यह बात.

वह नातेदार, पड़ोसी, जो कभी उस के घर में झांकते तक न थे, वह भी आ कर सतीश के गुणों का बखान करने लगे. गली वालों ने एकमत से मान लिया कि सतीश जैसा निरीह, साधु प्रकृति आदमी नहीं मिलता है. अपने काम से काम, न किसी की निंदा, न चुगली, न झगड़े. यहां तो चार पैसे पाते ही लोग फूल कर कुप्पा हो जाते हैं.

अमिता चकराई हुई थी. यह क्या हो गया, वह समझ नहीं पा रही थी.

उसे सहारा देने दूर महल्ले के मायके से मां, बहन और भाई आ पहुंचे. बाद में पिताजी भी आ गए. आते ही मां ने नाती को गोद में उठा लिया. बाकी सब भी अमिता के 4 साल के बच्चे राहुल को हाथोंहाथ लिए रहते.

मां ने प्यार से माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘मुन्नी, यों उदास न रहो. जो होना था वह हो गया. तुम्हें इस तरह उदास देख कर मेरी तो छाती फटती है.’’

पिता ने खांसखंखार कर कहा, ‘‘न हो तो कुछ दिनों के लिए हमारे साथ चल कर वहीं रह. यहां अकेली कैसे रहेगी, हम लोग भी कब तक यहां रह सकेंगे.’’

‘‘और यह घर?’’ अमिता पूछ बैठी.

‘‘अरे, किराएदारों की क्या कमी है, और कोई नहीं तो तुम्हारे मामा रघुपति को ही रख देते हैं. उसे भी डेरा ठीक नहीं मिल रहा है, अपना आदमी घर में रहेगा तो अच्छा ही होगा.’’

‘‘सुनते हो जी,’’ मां बोलीं, ‘‘बेटी की सूनी कलाई देख मेरी छाती फटती है. ऐसी हालत में शीशे की नहीं तो सोने की चूडि़यां तो पहनी ही जाती हैं, जरा सुखलाल सुनार को कल बुलवा देते.’’

‘‘जरूर, कल ही बुला देता हूं.’’

अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थी.

कामयाब: एक भविष्यवाणी से क्यों बदल गई चंचल की जिंदगी

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