जड़ें: कौनसा खेल नीरज खेल रहा था

मेरीपत्नी शिखा की कविता मौसी रविवार की सुबह 11 बजे बिना किसी पूर्व सूचना के जब मेरे घर आईं तब रितु भी वहीं थी. उन दोनों का परिचय कराते हुए मैं कुछ घबरा उठा था.

2 मिनट रितु से बातें कर के जब वे पानी पीने के लिए रसोई की तरफ चलीं तो मैं भी उन के पीछे हो लिया.

‘‘शिखा कहां गई है?’’ उन्होंने शरारती अंदाज में सवाल किया तो मेरी घबराहट कुछ और बढ़ गई.

‘‘वह मायके गई हुई है, मौसीजी,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य रखते हुए जवाब दिया.

‘‘रहने के लिए?’’

‘‘हां, मौसीजी.’’

‘‘कब लौटेगी?’’

‘‘अगले रविवार को.’’

‘‘बालक, शिखा के पीछे यह कैसा चक्कर चला रहे हो? यह रितु कौन है?’’

मौसी की झटके से कैसा भी खुराफाती सवाल पूछ लेने की आदत से मैं पहले से परिचित न होता तो जरूर हकला उठता. पर मुझे ऐसे किसी सवाल के पूछे जाने का अंदेशा था, इसलिए उन के जाल में नहीं फंसा था.

मैं ने बड़े संजीदा हो कर जवाब दिया, ‘‘मौसीजी, यह रितु शिखा की ही सहेली है. यह पड़ोस में रहती है और उसी से मिलने आई थी. आप उस के और मेरे बारे में कोई गलत बात न सोचें. मैं वफादार पतियों में से हूं.’’

‘‘वे तो सभी होते हैं… जब तक पकड़े न जाएं,’’ अपने मजाक पर जब मौसी खूब जोर से हंसीं तो मैं भी उन का साथ देने को झेंपी सी हंसी हंस पड़ा.

फ्रिज में से ठंडे पानी की बोतल निकालते हुए उन्होंने मुझे फिर से छेड़ा,

‘‘बालक, तुम दोनों की शादी को मुश्किल से 3 महीने हुए हैं और तुम ने उसे घर भेज रखा है? क्या तुम्हें मनचाही पत्नी नहीं मिली है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मौसीजी. शिखा को मैं बहुत प्यार करता हूं. वही जिद कर के मायके भाग जाती है. मेरा बस चले तो मैं उसे 1 रात के लिए भी कहीं न छोड़ूं,’’ मैं ने अपनी आवाज को इतना भावुक बना लिया कि वे मेरी नीयत पर किसी तरह का शक कर ही न सकें.

‘‘देखो, अगर तुम दोनों के बीच कोई मनमुटाव पैदा हो गया है तो मुझे सब सचसच बता दो. मैं तुम्हारी प्रौब्लम यों चुटकी बजा कर हल कर दूंगी,’’ उन्होंने बड़े स्टाइल से चुटकी बजाई.

‘‘हमारे बीच प्यार की जड़ें बहुत मजबूत हैं. आप किसी तरह की फिक्र न करो, मौसीजी,’’ मैं ने यह जवाब दिया तो वे मुसकरा उठीं.

‘‘यू आर ए गुड बौय, नीरज. मेरी बातों का कभी बुरा नहीं मानना,’’ कह उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे गले से लगाया और फिर पीने के लिए बोतल से गिलास में पानी डालने लगीं.

ड्राइंगरूम में लौट कर उन्होंने बिना कोई भूमिका बांधे रितु की मुसकराते हुए तारीफ कर डाली, ‘‘रितु, तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘थैंक यू, मौसीजी,’’ रितु खुश हो गई.

‘‘तुम ने शादी करने के लिए कोई लड़का देख रखा है या मैं तुम्हारे लिए कोई अच्छा सा रिश्ता ढूंढ़ कर लाऊं?’’

‘‘न कोई लड़का ढूंढ़ रखा है न मैं अभी शादी करना चाहती हूं, मौसीजी.’’

‘‘अरे, शादी करने में बहुत ज्यादा देर मत कर देना. शादी के बाद भी लड़की बहुत ऐश कर सकती है. फिर कभीकभी ऐसा भी हो जाता है कि बाद में अच्छे लड़कों के रिश्ते आने बंद हो जाते हैं. मेरी सलाह तो यही है कि तुम शादी के लिए अब फटाफट हां कर दो.’’

‘‘आप इतना जोर दे कर समझा रही हैं तो मैं राजी हो ही जाती हूं मौसीजी. अब आप ढूंढ़ ही लाइए मेरे लिए कोई अच्छा सा रिश्ता,’’ उस ने नाटकीय ढंग से शरमाने का बढि़या अभिनय किया तो मौसीजी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘तुम सुंदर होने के साथसाथ स्मार्ट और आत्मविश्वास से भरी हुई लड़की भी हो. तुम जिसे मिलोगी वह सचमुच खुशहाल इंसान होगा,’’ मौसीजी ने भावविभोर हो उसे प्यार से गले लगा कर आशीर्वाद दिया और फिर अचानक पूछा, ‘‘तुम कौन सा सैंट लगाती हो, रितु? बड़ी अच्छी महक आ रही है.’’

‘‘यह सैंट मैं ने आर्चीज की शौप से लिया है, मौसीजी. ज्यादा महंगा भी नहीं है.’’

‘‘मैं भी यह सैंट जरूर खरीद कर लाऊंगी. आज तो नीरज और शिखा के साथ कहीं घूम आने की इच्छा ले कर मैं घर से निकली थी. अब मुझे यह साफसाफ बता दो कि तुम दोनों ने पहले से कहीं जाने का कोई प्रोग्राम तो नहीं बना रखा है?’’

‘‘कोई प्रोग्राम नहीं है हमारा. मैं अब चलती हूं. शिखा के आने पर फिर आऊंगी,’’ रितु जाने को उठ खड़ी हुई.

मैं ने उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं करी तो वह मौसीजी को नमस्ते कर अपने घर चली गई.

उस के जाते ही मौसीजी ने मुझे फिर छेड़ा, ‘‘मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं ने बिना बताए यहां आ कर रंग में भंग डाल दिया है?’’

‘‘मौसीजी, आप भी बस बेकार में मुझ पर शक किए जा रही हो. शिखा के सामने ऐसा कोई मजाक मत कर देना नहीं तो वह बेकार ही मुझ पर शक करने लग जाएगी,’’ मैं कुछ नाराज हो उठा था.

‘‘तुम टैंशन मत लो, क्योंकि मेरी मजाक करने की आदत से वह भलीभांति परिचित है, बालक. अच्छा, अब तुम मेरे साथ चलने के लिए जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘हमें जाना कहां हैं, मौसीजी?’’

‘‘मैं आज तुम्हारी मुलाकात बड़े खास इंसान से करवाने जा रही हूं,’’ वे रहस्यमयी अंदाज में मुसकरा उठी थीं.

‘‘कौन है यह इंसान, मौसीजी?’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मैं ने तुम्हारे मौसाजी से दूसरी शादी करी है?’’

‘‘आप मुझ से मजाक मत करो?’’ मैं

चौंक पड़ा.

‘‘अरे, मैं सच बता रही हूं. अपनी पहली शादी के 6 महीने बाद ही मैं ने अपने पहले पति राजीव से तलाक लेने का मन बना लिया था.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कारण बाद में बताऊंगी. हम उन्हीं से मिलने चल रहे हैं.’’

‘‘आप उन से मिलती रहती हैं.’’

‘‘हां. आज के दिन तो जरूर ही मैं उन से मिलने जाती हूं, क्योंकि आज उन का जन्मदिन है.’’

‘‘तलाक होने के बावजूद उन से आप ने अपने संबंध पूरी तरह से खत्म नहीं किए हैं?’’

‘‘करैक्ट.’’

‘‘बस, यह और समझा दो कि आप मुझे उन से क्यों मिलाने ले चल रही हैं?’’

‘‘अरे, अपने भूतपूर्व पति से अकेले मिलने जाना क्या मेरे लिए समझदारी की बात होगी? पता नहीं शराब पी कर मारपीट करने का शौकीन वह बंदा किस मूड में हो? अपनी हिफाजत के लिए मैं तुम्हें साथ ले जा रही हूं, बालक.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि उन की शराब पी कर मारपीट करने की आदत के कारण आप ने उन्हें तलाक दिया था?’’

‘‘यह नंबर 2 पर आने वाला महत्त्वपूर्ण कारण था.’’

‘‘और नंबर 1 वाला कारण क्या था?’’

‘‘वह कारण तुम्हें उन से मिलाने के बाद बताऊंगी,’’ उन्होंने इस विषय पर आगे कोई चर्चा न करते हुए मुझे तैयार हो जाने के लिए बैडरूम की तरफ धकेल दिया था.

घंटेभर बाद घंटी बजाए जाने पर मौसीजी के पहले पति राजीव के घर का

दरवाजा उन के पुराने नौकर रामदीन ने खोला. वह मौसीजी को पहचानता था. मैं ने नोट किया कि वह उन्हें देख कर खुश नहीं हुआ. मौसीजी उस से कोई बात किए बिना ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ गईं.

‘‘हैप्पी बर्थ डे…’’ मौसीजी ने जब अपने भूतपूर्व पति को विश किया तो वे जबरदस्ती वाले अंदाज में मुसकराए.

‘‘थैंक यू, कविता. वैसे मेरी समझ में नहीं आता है कि तुम हर साल यहां आ कर मुझे विश करने का कष्ट क्यों उठाती हो?’’ उन्होंने मौसी को ताना सा मारा.

‘‘रिलैक्स, राजीव. हर साल मैं आ जाती हूं, क्योंकि मुझे मालूम है कि मेरे अलावा तुम्हें विश करने और कोई नहीं आएगा,’’ मौसीजी ने उन

की बात का बुरा माने बगैर आगे बढ़ कर उन से हाथ मिलाया.

‘‘यह भी तुम ठीक कह रही है. यह कौन है?’’ उन्होंने मेरे बारे में सवाल पूछा.

‘‘यह नीरज है. मेरी बड़ी बहन अनिता की बेटी शिखा का पति,’’ मौसीजी ने उन्हें मेरा परिचय दिया तो मैं ने एक बार फिर से उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी.

उन्होंने मेरे अभिवादन का जवाब सिर हिला कर दिया और फिर ऊंची आवाज में बोले, ‘‘रामदीन, इन मेहमानों का मुंह मीठा कराने के लिए फ्रिज में से रसमलाई ले आ.’’

‘‘तुम्हें मेरी मनपसंद मिठाई मंगवाना हमेशा याद रहता है.’’

‘‘तुम से जुड़ी यादों को भुलाना आसान नहीं है, कविता.’’

‘‘खुद को नुकसान पहुंचाने वाली मेरी यादों को भूला देते तो आज तुम्हारा घर बसा होता.’’

‘‘तुम्हारी जगह कोई दूसरी औरत ले नहीं पाती, मैं ने दोबारा अपना घरसंसार ऐसी सोच के कारण ही नहीं बसाया, कविता रानी.’’

‘‘मुझे भावुक कर के शर्मिंदा करने की तुम्हारी कोशिश हमेशा की तरह आज भी बेकार जाएगी, राजीव,’’ मौसीजी ने कुछ उदास से लहजे में मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘मैं फिर से कहती हूं कि मुझ जैसी बेवफा पत्नी की यादों को दिल में बसाए रखना समझदारी की बात नहीं है. यह छोटी सी बात मैं तुम्हें आज तक नहीं समझा पाई हूं. इस बात का मुझे सचमुच बहुत अफसोस है, राजीव.’’

मौसीजी ने खुद को बेवफा क्यों कहा था, इस का कारण मैं कतई नहीं

समझ सका था. तभी राजीव अपने नौकर को कुछ हिदायत देने के लिए मकान के भीतरी भाग में गए तो मैं ने मौसीजी से धीमी आवाज में अपने मन में खलबली मचा रहे सवाल को पूछ डाला, ‘‘आप ने अभीअभी अपने को बेवफा क्यों कहा?’’

मेरी आंखों में संजीदगी से झांकते हुए मौसीजी ने मेरे सवाल का जवाब देना शुरू किया, ‘‘नीरज, हमारे बीच जो तलाक हुआ उस का दूसरे नंबर पर आने वाला महत्त्वपूर्ण कारण तो मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हूं. इन्हें दोस्तों के साथ आएदिन शराब पीने की लत थी और मुझे शराब की गंध से भी बहुत ज्यादा नफरत थी. मैं इस कारण इन से झगड़ा करती तो ये मुझ पर हाथ उठा देते थे.

‘‘तब मैं रूठ कर मायके भाग जाती. ये मुझे जाने देते, क्योंकि इन्हें अपने दोस्तों के साथ पीने से रोकने वाला कोई न रहता. फिर जब मेरी याद सताने लगती तो मुझे लेने आ जाते. मेरे सामने कभी शराब न पीने वादा करते तो मैं वापस आ जाती थी.’’

‘‘लेकिन इन के वादे झूठे साबित होते. शराब पीने की लत हर बार जीत जाती. हमारा फिर झगड़ा होता और मैं फिर से मायके भाग आती. यह सिलसिला करीब 3 महीने चला और फिर अमित मेरी जिंदगी में आ गया.’’

‘‘अमित कौन?’’

‘‘जो आज तुम्हारे मौसाजी हैं. उन्हीं का नाम अमित है, नीरज. वे मेरी एक सहेली के बड़े भाई थे. उन की पत्नी की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. उन्होंने जब मेरे दांपत्य जीवन की परेशानियों और दुखों को जाना तो बहुत गुस्सा हो उठे. मेरे लिए उन के मन में सहानुभूति के गहरे भाव पैदा हुए. पहले वे मेरे शुभचिंतक बने, फिर अच्छे दोस्त और बाद में हमारी दोस्ती प्रेम में बदल गई.’’

‘‘नीरज, ये राजीव भी दिल के बहुत अच्छे इंसान होते थे. हमारे बीच प्यार का रिश्ता भी मजबूत था, लेकिन इन्होंने शराब पीने की सुविधा पाने को मुझे मायके भाग जाने की छूट दे कर बहुत बड़ी गलती करी थी. विधुर अमित ने इस भूल का फायदा उठा कर अपना घर बसा लिया और राजीव की गृहस्थी ढंग से बसने से पहले ही उजड़ गई.

‘‘राजीव ने मेरे सामने बहुत हाथ जोड़े थे. छोटे बच्चे की तरह बिलख कर रोए भी पर मेरे दिल में तो इन की जगह अमित ने ले ली थी. मैं ने अमित के साथ भविष्य के सपने देखने शुरू कर दिए थे. मैं ने इन के साथ बेवफाई करी और ये हमारे बीच तलाक का पहला और मुख्य कारण बन गया.’’

‘‘मैं मानती हूं कि मैं ने राजीव के साथ बहुत गलत किया. अब तक भी मैं अपने मन में बसे अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पाई हूं और इसी कारण तलाक हो जाने के बावजूद इन की खोजखबर लेने आती रहती हूं. क्या अब तुम समझ सकते हो कि मैं तुम्हें आज यहां अपने साथ क्यों लाई हूं?’’

‘‘क्यों?’’ बात कुछकुछ मेरी समझ में आई थी और इसी कारण मेरा मन बहुत बेचैन हो उठा था.

‘‘तुम भी वैसी ही मिस्टेक कर रहे हो जैसी कभी राजीव ने करी थी. ये बेरोकटोक शराब पीने की खातिर मुझे मायके भाग जाने देते थे और तुम रितु के साथ ऐश करने को शिखा को मायके जा कर रहने की फटाफट इजाजत दे देते हो. कल को…’’

‘‘मेरा रितु के साथ किसी तरह का चक्कर…’’

‘‘मुझ से झूठ बोलने का क्या फायदा है, नीरज? मैं ने तुम्हें रसोई में और रितु को ड्राइंगरूम में गले लगाया था. तुम्हारे कपड़ों में से रितु के सैंट की महक बहुत जोर से आ रही थी और तुम भला लड़कियों वाला सैंट क्यों प्रयोग करोगे?’’

‘‘मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूं, मौसीजी,’’ और ज्यादा शर्मिंदगी से बचने के लिए मैं ने उन्हें टोक दिया और फिर तनावग्रस्त लहजे में बोला, ‘‘पर आप मुझे एक बात सचसच बताना कि क्या मायके में रहने की शौकीन शिखा का वहां किसी के साथ चक्कर चल रहा है?’’

‘‘नहीं, बालक. मगर ऐसा कभी नहीं हो सकता है, इस की कोई गारंटी नहीं. रितु के साथ मौज करने के लिए तुम जो अपने विवाहित जीवन की खुशियों और सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हो, वह क्या समझदारी की बात है? कल को अगर कोई अमित उस की जिंदगी में भी आ गया तो क्या करोगे?’’

‘‘मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा,’’ मैं उत्तेजित हो उठा.

‘‘राजीव ने भी कभी मुझे खो देने की कल्पना नहीं करी थी, नीरज. जैसे मैं भटकी वैसे ही शिखा क्यों नहीं भटक सकती है?’’

‘‘मैं उसे कल ही वापस…’’

‘‘कल क्यों? आज ही क्यों नहीं, बालक?’’

‘‘हां आज ही…’’

‘‘अभी ही क्यों नहीं निकल जाते हो उसे अपने पास वापस लाने के लिए?’’

‘‘अभी चला जाऊं?’’

‘‘बिलकुल जाओ, बालक. नेक काम में

देरी क्यों?’’

‘‘तो मैं चला, मौसीजी. मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि शिखा के साथ आपसी प्रेम की जड़ें मैं बहुत मजबूत कर लूंगा. मेरी आंखें खोलने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’ कह मैं ने उन के पैर छुए और फिर लगभग भागता सा शिखा के पास पहुंचने के लिए दरवाजे की तरफ चल पड़ा.

परी हूं मैं : तरुण ने दिखाई मुझे मेरी औकात

जिस रोज वह पहली बार राजीव के साथ बंगले पर आया था, शाम को धुंधलका हो चुका था. मैं लौन में डले झूले पर अनमनी सी अकेली बैठी थी. राजीव ने परिचय कराया, ‘‘ये तरुण, मेरा नया स्टूडैंट. भोपाल में परी बाजार का जो अपना पुराना घर था न, उसी के पड़ोस में रमेश अंकल रहते थे, उन्हीं का बेटा है.’’ सहजता से देखा मैं ने उसे. अकसर ही तो आते रहते हैं इन के निर्देशन में शोध करने वाले छात्र. अगर आंखें नीलीकंजी होतीं तो यह हूबहू अभिनेता प्राण जैसा दिखता. वह मुझे घूर रहा था, मैं हड़बड़ा गई.

‘‘परी बाजार में काफी अरसे से नहीं हुआ है हम लोगों का जाना. भोपाल का वह इलाका पुराने भोपाल की याद दिलाता है,’’ मैं बोली.

‘‘हां, पुराने घर…पुराने मेहराब टूटेफूटे रह गए हैं, परियां तो सब उड़ चुकी हैं वहां से’’, कह कर तरुण ने ठहाका लगाया. तब तक राजीव अंदर जा चुके थे.

‘‘उन्हीं में से एक परी मेरे सामने खड़ी है,’’ लगभग फुसफुसाया वह…और मेरे होश उड़ गए. शाम गहराते ही आकाश में पूनम का गोल चांद टंग चुका था, मुझे

लगा वह भी तरुण के ठहाके के साथ खिलखिला पड़ा है. पेड़पौधे लहलहा उठे. उस की बात सुन कर धड़क गया था मेरा दिल, बहुत तेजी से, शायद पहली बार.

उस पूरी रात जागती रही मैं. पहली बार मिलते ही ऐसी बात कोई कैसे कह सकता है? पिद्दा सा लड़का और आशिकों वाले जुमले, हिम्मत तो देखो. मुझे गुस्सा ज्यादा आ रहा था या खुशी हो रही थी, क्या पता. मगर सुबह का उजाला होते मैं ने आंखों से देखा.

उस की नजरों में मैं एक परी हूं. यह एक बात उस ने कई बार कही और एक ही बात अगर बारबार दोहराई जाए तो वह सच लगने लगती है. मुझे भी तरुण की बात सच लगने लगी.

और वाकई, मैं खुद को परी समझने लगी थी. इस एक शब्द ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. इस एक शब्द के जादू ने मुझे अपने सौंदर्य का आभास करा दिया और इसी एक शब्द ने मुझे पति व प्रेमी का फर्क समझा दिया.

2 किशोरियों की मां हूं अब तो. शादी हो कर आई थी तब 23 की भी नहीं थी, तब भी इन्होंने इतनी शिद्दत से मेरे  रंगरूप की तारीफ नहीं की थी. परी की उपमा से नवाजना तो बहुत दूर की बात. इन्हें मेरा रूप ही नजर नहीं आया तो मेरे शृंगार, आभूषण या साडि़यों की प्रशंसा का तो प्रश्न ही नहीं था.

तरुण से मैं 1-2 वर्ष नहीं, पूरे 13 वर्ष बड़ी हूं लेकिन उस की यानी तरुण की तो बात ही अलहदा है. एक रोज कहने लगा, ‘मुझे तो फूल क्या, कांटों में भी आप की सूरत नजर आती है. कांटों से भी तीखी हैं आप की आंखें, एक चुभन ही काफी है जान लेने के लिए. पता नहीं, सर, किस धातु के बने हैं जो दिनरात किताबों में आंखें गड़ाए रहते हैं.’

‘बोरिंग डायलौग मत मारो, तरुण,’ कह कर मैं ने उस के कमैंट को भूलना चाहा पर उस के बाद नहाते ही सब से पहले मैं आंखों में गहरा काजल लगाने लगी, अब तक सब से पहले सिंदूर भरती थी मांग में.

तरुण के आने से जानेअनजाने ही शुरुआत हो गई थी मेरे तुलनात्मक अध्ययन की. इन की किसी भी बात पर कार्य, व्यवहार, पहनावे पर मैं स्वयं से ही प्रश्नोत्तर कर बैठती. तरुण होता तो ऐसे करता, तरुण यों कहता, पहनता, बोलता, हंसताहंसाता.

बात शायद बोलनेबतियाने या हंसतेहंसाने तक ही सीमित रहती अगर राजीव को अपने शोधपत्रों के पठनपाठन हेतु अमेरिका न जाना पड़ता. इन का विदेश दौरा अचानक तय नहीं हुआ था. पिछले सालडेढ़साल से इस सैमिनार की चर्चा थी यूनिवर्सिटी में और तरुण को भी पीएचडी के लिए आए इतना ही वक्त हो चला है.

हालांकि इन के निर्देशन में अब तक दसियों स्टूडैंट्स रिसर्च कंपलीट कर चुके हैं मगर वे सभी यूनिवर्सिटी से घर के ड्राइंगरूम और स्टडीहौल तक ही सीमित रहे किंतु तरुण के गाइड होने के साथसाथ ये उस के बड़े भाई समान भी थे क्योंकि तरुण इन के गृहनगर भोपाल का होने के संग ही रमेश अंकल का बेटा जो ठहरा. इस संयोग ने गुरुशिष्य को भाई के नाते की डोर से भी बांध दिया था.

औपचारिक तौर पर तरुण अब भी भाभीजी ही कहता है. शुरूशुरू में तो उस ने तीजत्योहार पर राजीव के और मेरे पैर भी छुए. देख कर राजीव की खुशी छलक पड़ती थी. अपने घरगांव का आदमी परदेस में मिल जाए, तो एक सहारा सा हो जाता है. मानो एकल परिवार भरापूरा परिवार हो जाता है. तरुण भी घर के एक सदस्य सा हो गया था, बड़ी जल्दी उस ने मेरी रसोई तक एंट्री पा ली थी. मेरी बेटियों का तो प्यारा चाचू बन गया था. नन्हीमुन्नी बेटियों के लिए उन के डैडी के पास वक्त ही कहां रहा कभी.

यों तो तरुण कालेज कैंपस के ही होस्टल में टिका है पर वहां सिर्फ सामान ही पड़ा है. सारा दिन तो लेबोरेट्री, यूनिवर्सिटी या फिर हमारे घर पर बीतता है. रात को सोने जाता है तो मुंह देखने लायक होता है.

3 सप्ताहों का दौरा समाप्त कर तमाम प्रशंसापत्र, प्रशस्तिपत्र के साथ ही नियुक्ति अनुबंध के साथ राजीव लौटे थे. हमेशा की तरह यह निर्णय भी उन्होंने अकेले ही ले लिया था. मुझ से पूछने की जरूरत ही नहीं समझी कि ‘तुम 3 वर्ष अकेली रह लोगी?’

मैं ने ही उन की टाई की नौट संवारते पूछा था, ‘‘3 साल…? कैसे संभालूंगी सब? और रिद्धि व सिद्धि…ये रह लेंगी आप के बगैर?’’

‘‘तरुण रहेगा न, वह सब मैनेज कर लेगा. उसे अपना कैरियर बनाना है. गाइड हूं उस का, जो कहूंगा वह जरूर करेगा. समझदार है वह. मेरे लौटते ही उसे डिगरी भी तो लेनी है.’’

मैं पल्लू थामे खड़ी रह गई. पक्के सौदागर की तरह राजीव मुसकराए और मेरा गाल थपथपाते यूनिवर्सिटी चले गए, मगर लगा ऐसा जैसे आज ही चले गए. घर एकदम सुनसान, बगीचा सुनसान, सड़कें तक सुनसान सी लगीं. वैसे तो ये घर में कोई शोर नहीं करते मगर घर के आदमी से ही तो घर में बस्ती होती है.

इन के जाने की कार्यवाही में डेढ़ माह लग गए. किंतु तरुण से इन्होंने अपने सामने ही होस्टलरूम खाली करवा कर हमारा गैस्टरूम उस के हवाले कर दिया. अब तरुण गैर कहां रह गया था? तरुण के व्यवहार, सेवाभाव से निश्ंिचत हो कर राजीव रवाना हो गए.

वैसे वे चाहते थे घर से अम्माजी को भी बुला लिया जाए मगर सास से मेरी कभी बनी ही नहीं, इसलिए विकल्प के तौर पर तरुण को चुन लिया था. फिर घर में सौ औरतें हों मगर एक आदमी की उपस्थिति की बात ही अलग होती है. तरुण ने भी सद्गृहस्थ की तरह घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. हंसीमजाक हम दोनों के बीच जारी था लेकिन फिर भी हमारे मध्य एक लक्ष्मणरेखा तो खिंची ही रही.

इतिहास गवाह है ऐसी लक्ष्मणरेखाएं कभी भी सामान्य दशा में जानबूझ कर नहीं लांघी गईं बल्कि परिस्थिति विशेष कुछ यों विवश कर देती हैं कि व्यक्ति का स्वविवेक व संयम शेष बचता ही नहीं है.

परिस्थितियां ही कुछ बनती गईं कि उस आग ने मेरा, मुझ में कुछ छोड़ा ही नहीं. सब भस्म हो गया, आज तक मैं ढूंढ़ रही हूं अपनेआप को.

आग…सचमुच की आग से ही जली थी. शिफौन की लहरिया साड़ी पहनने के बावजूद भी किचन में पसीने से तरबतर व्यस्त थी कि दहलीज पर तरुण आ खड़ा हुआ और जाने कब टेबलफैन का रुख मेरी ओर कर रैगुलेटर फुल पर कर दिया. हवा के झोंके से पल्ला उड़ा और गैस को टच कर गया.

बस, एक चिनगारी से भक् से आग भड़क गई. सोच कर ही डर लगता है. भभक उठी आग. हम दोनों एकसाथ चीखे थे. तरुण ने मेरी साड़ी खींची. मुझ पर मोटे तौलिए लपेटे हालांकि इस प्रयास में उस के भी हाथ, चेहरा और बाल जल गए थे.

मुझे अस्पताल में भरती करना पड़ा और तरुण के हाथों पर भी पट्टियां बंध चुकी थीं तो रिद्धि व सिद्धि को किस के आसरे छोड़ते. अम्माजी को बुलाना ही पड़ा. आते ही अम्माजी अस्पताल पहुंचीं.

‘देख, तेरी वजह से तरुण भी जल गया. कहते हैं न, आग किसी को नहीं छोड़ती. बचाने वाला भी जलता जरूर है.’ जाने क्यों अम्मा का आना व बड़बड़ाना मुझे अच्छा नहीं लगा. आंखें मूंद ली मैं ने. अस्पताल में तरुण नर्स के बजाय खुद मेरी देखभाल करता. मैं रोती तो छाती से चिपका लेता. वह मुझे होंठों से चुप करा देता. बिलकुल ताजा एहसास.

अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आई तो घर का कोनाकोना एकदम नया सा लगा. फूलपत्तियां सब निखर गईं जैसे. जख्म भी ठीक हो गए पर दाग छोड़ गए, दोनों के अंगों पर, जलने के निशान.

तरुण और मैं, दोनों ही तो जले थे एक ही आग में. राजीव को भी दुर्घटना की खबर दी गई थी. उन्होंने तरुण को मेरी आग बुझाने के लिए धन्यवाद के साथ अम्मा को बुला लेने के लिए शाबाशी भी दी.

तरुण को महीनों बीत चले थे भोपाल गए हुए. लेकिन वहां उस की शादी की बात पक्की की जा चुकी थी. सुनते ही मैं आंसू बहाने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’

‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होता.’ तरुण ने पूरी तरह मुझे अपने वश में कर लिया था, मगर पिता के फैसले का विरोध करने की न उस में हिम्मत थी न कूवत. स्कौलरशिप से क्या होना जाना था, हर माह उसे घर से पैसे मांगने ही पड़ते थे.

तो इस शादी से इनकार कैसे करता? लड़की सरकारी स्कूल में टीचर है और साथ में एमफिल कर रही है तो शायद शादी भी जल्दी नहीं होगी और न ही ट्रांसफर. तरुण ने मुझे आश्वस्त कर दिया.

मैं न सिर्फ आश्वस्त हो गई बल्कि तरुण के संग उस की सगाई में भी शामिल होने चली आई. सामान्य सी टीचरछाप सांवली सी लड़की, शक्ल व कदकाठी हूबहू मीनाकुमारी जैसी.

एक उम्र की बात छोड़ दी जाए तो वह मेरे सामने कहीं नहीं टिक रही थी. संभवतया इसलिए भी कि पूरे प्रोग्राम में मैं घर की बड़ी बहू की तरह हर काम दौड़दौड़ कर करती रही. बड़ों से परदा भी किया. छोटों को दुलराया भी. तरुण ने भी भाभीभाभी कर के पूरे वक्त साथ रखा लेकिन रिंग सेरेमनी के वक्त स्टेज पर लड़की के रिश्तेदारों से परिचय कराया तो भाभी के रिश्ते से नहीं बल्कि, ‘ये मेरे बौस, मेरे गाइड राजीव सर की वाइफ हैं.’

कांटे से चुभे उस के शब्द, ‘सर की वाइफ’, यानी उस की कोई नहीं, कोई रिश्ता नहीं. तरुण को वापस तो मेरे ही साथ मेरे ही घर आना था. ट्रेन छूटते ही शिकायतों की पोटली खोल ली मैं ने. मैं तैश में थी, हालांकि तरुण गाड़ी चलते ही मेरा पुराना तरुण हो गया था. मेरा मुझ पर ही जोर न चल पाया, न उस पर.

मौसम बदल रहे थे. अपनी ही चाल में, शांत भाव से. मगर तीसरे वर्ष के मौसमों में कुछ ज्यादा ही सन्नाटा महसूस हो रहा था, भयावह चुप्पियां. आंखों में, दिलों में और घर में भी.

तूफान तो आएंगे ही, एक नहीं, कईकई तूफान. वक्त को पंख लग चुके थे और हमारी स्थिति पंखकटे प्राणियों की तरह होती लग रही थी. मुझे लग रहा था समय को किस विध बांध लूं?

तरुण की शादी की तारीख आ गई. सुनते ही मैं तरुण को झंझोड़ने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’

‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होगा,’ इस बार तरुण ने मुझे भविष्य की तसल्ली दी. मैं पूरा दिन पगलाई सी घर में घूमती रही मगर अम्माजी के मुख पर राहत स्पष्ट नजर आ रही थी. बातों ही बातों में बोलीं भी, ‘अच्छा है, रमेश भाईसाहब ने सही पग उठाया. छुट्टा सांड इधरउधर मुंह मारे, फसाद ही खत्म…खूंटे से बांध दो.’

मुझे टोका भी, कि ‘कौन घर की शादी है जो तुम भी चलीं लदफंद के उस के संग. व्यवहार भेज दो, साड़ीगहना भेज दो और अपना घरद्वार देखो. बेटियों की छमाही परीक्षा है, उस पर बर्फ जमा देने वाली ठंड पड़ रही है.’

अम्माजी को कैसे समझाती कि अब तो तरुण ही मेरी दुलाईरजाई है, मेरा अलाव है. बेटियों को बहला आई, ‘चाची ले कर आऊंगी.’

बड़े भारी मन से भोपाल स्टेशन पर उतरी मैं. भोपाल के जिस तालाब को देख मैं पुलक उठती थी, आज मुंह फेर लिया, मानो मोतीताल के सारे मोती मेरी आंखों से बूंदें बन झरने लगे हों.

तरुण ने बांहों में समेट मुझे पुचकारा. आटो के साइड वाले शीशे पर नजर पड़ी, ड्राइवर हमें घूर रहा था. मैं ने आंसू पोंछ बाहर देखना शुरू कर दिया. झीलों का शहर, हरियाली का शहर, टेकरीटीलों पर बने आलीशन बंगलों का शहर और मेरे तरुण का शहर.

आटो का इंतजार ही कर रहे थे सब. अभी तो शादी को हफ्ताभर है और इतने सारे मेहमान? तरुण ने बताया, मेहमान नहीं, रिश्तेदार एवं बहनें हैं. सब सपरिवार पधारे हैं, आखिर इकलौते भाई की शादी है. सुन कर मैं ने मुंह बनाया और बहनों ने मुझे देख कर मुंह बनाया.

रात होते ही बिस्तरों की खींचतान. गरमी होती तो लंबीचौड़ी छत थी ही. सब अपनीअपनी जुगाड़ में थे. मुझे अपना कमरा, अपना पलंग याद आ रहा था. तरुण ने ही हल ढूंढ़ा, ‘भाभी जमीन पर नहीं सो पाएंगी. मेरे कमरे के पलंग पर भाभी की व्यवस्था कर दो, मेरा बिस्तरा दीवान पर लगा दो.’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि तरुण की बहनों की कोई इज्जत नहीं है और मां ठहरी गऊ, तो घर की बागडोर मैं ने संभाल ली. घर के बड़ेबूढ़ों और दामादों को इतना ज्यादा मानसम्मान दिया, उन की हर जरूरतसुविधा का ऐसा ध्यान रखा कि सब मेरे गुण गाने लगे. मैं फिरकनी सी घूम रही थी. हर बात में दुलहन, बड़ी बहू या भाभीजी की राय ली जाती और वह मैं थी.

सब को खाना खिलाने के बाद ही मैं खाना खाने बैठती. तरुण भी किसी न किसी बहाने से पुरुषों की पंगत से बच निकलता. स्त्रियां सभी भरपेट खा कर छत पर धूप सेंकनेलोटने पहुंच जातीं. तरुण की नानी, जो सीढि़यां नहीं चढ़ पाती थीं, भी नीम की सींक से दांत खोदते पिछवाड़े धूप में जा बैठतीं. तब मैं और तरुण चौके में अंगारभरे चूल्हे के पास अपने पाटले बिछाते और थाली परोसते.

आदत जो पड़ गई है एक ही थाली में खाने की, नहीं छोड़ पाए. जितने अंगार चूल्हे में भरे पड़े थे उस से ज्यादा मेरे सीने में धधक रहे थे. आंसू से बुझें तो कैसे? तरुण मनाते हुए अपने हाथ से मुझे कौर खिला रहे थे कि उस की भांजी अचानक आ गई चौके में गुड़ लेने…लिए बगैर ही भागी ताली बजाते हुए, ‘तरुण मामा को तो देखो, बड़ी मामीजी को अपने हाथ से रोटी खिला रहे हैं. मामीजी जैसे बच्ची हों. बच्ची हैं क्या?’

तरुण फुरती से दौड़ा उस के पीछे, तब तक तो खबर फैल चुकी थी. मैं कुछ देर तो चौके में बैठी रह गई. जब छत पर पहुंची तो औरतों की नजरों में स्पष्ट हिकारत भाव देखा और तो और, उस रोज से नानी की नजरें बदली सी लगीं. मैं सावधान हो गई.

ज्योंज्यों शादी की तिथि नजदीक आ रही थी, मेरा जी धकधक कर रहा था. तरुण का सहज उत्साहित होना मुझे अखर रहा था. इसीलिए तरुण को मेहंदी लगाती बहनों के पास जा बैठी. मगर तरुण अपने में ही मगन बहन से बात कर रहा था, ‘पुष्पा, पंजे और चेहरे के जले दागों पर भी हलके से हाथ फेर दे मेहंदी का, छिप जाएंगे.’

सुन कर मैं रोक न पाई खुद को, ‘‘तरुण, ये दाग न छिपेंगे, न इन पर कोई दूसरा रंग चढ़ेगा. आग के दाग हैं ये.’’

सन्नाटा छा गया हौल में. मुझे राजीव आज बेहद याद आए. कैसी निरापदता होती है उन के साथ, तरुण को देखो…तो वह दूर बड़ी दूर नजर आता है और राजीव, हर पल उस के संग. आज मैं सचमुच उन्हें याद करने लगी.

आखिरकार बरात प्रस्थान का दिन आ गया, मेरे लिए कयामत की घड़ी थी. जैसे ही तरुण के सेहरा बंधा, वह अपने नातेरिश्तेदारों से घिर गया. उसे छूना तो दूर, उस के करीब तक मैं नहीं पहुंच पाई. मुझे अपनी औकात समझ में आने लगी.

असल औकात अन्य औरतों ने बरात के वापस आते ही समझा दी. उन बहन-बुआ के एकएक शब्द में व्यंग्य छिपा था-‘‘भाभीजी, आज से आप को हम लोगों के साथ हौल में ही सोना पड़ेगा. तरुण के कमरे का सारा पुराना सामान हटा कर विराज के साथ आया नया पलंग सजाना होगा, ताजे फूलों से.’’

छुरियां सी चलीं दिल पर. लेकिन दिखावे के लिए बड़ी हिम्मत दिखाई मैं ने भी. बराबरी से हंसीठिठोली करते हुए तरुण और विराज का कमरा सजवाया. लेकिन आधीरात के बाद जब कमरे का दरवाजा खट से बंद हुआ. मेरी जान निकल गई, लगा, मेरा पूरा शरीर कान बन गया है. कैसे देखती रहूं मैं अपनी सब से कीमती चीज की चोरी होते हुए. चीख पड़ी, ‘चोर, चोर,चोर.’

गुल हुई सारी बत्तियां जल पड़ीं. रंग में भंग डालने का मेरा उपक्रम पूर्ण हुआ. शादी वाला घर, दानदहेज के संग घर की हर औरत आभूषणों से लदी हुई. ऐसे मालदार घरों में ही तो चोरलुटेरे घात लगाए बैठे रहते हैं.

नींद से उठे, डरे बच्चों के रोने का शोर, आदमियों का टौर्च ले कर भागदौड़ का कोलाहल…ऐसे में तरुण के कमरे का दरवाजा खुलना ही था. उस के पीछेपीछे सजीसजाई विराज भी चली आई हौल में. चैन की सांस ली मैं ने. बाकी सभी भयभीत थे लुट जाने के भय से. सब की आंखों से नींद गायब थी. इस बीच, मसजिद से सुबह की आजान की आवाज आते ही मैं मन ही मन बुदबुदाई, ‘हो गई सुहागरात.’

लेकिन कब तक? वह तो सावित्री थी जिस ने सूर्य को अस्त नहीं होने दिया था. सुबह से ही मेहमानों की विदाई शुरू हो गई थी. छुट्टियां किस के पास थीं? मुझे भी लौटना था तरुण के साथ. मगर मेरे गले में बड़े प्यार से विराज को भी टांग दिया गया.

जाने किस घड़ी में बेटियों से कहा था कि चाची ले कर आऊंगी. विराज को देख कर मुझे अपना सिर पीट लेने का मन होता. मगर उस ने रिद्धि व सिद्धि का तो जाते ही मन जीत लिया.

10 दिनों बाद विराज का भाई उसे लेने आ गया और मैं फिर तरुण की परी बन गई. गिनगिन कर बदले लिए मैं ने तरुण से. अब मुझे उस से सबकुछ वैसा ही चाहिए था जैसे वह विराज के लिए करता था…प्यार, व्यवहार, संभाल, परवा सब.

चूक यहीं हुई कि मैं अपनी तुलना विराज से करते हुए सोच ही नहीं पाई कि तरुण भी मेरी तुलना विराज से कर रहा होगा.

वक्त भाग रहा था. मैं मुठ्ठी में पकड़ नहीं पा रही थी. ऐसा लगा जैसे हर कोई मेरे ही खिलाफ षड्यंत्र रच रहा है. तरुण ने भी बताया ही नहीं कि विराज ट्रांसफर के लिए ऐप्लीकेशन दे चुकी है. इधर राजीव का एग्रीमैंट पूरा हो चुका था. उन्होंने आते ही तरुण को व्यस्त तो कर ही दिया, साथ ही शहर की पौश कालोनी में फ्लैट का इंतजाम कर दिया यह कहते हुए, ‘‘शादीशुदा है अब, यहां बहू के साथ जमेगा नहीं.’’

मैं चुप रह गई मगर तरुण ने अब भी मुंह मारना छोड़ा नहीं था. तरुण मेरी मुट्ठी में है, यह एहसास विराज को कराने का कोई मौका मैं छोड़ती नहीं थी. जब भी विराज से मिलना होता, वह मुझे पहले से ज्यादा भद्दी, मोटी और सांवली नजर आती. संतुष्ट हो कर मैं घर लौट कर अपने बनावशृंगार पर और ज्यादा ध्यान देती.

फिर मैं ने नोट किया, तरुण का रुख उस के बजाय मेरे प्रति ज्यादा नरम और प्यारभरा होता, फिर भी विराज सहजभाव से नौकरी, ट्यूशन के साथसाथ तरुण की सुविधा का पूरा खयाल रखती. न तरुण से कोई शिकायत, न मांगी कोई सुविधा या भेंट.

‘परी थोड़ी है जो छू लो तो पिघल जाए,’ तरुण ने भावों में बह कर एक बार कहा था तो मैं सचमुच अपने को परी ही समझ बैठी थी. तब तक तरुण की थीसिस पूरी हो चुकी थी मगर अभी डिसकशन बाकी था.

और फिर वह दिन आ ही गया. तरुण को डौक्टरेट की डिगरी के ही साथ आटोनौमस कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर पद पर नियुक्ति भी मिल गई. धीरेधीरे उस का मेरे पास आना कम हो रहा था, फिर भी मैं कभी अकेली, कभी बेटियों के साथ उस के घर जा ही धमकती. विराज अकसर शाम को भी सूती साड़ी में बगैर मेकअप के मिडिल स्कूल के बच्चों को पढ़ाती मिलती.

ऐसे में हमारी आवभगत तरुण को ही करनी पड़ती. वह एकएक चीज का वर्णन चाव से करता…विराज ने गैलरी में ही बोनसाई पौधों के संग गुलाब के गमले सजाए हैं, साथ ही गमले में हरीमिर्च, हरा धनिया भी उगाया है. विराज…विराज… विराज…विराज…विराज ने मेरा ये स्वेटर क्रोशिए से बनाया है. विराज ने घर को घर बना दिया है. विराज के हाथ की मखाने की खीर, विराज के गाए गीत… विराज के हाथ, पैर, चेहरा, आंखे…

मैं गौर से देखने लगती तरुण को, मगर वह सकपकाने की जगह ढिठाई से मुसकराता रहता और मैं अपमान की ज्वाला में जल उठती. मेरे मन में बदले की आग सुलगने लगी.

मैं विराज से अकेले में मिलने का प्रयास करती और अकसर बड़े सहजसरल भाव से तरुण का जिक्र ही करती. तरुण ने मेरा कितना ध्यान रखा, तरुण ने यह कहा वह किया, तरुण की पसंदनापसंद. तरुण की आदतों और मजाकों का वर्णन करने के साथसाथ कभीकभी कोई ऐसा जिक्र भी कर देती थी कि विराज का मुंह रोने जैसा हो जाता और मैं भोलेपन से कहती, ‘देवर है वह मेरा, हिंदी की मास्टरनी हो तुम, देवर का मतलब नहीं समझतीं?’

विराज सब समझ कर भी पूर्ण समर्पण भाव से तरुण और अपनी शादी को संभाल रही थी. मेरे सीने पर सांप लोट गया जब मालूम पड़ा कि विराज उम्मीद से है, और सब से चुभने वाली बात यह कि यह खबर मुझे राजीव ने दी.

‘‘आप को कैसे मालूम?’’ मैं भड़क गई.

‘‘तरुण ने बताया.’’

‘‘मुझे नहीं बता सकता था? मैं इतनी दुश्मन हो गई?’’

विराज, राजीव से सगे जेठ का रिश्ता निभाती है. राजीव की मौजूदगी में कभी अपने सिर से पल्लू नीचे नहीं गिरने देती है, जोर से बोलना हंसना तो दूर, चलती ही इतने कायदे से है…धीमेधीमे, मुझे नहीं लगता कि राजीव से इस बारे में उस की कभी कोई बात भी हुई होगी.

लेकिन आज राजीव ने जिस ढंग से विराज के बारे में बात की , स्पष्टतया उन के अंदाज में विराज के लिए स्नेह के साथसाथ सम्मान भी था.

चर्चा की केंद्रबिंदु अब विराज थी. तरुण ने विराज को डिलीवरी के लिए घर भेजने के बजाय अपनी मां एवं नानी को ही बुला लिया था. वे लोग विराज को हथेलियों पर रख रही थीं. मेरी हालत सचमुच विचित्र हो गई थी. राजीव अब भी किताबों में ही आंखें गड़ाए रहते हैं.

और विराज ने बेटे को जन्म दिया. तरुण पिता बन गया. विराज मां बन गई पर मैं बड़ी मां नहीं बन पाई. तरुण की मां ने बच्चे को मेरी गोद में देते हुए एकएक शब्द पर जोर दिया था, ‘लल्ला, ये आ गईं तुम्हारी ताईजी, आशीष देने.’

बच्चे के नामकरण की रस्म में भी मुझे जाना पड़ा. तरुण की बहनें, बूआओं सहित काफी मेहमानों को निमंत्रित किया गया. कार्यक्रम काफी बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था. इस पीढ़ी का पहला बेटा जो पैदा हुआ है. राजीव अपने पुराने नातेरिश्ते से बंधे फंक्शन में बराबरी से दिलचस्पी ले रहे थे. तरुण विराज और बच्चे के साथ बैठ चुका तो औरतों में नाम रखने की होड़ मच गई. बहनें अपने चुने नाम रखवाने पर अड़ी थीं तो बूआएं अपने नामों पर.

बड़ा खुशनुमा माहौल था. तभी मेरी निगाहें विराज से मिलीं. उन आंखों में जीत की ताब थी. सह न सकी मैं. बोल पड़ी, ‘‘नाम रखने का पहला हक उसी का होता है जिस का बच्चा हो. देखो, लल्ला की शक्ल हूबहू राजीव से मिल रही है. वे ही रखेंगे नाम.’’

सन्नाटा छा गया. औरतों की उंगलियां होंठों पर आ गईं. विराज की प्रतिक्रिया जान न सकी मैं. वह तो सलमासितारे जड़ी सिंदूरी साड़ी का लंबा घूंघट लिए गोद में शिशु संभाले सिर झुकाए बैठी थी.

मैं ने चारोें ओर दृष्टि दौड़ाई, शायद राजीव यूनिवर्सिटी के लिए निकल चुके थे. मेरा वार खाली गया. तरुण ने तुरंत बड़ी सादगी से मेरी बात को नकार दिया, ‘‘भाभी, आप इस फैक्ट से वाकिफ नहीं हैं शायद. बच्चे की शक्ल तय करने में मां के विचार, सोच का 90 प्रतिशत हाथ होता है और मैं जानता हूं कि विराज जब से शादी हो कर आई, सिर्फ आप के ही सान्निध्य में रही है, 24 घंटे आप ही तो रहीं उस के दिलोदिमाग में.

इस लिहाज से बच्चे की शक्ल तो आप से मिलनी चाहिए थी. परिवार के अलावा किसी और पर या राजीव सर पर शक्लसूरत जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह तो आप भी जानती हैं कि विराज ने आज तक किसी दूसरे की ओर देखा तक नहीं है. वह ठहरी एक सीधीसादी घरेलू औरत.’’

औरत…लगा तरुण ने मेरे पंख ही काट दिए और मैं धड़ाम से जमीन पर गिर गई हूं. मुझे बातबात पर परी का दरजा देने वाले ने मुझे अपनी औकात दिखा दी. मुझे अपने कंधों में पहली बार भयंकर दर्द महसूस होने लगा, जिन्हें तरुण ने सीढ़ी बनाया था, उन कंधों पर आज न तरुण की बांहें थीं और न ही पंख.

 

Family Beautiful Story : एक परिवार

आज दफ्तर में छुट्टी थी. मैं सुबह से ही कमरे में टैलीविजन पर फिल्में देख रहा था. मैं ने दोपहर का खाना नहीं खाया था, फिर भी मुझे अभी तक भूख नहीं लगी थी. सोचा कि थोड़ी देर अपने घर की छत पर टहलते हुए ढलती शाम का नजारा देखूं.

जैसे ही मैं छत पर पहुंचा, पड़ोसी की छत पर ‘धमाका’ हुआ. मैं ने चौंकते हुए देखा, तो पड़ोसी का 7-8 साला लड़के ने अनार रूपी पटाखे को आग लगाई थी.

उस की एक चिनगारी छत पर सूखते मेरे कुरते से टकराई, जिस से मेरा कुरता बुरी तरह झुलस गया था.

मैं ने जैसे ही गुस्से भरी निगाहों से डरेसहमे बच्चे को देखा, जो डर के मारे  बुरी तरह कांप रहा था.

वह दबी हुई आवाज में बोला, ‘‘अंकल, मु?ा से गलती हो गई. आप का कुरता जल गया. मैं अपनी गुल्लक से पैसे ला कर दे दूंगा. आप बाजार से नया कुरता ले आना. पापा को मत बताना, वे मुझे मारेंगे.’’

मुझे खयाल आया कि मेरा पड़ोसी उस बच्चे का सौतेला बाप है. वह अपनी दूसरी पत्नी के मर जाने के बाद इस बच्चे की मां, जिसे पति ने छोड़ दिया था और जो अपने 2 बच्चों के साथ अपने मांबाप के घर बोझ बनी हुई थी, उसे खरीद लाया था.

वह बेचारी पहाड़ी इलाके के एक गरीब परिवार से थी. मेरे पड़ोसी की उम्र तकरीबन 60 साल थी. उस बच्चे की मां 30-35 साल की होगी.

मुझे लगा कि अगर मेरा बेटा भी मेरे पास होता, तो आज दीवाली के दिन वह भी ऐसी ही शरारतें कर रहा होता.

अपने बेटे का खयाल आया, तो अपनी पत्नी की जिद पर बेहद गुस्सा आने लगा. मन में आया कि अभी जाऊं और कम से कम अपने बेटे को ले आऊं. वह अगर साथ नहीं आना चाहती, तो उसे हमेशा के लिए छोड़ दूं.

मैं ने आगे बढ़ कर उस डरेसहमे बच्चे के सिर पर हाथ रखा और अपनेपन से कहा, ‘‘बेटा डरो नहीं. मेरे कपड़े खराब हो गए तो कोई बात नहीं, तुम इतने बड़े पटाखे मत चलाया करो. हाथ जल जाएंगे. ये लो 50 रुपए और मिठाई खा लेना,’’ मैं ने उसे 50 रुपए का नोट पकड़ाना चाहा, मगर उस ने रुपए लेने से इनकार कर दिया और चला गया.

मैं नीचे कमरे में आ गया. बिस्तर पर लेटा, तो आंखों के सामने मेरे दोस्त महेंद्र की पत्नी कामिनी का चेहरा उभर आया.

वे दोनों एकसाथ कालेज पढ़ते थे. जिंदगी के इस हसीन सफर में दोनों को प्यार हो गया. एक दिन अचानक उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली और हमेशा के लिए एक हो गए.

महेंद्र के घर वालों ने कामिनी को बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया. अब महेंद्र जाए तो जाए कहां? वह बेरोजगार था. वैसे, वह मेकैनिकल डिप्लोमा होल्डर था. वह सीधा मेरे पास आ गया और घर में रहने को पनाह मांगी.

हमारा एक मकान खाली पड़ा था. महेंद्र को वह मकान रहने को दे दिया.

महेंद्र मेहनती था. वह किसी फैक्टरी में काम करने लगा. अब वह मकान का किराया देने लगा था.

कामिनी जवान व खूबसूरत थी. मैं अकसर ‘भाभीभाभी’ कहते हुए उस से मजाक करता, तो वह गुस्सा करने के बजाय बराबर मुकाबला करती थी.

महेंद्र हमारे मकान में सालभर रहा, फिर उस की किसी दूसरे शहर में नौकरी लग गई. वह अपने परिवार के साथ वहां रहने चला गया.

मैं भी अपनी घरगृहस्थी में रम गया. धीरेधीरे समय गुजरता गया. तकरीबन 4 साल गुजर गए. मेरे एक बेटा भी हो गया. शहर में नौकरी भी लग गई.

एक दिन अचानक कामिनी भाभी का फोन आया. उस ने रोतेसिसकते हुए बताया कि मेरा दोस्त महेंद्र किसी दूसरी औरत के चक्कर में फंस गया है. वह रोकती है, तो उस से मारपीट करता है. अपनी गलती मानने के बजाय वह उसे तलाक देने की धमकी दे रहा है. उस ने मु?ो फौरन अपने घर बुलाया.

मैं ने कामिनी भाभी को सब्र रखने, सम?ादारी से काम लेने और जल्दी ही उस की मदद करने का भरोसा दिया. वैसे, मैं अपने घर की उल?ानों में फंसा था, इसलिए समय पर कामिनी के घर नहीं जा सका.

15 दिन बाद दोबारा फोन आ गया. इस बार कामिनी भाभी ने चेतावनी दी कि अगर मैं उस का बिगड़ता घर सुधारने में मदद नहीं करूंगा, तो उस की अर्थी को कंधा देने जरूर आ जाऊं.

कामिनी भाभी की धमकी ने मु?ो डरा दिया था. मु?ो लगा कि मामला बेहद उल?ा गया है. अब मु?ो ही अपने बचपन के दोस्त महेंद्र को सुधारना पड़ेगा.

मैं अपनी पत्नी निशा से कोई सलाहमशवरा किए बगैर अचानक महेंद्र के घर पहुंच गया. वहां जा कर देखा कि महेंद्र और कामिनी के संबंध बेहद खराब थे, कभी भी टूट सकते थे.

मैं महेंद्र के घर 4 दिन रहा. मेरी कोशिश थी कि वह किसी तरह दूसरी औरत के चंगुल से निकल कर अपनी पत्नी की जुल्फों की छांव तले आ जाए. मगर महेंद्र ने तो मु?ो फौरन अपने घरेलू मामले से निकल जाने को कहा.

मैं दुखी हो कर वापस आने लगा, तो कामिनी भाभी मेरे कदमों से लिपट कर गिड़गिड़ा उठी.

‘क्या तुम ने मु?ो मुसीबत के भंवर में छोड़ देने के लिए भाभी का रिश्ता कायम किया था? क्या घरगृहस्थी के मं?ाधार में फंसी नाव को किनारे तक लाने में मेरी मदद नहीं करोगे?’

‘भाभीजी, हालात बेहद बिगड़ चुके हैं. ऐसे में मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा,’ मैं ने अपनी मजबूरी जाहिर की.

तब भाभी ने मु?ो बेहद उल?ा हुई योजना में साथ देने को कहा. मैं ने उस की योजना को अंजाम तक पहुंचाने में हाथ खड़े किए, तो कामिनी भाभी रोतेसिसकते हुए मुझे पर दहाड़ उठी, ‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी. मुसीबत में मेरा साथ छोड़ दोगे. मर्द बने फिरते हो, कायर कहीं के?’

अब मैं भी जोश में आ गया. कामिनी भाभी की योजना के मुताबिक मुझे उस के साथ इश्करोमांस का नाटक करना था. वह महेंद्र को दिखाना चाहती थी कि अगर वह अंधेरी रात में मुंह काला कर सकता है, तो कामिनी अपने देवर से इश्क क्यों नहीं लड़ा सकती?

उस रात महेंद्र अपनी प्रेमिका के घर पर गया हुआ था. उसे वापस अपने घर रात 2-3 बजे आना था. मैं कामिनी भाभी के कमरे में अलग चारपाई पर सोया हुआ था. देर रात महेंद्र घर लौटा, तो कामिनी ने उसे अपने कमरे में नहीं आने दिया.

दरवाजा खोल कर खूब खरीखोटी सुना कर मु?ा से लिपटते हुए कामिनी महेंद्र से बोली, ‘तुम अगर आवारा औरतों के साथ रातें गुजार सकते हो, तो मैं अपने देवर से प्यार नहीं कर सकती?’

महेंद्र ने उस समय शराब पी रखी थी. उस ने कामिनी को जी भर के गालियां दीं. मैं उसे सम?ाने को कुछ बोलता, इस से पहले उस ने कामिनी के साथ मुझे कमरे में बंद कर दिया.

हम ने सोचा कि महेंद्र ने शराब पी रखी है. जब उतरेगी तब दरवाजा खोल देगा, मगर ऐसा नहीं हुआ. वह जालिम सीधा मेरे घर पहुंच गया और अपने साथ मेरी पत्नी निशा को ले आया.

मुझे कामिनी के साथ बंद कमरे में देखा, तो निशा आगबबूला हो उठी. वह महेंद्र की हर बात पर यकीन कर रही थी. वह मेरी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थी. गुस्से में पैर पटकते हुए वह बेटे के साथ मायके चली गई.

इसी तरह 4-5 महीने गुजर गए. निशा का फोन नहीं आया. आखिरकार हार कर 8 महीने बाद मैं ससुराल गया, तो निशा ने सीधे मुंह बात नहीं की.

मैं ने उसे मनाने की भरपूर कोशिश की, मगर निशा पर समझाने का जरा भी असर नहीं हुआ.

मैं निराश हो कर लौट आया. इसी तरह 2 साल गुजर गए, लेकिन निशा को मु?ा पर रहम नहीं आया.

अब कामिनी के प्रति मेरी नफरत बढ़ती जा रही थी. कमबख्त ने एक बार भी फोन कर के मेरी उजड़ी घरगृहस्थी के बारे में नहीं पूछा. जब अपने ऊपर मुसीबत आई थी, तब तो फोन पर रोज गिड़गिड़ाती थी. अब मु?ा पर मुसीबत आई, तो खामोशी ओढ़े बैठी है.

अभी 2 महीने पहले कामिनी का फोन आया, तो मैं ने खूब खरीखोटी सुनाई. जो जबान पर आया, बोल दिया. यहां तक कि उसे गालियां भी दे डालीं.

मेरी जलीकटी पर कामिनी भाभी ने इतना जरूर कहा कि अब जल्दी मेरी जुदाई का वक्त खत्म हो जाएगा. मैं ने उस की इस बात पर ध्यान नहीं दिया.

आज पड़ोसी के बेटे वाली घटना ने मेरे अपने बेटे की याद को ताजा कर दिया था.

तभी वह पड़ोसी का बच्चा भागता हुआ आया और मिठाई की प्लेट मेरे सामने रखते हुए बोला, ‘‘अंकल, देखो, मैं आप के लिए मिठाई लाया हूं.’’

उस का अपनापन देख कर मेरी आंखों में आंसू झिलमिला उठे.

तभी एक जानीपहचानी आवाज ने मुझे चौंका दिया, ‘‘अरे देवरजी, अकेलेअकेले मिठाई खा रहे हो? हम भी आ गए हैं,’’ अचानक गेट के अंदर आते हुए कामिनी चहकी.

उसे देखते ही मैं बुरी तरह दहाड़ उठा, ‘‘अब यहां क्या लेने आई हो? निकल जा मेरे घर से. मेरी जिंदगी में जहर घोलने वाली औरत, मैं तेरी वजह से अपना घर उजाड़ बैठा हूं. आज मैं कितना उदास और तनहा हूं. मेरे साथ न मेरी पत्नी है, न मेरा बेटा. यह सब तेरी वजह से हुआ है.’’

लेकिन वह मुझे प्यार भरी निगाहों से देखते हुए बोली, ‘‘देवरजी, माफ करना, मुझे पता चल गया था कि निशा तुम से नाराज हो कर मायके चली गई?है. मगर मुझे अपने बिगड़े घरवाले को भी रास्ते पर लाना था. अब मैं आ गई हूं. तुम्हारा अकेलापन खत्म हो गया है.’’

‘‘मेरा खयाल 4 साल बाद आया? इस से पहले मुझे सजा दिला रही थी क्या? चालबाज इनसान की शातिर औरत,’’ मैं बुरी तरह गुस्से में पागल था.

‘‘तुम्हारा खयाल तो मुझे पलपल आता था. जब मैं ने तुम्हारे प्यारे दोस्त को यकीन दिलाया कि मेरा तुम्हारे दोस्त से किसी तरह का ताल्लुक नहीं है. हम ने तो तुम्हें सुधारने के लिए नाटक खेला था. वह बेचारा तो तुम्हारा उजड़ता घर बसाने आया था. तुम ने बदले में उस की बसीबसाई घरगृहस्थी उजाड़ दी. तुम कैसे दोस्त हो?

‘‘मैं ने इतना बताया, तो तुम्हारा दोस्त सारी रात अपनी गलती पर पछतावा करते हुए रोता रहा. लाख समझाने पर वह माना नहीं.

‘‘अगले दिन सुबह का उजाला होते ही वह मोटरसाइकिल पर सवार हो कर तुम्हें मनाने के लिए आ रहा था. उस के दिलोदिमाग का संतुलन बिगड़ा हुआ था. रास्ते में किसी तेज रफ्तार ट्रक से टकराया और अपनी एक टांग गंवा बैठा.

‘‘हम सालभर अस्पताल में धक्के खाते रहे. अब वह बड़ी मुश्किल से चलने के काबिल हुआ है.’’

‘‘इतना सब हो गया और आप ने मुझे बताया तक नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताते कैसे भैया? तेरी निशा को भी मना कर लाना था. मेरे मनाने से तो मानी नहीं, पर जब महेंद्र खुद गया, सारी सचाई बता कर अपनी गलती बताई, तो निशा उसी पल मान गई.

‘‘महेंद्र उसे अपने साथ लाया है, वह देख गेट के बाहर खड़े तेरी इजाजत मिलने का इंतजार कर रहे हैं.’’

कामिनी ने बताया, तो मैं ने देखा कि गेट पर महेंद्र बैसाखियों के सहारे मेरे बेटे का हाथ पकड़ कर खड़ा शर्म से पानीपानी हुआ जा रहा था. उस के पीछे निशा भी सिर झंकाए खड़ी थी.

‘‘मेरे यार, मैं तेरा गुनाहगार हूं,’’ कहते हुए महेंद्र लड़खड़ाते हुए मेरे कदमों में झांका, तो मैं ने उसे थाम कर गले से लगा लिया.

इतने में कामिनी भाभी ने निशा का हाथ मेरे हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अब इसे कमरे में ले जाओ न.’’

मैं जैसे ही निशा का हाथ थामे बैडरूम में घुसा, कामिनी भाभी झूट से दरवाजा बंद करते हुए चहकी, ‘‘देवरजी, दीवाली मना कर बाहर आना, तभी मिठाई और खाना मिलेगा.’’

यह सुन कर निशा किसी लता सी मुझ से लिपट गई थी. अब मुझे लगा कि आज वाकई दीवाली है.

कांटों वाली भूल: दीपा और तनय का क्या रिश्ता था?

बारबार घंटी बजने पर दीपा की आंखें खुलीं. बालों का जूड़ा बांधते हुए उस ने दरवाजा खोला. बाहर दूध वाला खड़ा था, ‘‘बहनजी, मैं दूसरी बार आ रहा हूं.’’

दीपा कुछ न बोली. दूध ले कर रसोई में रखा और मुंह धोने चली गई. रात की वारदात याद आते ही उस की आंखों से आंसू छलक आए.

चाय बना कर वह तनय के कमरे में आई, पर वह वहां नहीं था. मोबाइल पर उस का एक मैसेज था, जिसे वह पढ़ने लगी :

‘पूजनीय भाभीजी,

‘जब आप यह पढ़ रही होंगी, तब मैं शहर से बहुत दूर जा चुका हूंगा. मैं ने अपने दोस्त शिखर के भरोसे को तोड़ा है. शायद मेरी जिंदगी में आप का प्यार नहीं था. मैं हमेशा के लिए यह शहर छोड़ रहा हूं. मेरी यही सजा है. हो सके तो मुझे माफ कर देना.

‘आप का मुंहबोला देवर.’

दीपा ने नफरत और गुस्से से मोबाइल एक ओर पटक दिया और

पलंग पर जा कर लेट गई. रहरह कर

उसे गुजरे दिनों की बातें याद आने

लगी थीं.

पिछले साल दीपा ने 10वीं जमात पास की थी. मां ने उस की पढ़ाई

छुड़ा दी थी, इसलिए पड़ोस की चाची के यहां वह सिलाईकढ़ाई सीखने और 11वीं जमात की तैयारी करने के लिए जाने लगी.

एक दिन दीपा चाची के साथ बैठी थी कि एक नौजवान लड़के ने आते ही चाची के पैर छुए.

‘‘अरे शिखर, बहुत दिन बाद आया. तेरे बाबूजी कैसे हैं?’’ चाची ने पूछा.

‘‘ठीक हैं चाची,’’ कह कर शिखर चारपाई पर बैठ गया.

‘‘दीपा बेटी, यह मेरे जेठ का बेटा है. जा, चाय बना ला.’’

दीपा चाय बनाने चली गई.

शिखर को दीपा की खूबसूरती भा गई. अब तो वह हर तीसरेचौथे दिन चाची का हालचाल पूछने आने लगा. जब दीपा और शिखर का प्यार परवान चढ़ा, तो दीपा के मातापिता ने भी अपनी मंजूरी दे दी.

दोनों का जल्दी ही ब्याह हो गया. दीपा अपने सीधेसच्चे पति को पा कर बेहद खुश थी. सासससुर का प्यार पा कर वह फूली नहीं समाती थी.

मातापिता को शिखर का बारबार छुट्टी ले कर घर आना अच्छा न लगा. एक बार जब शिखर हफ्ते की छुट्टियां ले कर आया, तो मां ने कहा, ‘‘शिखर, अब जाएगा तो बहू को भी ले जाना. बेचारी कुछ दिन घूम आएगी. तुझे खाना भी गरमागरम मिल जाया करेगा.’’

शिखर को जैसे मन की मुराद मिल गई थी, लेकिन वह ऊपरी दिल से बोला, ‘‘मां, मैं तो सोच रहा था कि दीपा कुछ दिन आप की सेवा करती.’’

‘‘बसबस, रहने दे. हमारी खूब हो गई सेवा,’’ हंसते हुए मां ने जवाब दिया.

आटोरिकशा से अटैची उतारते हुए शिखर ने कहा, ‘‘दीपा उतरो. अपना घर आ गया है.’’

दीपा की पायलें छनछना उठीं. वह धीरे से शिखर का हाथ पकड़ कर नीचे उतर पड़ी. सामने एक पक्का मकान था.

आटोरिकशा वाले को पैसे दे कर शिखर ने ताला खोला. दीपा अंदर दाखिल हुई. भीतर सभी कुछ बिखरा पड़ा था. रसोईघर का तो और भी बुरा हाल था. दीपा ने कमरों का मुआयना किया और हंस पड़ी.

अपने आगोश में दीपा को ले कर शिखर बोला, ‘‘क्यों साहिबा, कैसा लगा हमारा घर?’’

‘‘हटोजी, कबाड़खाना है पूरा,’’ और दीपा घर की सफाई में जुट गई. सारा सामान ढंग से जमा कर फिर उस ने चाय बनाई.

थोड़ी देर बाद शिखर का दोस्त तनय भी आ गया. वह शिकायत करते हुए बोला, ‘‘क्यों भई, स्टेशन से फोन कर देते, बंदा कार ले कर हाजिर हो जाता.’’ फिर दीपा से बोला, ‘‘भाभीजी, नमस्ते.’’

‘‘नमस्ते,’’ मुसकराते हुए दीपा ने उत्तर दिया और बोली, ‘‘बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह रसोईघर में चली गई.

तनय बरात में गया था. इसलिए दीपा उसे पहचानती थी. कई सालों से तनय और शिखर भाइयों की तरह इस घर में रह रहे थे. दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते थे. उस दिन से तनय दूसरे कमरे में रहने लगा था.

अब तो तनय और शिखर के दिन मजे से बीतने लगे. दोनों कपड़ों और घर की सफाई पर लड़तेझगड़ते थे. अब इन मुसीबतों से छुटकारा मिल गया था.

तनय अपनी भाभी को बेहद

चाहता था. वह घर के कामकाज में दीपा का हाथ बंटाता. शिखर अपने दोस्त की ओर से एकदम बेफिक्र था. तनय की शादी हुई नहीं थी और वह अपने घर

में न रह कर शिखर के घर में ज्यादा रहता था.

पड़ोस के घरों में अकसर उन के रिश्ते को ले कर खुसुरफुसुर होती थी. लेकिन वे परवाह न करते थे. वैसे भी अब लोग एकदूसरे के मामलों में कम दखल देते थे. उस के पड़ोसी ऊंची जातियों के थे और शिखर व तनय को अपने से नीचा समझते थे, इसलिए कोई हंगामा भी खड़ा नहीं हुआ.

तनय की अभी शादी नहीं हुई थी. वह कभीकभार दीपा से सैक्सी चुहलबाजी कर बैठता तो वह मुसकरा कर देवर सा प्यार जताती. उसे फ्लर्टिंग बुरी नहीं लगती. शिखर अपनी पत्नी से बेहद खुश था.

एक दिन शिखर को दफ्तर के काम से 3 दिन के लिए बाहर जाना पड़ा. दीपा की आंखों में आंसू भर आए.

तब शिखर बोला, ‘‘पगली, चिंता क्यों करती है? अपना तनय जो है.

उस के रहते चिंता की कोई बात नहीं. फिर तनय के पास कार भी है, उस के साथ फिल्म देख आना, मन बहल जाएगा.’’

शिखर चला गया. दीपा घर की सफाई में लग गई.

थोड़ी देर बाद तनय आ गया, तो दीपा बोली, ‘‘अरे, तुम अच्छे आ गए. वह जरा शक्कर का डब्बा पकड़ाना.’’ स्टूल पर चढ़ेचढ़े दीपा बोली.

दीपा ने उस समय केवल टाइट टौप और एक हाफ पैंट पहनी हुई थी.

डब्बा उठा कर तनय बोला, ‘‘भाभीजी, आप क्यों तकलीफ करती हैं? मैं रख देता हूं.’’

‘‘मुझे क्या कमजोर समझ रखा है,’’ कहते हुए दीपा उस से डब्बा लेने लगी. लेकिन लड़खड़ा गई और तनय से टकराते हुए फर्श पर गिर गई. दीपा के सुडौल जिस्म से टकराते ही तनय के जिस्म में जैसे बिजली सी दौड़ गई. वह दीपा को सहारा देते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, कहीं चोट तो नहीं आई?’’

‘‘नहीं,’’ दीपा खुद को संभालने लगी. हालांकि उसे तनय की छुअन अच्छी लगी थी और उसे कुछ सैकंड ज्यादा पकड़े रही. तनय ने उस का मतलब कुछ और निकाल लिया.

रात का खाना खा कर तनय अपने कमरे में चला गया. दीपा भी अपने कमरे में जा कर पलंग पर लेट गई. वह किताब उठा कर पढ़ने लगी कि तनय ने दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खोलते हुए दीपा ने पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं भाभी, अपनी फाइल लेने आया था,’’ तनय बोलते समय जैसे कांप रहा था.

‘‘अच्छा, ले लो.’’

शिखर की मेज पर तनय फाइल खोजने लगा. फिर एक फाइल उठा कर बोला, ‘‘मैं जाऊं?’’

‘‘और कुछ काम है क्या?’’ दीपा ने पूछा.

‘‘भाभी, तुम कितनी खूबसूरत

हो,’’ कहते हुए तनय ने दीपा का हाथ पकड़ना चाहा. दीपा जैसे चौंक पड़ी. लेकिन संभलते हुए वह बोली, ‘‘यह क्या…? तुम्हें तो मैं अपना देवर सा मानती हूं.’’

‘‘अरे, कहां का देवर,’’ कहते हुए तनय दीपा की ओर लपका, ‘‘जब मेरी बांहों में आई थीं, तो मैं तो उसी समय होश खो बैठा था.’’

दीपा चीख कर बोली, ‘‘तनय, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे रात को इस समय छूने की. निकल जाओ, नहीं तो शोर मचा दूंगी.

‘‘तुम मेरे प्यार का गलत मतलब न निकालो. जो तुम चाहते हो, उसे करने के बाद कोई औरत जिंदगीभर अपने खुद के सामने सिर उठा कर नहीं चल सकती. निकल जाओ बाहर,’’ उस की आंखों से अंगारे बरस रहे थे.

तनय बुझा हुआ कमरे से बाहर निकल गया. दीपा कमरे में कुंडी लगा कर फफक पड़ी.

जन्मकुंडली का चक्कर : पल्लवी की शादी की धूम

उस दिन सुबह ही मेरे घनिष्ठ मित्र प्रशांत का फोन आया और दोपहर को डाकिया उस के द्वारा भेजा गया वैवाहिक निमंत्रणपत्र दे गया. प्रशांत की बड़ी बेटी पल्लवी की शादी तय हो गई थी. इस समाचार से मुझे बेहद प्रसन्नता हुई और मैं ने प्रशांत को आश्वस्त कर दिया कि 15 दिन बाद होने वाली पल्लवी की शादी में हम पतिपत्नी अवश्य शरीक होेंगे.

बचपन से ही प्रशांत मेरा जिगरी दोस्त रहा है. हम ने साथसाथ पढ़ाई पूरी की और लगभग एक ही समय हम दोनों अलगअलग बैंकों में नौकरी में लग गए. हम अलगअलग जगहों पर कार्य करते रहे लेकिन विशेष त्योहारों के मौके पर हमारी मुलाकातें होती रहतीं.

हमारे 2-3 दूसरे मित्र भी थे जिन के साथ छुट्टियों में रोज हमारी बैठकें जमतीं. हम विभिन्न विषयों पर बातें करते और फिर अंत में पारिवारिक समस्याओं पर विचारविमर्श करने लगते. बढ़ती उम्र के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और बच्चों की शादी जैसे विषयों पर हमारी बातचीत ज्यादा होती रहती.

प्रशांत की दोनों बेटियां एम.ए. तक की शिक्षा पूरी कर नौकरी करने लगी थीं जबकि मेरे दोनों बेटे अभी पढ़ रहे थे. हमारे कई सहकर्मी अपनी बेटियों की शादी कर के निश्ंिचत हो गए थे. प्रशांत की बेटियों की उम्र बढ़ती जा रही थी और उस के रिटायर होेने का समय नजदीक आ रहा था. उस की बड़ी बेटी पल्लवी की जन्मकुंडली कुछ ऐसी थी कि जिस के कारण उस के लायक सुयोग्य वर नहीं मिल पा रहा था.

हमारे खानदान में जन्मकुंडली को कभी महत्त्व नहीं दिया गया, इसलिए मुझे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. एक बार कुछ खास दोस्तों की बैठक में प्रशांत ने बताया था कि पल्लवी मांगलिक है और उस का गण राक्षस है. मेरी जिज्ञासा पर वह बोला, ‘‘कुंडली के 1, 4, 7, 8 और 12वें स्थान पर मंगल ग्रह रहने पर व्यक्ति मंगली या मांगलिक कहलाता है और कुंडली के आधार पर लोग देव, मनुष्य या राक्षस गण वाले हो जाते हैं. कुछ अन्य बातों के साथ वरवधू के न्यूनतम 18 गुण या अंक मिलने चाहिए. जो व्यक्ति मांगलिक नहीं है, उस की शादी यदि मांगलिक से हो जाए तो उसे कष्ट होगा.’’

किसी को मांगलिक बनाने का आधार मुझे विचित्र लगा और लोगों को 3 श्रेणियों में बांटना तो वैसे ही हुआ जैसे हिंदू समाज को 4 प्रमुख जातियों में विभाजित करना. फिर जो मांगलिक नहीं है, उसे अमांगलिक क्यों नहीं कहा जाता? यहां मंगल ही अमंगलकारी हो जाता है और कुंडली के अनुसार दुश्चरित्र व्यक्ति देवता और सुसंस्कारित, मृदुभाषी कन्या राक्षस हो सकती है. मुझे यह सब बड़ा अटपटा सा लग रहा था.

प्रशांत की बेटी पल्लवी ने एम.एससी. करने के बाद बी.एड. किया और एक बड़े स्कूल में शिक्षिका बन गई. उस का रंगरूप अच्छा है. सीधी, सरल स्वभाव की है और गृहकार्य में भी उस की रुचि रहती है. ऐसी सुयोग्य कन्या का पिता समाज के अंधविश्वासों की वजह से पिछले 2-3 वर्ष से परेशान रह रहा था. जन्मकुंडली उस के गले का फंदा बन गई थी. मुझे लगा, जिस तरह जातिप्रथा को बहुत से लोग नकारने लगे हैं, उसी प्रकार इस अकल्याणकारी जन्मकुंडली को भी निरर्थक और अनावश्यक बना देना चाहिए.

प्रशांत फिर कहने लगा, ‘‘हमारे समाज मेें पढ़ेलिखे लोग भी इतने रूढि़वादी हैं कि बायोडाटा और फोटो बाद में देखते हैं, पहले कुंडली का मिलान करते हैं. कभी मंगली लड़का मिलता है तो दोनों के 18 से कम गुण मिलते हैं. जहां 25-30 गुण मिलते हैं वहां गण नहीं मिलते या लड़का मंगली नहीं होता. मैं अब तक 100 से ज्यादा जगह संपर्क कर चुका हूं किंतु कहीं कोई बात नहीं बनी.’’

मैं, अमित और विवेक, तीनों उस के हितैषी थे और हमेशा उस के भले की सोचते थे. उस दिन अमित ने उसे सुझाव दिया कि किसी साइबर कैफे में पल्लवी की जन्मतिथि थोड़ा आगेपीछे कर के एक अच्छी सी कुंडली बनवा लेने से शायद उस का रिश्ता जल्दी तय हो जाए.

प्रशांत तुरंत बोल उठा, ‘‘मैं ने अभी तक कोई गलत काम नहीं किया है. किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘मैं किसी को धोखा देने की बात नहीं कर रहा,’’ अमित ने उसे समझाना चाहा, ‘‘किसी का अंधविश्वास दूर करने के लिए अगर एक झूठ का सहारा लेना पड़े तो इस में बुराई क्या है. क्या कोई पंडित या ज्योतिषी इस बात की गारंटी दे सकता है कि वर और कन्या की कुंडलियां अच्छी मिलने पर उन का दांपत्य जीवन सफल और सदा सुखमय रहेगा?

‘‘हमारे पंडितजी, जो दूसरों की कुंडली बनाते और भविष्य बतलाते हैं, स्वयं 45 वर्ष की आयु में विधुर हो गए. एक दूसरे नामी पंडित का भतीजा शादी के महज  5 साल बाद ही एक दुर्घटना का शिकार हो गया. उस के बाद उन्होंने जन्मकुंडली और भविष्यवाणियों से तौबा ही कर ली,’’ वह फिर बोला, ‘‘मेरे मातापिता 80-85 वर्ष की उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ हैं जबकि कुंडलियों के अनुसार उन के सिर्फ 8 ही गुण मिलते हैं.’’

प्रशांत सब सुनता रहा किंतु वह पल्लवी की कुंडली में कुछ हेरफेर करने के अमित के सुझाव से सहमत नहीं था.

कुछ महीने बाद हम फिर मिले. इस बार प्रशांत कुछ ज्यादा ही उदास नजर आ रहा था. कुछ लोग अपनी परेशानियों के बारे में अपने निकट संबंधियों या दोस्तों को भी कुछ बताना नहीं चाहते. आज के जमाने में लोग इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि बस, थोड़ी सी हमदर्दी दिखा कर चल देंगे. उन से निबटना तो खुद ही होगा. हमारे छेड़ने पर वह कहने लगा कि पंडितों के चक्कर में उसे काफी शारीरिक कष्ट तथा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा और कोई लाभ नहीं हुआ.

2 वर्ष पहले किसी ने कालसर्प दोष बता कर उसे महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध स्थान पर सोने के सर्प की पूजा और पिंडदान करने का सुझाव दिया था. उतनी दूर सपरिवार जानेआने, होटल में 3 दिन ठहरने और सोने के सर्प सहित दानदक्षिणा में उस के लगभग 20 हजार रुपए खर्च हो गए. उस के कुछ महीने बाद एक दूसरे पंडित ने महामृत्युंजय जाप और पूजाहवन की सलाह दी थी. इस में फिर 10 हजार से ज्यादा खर्च हुए. उन पंडितों के अनुसार पल्लवी का रिश्ता पिछले साल ही तय होना निश्चित था. अब एकडेढ़ साल बाद भी कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी.

मैं ने उसे समझाने के इरादे से कहा, ‘‘तुम जन्मकुंडली और ऐसे पंडितों को कुछ समय के लिए भूल जाओ. यजमान का भला हो, न हो, इन की कमाई अच्छी होनी चाहिए. जो कहते हैं कि अलगअलग राशि वाले लोगों पर ग्रहों के असर पड़ते हैं, इस का कोई वैज्ञानिक आधार है क्या?

‘‘भिन्न राशि वाले एकसाथ धूप में बैठें तो क्या सब को सूर्य की किरणों से विटामिन ‘डी’ नहीं मिलेगा. मेरे दोस्त, तुम अपनी जाति के दायरे से बाहर निकल कर ऐसी जगह बात चलाओ जहां जन्मकुंडली को महत्त्व नहीं दिया जाता.’’

मेरी बातों का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘कुंडली मिला कर जितनी शादियां होती हैं उन में बहुएं जलाने या मारने, असमय विधुर या विधवा होने, आत्महत्या करने, तलाकशुदा या विकलांग अथवा असाध्य रोगों से ग्रसित होने के कितने प्रतिशत मामले होते हैं. ऐसा कोई सर्वे किया जाए तो एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आ जाएगा. इस पर कितने लोग ध्यान देते हैं? मुझे तो लगता है, इस कुंडली ने लोगों की मानसिकता को संकीर्ण एवं सशंकित कर दिया है. सब बकवास है.’’

उस दिन मुझे लगा कि प्रशांत की सोच में कुछ बदलाव आ गया था. उस ने निश्चय कर लिया था कि अब वह ऐसे पंडितों और ज्योतिषियों के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

खैर, अंत भला तो सब भला. हम तो उस की बेटियों की जल्दी शादी तय होने की कामना ही करते रहे और अब एक खुशखबरी तो आ ही गई.

हम पतिपत्नी ठीक शादी के दिन ही रांची पहुंच सके. प्रशांत इतना व्यस्त था कि 2 दिन तक उस से कुछ खास बातें नहीं हो पाईं. उस ने दबाव डाल कर हमें 2 दिन और रोक लिया था. तीसरे दिन जब ज्यादातर मेहमान विदा हो चुके थे, हम इत्मीनान से बैठ कर गपशप करने लगे. उस वक्त प्रशांत का साला भी वहां मौजूद था. वही हमें बताने लगा कि किस तरह अचानक रिश्ता तय हुआ. उस ने कहा, ‘‘आज के जमाने में कामकाजी लड़कियां स्वयं जल्दी विवाह करना नहीं चाहतीं. उन में आत्मसम्मान, स्वाभिमान की भावना होती है और वे आर्थिक रूप से अपना एक ठोस आधार बनाना चाहती हैं, जिस से उन्हें अपनी हर छोटीमोटी जरूरत के लिए अपने पति के आगे हाथ न फैलाना पड़े. पल्लवी को अभी 2 ही साल तो हुए थे नौकरी करते हुए लेकिन मेरे जीजाजी को ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उन्होंने दूसरी जाति के एक विधुर से उस का संबंध तय कर दिया.

वैसे मेरे लिए यह बिलकुल नई खबर थी. किंतु मुझे इस में कुछ भी अटपटा नहीं लगा. पल्लवी का पति 30-32 वर्ष का नवयुवक था और देखनेसुनने में ठीक लग रहा था. हम लोगोें का मित्र विवेक, प्रशांत की बिरादरी से ही था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर प्रशांत ने ऐसा निर्णय क्यों लिया. उस ने उस से पूछा, ‘‘पल्लवी जैसी कन्या के लिए अपने समाज में ही अच्छे कुंआरे लड़के मिल सकते थे. तुम थोड़ा और इंतजार कर सकते थे. आखिर क्या मजबूरी थी कि उस की शादी तुम ने एक ऐसे विधुर से कर दी जिस की पत्नी की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई थी.’’

‘‘यह सिर्फ मेरा निर्णय नहीं था. पल्लवी की इस में पूरी सहमति थी. जब हम अलगअलग जातियों के लोग आपस में इतने अच्छे दोस्त बन सकते हैं, साथ खापी और रह सकते हैं, तो फिर अंतर्जातीय विवाह क्यों नहीं कर सकते?’’

प्रशांत कहने लगा, ‘‘एक विधुर जो नौजवान है, रेलवे में इंजीनियर है और जिसे कार्यस्थल भोपाल में अच्छा सा फ्लैट मिला हुआ है, उस में क्या बुराई है? फिर यहां जन्मकुंडली मिलाने का कोई चक्कर नहीं था.’’

‘‘और उस की पहली पत्नी की मौत?’’ विवेक शायद प्रशांत के उत्तर से संतुष्ट नहीं था.

प्रशांत ने कहा, ‘‘अखबारों में प्राय: रोज ही दहेज के लोभी ससुराल वालों द्वारा बहुओं को प्रताडि़त करने अथवा मार डालने की खबरें छपती रहती हैं. हमें भी डर होता था किंतु एक विधुर से बेटी का ब्याह कर के मैं चिंतामुक्त हो गया हूं. मुझे पूरा यकीन है, पल्लवी वहां सुखी रहेगी. आखिर, ससुराल वाले कितनी बहुओं की जान लेंगे? वैसे उन की बहू की मौत महज एक हादसा थी.’’

‘‘तुम्हारा निर्णय गलत नहीं रहा,’’ विवेक मुसकरा कर बोला.

जय किशोर बरेरिया

सच उगल दिया: क्या था शीला का सच

जब वह बाबा गली से गुजर रहा था, तब रुक्मिणी उसे रोकते हुए बोलीं, ‘‘बाबा, जरा रुकना.’’

‘‘हां, अम्मांजी…’’ बाबा ने रुकते हुए कहा.

‘‘क्या आप हाथ देख कर सबकुछ सहीसही बता सकते हैं?’’ रुक्मिणी ने सवाल पूछा.

बाबा खुश हो कर बोला, ‘‘हां अम्मांजी, मैं तो ज्योतिषी हूं. मैं हाथ देख कर सबकुछ सचसच बता सकता हूं.’’

बाबा को अपने आंगन में बैठा कर रुक्मिणी अंदर चली गईं. तिलकधारी बाबा के गले में रुद्राक्ष की माला थी, बढ़ी हुई दाढ़ी, उंगलियों में न जाने कितने नगीने पहन खे थे. चेहरे पर चमक थी.

रुक्मिणी उस बाबा को देख भीतर ही भीतर खुश हुईं. आखिरकार बाबा बोला, ‘‘लाओ अम्मांजी, अपना हाथ दो.’’

‘‘मेरा हाथ नहीं देखना है बाबा.’’

‘‘तो फिर किस का हाथ देखना है?’’

‘‘मेरी बहू का.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ है उसे?’’

‘‘शादी को 5 साल हो गए, मगर उस की कोख आज तक हरी नहीं हुई है.’’

‘‘ऐसी बात है क्या?’’

‘‘हां, बाबा.’’

‘‘अरे, माहिर डाक्टरों ने जिन औरतों को बांझ बता दिया है, उन की कोख भी मैं ने अपने मंत्रों से हरी की है,’’ बाबा के मुंह से जब यह सुना, तो रुक्मिणी मन ही मन खुश हो गईं और बाहर से ही आवाज देते हुए बोलीं, ‘‘बहू, जरा बाहर तो आना.’’

कुछ देर बाद बहू शीला बाहर आ कर बोली, ‘‘क्या बात है अम्मांजी?’’

‘‘देखो, ये बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं…’’ रुक्मिणी समझाते हुए बोलीं, ‘‘इन को अपना हाथ दिखाओ.’’

‘‘अम्मांजी, हाथ दिखाने से क्या होगा?’’ बहू शीला ने सवाल उठाया.

‘‘अरे, तेरा हाथ देख कर बाबा बताएंगे कि तेरी कोख हरी होगी कि नहीं,’’ रुक्मिणी जरा नाराजगी से बोलीं, ‘‘तू पढ़ीलिखी हो कर बहस करती है. किसी बात पर यकीन नहीं करती है. अरे, इन बाबा ने कहा है कि इन्होंने तो बांझ औरतों को भी अपने मंत्रों से मां बना दिया है.’’

‘‘वह जमाना गया अम्मांजी, जब बाबा मंत्रों से सबकुछ कर लेते थे. अब इन से कुछ नहीं होना है,’’ अपना विरोध दर्ज करते हुए शीला बोली.

‘‘अरे, तू इन पहुंचे हुए बाबा को झूठा बता रही है,’’ रुक्मिणी गुस्से से बोलीं, ‘‘बैठ जा यहां आ कर और बाबा को अपना हाथ दिखा. बहस मत कर. बांझ कहीं की. अब तक तो 3-4 बच्चे की मां हो गई होती.’’

इस के बाद शीला ने कोई विरोध नहीं किया. वह चुपचाप बाबा के पास आ कर बैठ गई. बाबा ने पहले तो शीला को ऊपर से नीचे तक वासना की नजर से देखा, फिर मन ही मन सोचा, ‘अच्छा पंछी हाथ लगा है. अब पिंजरे में कैसे लाया जाए?’ फिर शीला का हाथ पकड़ कर वह बाबा उस के हाथ की रेखाएं बड़े ध्यान से देखता रहा. अपने ज्योतिष का गणित बैठाता रहा. मगर कुछ समझ नहीं पा रहा था. बाबा शीला का हाथ पकड़ कर कुछ बुदबुदा रहा था.

शीला की शादी 5 साल पहले हुई थी. सास रुक्मिणी कितनी खुश हुई थीं. वे बारबार कहतीं कि पोता चाहिए. शादी को अभी 6 महीने ही बीते थे कि शीला पेट से हो गई. यह देख मनीष खुश हुआ था, मगर शीला नहीं चाहती थी कि उस के इतनी जल्दी औलाद हो.

शीला मनीष से बोली थी, ‘मनीष, मैं नहीं चाहती कि इतनी जल्दी हमारी औलाद हो.’ ‘देखो शीला, मैं तो औलाद चाहता हूं, ताकि मां को खिलाने वाला कोई खिलौना मिल जाए,’ मनीष सलाह देते हुए बोला था.

‘ठीक है, सोनोग्राफी करा लेते हैं. अगर लड़का हुआ, तो ठीक. अगर लड़की निकली, तो पेट गिरवा देते हैं.’ शीला ने जब यह शर्त रखी, तो मनीष भी यह शर्त मान गया.

पेट में लड़की पाई गई. डाक्टर से सलाह ले कर बच्चा गिरा दिया गया. मगर इस के बाद डाक्टर ने यह कहा कि अब कभी शीला मां नहीं बन सकेगी. तब उन दोनों को पछतावा हुआ. अम्मांजी को अभी तक इस बात का पता नहीं चला था कि उस ने बच्चा गिरवा दिया था.

‘‘बताइए बाबा, मेरी बहू के औलाद होगी कि नहीं?’’ रुक्मिणी ने जब यह बात कही, तब जा कर शीला पुरानी यादों से लौटी.

बाबा बोला, ‘‘बहू के हाथ की रेखा तो यही बता रही है कि ये बहुत जल्द मां बन जाएंगी.’’

‘‘सच बाबा,’’ यह सुन कर रुक्मिणी के चेहरे पर खुशी लौट आई.

‘‘मगर अम्मांजी, इस के लिए हवन करना पड़ेगा,’’ बाबा ने चाल चली.

‘‘मैं हवन कराने को तैयार हूं बाबा. बताइए, कितना खर्चा आएगा?’’

‘‘वैसे, खर्चा तो खास नहीं आएगा अम्मांजी, मगर हवन श्मशान के मंदिर में रात 12 बजे के बाद होगा. मैं सिर्फ बहू को ले जाऊंगा.’’

‘‘यह सब मैं करने के लिए तैयार हूं बाबा, बस मुझे तो पोता चाहिए,’’ रुक्मिणी ने अपनी हामी दे दी.

इधर शीला ने एक नजर में बाबा की आंखों में आई वासना को पढ़ लिया था. उसे लगा कि यह बाबा झूठा है, ढोंगी है, अंधविश्वासी औरतों को बहलाफुसला कर उन की इज्जत से खेलता है, इसलिए हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘हाथ देखने में इतनी देर कर दी बाबा. तुम्हें ज्योतिष के बारे में जानकारी नहीं है, औरतों को फंसाने की जानकारी है.’’

‘‘अरे बहू, ऐसा क्यों कह रही है? बाबा को हाथ की रेखाएं अच्छी तरह से देखने दे,’’ रुक्मिणी बोलीं.

‘‘अम्मां, ये सब ज्योतिषी झूठे और ढोंगी हैं.’’

‘‘अरे बहू, ऐसी बातें मत बोल.’’

‘‘अम्मां, मैं सही कह रही हूं,’’ शीला ने कनखियों से जब बाबा की ओर देखा, तब उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

शीला बाबा से गुस्से में बोली, ‘‘जाओ बाबा, जाओ. अपनी इज्जत चाहते हो तो…’’

‘ऐ बहू, बाबा की बेइज्जती कर के क्यों भगा रही है?’’ डांटते हुए रुक्मिणी बोलीं, ‘‘बाबा, मैं बहू की तरफ से माफी मांगती हूं. यह ज्यादा पढ़ीलिखी है न, इसलिए इसे यह सब ढोंग लगता है.’’

‘‘ढोंग मैं नहीं कर रही हूं, ढोंगी तो यह बाबा है,’’ ?समझाते हुए शीला बोली, ‘‘श्मशान के मंदिर में रात के 12 बजे के बाद यज्ञ करेगा… मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तुम जैसे ढोंगी अम्मां जैसी न जाने कितनी औरतों को फुसला कर जवान औरतों के बदन से खेलते हैं.’’

‘‘एक बाबा की बेइज्जती कर के तुम ने अच्छा नहीं किया है,’’ उठते हुए बाबा बोला, ‘‘मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तू अब कभी मां नहीं बन सकेगी.’’ ऐसा कह कर बाबा तेजतेज कदमों से चलता बना. रुक्मिणी नाराज होते हुए बोलीं, ‘‘यह तू ने क्या कर दिया बहू? बाबा जातेजाते तुम को श्राप दे गया है कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी.’’

‘‘अम्मां, मैं ने जो किया सही किया है. मेरा बस चले, तो मैं इसे पुलिस के हवाले कर देती.’’ ‘‘ऐ बहू, ज्यादा बातें मत कर. एक तो मुश्किल से यह बाबा मिला था. ऊपर से हमारी गली में आता कौन है?

‘‘अरे, बाबा तुम्हें ऐसा श्राप दे गया है कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी. मैं तो अब बच्चे की किलकारी सुनने के लिए तरस जाऊंगी…’’

‘‘अम्मां, मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि मैं मां नहीं बन सकती हूं,’’ कह कर शीला ने अपने मन का दर्द उगल दिया. उस ने सोचा कि यही सही समय है कि सच बता दिया जाए, नहीं तो अंधविश्वासी अम्मां को उम्रभर यह भरम रहेगा कि बाबा के श्राप के असर की वजह से वह मां नहीं  बन सकी है. शीला बोली, ‘‘अम्मां, मनीष और मैं ने आज तक एक बात तुम से छिपा कर रखी है.’’

‘‘कौन सी बात बहू?’’ हैरानी से रुक्मिणी बोलीं.‘‘शादी के 6 महीने बाद मैं पेट से हो गई थी. मैं नहीं चाहती थी कि इतनी जल्दी मां बनूं, इसलिए मनीष से कहा कि बच्चा गिरा दो. मगर उस के साथ ही डाक्टर ने यह कह दिया कि अब तुम कभी मां नहीं बन सकोगी.’ रुक्मिणी कुछ नहीं बोलीं. यह सुन कर वे जड़ हो गईं.

जैसा भी था, था तो : दास्तान सुनंदा की

एकएककर लगभग सभी मेहमान जा चुके थे. बस सुनंदा की रमा मामी रुकी थीं. वे भी कल सुबह चली ही जाएंगी. रमा मामी से उसे शुरू से विशेष स्नेह रहा है. मामा की मृत्यु के बाद भी रमा ने सब से वैसा ही स्नेह और सम्मानभरा रिश्ता रखा है जैसा मामा के सामने था. मामी अपने विवाहित बेटे के साथ सहारनपुर में रहती हैं. अब भी रमा मामी ने ही आलोक की मृत्यु के समाचार सुनने से ले कर आज सब मेहमानों के जाने तक सब संभाल रखा था.

आलोक के भाईबहन आधुनिक व्यस्त जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर जितनी देर भी आ पाए, सुनंदा को उन से कोई गिलाशिकवा है भी नहीं. आलोक का जाना तय था. यह तो 1 महीने से उस के हौस्पिटल में रहने से समझ तो आ ही रहा था पर जैसा कि इंसान मृत्यु को चुनौती देने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देता है पर जीत थोड़े ही कभी पाता है, वैसे ही सुनंदा ने रातदिन आलोक के स्वस्थ होने की आशा में पलपल बिता दिया था.

अंतिम दिनों में ही पता चला था कि आलोक कैंसर की चपेट में है और लास्ट स्टेज है. उन के दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि मां का मुंह ही देखते रहते थे. समझ गए थे कि मां ऐसे ही परेशान नहीं हैं, इस बार कुछ होने ही वाला है और हो भी तो गया था.

आलोक को गए 2 सप्ताह हो चुके हैं. सुनंदा ने बच्चों के कमरे में झांका. रात के 11 बज रहे थे. रमा ने दोनों बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया था.

रमा ने कहा था, ‘‘बच्चो, कल से स्कूल जाना… पढ़ने में मन लगाना. मम्मी का ध्यान भी रखना और मेहनत करना. सुनंदा अपनी परेशानी जल्दी नहीं कहेगी पर तुम लोग अब उस का ध्यान जरूर रखना.’’

उन के स्कूल के सामान की व्यवस्था बच्चों के साथ मिल कर रमा ने देख ली थी.

रमा जब सुनंदा के कमरे में आई तो देखा, सुनंदा आरामकुरसी पर आंखें बंद किए लेटी सी थी. आहट पर सुनंदा ने आंखें खोलीं. रमा वहीं उस के पास बैठते हुए कहने लगी, ‘‘सुनंदा,

कल सुबह मैं चली जाऊंगी, तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां, मामी, बोलो न.’’

‘‘तुम ने आलोक के रहते हुए भी क्याक्या झेला है, मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, सब जानती हूं. यह तो अच्छा रहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी थी. आज प्रिंसिपल हो, अपनी और बच्चों की, घर की जिम्मेदारी पहले भी तुम ही उठा रही थी, अब भी तुम ही उठाओगी, पर जैसा भी था, आदमी तो था,’’ कहतेकहते रमा की आवाज में नमी आ गई, गला भी रूंध सा गया.

सुनंदा ने बस गरदन हिलाई, हां में या न में, उसे खुद ही पता नहीं चला.

मामी ने उस के सिर पर हाथ फेर कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ. कल स्कूल जाओगी?’’

‘‘हां, आप के जाने के बाद चली

जाऊंगी, बहुत काम इकट्ठा हो गया होगा,

आप आती रहना.’’

‘‘हां, जरूर.’’

रमा के जाने के बाद सुनंदा उठ कर बैड पर लेट गई, ‘आदमी तो था’ भाभी के इन शब्दों पर अंदर से मन कहीं अटक गया. आंखें तो बंद थीं पर मन ही मन अतीत की परत दर परत खुलने लगी.

सुनंदा को अपने विवाह के पिछले 20 बरस आंखों के आगे इतना स्पष्ट दिखे कि उन्हें महसूस करते ही उस ने अपने माथे पर पसीना सा महसूस किया.

विवाह के कुछ दिनों बाद ही उस ने अनुभव कर लिया था कि मातापिता ने बेटी को बोझ मानते हुए जितना जल्दी यह बोझ कैसे भी उतर जाए की चाह में एक निहायत कामचोर व्यक्ति के पल्ले उसे बांध दिया है. सुनंदा ने गर्ल्स स्कूल में नौकरी अपनी योग्यता के दम पर हासिल की थी और आज वह प्रिंसिपल के पद तक पहुंच गई है. दोनों बच्चों के जन्म के बाद तो वही जैसे पुरुष थी घर के लिए. आलोक उस के समझाने पर अगर कोई काम शुरू भी करता तो जल्द ही काम में कमियां निकाल उसे छोड़ देता. उसे घर में रहना, सुनंदा की तनख्वाह की पाईपाई का हिसाब रखना ही आता था.

आलोक को गांव में रह रहे अपने मातापिता से न कोई लगाव था, न भाईबहन से, क्योंकि वे सब उसे कुछ काम कर मेहनत करने की सलाह देते थे और वह उन से दूर ही रहता था. सब उसे कामकाजी पत्नी के सुपुर्द कर जैसे निश्चिंत हो गए थे. कुछ साल पहले आलोक के मातापिता भी नहीं रहे थे. सुनंदा का भी अब कोई अपना नहीं था.

सुनंदा कई बार सोचती कि इस से अच्छा तो वह कहीं अविवाहित ही जी लेती पर जब बच्चों का मुंह देखती तो इस विचार को जल्द ही दिल से दूर कर देती.

आलोक ने कई बार सुनंदा की जमापूंजी से, लोन से कई बार काम शुरू भी किया जिस में हमेशा नुकसान ही हुआ और अब सुनंदा की रहीसही जमापूंजी भी आलोक के इलाज में खत्म हो चुकी थी. घर देखना है, बच्चों का कैरियर बनाना है, कल से स्कूल जा कर पैडिंग पड़ा काम देखना है. आलोक था तब भी सब काम वही देखती थी, अब भी उसे ही देखने हैं, नया क्या है? सोचतेसोचते उस की आंख लग ही गई. काफी लंबे समय से थका तनमन भी तो आराम मांग रहा था.

अगले दिन रमा चली गई. सुनंदा ने बच्चों को स्कूल भेजते हुए बहुत कुछ

समझाया. बच्चे समझदार थे. सुनंदा भी स्कूल के लिए तैयार होने लगी. शामली की इस कालोनी की दूरी स्कूल से पैदल 20 मिनट की ही थी. आलोक उसे स्कूटर पर छोड़ आता था. आज

घर की गैलरी में खड़े स्कूटर को देख कर सुनंदा के कदम तो ठिठके पर वह रुकी नहीं, पैदल ही बढ़ गई. रिकशा लेने का मन ही नहीं हुआ. सोचा, थोड़ा चलना हो जाएगा. इतने दिन घर में शोक प्रकट करने आनेजाने वालों के साथ बैठी ही रही थी. औफिस में भी जा कर बैठना ही है. आज देर भी होगी आने में. बच्चों के लिए रमा ने याद से घर की चाबियां भी अलग से बनवा दी थीं.

स्कूल पहुंच कर वह अपने औफिस में बैठी ही थी कि 1-1 कर के टीचर्स, बाकी सहयोगी उस से मिलने आते रहे. सब शोक प्रकट करने घर आ चुके थे पर आज भी सब उस के पास आते रहे. वह गंभीर ही थी, फिर कई काम देखे. परीक्षा आने वाली थी. वाइस प्रिंसिपल गीता को बुला कर उस से काफी विचारविमर्श करती रही.

मन बीचबीच में बच्चों की तरफ भाग रहा था. घर पहुंच गए होंगे? रखा हुआ खाना खा लिया होगा होगा? गरम किया होगा या नहीं? अंदर से दरवाजा तो बंद कर लिया होगा न? जमाना बहुत खराब है. बच्चों के पास अभी मोबाइल नहीं था. आलोक बच्चों के पास फोन होने का पक्षधर नहीं था. बच्चे भी जिद्दी नहीं थे. फिर उस ने लैंडलाइन पर फोन किया. बच्चे आ चुके थे. उन से बात कर के सुनंदा को तसल्ली हुई, फिर वह अपने ही काम में व्यस्त रही.

सुनंदा जब घर पहुंची, बच्चों की आंख लग गई थी. उस की आहट से बच्चे उठ बैठे और उस से लिपट गए. सुनंदा ने दोनों को बांहों में भर लिया, ‘‘तुम लोग ठीक हो न?’’

आलोक के जाने के बाद तीनों के स्कूल का पहला दिन था. शाश्वत ने उदासी से कहा, ‘‘ठीक हैं मम्मी, पर पापा के बिना अच्छा नहीं लग रहा कुछ.’’

सिद्धि भी सुबक उठी, ‘‘पापा की बहुत याद आ रही है मम्मी.’’

‘‘हां, बेटा,’’ कहते हुए सुनंदा ने बच्चों को बहुत प्यार किया. उन के साथ ही बैठ कर स्कूल की बातें करने लगी पर घूमफिर कर बच्चे इसी विषय पर आ रहे थे, ‘‘आज सब पूछ रहे थे पापा के बारे में.’’

‘‘टीचर्स भी पूछ रही थीं, मम्मी.’’

‘‘घर अच्छा नहीं लग रहा न, मम्मी?’’

हां में गरदन हिलाती रही सुनंदा. तीनों अपनेअपने रूटीन में धीरेधीरे व्यस्त होते चले गए. समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. आलोक के बारे में तीनों अकसर बातें करने बैठ जाते. किसी की भी आंख भरती तो विषय बदल कर उसे हंसाने की कोशिश शुरू हो जाती.

एक दिन सुनंदा औफिस में व्यस्त थी. सिद्धि का उस के मोबाइल पर फोन आया, ‘‘मम्मी, उमेश अंकल आए हैं.’’

सुनंदा का माथा ठनका, ‘‘क्यों आए हैं?’’

‘‘पता नहीं मम्मी, मैं ने तो उन्हें पानी पिलाया… वे बस मेरे साथ ही बातें किए जा रहे हैं…कुछ काम तो नहीं लग रहा है.’’

‘‘शाश्वत कहां है?’’

‘‘सो रहा है.’’

‘‘ओह, उठा दो उसे फौरन.’’

‘‘पर वह उठाने पर गुस्सा करेगा.’’

‘‘उठाओ और उसे कहो इस अंकल के पास वही बैठे और तुम अपने रूम में होमवर्क कर लो. इसे चायवाय पूछने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मम्मी.’’

उमेश के आने की बात सुन कर सुनंदा बहुत परेशान हो गई. आलोक उमेश को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उमेश था तो आलोक का पुराना दोस्त पर बेहद चरित्रहीन. आलोक उसे हमेशा घर के बाहर ही रखता था.

उसने सुनंदा को उमेश की चरित्रहीनता के सारे किस्से सुनाए हुए थे. सिद्धि बड़ी हो रही है, अकेली है. सुनंदा को आज चैन नहीं आ रहा था. उमेश उस के घर में बैठा हुआ है. उमेश कई बच्चियों के साथ कुकर्म करते हुए पकड़ा गया था. उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी.

सुनंदा गीता तो बुला कर बोली, ‘‘बहुत जरूरी काम है, जाना पड़ेगा, हो सकेगा तो लौट आऊंगी,’’ कह कर निकलने लगी तो गीता ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘आप जाइए, मैम. मैं संभाल लूंगी. आप को दोबारा आने की परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक्यू गीता,’’ कहते हुए सुनंदा अपना पर्स उठा कर स्कूल से निकल गई, रिक्शा पकड़ घर पहुंची.

उमेश शाश्वत के साथ बैठा था. शाश्वत के माथे पर नींद से उठाए जाने पर झुंझलाहट थी. उमेश उसे देख कर चौंक गया, ‘‘अरे भाभी, आप इस समय कैसे आ गईं?’’

काफी कटु और गंभीर स्वर में सुनंदा ने कहा, ‘‘आप बताइए, आप इस समय यहां क्यों आए?’’

‘‘बस, ऐसे ही, सोचा आप लोगों के हालचाल ले लूं.’’

‘‘आगे से आप हालचाल के लिए परेशान न हों, हम ठीक हैं.’’

‘‘अरे भाभी, दोस्त था मेरा. मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है. बच्चे वैसे काफी समझदार हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप आगे से तकलीफ न उठाएं.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं तो आता रहूंगा, आप मुझे पराया न समझें.’’

सुनंदा के कड़े तेवर देख कर उमेश उस समय हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. सुनंदा सोफे पर ढह सी गई. सिद्धि भी मां की आवाज सुन कर अपने रूम से निकल कर आ गई थी. सुनंदा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और कहने लगी, ‘‘बच्चो, जमाना बहुत खराब है. आगे से अगर मैं घर पर न होंऊ तो किसी के लिए भी दरवाजा न खोलना, इस आदमी के लिए तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘ठीक है, मम्मी. हम ध्यान रखेंगे,’’ कह सिद्धि फिर सुनंदा के लिए चाय बनाने चली गई.

सुनंदा शाम को घर का सामान लेने मार्केट के लिए निकल गई. सारा सामान आलोक ही लाता था. छोटी जगह थी, कई लोग जानपहचान के मिलते चले गए. एक पड़ोसिन भी मिल गई. हालचाल पूछने के बाद कहने लगी, ‘‘आप ने तो हमेशा बाहर की लाइफ ही ऐंजौय की. अब तो आप पर घर के भी काम आ गए होंगे, आप को भी अब दालसब्जी का आइडिया हो जाएगा.’’

बात सुनंदा का दिल दुखा गई. वह लाइफ ऐंजौय कर रही थी अब तक? घरबाहर के कामों के लिए जीवनभर मशीन ही बनी रही. हम औरतें ही क्यों औरतों का दिल दुखाने में पीछे नहीं हटतीं?

पड़ोसी जगदीश भी सब्जी के ठेले पर मिल गए. सुनंदा को ऊपर से नीचे तक चमकती आंखों से देख मुसकराए, ‘‘बड़ी मैंटेंड हैं आप भाभीजी.’’

सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी फिर जबरदस्ती उस के हाथ से थैला लेते हुए उस का हाथ छू लिया.

सुनंदा के तनमन में क्रोध की एक ज्वाला सी धधक उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘आप की हैल्प कर रहा हूं, भाभीजी.’’

‘‘मैंने आप से हैल्प मांगी क्या?’’

‘‘मांगी नहीं तो क्या हुआ? पड़ोसी हूं, मेरा भी कुछ फर्ज है. चलिए, आप को घर तक छोड़ आता हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए. यहां मुझे अभी और भी काम है,’’ कह कर सुनंदा ने अपना थैला वापस झपटा और बाकी का समान लेने इधरउधर हो गई.

मन अजीब से गुस्से से भर उठा था. घर आ कर सामान रख अपने बैडरूम में जा कर आंखें बंद कर लेट गई. दोनों बच्चे टीवी में कुछ देख रहे थे. सुनंदा का दिल मिश्रित भावों से भर उठा था. माथे पर हाथ रखे सुनंदा ने अपनी कनपटियों तक बहते आंसुओं की नमी को चुपचाप ही महसूस किया. धीरेधीरे इस नमी का वेग बढ़ता जा रहा था.

आज, अभी, आलोक की याद शिद्दत से आने लगी. जब तक आलोक था तीनों के इर्दगिर्द एक सुरक्षा का घेरा तो था. एक आलोक के जाते ही वह कितनी असुरक्षा से चिंतित रहने लगी थी. उस ने तो हमेशा यही महसूस किया था कि इस पति से उसे क्या मिला? कुछ नहीं. वही तो सालों से कमा कर घर चला रही थी.

आज लगा पैसे जरूर वह कमा रही थी पर जो आलोक के रहने पर जीवन में था, आज नहीं है. ‘जैसा भी था आदमी तो था’ रमा भाभी के ये शब्द याद आए तो पहली बार सुनंदा की आलोक की याद में इतनी तेज सिसकियों से कमरा गूंज उठा.

बदलाव : क्या उर्मिला को मिला उस का पति?

गांव से चलते समय उर्मिला को पूरा यकीन था कि कोलकाता जा कर वह अपने पति को ढूंढ़ लेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कोलकाता में 3 दिन तक भटकने के बाद भी पति राधेश्याम का पता नहीं चला, तो उर्मिला परेशान हो गई.

हावड़ा रेलवे स्टेशन के नजदीक गंगा के किनारे बैठ कर उर्मिला यह सोच रही थी कि अब उसे क्या करना चाहिए. पास ही उस का 10 साला भाई रतन बैठा हुआ था.

राधेश्याम का पता लगाए बिना उर्मिला किसी भी हाल में गांव नहीं लौटना चाहती थी. उसे वह अपने साथ गांव ले जाना चाहती थी.

उर्मिला सहमीसहमी सी इधरउधर देख रही थी. वहां सैकड़ों की तादाद में लोग गंगा में स्नान कर रहे थे. उर्मिला चमचमाती साड़ी पहने हुई थी. पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें थीं.

उर्मिला का पहनावा गंवारों जैसा जरूर था, लेकिन उस का तनमन और रूप सुंदर था. उस के गोरे तन पर जवानी की सुर्खी और आंखों में लाज की लाली थी.

हां, उर्मिला की सखीसहेलियों ने उसे यह जरूर बताया था कि वह निहायत खूबसूरत है. उस के अलावा गांव के हमउम्र लड़कों की प्यासी नजरों ने भी उसे एहसास कराया था कि उस की जवानी में बहुत खिंचाव है.

सब से भरोसमंद पुष्टि तो सुहागसेज पर हुई थी, जब उस के पति राधेश्याम ने घूंघट उठाते ही कहा था, ‘तुम इतनी सुंदर हो, जैसे मेरी हथेलियों में चौदहवीं का चांद आ गया हो.’ उर्मिला बोली कुछ नहीं थी, सिर्फ शरमा कर रह गई थी.

उर्मिला बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव की रहने वाली थी. उस ने 19वां साल पार किया ही था कि उस की शादी राधेश्याम से हो गई.

राधेश्याम भी गांव का रहने वाला था. उर्मिला के गांव से 10 किलोमीटर दूर उस का गांव था. उस के पिता गांव में मेहनतमजदूरी कर के परिवार का पालनपोषण करते थे.

उर्मिला 7वीं जमात तक पढ़ी थी, जबकि राधेश्याम मैट्रिक फेल था. वह शादी के 2 साल पहले से कोलकाता में एक प्राइवेट कंपनी में चपरासी था.

शादी के लिए राधेश्याम ने 10 दिनों की छुट्टी ली थी, लेकिन उर्मिला के हुस्नोशबाब के मोहपाश में ऐसा बंधा कि 30 दिन तक कोलकाता नहीं गया.

जब घर से राधेश्याम विदा हुआ, तो उर्मिला को भरोसा दिलाया था, ‘जल्दी आऊंगा. अब तुम्हारे बिना काम में मेरा मन नहीं लगेगा.’

उर्मिला ?ाट से बोली थी, ‘ऐसी बात है, तो मु?ो भी अपने साथ ले चलिए. आप का दिल बहला दिया करूंगी. नहीं तो वहां आप तड़पेंगे, यहां मैं बेचैन रहूंगी.’

उर्मिला ने राधेश्याम के मन की बात कही थी. लेकिन उस की मजबूरी यह थी कि 4 दोस्तों के साथ वह उर्मिला को रख नहीं सकता था.

सच से सामना कराने के लिए राधेश्याम ने उर्मिला से कहा, ‘तुम 5-6 महीने रुक जाओ. कोई अच्छा सा कमरा ले लूंगा, तो आ कर तुम्हें ले चलूंगा.’

राधेश्याम अंगड़ाइयां लेती उर्मिला की जवानी को सिसकने के लिए छोड़ कर कोलकाता चला गया.

फिर शुरू हो गई उर्मिला की परेशानियां. पति का बिछोह उस के लिए बड़ा दुखदाई था. दिन काटे नहीं कटता था, रात बिताए नहीं बीतती थी.

तिलतिल कर सुलगती जवानी से उर्मिला पर उदासीनता छा गई थी. वह चंद दिन ससुराल में, तो चंद दिन मायके में गुजारती.

साजन बिन सुहागन उर्मिला का मन न ससुराल में लगता, न मायके में. मगर ऐसी हालत में भी उस ने अपने कदमों को कभी बहकने नहीं दिया था.

पति की अमानत को हर हालत में संभालना उर्मिला बखूबी जानती थी, इसलिए ससुराल और मायके के मनचलों की बुरी कोशिशों को वह कभी कामयाब नहीं होने देती थी. ससुराल में सासससुर के अलावा 2 छोटी ननदें थीं. मायके में मातापिता के अलावा छोटा भाई रतन था.

उर्मिला ने जैसेतैसे बिछोह में एक साल काट दिया. मगर उस के बाद वह पति से मिलने के लिए उतावली हो गई. हुआ यह कि कोलकाता जाने के 6 महीने तक राधेश्याम ने उसे बराबर फोन किया. मगर उस के बाद उस ने फोन करना बंद कर दिया. उस ने रुपए भेजना भी बंद कर दिया.

राधेश्याम को फोन करने पर उस का फोन स्वीच औफ आता था. शायद उस ने फोन नंबर बदल दिया था.

किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर राधेश्याम ने एकदम से परिवार से संबंध क्यों तोड़ दिया?

गांव के लोगों को यह शक था कि राधेश्याम को शायद मनपसंद बीवी नहीं मिली, इसलिए उस ने घर वालों व बीवी से संबंध तोड़ लिया है.

लेकिन उर्मिला यह बात मानने के लिए तैयार नहीं थी. वह तो अपने साजन की नजरों में चौदहवीं का चांद थी.

राधेश्याम जिस कंपनी में नौकरी करता था, उस का पता उर्मिला के पास था. राधेश्याम के बाबत कंपनी वालों को रजिस्टर्ड चिट्ठी भेजी गई.

15 दिन बाद कंपनी का जवाब आ गया. चिट्ठी में लिखा था कि राधेश्याम 6 महीने पहले नौकरी छोड़ चुका था.

सभी परेशान हो गए. कोलकाता जा कर राधेश्याम का पता लगाने के सिवा अब और कोई रास्ता नहीं था. उर्मिला का पिता अपंग था. कहीं आनेजाने में उसे काफी परेशानी होती थी. वह कोलकाता नहीं जा सकता था.

उर्मिला का ससुर हमेशा बीमार रहता था. जबतब खांसी का दौरा आ जाता था, इसलिए वह भी कोलकाता नहीं जा सकता था.

हिम्मत कर के एक दिन उर्मिला ने सास के सामने प्रस्ताव रखा, ‘अगर आप कहें, तो मैं अपने भाई रतन के साथ कोलकाता जा कर उन का पता लगाऊं?’ परिवार के लोगों ने टिकट खरीद कर रतन के साथ उर्मिला को हावड़ा जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया.

राधेश्याम जिस कंपनी में काम करता था, सब से पहले उर्मिला वहां गई. वहां के स्टाफ व कंपनी के मैनेजर ने उसे साफ कह दिया कि 6 महीने से राधेश्याम का कोई अतापता नहीं है.

उस के बाद उर्मिला वहां गई, जहां राधेश्याम अपने 4 दोस्तों के साथ एक ही कमरे में रहता था. उस समय 3 ही दोस्त थे. एक गांव गया हुआ था.

तीनों दोस्तों ने उर्मिला का भरपूर स्वागत किया. उन्होंने उसे बताया कि 6 महीने पहले राधेश्याम यह कह कर चला गया था कि उसे एक अच्छी नौकरी और रहने की जगह मिल गई है. मगर सचाई कुछ और थी.

‘कैसी सचाई?’ पूछते हुए उर्मिला का दिल धड़कने लगा.

‘दरअसल, उसे किसी अमीर औरत से प्यार हो गया था. वह उसी के साथ रहने चला गया था,’ 3 दोस्तों में से एक दोस्त ने बताया.

उर्मिला को लगा, जैसे उस के दिल की धड़कन बंद हो जाएगी और वह मर जाएगी. उस के हाथपैर सुन्न हो गए थे, मगर जल्दी ही उस ने अपनेआप को काबू में कर लिया.

उर्मिला ने पूछा, ‘वह औरत कहां रहती है?’

तीनों में से एक ने कहा, ‘यह हम तीनों में से किसी को पता नहीं है. सिर्फ गणपत को पता है. उस औरत के बारे में हम लोगों ने उस से बहुत पूछा था, मगर उस ने बताया नहीं था.

‘उस का कहना था कि उस ने राधेश्याम से वादा किया है कि उस की प्रेमिका के बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताएगा.’

‘गणपत कौन…’ उर्मिला ने पूछा.

‘वह हम लोगों के साथ ही रहता है. अभी वह गांव गया हुआ है. वह एक महीने बाद आएगा. आप पूछ कर देखिएगा. शायद, वह आप को बता दे.’

‘मगर, तब तक मैं रहूंगी कहां?’

‘चाहें तो आप इसी कमरे में रह सकती हैं. रात में हम लोग इधरउधर सो लेंगे.’ मगर उर्मिला उन लोगों के साथ रहने को तैयार नहीं हुई. उसे पति की बात याद आ गई थी.

गांव से विदा लेते समय राधेश्याम ने उस से कहा था, ‘मैं तुम्हें ले जा कर अपने साथ रख सकता था, मगर दोस्तों पर भरोसा करना ठीक नहीं है.

‘वैसे तो वे बहुत अच्छे हैं. मगर कब उन की नीयत बदल जाए और तुम्हारी इज्जत पर दाग लगा दें, इस की कोई गारंटी नहीं है.’ उर्मिला अपने भाई रतन के साथ बड़ा बाजार की एक धर्मशाला में चली गई.

धर्मशाला में उसे सिर्फ 3 दिन रहने दिया गया. चौथे दिन वहां से उसे जाने के लिए कह दिया गया, तो मजबूर हो कर उसे धर्मशाला छोड़नी पड़ी.

अब उर्मिला अपने भाई रतन के साथ गंगा किनारे बैठी थी कि अचानक उस के पास एक 40 साला शख्स आया.

पहले उस ने उर्मिला को ध्यान से देखा, उस के बाद कहा, ‘‘लगता है कि तुम यहां पर नई हो. कहीं और से आई हो. काफी चिंता में भी हो. कोई परेशानी हो, तो बताओ. मैं मदद करूंगा…’’

वह शख्स उर्मिला को हमदर्द लगा. उस ने बता दिया कि वह कहां से और क्यों आई है.

वह शख्स उस के पास बैठ गया. अपनापन जताते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम अवधेश सिंह है. मेरा घर पास ही में है. जब तक तुम्हारा पति मिल नहीं जाता, तब तक तुम मेरे घर में रह सकती हो. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

‘‘मेरी जानपहचान बहुतों से है. तुम्हारे पति को मैं बहुत जल्दी ढूंढ़ निकालूंगा. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद भी लूंगा.’’

कुछ सोचते हुए उर्मिला ने कहा, ‘‘अपने घर ले जा कर मेरे साथ कुछ गलत हरकत तो नहीं करेंगे?’’

‘‘तुम पति की तलाश करना चाहती हो, तो तुम्हें मुझ पर यकीन करना ही होगा.’’

‘‘आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘यहां मैं अकेला रहता हूं. मेरा बेटा और परिवार गांव में रहता है. मेरी पत्नी नहीं है. उस की मौत हो चुकी है.’’

‘‘तब तो मैं हरगिज आप के घर नहीं रह सकती. अकेले में आप मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं.’’ अवधेश सिंह ने उर्मिला को हर तरह से समझाया. उसे अपनी शराफत का यकीन दिलाया.

आखिरकार उर्मिला अपने भाई रतन के साथ अवधेश सिंह के घर पर इस शर्त पर आ गई कि वह उस के घर का सारा काम कर दिया करेगी. उस का खाना भी बना दिया करेगी.

अवधेश सिंह के फ्लैट में 2 कमरे थे. एक कमरा उस ने उर्मिला को दे दिया. शुरू में उर्मिला अवधेश सिंह को निहायत ही शरीफ समझाती थी, मगर 10 दिन होतेहोते उस का असली रंग सामने आ गया.

अवधेश सिंह अकसर किसी न किसी बहाने से उस के पास आ जाता था. यहां तक कि जब वह रसोईघर में खाना बना रही होती, तो वह उस के करीब आ कर चुपके से उस का अंग छू देता था. कभीकभी तो उस की कमर को भी छू लेता था.

उर्मिला को यह समझाते देर नहीं लगी कि उस का मन बेईमान है. वह उस का जिस्म पाना चाहता है.

एक बार उर्मिला का मन हुआ कि वह उस का घर छोड़ कर कहीं और चली जाए, मगर इस विचार को उस ने यह सोच कर तुरंत दिमाग से हटा दिया कि वह जाएगी तो कहां जाएगी? क्या पता दूसरी जगह कोई उस से भी घटिया इनसान मिल जाए.

गणपत के गांव से लौट आने तक उर्मिला को कोलकाता में रहना ही था. उस ने मीठीमीठी रोमांटिक बातों से अवधेश सिंह को उलझ कर रखने का फैसला किया.

एक दिन उर्मिला रसोईघर में काम कर रही थी, अचानक वह वहां आ गया. उसी समय किसी चीज के लिए उर्मिला झाकी, तो ब्लाउज के कैद से उस के उभारों का कुछ भाग दिखाई पड़ गया.

फिर तो अवधेश सिंह अपनेआप को काबू में न रख सका. झट से उस ने कह दिया, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं. तुम मेरी बन जाओ.’’

सही मौका देख कर उर्मिला ने अवधेश सिंह पर अपनी बातों का जादू चलाने का निश्चय कर लिया.

उर्मिला ने भी झट से कहा, ‘‘मैं भी अपना दिल आप को दे चुकी हूं.’’

अवधेश सिंह खुशी से झम उठा. उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘सच कह रही हो तुम?’’

‘‘आप तो अच्छे आदमी नहीं हैं. मैं तो आप को शरीफ समझ कर अपना दिल दे बैठी थी, मगर आप ने तो मेरा हाथ पकड़ लिया.’’

अवधेश सिंह ने तुरंत हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘तो क्या हो गया?’’

‘‘मेरी एक मुंहबोली भाभी कहती हैं कि किसी का प्यार कबूल करने से पहले कुछ समय तक उस का इम्तिहान लेना चाहिए.

‘‘वे कहती हैं कि जो आदमी झट से हाथ लगा दे, वह मतलबी होता है. प्यार का वास्ता दे कर जिस्म हासिल कर लेता है. उस के बाद छोड़ देता है, इसलिए ऐसे आदमियों के जाल में नहीं फंसना चाहिए.’’

‘‘तुम मुझे गलत मत समझे उर्मिला. मैं मतलबी नहीं हूं, न ही मेरी नीयत खराब है. तुम जितना चाहो इम्तिहान ले लो, मुझे हमेशा खरा प्रेमी पाओगी.’’

‘‘तो फिर हाथ क्यों पकड़ लिया?’’

‘‘बस यों ही दिल मचल गया था.’’

‘‘दिल पर काबू रखिए. जबतब मचलने मत दीजिए. एक बात साफ बता देती हूं. ध्यान से सुन लीजिए.

‘‘अगर आप मेरा प्यार पाना चाहते हैं, तो सब्र से काम लेना होगा. जिस दिन यकीन हो जाएगा कि आप मेरे प्यार के काबिल हैं, उस दिन हाथ ही नहीं, पैर भी पकड़ने की छूट दे दूंगी. तब तक आप सिर्फ बातों से प्यार जाहिर कीजिए. हाथ न लगाइए.’’

‘‘वह दिन कब आएगा?’’ अवधेश सिंह ने पूछा.

‘‘कम से कम एक महीना तो लगेगा.’’

उर्मिला की चालाकी अवधेश सिंह समझ नहीं पाया और उस की शर्त को मान लिया.

अवेधश सिंह सरकारी अफसर था. कोलकाता में वह अकेला ही रहता था. जब तक उस की पत्नी जिंदा थी, वह साल में 4-5 बार गांव जाता था. पत्नी की मौत के बाद उस ने गांव जाना ही छोड़ दिया था.

बात यह थी कि पत्नी की मौत के बाद उस ने दूसरी शादी करने का निश्चय किया, जिस का उस के बेटों ने पुरजोर विरोध किया था.

अवधेश सिंह के 2 बेटे थे. दोनों ही शादीशुदा थे. गांव में खेतीकिसानी करते थे. बेटों ने दूसरी शादी का विरोध किया, तो उस ने उन से रिश्ता ही तोड़ लिया.

दरअसल, अवधेश सिंह औरत के बिना नहीं रह सकता था. वह वासना का भेडि़या था. भोलीभाली और गरीब लड़कियों को बहलाफुसला कर वह अपने घर लाता था, फिर तरहतरह का लोभ दिखा कर उन के साथ मनमानी करता था.

अवधेश सिंह सुबहसवेरे कभीकभी गंगा स्नान के लिए भी जाता था. उस दिन सुबह 8 बजे गए, तो उर्मिला पर उस की नजर चली गई. वह समझ गया कि उर्मिला कहीं दूर देहात की है. वह उस के चाल में जल्दी आ जाएगी. वह उसे अपने घर ले जाने में कामयाब भी हो गया.

अवधेश सिंह उर्मिला को निहायत ही भोलीभाली समझाता था, पर वह उस की चालाकी सम?ा नहीं पाया. उसे लगा कि वह उर्मिला की बात मान लेगा, तो वह राजीखुशी उस का बिस्तर गरम कर देगी.

फिर तो वह उर्मिला का दिल जीतने के लिए जीतोड़ कोशिश करने लगा. उस की हर जरूरत पर ध्यान देने लगा. महंगे से महंगा गिफ्ट भी वह उसे देने लगा.

इस तरह 10 दिन और बीत गए. इस बीच उर्मिला को राधेश्याम की कोई खबर नहीं मिली.

उस के बाद एक दिन अचानक उर्मिला ने पति राधेश्याम को छोड़ अवधेश सिंह के साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करने का फैसला किया. हुआ यह कि एक दिन अवधेश सिंह दफ्तर से लौट कर रात में घर आया. उस समय रतन सो चुका था.

आते ही उस ने उर्मिला को अपने कमरे में बुलाया. उर्मिला कमरे में आई, तो अवधेश सिंह ने झट से दरवाजा बंद कर दिया.

वह उर्मिला से बोला, ‘‘तुम मान जाओगी, तो जो कुछ कहोगी, वह सबकुछ करूंगा. तुम चाहोगी तो तुम से शादी भी कर सकता हूं.’’

उर्मिला उलझन में पड़ गई. बेशक, वह गांव से पति की तलाश में निकली थी, मगर शहरी चकाचौंध ने पति से उस का मोह भंग कर दिया था.

अब वह गांव की नहीं, शहरी जिंदगी जीना चाहती थी.

अवधेश सिंह के प्रस्ताव पर वह यह सोचने लगी कि उस का पति मिल भी गया तो क्या वह अवधेश सिंह की तरह ऐशोआराम की जिंदगी दे पाएगा?

अवधेश सिंह की उम्र भले ही उस से ज्यादा थी, मगर उस के पास दौलत की कमी नहीं थी. उस ने अवधेश सिंह का प्रस्ताव स्वीकार करने का फैसला किया.

अवधेश सिंह अपनी बात से मुकर न जाए, इसलिए उर्मिला ने लिखवा लिया कि वह उस से शादी करेगा. उस के बाद उर्मिला ने अपनेआप को उस के हवाले कर दिया.

उर्मिला को पा कर अवधेश सिंह की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने अगले हफ्ते ही उस से शादी करने का फैसला किया. उर्मिला भी जल्दी से जल्दी अवधेश सिंह से शादी कर लेना चाहती थी.

2 दिन बाद ही उस ने अपने भाई रतन को गांव जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया. उस से कह दिया कि वह गांव लौट कर नहीं जाएगी. अवधेश सिंह के साथ शहर में ही रहेगी.

शादी के 2 दिन बाकी थे, तो अचानक राधेश्याम के रूममेट राघव के फोन पर उर्मिला को बताया कि गणपत गांव से आ गया है.

उर्मिला हर हाल में अवधेश सिंह से शादी करना चाहती थी, इसलिए वह राधेश्याम का पता लगाने नहीं गई. तय समय पर उस ने अवधेश सिंह से शादी कर ली. एक महीने बाद अवधेश सिंह की गैरहाजिरी में राधेश्याम उर्मिला से मिला.

‘‘कहां थे इतने दिन…?’’ उर्मिला ने पूछा.

‘‘गांव से आने के बाद मैं एक अमीर विधवा औरत के प्रेमजाल में फंस गया था. अब मैं उस के साथ नहीं रहना चाहता.

‘‘गणपत से मुझे जैसे ही पता चला कि तुम अवधेश सिंह के घर पर हो, मैं यहां चला आया. अब मैं तुम्हारे साथ गांव लौट जाना चाहता हूं.’’

‘‘आप ने आने में बहुत देर कर दी. मैं ने अवधेश सिंह से शादी कर ली है. अब मैं आप के साथ नहीं जा सकती.’’

राधेश्याम सबकुछ समझ गया. उस ने उर्मिला से फिर कुछ नहीं कहा और चुपचाप वहां से लौट गया.

छोटू की तलाश : एक रसोइया की कहानी

सु बह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे.

शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया करे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझाता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के 5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तु?ा में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम

लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा

नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह

दूध का गिलास अनमोल को दे आ.

ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालों पर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होेने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’

छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

 

बदलती दिशाएं : माही की बेहाल दशा का कौन था जिम्मेदार

माही बेहाल पड़ी थी. पूरे शरीर पर मारपीट के निशान पड़ चुके थे. रहरह कर दर्द की एक टीस उभरती तो वह कराह उठती. मारते समय कभी सोचता भी तो नहीं था उस का पति निहाल सिंह.

निहाल सिंह कभी माही को बालों से पकड़ कर खींचता तो कभी मारने के लिए छड़ी उठा लेता. शराब पीने के बाद तो वह बिलकुल जानवर बन जाता. फिर तो उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि उस के बच्चे अब बड़े हो चुके हैं. जब कभी उस की बेटी रूबी अपनी मां को बचाने के लिए आगे आती तो वह भी पिट जाती.

2 दिन पहले जब निहाल सिंह शराब पी कर घर में ऊलजुलूल बोलने लगा तो माही ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बस कीजिए, अब खाना खा लीजिए. सुबह काम पर भी जाना है.’

माही के इतना बोलने की ही देर थी कि निहाल सिंह चीखते हुए बोला, ‘अब तू रोकेगी मुझे… अभी बताता तुझे,’ फिर तो उस का हाथ न रूका.

आखिर में रूबी दोनों के बीच में आ गई और उस का हाथ पकड़ कर झटकते हुए बोली, ‘पापा, अब बस कीजिए. गलती तो आप की है, मम्मी को क्यों मार रहे हो?’

‘कितनी बार कहा है कि तू बीच में न बोला कर,’ रूबी को पीछे धकेलता हुआ निहाल सिंह फिर चीखा, ‘निकल जाओ मेरे घर से.’

माही घबरा गई. इस से पहले भी तो निहाल सिंह कई बार उसे घर से बाहर निकाल चुका था. लड़खड़ाता हुआ वह बिस्तर पर गिरा और बड़बड़ाता हुआ सो गया.

रूबी ने अपनी मां को उठाया और दूसरे कमरे में ले गई. उस के जख्मों पर दवा लगाते हुए वह बोली, ‘मम्मी, बहुत हो गया अब. पापा नहीं सुधरेंगे. ये रोजरोज के झगड़े हमें जीने नहीं देंगे.’

दर्द से कराहते हुए माही बोली, ‘हां रूबी, मैं भी अब थक चुकी हूं. मुझे समझ में आ गया है. अब मैं इन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. ये कितना भी रोएं या गिड़गिड़ाएं, मैं इन की बातों में भी नहीं आऊंगी.’

अपने सिर पर लगी चोट को सहलाते हुए माही मन पक्का कर के बोली, ‘तुम बुलाओ पुलिस को, मैं दूंगी बयान इन के खिलाफ.’

रूबी ने झट से पुलिस का नंबर डायल किया और सारी घटना बता दी.

माही और निहाल सिंह की लव मैरिज हुई थी. घर वालों के खिलाफ जा कर माही ने निहाल सिंह का हाथ थामा था. दोनों भारत से यूरोप आ कर बस गए थे. शुरू में जब माही ने काम करना चाहा, तो निहाल सिंह ने उस से कहा था, ‘तुम मेरे घर की रानी हो, तुम घर संभालो. मैं बाहर संभालता हूं.’

माही ने इसे निहाल सिंह का अपने प्रति गहरा लगाव समझ था, मगर धीरेधीरे माही को महसूस होने लगा कि निहाल सिंह का स्वभाव दिन ब दिन बदलता जा रहा है. काम से आते ही वह शराब पीने लग जाता. तब तक उन के बच्चे भी हो चुके थे. माही ने खुद को बच्चों में बिजी कर लिया था.

जब कभी माही निहाल सिंह को बाहर जाने को कहती, तो वह मना कर देता. निहाल सिंह अब छोटीछोटी बातों पर माही पर शक करने लगा था. जब कभी काम का दबाव बढ़ जाता तो वह झल्ला कर कहता, ‘मुझ से नहीं होता इतना काम. मैं नहीं उठा सकता इतना बोझ.’

जब कभी माही नौकरी करने को कहती, तो वह उसे पीटने लगता. शराब पी कर मारपीट करना तो उस के लिए रोज की ही बात हो गई थी. बच्चे डरते हुए मां के पीछे छिप जाते थे. वे अब थोड़े बड़े भी हो गए थे. उन का स्कूल में दाखिला करवाना जरूरी हो गया था.

खर्चा बढ़ गया था तो माही ने निहाल सिंह को किसी तरह अपनी नौकरी के लिए मना लिया. वह घर का सारा काम निबटा कर ही नौकरी पर जाती और वापस आते ही बच्चों और घर को संभालने लग जाती.

माही ने कभी किसी से अपने साथ हुई मारपीट का जिक्र नहीं किया था. हां, कभीकभार उस के घर से आती मारपीट और चीखनेचिल्लाने की आवाजों से परेशान हो कर पड़ोसी खुद ही पुलिस में रिपोर्ट कर देते थे. पुलिस आती तो माही झूठ बोल कर निहाल सिंह को बचा लेती. ऐसे ही समय निकल रहा था.

निहाल सिंह प्यार भी उसे अपनी मरजी से करता, नहीं तो आधी रात को उसे मारपीट कर कमरे से निकाल देता. माही अपनी तकदीर को कोसती बच्चों के पास आ कर सो जाती.

इतना सबकुछ होने के बावजूद वह निहाल सिंह का पूरा ध्यान रखती. हर काम समय से करती. सुबह उठते ही सब से पहले उस का टिफिन तैयार करती. किसी तरह उस ने निहाल सिंह को मना कर बच्चों को साथ वाले बड़े शहर में पढ़ने के लिए भेज दिया था, ताकि वे दोनों पढ़लिख कर अच्छी नौकरी पर लग सकें. असल बात तो यह थी कि माही

उन दोनों पर पिता की गलत हरकतों का असर नहीं पड़ने देना चाहती थी.

1-2 बार पहले भी किसी बात पर गुस्सा हो कर निहाल सिंह ने माही को आधी रात में घर से बाहर निकाल दिया था. माही की मौसी का बेटा इसी शहर में रहता था. उस ने उसे फोन किया और वह माही को ले कर अपने घर चला गया. उस ने भी माही को समझाया कि यह ऐसे कभी नहीं सुधरेगा, तुम कब तक इस की मारपीट बरदाश्त करोगी.

उस ने आगे बढ़ कर पुलिस में उस की रिपोर्ट लिखवा दी. जब पुलिस निहाल सिंह को घर से उठा कर ले गई, तब माही डर गई और उस ने भाई को रिपोर्ट वापस लेने के लिए कहा. जब ऐसा 2-3 बार हुआ, तो भाई भी पीछे हट गया.

माही इसे अपनी किस्मत समझ कर समझाता कर रही थी. उसे पता था कि निहाल सिंह गुस्सैल है, पर उस के बच्चों का पिता है. वह भले ही अब उसे पहले जैसा प्यार नहीं करता, मगर उस के लिए तो आज भी वही उस का प्यार है.

तभी एक दिन निहाल सिंह काम से आते समय अपने साथ एक जवान औरत को घर ले आया. माही ने उसे देखते ही निहाल सिंह से उस के बारे में पूछा कि यह कौन है, तो उस ने बताया, ‘यह प्रीत है. इस का पति मेरे साथ काम करता था. ज्यादा शराब पीने से वह मर गया. मैं इस की मदद कर रहा हूं, क्योंकि उस के बीमा और पैंशन के बारे में इसे कुछ नहीं पता.’

माही भोली थी. वह बोली, ‘अच्छा है. आप इन की मदद कर रहे हो, वरना कौन बेगाने देश में किसी की मदद करता है.’

अब तो जब भी प्रीत का फोन आता, निहाल सिंह भागाभागा उस के पास पहुंच जाता.

एक दिन माही काम से वापस आई, तो घर का दरवाजा खोलते ही बैडरूम से किसी के हंसने की आवाज आई. अंदर अंधेरा था. बिजली का स्विच औन करते ही माही की आंखें खुली रह गईं. उस ने उन दोनों को बैड पर आपत्तिजनक हालत में देखा. लेकिन शर्मिंदा होने के बजाय दोनों हंसने लगे. इस के बाद तो माही के सामने ही सबकुछ चलने लगा.

माही का दिल टूट चुका था. इतना सब होने के बावजूद उस ने कभी नहीं सोचा था कि निहाल सिंह उसे इस तरह धोखा देगा. वह फूटफूट कर रो पड़ी. अब उस को समझ में आया कि वह क्यों उस पर शक करता था. उस ने किसी तरह खुद को संभाला और अब वह सोच में पड़ गई.

एक दिन माही को पास बिठा कर निहाल सिंह बोला, ‘तू हां करे, तो मैं इसे भी अपने साथ रख लूं?’

निहाल सिंह किस हद तक गिर गया था, माही यह सोचने को मजबूर हो गई. बच्चे पढ़लिख कर अब अच्छी नौकरी पर लग चुके थे. सिर्फ छुट्टियों में ही घर आते थे. वे मां को अपने साथ चलने को कहते, मगर वह जानती थी कि निहाल सिंह बीमारी का शिकार है. उस के खानेपीने का ध्यान उस ने ही रखना है, इसलिए वह सबकुछ बरदाश्त कर के भी उसी के साथ रह रही थी.

आजकल छुट्टियों में रूबी घर आई हुई थी. कल की हुई मारपीट के बाद माही ने रूबी को निहाल सिंह और प्रीत के संबंधों के बारे में भी बता दिया. यह सुनते ही उस का खून खौल उठा. उस ने अपने पिता के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी थी.

थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई. रूबी और माही ने बयान दे दिया. माही की चोटें उस के साथ हुए जोरजुल्म की साफ गवाही दे रही थीं. माही ने यह भी बताया कि जब वह पेट से थी, तब निहाल सिंह ने उसे बहुत बार पीटा था.

रिपोर्ट को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने माही की चोट की तसवीरें खींच कर साथ लगा दीं. पुलिस निहाल सिंह को साथ ले गई. वहां 2 दिन उसे हिरासत में रखा, फिर उस को वार्निंग दे कर छोड़ दिया गया कि वह माही के आसपास भी नही फटकेगा. अगर उस ने माही को तंग किया, तो उस पर कार्यवाही की जाएगी और 2 साल की जेल भी हो सकती है. उसे एक अलग घर में रहने के लिए कहा गया.

निहाल सिंह फोन कर के बारबार माही से माफी मांगने लगा. उसे पता था कि माही का दिल पिघल जाता है. वह उसे अब भी प्यार करती है. मगर रूबी ने मां को साफसाफ कह दिया, ‘‘मम्मी, इस बार अगर तुम ने पापा को माफ किया, तो मैं कभी तुम से बात नहीं करूंगी.’’

माही ने निहाल सिंह का फोन उठाना भी बंद कर दिया.

रूबी पिता को फोन पर धमकी देते हुए बोली, ‘‘आज के बाद अगर आप ने मम्मी को फोन किया, तो आप को

2 साल की जेल हो जाएगी. आप यह बात भूलिएगा मत कि वे अब अकेली नहीं हैं. आज तक जो आप ने उन के साथ किया, उस के लिए हम तीनों आप से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे और उन्हें इंसाफ दिलवा कर ही रहेंगे.’’

पहले निहाल सिंह गिड़गिड़ाया, फिर बेशर्मी से बोला, ‘‘मैं भी तुम लोगों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आज तक मैं ने तुम दोनों की पढ़ाई पर जो भी खर्चा किया, वह मुझे वापस कर दो.’’

यह सुनते ही रूबी की आंखों में आंसू आ गए. उस का बाप इतना गिर सकता है, उस ने कभी सोचा भी नहीं था, मगर फिर भी वह हिम्मत कर अपने आंसुओं को रोकते हुए बोली, ‘‘पैसा तो हम दे देंगे, लेकिन इतने सालों तक आप ने मम्मी को जो दुख दिया है, क्या वे दिन वापस लौटा देंगे?’’ कहते हुए रूबी ने फोन रख दिया और माही की तरफ देखा, जिस की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी.

रूबी ने झट से मां को अपने गले से लगा लिया. मगर उन्हें चुप नहीं कराया, बल्कि सालों का जो जमा सैलाब था, उसे बहने दिया.

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