Family Story in Hindi: विश्वास- भाग 2: क्या अंजलि अपनी बिखरती हुई गृहस्थी को समेट पाई?

अंजलि ने शिखा के गाल पर थप्पड़ मारने के लिए उठे अपने हाथ को बड़ी कठिनाई से रोका और गहरीगहरी सांसें ले कर अपने क्रोध को कम करने के प्रयास में लग गई. दूसरी तरफ तनी हुई शिखा आंखें फाड़ कर चुनौती भरे अंदाज में उसे घूरती रहीं.

कुछ सहज हो कर अंजलि ने उस से पूछा, ‘‘वंदना के घर मेरे जाने की खबर तुम्हें उन के घर के सामने रहने वाली रितु से मिलती है न?’’

‘‘हां, रितु मुझ से झूठ नहीं बोलती है,’’ शिखा ने एकएक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया.

‘‘यह अंदाजा उस ने या तुम ने किस आधार पर लगाया कि मैं वंदना की गैर- मौजूदगी में कमल से मिलने जाती हूं?’’

‘‘आप कल सुबह उन के घर गई थीं और परसों ही वंदना आंटी ने मेरे सामने कहा था कि वह अपनी बड़ी बहन को डाक्टर के यहां दिखाने जाएंगी, फिर आप उन के घर क्यों गईं?’’

‘‘ऐसा हुआ जरूर है, पर मुझे याद नहीं रहा था,’’ कुछ पल सोचने के बाद अंजलि ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

‘‘मुझे लगता है कि वह गंदा आदमी आप को फोन कर के अपने पास ऐसे मौकों पर बुलाता है और आप चली जाती हो.’’

‘‘शिखा, तुम्हें अपनी मम्मी के चरित्र पर यों कीचड़ उछालते हुए शर्म नहीं आ रही है,’’ अंजलि का अपमान के कारण चेहरा लाल हो उठा, ‘‘वंदना मेरी बहुत भरोसे की सहेली है. उस के साथ मैं कैसे विश्वासघात करूंगी? मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारे पापा बसते हैं, और कोई नहीं.’’

ये भी पढ़ें- Romantic Story: अंधेरे से उजाले की ओर

‘‘तब आप उन के पास लौट क्यों नहीं चलती हो? क्यों कमल अंकल के भड़काने में आ रही हो?’’ शिखा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘बेटी, तेरे पापा के और मेरे बीच में एक औरत के कारण गहरी अनबन चल रही है, उस समस्या के हल होते ही मैं उन के पास लौट जाऊंगी,’’ शिखा को यों स्पष्टीकरण देते हुए अंजलि ने खुद को शर्म के मारे जमीन मेें गड़ता महसूस किया.

‘‘मुझे यह सब बेकार के बहाने लगते हैं. आप कमल अंकल के कारण पापा के पास लौटना नहीं चाहती हो,’’ शिखा अपनी बात पर अड़ी रही.

‘‘तुम जबरदस्त गलतफहमी का शिकार हो, शिखा. वंदना और कमल मेरे शुभचिंतक हैं. उन दोनों का बहुत सहारा है मुझे. दोस्ती के पवित्र संबंध की सीमाएं तोड़ कर कुछ गलत न मैं कर रही हूं न कमल अंकल. मेरे कहे पर विश्वास कर बेटी,’’ अंजलि बहुत भावुक हो उठी.

‘‘मेरे मन की सुखशांति की खातिर आप अंकल से और जरूरी हो तो वंदना आंटी से भी अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लो, मम्मी. मुझे डर है कि ऐसा न करने पर आप पापा से सदा के लिए दूर हो जाओगी,’’ शिखा ने आंखों में आंसू ला कर विनती की.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में आया खिंचाव

‘‘तुम्हारे नासमझी भरे व्यवहार से मैं बहुत निराश हूं,’’ ऐसा कह कर अंजलि उठ कर अपने कमरे में चली आई.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में बहुत खिंचाव आ गया. आपस में बातचीत बस, बेहद जरूरी बातों को ले कर होती. अपने दिल पर लगे घावों को दोनों नाराजगी भरी खामोशी के साथ एकदूसरे को दिखा रही थीं.

शिखा की चुप्पी व नाराजगी वंदना और कमल ने भी नोट की. अंजलि उन के किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकी. वह कैसे कहती कि शिखा ने कमल और उस के बीच नाजायज संबंध होने का शक अपने मन में बिठा रखा था.

करीब 4 दिन बाद रात को शिखा ने मां के कमरे में आ कर अपने मन की बातें कहीं.

‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं कि मेरी सहेली रितु ने अन्य सहेलियों को सब बातें बता कर मेरे लिए इज्जत से सिर उठा कर चलना ही मुश्किल कर दिया है. अपनी ये सब परेशानियां मैं आप के नहीं, तो किस के सामने रखूं?’’

मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है

‘‘मुझे तुम्हारी सहेलियों से नहीं सिर्फ तुम से मतलब है, शिखा,’’ अंजलि ने शुष्क स्वर में जवाब दिया, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन क्यों मान लिया? मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है?’’

‘‘मम्मी, बात विश्वास करने या न करने की नहीं है. हमें समाज में मानसम्मान से रहना है तो लोगों को ऊटपटांग बातें करने का मसाला नहीं दिया जा सकता.’’

ये भी पढ़ें- Romantic Story in Hindi- तेरा मेरा साथ

‘‘तब क्या दूसरों को खुश करने के लिए तुम अपनी मां को चरित्रहीन करार दे दोगी? उन की झूठी बातों पर विश्वास कर के अपनी मां को उस की सब से प्यारी सहेली से दूर करने की जिद पकड़ोगी?’’

‘‘मुझ पर क्या गुजर रही है, इस की आप को भी कहां चिंता है, मम्मी,’’ शिखा चिढ़ कर गुस्सा हो उठी, ‘‘मैं आप की सहेली नहीं बल्कि सहेली के चालाक पति से आप को दूर देखना चाहती हूं. अपनी बेटी की सुखशांति से ज्यादा क्या कमल अंकल के साथ जुडे़ रहना आप के लिए जरूरी है?’’

‘‘कमल अंकल मेरे लिए तुम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं, शिखा? मुझे तो अफसोस और दुख इस बात का है कि मेरी बेटी को मुझ पर विश्वास नहीं रहा. मैं पूछती हूं कि तुम ही मुझ पर विश्वास क्यों नहीं कर रही हो?  अपनी सहेलियों की बकवास पर ध्यान न दे कर मेरा साथ क्यों नहीं दे रही हो? मेरे मन में खोट नहीं है, इस बात को मेरे कई बार दोहराने के बावजूद तुम ने उस पर विश्वास न कर के मेरे दिल को जितनी पीड़ा पहुंचाई है, क्या उस का तुम्हें अंदाजा है?’’ बोलते हुए अंजलि का चेहरा गुस्से से लाल हो गया.

‘‘यों चीखचिल्ला कर आप मुझे चुप नहीं कर सकोगी,’’ गुस्से से भरी शिखा उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘चित भी मेरी और पट भी मेरी का चालाकी भरा खेल मेरे साथ न खेलो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अंजलि फौरन उलझन का शिकार बन गई.

‘‘मतलब यह कि पापा ने अपनी बिजनेस पार्टनर सीमा आंटी को ले कर आप को सफाई दे दी तब तो आप ने उन की एक नहीं सुनी और यहां भाग आईं, और जब मैं आप से कमल अंकल के साथ संबंध तोड़ लेने की मांग कर रही हूं तो किस आधार पर आप मुझे गलत और खुद को सही ठहरा रही हो?’’

Family Story in Hindi- अपना अपना रास्ता: भाग 3

उन्होंने समझ लिया था कि उन का और इंद्रा का निबाह होना कठिन था. इंद्रा की बड़ीबड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं, ऊंचेऊंचे सपने थे, जो उन के छोटे से घर की दीवारों से टकरा कर चूरचूर हो गए थे.

उन का छोटा सा घर, छोटा सा ओहदा, छोटीछोटी इच्छाएं और आवश्यकताएं, कोई भी चीज इंद्रा को पसंद नहीं आई थी. दिनदिनभर पड़ोसिनों के साथ फिल्में देखना और मौल्स के चक्कर लगाना अथवा किसी के घर में किट्टी पार्टियों के साथ नएनए फैशन की साडि़यों व गहनों की चर्चा करना, यही थी उस की कुछ चिरसंचित अभिलाषाएं जो मातापिता के कठोर नियंत्रण से मुक्त हो कर अब स्वच्छंद आकाश में पंख पसार कर उड़ना चाहती थीं.

दिनभर के थकेहारे सुरेंद्र घर लौट कर आते तो दरवाजे पर झूलते ताले को देख उन का तनमन सुलग उठता. ‘क्या तुम अपना घूमनाफिरना 5 बजे तक नहीं निबटा सकतीं, इंद्रा?’

‘ओहो, कौन सा आसमान टूट पड़ा, जो जरा सी देर इंतजार करना पड़ गया. ताश की बाजी चल रही थी, कैसे बीच से उठ कर आ जाती, बोलो?’ उस का स्वर सुरेंद्र को आरपार चीरता चला जाता. ‘खुद तो दिनभर दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते फिरते हैं, मैं कहीं जाऊं तो जवाबतलबी होती है.’

‘नहीं, इंद्रा, मुझे गलत मत समझो. मेरी तरफ से तुम्हें पूरी आजादी है. कहीं जाओ, कहीं घूमो. बस, मेरे आने तक घर लौट आया करो. तुम्हारी खिलीखिली सी मुसकान मेरी दिनभर की थकान हर लेती है.’

सुरेंद्र पत्नी की जिह्वा का हलाहल कंठ में उतार वाणी में मिठास सी घोल देते.

‘ओफ, इच्छाएं तो देखो, मीठीमीठी मुसकान चाहिए इन्हें. करते हैं क्लर्की और ख्वाब देखते हैं महलों के?हुंह, ऐसी ही पलकपांवड़े बिछाने वाली का शौक था तो ले आए होते कोई देहातिन. मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

इंद्रा का तीखा स्वर सुरेंद्र के कानों में लावा सा पिघलाता उतर जाता. अंदर ही अंदर तिलमिला कर वे जबान पर नियंत्रण कर लेते. जितना बोलेंगे, बात बढ़ेगी, अड़ोसीपड़ोसी तमाशा देखेंगे. अभी नईनई शादी हुई है, और अभी से…

ये भी पढ़ें- Romantic Story: अंधेरे से उजाले की ओर

चुपचाप कपड़े बदल कर वे बिस्तर पर पड़ जाते. वे सोचते, ‘क्या विवाह का यही अर्थ है? दिनभर के बाद घर आओ तो पत्नी नदारद. फिर ऊपर से जलीकटी सुनो? क्या शिक्षा का यही अर्थ है कि पति को हर क्षण नीचा दिखाया जाए?’

कैसे खिंचेगी जीवन की यह गाड़ी, जहां पगपग पर आलोचना और अपमान की बड़ीबड़ी शिलाएं हैं. कहां तक ठेल सकेंगे अकेले इस गाड़ी को, जहां दूसरा पहिया साथ देने से ही इनकार कर दे? क्या इन कठोर शिलाखंडों से टकरा कर एक दिन सबकुछ अस्तव्यस्त नहीं हो जाएगा?

जीवन को हतोत्साहित करने वाले इन निराशावादी विचारों को धकेलते हुए मन में आशा की किरण भी झिलमिला जाती कि अभी इंद्रा ने जीवन में देखा ही क्या है? सिर्फ मातापिता का स्नेह, बहनभाइयों का प्यारदुलार. गृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ेंगी तो स्वयं रास्ते पर आ जाएगी. अभी नादान है. 20-22 की भी कोई आयु होती है.

लेकिन इंद्रा ने तो जैसे पति की हर झिलमिलाती आशा को पांवों तले रौंद कर चूरचूर कर देने का फैसला कर लिया था. 2-2 वर्षों के अंतराल से विनोद, प्रमोद और अचला आते गए. उन के साथ आई उन की नन्हींनन्हीं समस्याएं, उन के नाजुककोमल बंधन, उन के नन्हेनन्हे सुखदुख.

लेकिन इंद्रा को उन के वे भोलेभाले चेहरे, उन की मीठीतुतली वाणी, उन के स्नेहसिक्तकोमल बंधन भी बांध कर न रख सके. नौकरों के सहारे बच्चे छोड़ वह अपने महिला क्लब की गतिविधियों में दिनबदिन उलझती चली गई. वक्तबेवक्त आंधी की तरह घर में आती और तूफान की तरह निकल जाती.

हर दिन एक नया आयोजन, जहां पति और बच्चों का कोई अस्तित्व नहीं था. कोई आवश्यकता भी नहीं थी. शायद इंद्रा गृहस्थी के संकुचित दायरे में बंध कर जीने के लिए बनी ही नहीं थी. उस का अपना अस्तित्व था. अपना रास्ता था. जहां मान था, आदर था, यश और प्रशंसा की फूलमालाएं थीं. जहां से उसे वापस लौटा लाने का हर प्रयत्न सुरेंद्र को पहले से और अधिक तोड़ता चला गया था.

जबजब वे उसे गृहस्थी के दायित्वों के प्रति सजग रहने की सलाह देते, वह कु्रद्ध बाघिन सी भन्ना उठती, ‘तुम चाहते क्या हो? क्या मैं दिनभर अनपढ़गंवार औरतों की तरह बच्चों और चूल्हेचौके में सिर खपाया करूं? क्या मांबाप ने मुझे इसलिए कालेज में पढ़ाया था?’

‘नहीं तो क्या इसलिए पढ़ाया था कि अपनी जिम्मेदारियां नौकरों और पड़ोसियों पर छोड़ कर तुम दिनदिनभर सड़कों की धूल फांकती फिरो. जानती हो तुम्हारा यह घूमनाफिरना, यह सोशल लाइफ इन नन्हेनन्हे बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहा है, इन्हें असभ्य और लावारिस बना रहा है. अनाथाश्रम में जा करतुम उन बिन मांबाप के बच्चों को सभ्य और सुशिक्षित बनाने की शिक्षा दिया करती हो, पर यह क्यों नहीं सोचतीं कि तुम्हारी अनुपस्थिति में तुम्हारे इन 3 बच्चों का क्या होगा?

ये भी पढ़ें- Romantic Story in Hindi- तेरा मेरा साथ

‘जानती हो, इंदु, भूख लगने पर इन्हें क्या मिलता है? नौकरों की झिड़कियां, थप्पड़. बीमारी में तुम्हारे स्नेहभरे संरक्षण की जगह मिलती है उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार. सच, इंदु, क्या तुम्हें इन अनाथों पर तनिक भी दया नहीं आती?’

किंतु इंद्रा पर सुरेंद्र के इन तमाम उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

पत्नी से उपेक्षित सुरेंद्र देरदेर तक दफ्तर में बैठे कंप्यूटर में दिमाग खपाया करते. पर वहां का वातावरण भी धीरेधीरे असहनीय होने लगा. आतेजाते फब्तियां कसी जातीं, ‘अरे भई, इस बार तरक्की मिलेगी तो मिस्टर सुरेंद्र को. पत्नी शहर की प्रसिद्ध समाजसेविका, बड़ेबड़े लोगों के साथ उठनाबैठना, अच्छेअच्छे आदमियों का पटरा बैठ जाएगा, देख लेना.’

नादानियां- भाग 1: उम्र की इक दहलीज

प्रथमा की शादी को 3 साल हो गए हैं. कितने अरमानों से उस ने रितेश की जीवनसंगिनी बन कर इस घर में पहला कदम रखा था. रितेश से जब उस की शादी की बात चल रही थी तो वह उस की फोटो पर ही रीझ गई थी. मांपिताजी भी संतुष्ट थे क्योंकि रितेश 2 बहनों का इकलौता भाई था और दोनों बहनें शादी के बाद अपनेअपने घरपरिवार में रचीबसी थीं. सासससुर भी पढ़ेलिखे व सुलझे विचारों के थे.

शादी से पहले जब रितेश उसे फोन करता था तो उन की बातों में उस की मां यानी प्रथमा की होने वाली सास एक अहम हिस्सा होती थी. प्रथमा प्रेमभरी बातें और होने वाले पति के मुंह से खुद की तारीफ सुनने के लिए तरसती रह जाती थी और रितेश था कि बस, मां के ही गुणगान करता रहता. उसी बातचीत के आधार पर प्रथमा ने अनुमान लगा लिया था कि रितेश के जीवन में उस की मां का पहला स्थान है और उसे पति के दिल में जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.

ये भी पढ़ें- अपारदर्शी सच: किस रास्ते पर चलने लगी तनुजा

शादी के बाद हनीमून की योजना बनाते समय रितेश बारबार हरिद्वार, ऋ षिकेश, मसूरी जाने का प्लान ही बनाता रहा. आखिरी समय तक वह अपनी मम्मीपापा से साथ चलने की जिद करता रहा. प्रथमा इस नई और अनोखी जिद पर हैरान थी क्योंकि उस ने तो यही पढ़ा व सुना था कि हनीमून पर पतिपत्नी इसलिए जाते हैं ताकि वे ज्यादा से ज्यादा वक्त एकदूसरे के साथ बिता सकें और उन की आपसी समझ मजबूत हो. मगर यहां तो उलटी गंगा बह रही है. मां के साथ तीर्थ पर ही जाना था तो इसे हनीमून का नाम देने की क्या जरूरत है. खैर, ससुरजी ने समझदारी दिखाई और उन्हें हनीमून पर अकेले ही भेजा.

स्मार्ट और हैंडसम रितेश का फ्रैंडसर्किल बहुत बड़ा है. शाम को औफिस से घर आते ही जहां प्रथमा की इच्छा होती कि वह पति के साथ बैठ कर आने वाले कल के सपने बुने, उस के साथ घूमनेफिरने जाए, वहीं रितेश अपनी मां के साथ बैठ कर गप मारता और फिर वहां से दोस्तों के पास चला जाता. प्रथमा से जैसे उसे कोई मतलब ही नहीं था. रात लगभग 9 बजे लौटने के बाद खाना खा कर वह सो जाता. हां, हर रात वह सोने से पहले प्रथमा को प्यार जरूर करता था. प्रथमा का कोमल हृदय इस बात से आहत हो उठता, उसे लगता जैसे पति ने उसे सिर्फ अपने बिस्तर में ही जगह दी है, दिल में नहीं. वह केवल उस की आवश्यकतापूर्ति का साधन मात्र है. ऐसा नहीं है कि उस की सास पुरानी फिल्मों वाली ललिता पंवार की भूमिका में है या फिर वह रितेश को उस के पास आने से रोकती है, बल्कि वह तो स्वयं कई बार रितेश से उसे फिल्म, मेले या फिर होटल जाने के लिए कहती. रितेश उसे ले कर भी जाता है मगर उन के साथ उस की मां यानी प्रथमा की सास जरूर होती है. प्रथमा मन मसोस कर रह जाती, मगर सास को मना भी कैसे करे. जब पति खुद चाहता है कि मां उन के साथ रहे तो फिर वह कौन होती है उन्हें टोकने वाली.

कई बार तो उसे लगता कि पति के दिल में उस का एकछत्र राज कभी नहीं हो सकता. वह उस के दिल की रानी सास के रहते तो नहीं बन सकती. उस की टीस तब और भी बढ़ जाती है जब उस की बहन अपने पति के प्यार व दीवानगी के किस्से बढ़ाचढ़ा कर उसे बताती कि कैसे उस के पति अपनी मां को चकमा दे कर और बहाने बना कर उसे फिल्म दिखाने ले जाते हैं, कैसे वे दोनों चांदनी रातों में सड़कों पर आवारगी करते घूमते हैं और चाटपकौड़ी, आइसक्रीम का मजा लेते हैं. प्रथमा सिर्फ आह भर कर रह जाती. हां, उस के ससुर उस के दर्द को समझने लगे थे और कभी बेकार में चाय बनवा कर, पास बैठा कर इधरउधर की बातें करते तो कभी टीवी पर आ रही फिल्म को देखने के लिए उस से अनुरोध करते.

दिन गुजरते रहे, वह सब्र करती रही. लेकिन जब बात सिर से गुजरने लगी तो उस ने एक नया फैसला कर लिया अपनी जीवनशैली को बदलने का. प्रथमा को मालूम था कि राकेश मेहरा यानी उस के ससुरजी को चाय के साथ प्याज के पकौड़े बहुत पसंद हैं, हर रोज वह शाम की चाय के साथ रितेश की पसंद के दूसरे स्नैक्स बनाती रही है और कभीकभी रितेश के कहने पर सासूमां की पसंद के भी. मगर आज उस ने प्याज के पकौड़े बनाए. पकौड़े देखते ही राकेश के चेहरे पर लुभावनी सी मुसकान तैर गई.

प्रथमा ने आज पहली बार गौर से अपने ससुरजी को देखा. राकेश की उम्र लगभग 55 वर्ष थी, मगर दिखने में बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व है उन का. रितेश अपने पापा पर ही गया है, यह सोच कर प्रथमा के दिल में गुदगुदी सी हो गई.

ये भी पढ़ें- अंतर्भास : कुमुद की इच्छा क्या पूरी हो पाई

राकेश ने जीभर कर पकौड़ों की तारीफ की और प्रथमा से बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मोगाम्बो खुश हुआ. अपनी एक इच्छा बताओ, बच्ची. कहो, क्या चाहती हो?’’ प्रथमा खिल उठी. फिलहाल तो उस ने कुछ नहीं मांगा मगर आगे की रणनीति मन ही मन तय कर ली. 2 दिनों बाद उस ने राकेश से कहा, ‘‘आज यह बच्ची आप से आप का दिया हुआ वादा पूरा करने की गुजारिश करती है. क्या आप मुझे कार चलाना सिखाएंगे?’’

‘‘क्यों नहीं, अवश्य सिखाएंगे बालिके,’’ राकेश ने कहा. जब वे बहुत खुश होते हैं तो इसी तरह नाटकीय अंदाज में बात करते हैं. अब हर शाम औफिस से आ कर चायनाश्ता करने के बाद राकेश प्रथमा को कार चलाना सिखाने लगा. जब राकेश उसे क्लच, गियर, रेस और ब्रेक के बारे में जानकारी देता तो प्रथमा बड़े मनोयोग से सुनती. कभीकभी घुमावदार रास्तों पर कार को टर्न लेते समय स्टीयरिंग पर दोनों के हाथ आपस में टकरा जाते. राकेश ने इसे सामान्य प्रक्रिया समझते हुए कभी इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया मगर प्रथमा के गाल लाल हो उठते थे.

Family Story in Hindi- खुशियों की दस्तक: भाग 3

कौस्तुभ और प्रिया का शरीर अब जर्जर होता रहा था. कहते हैं न कि आप के शरीर का स्वास्थ्य बहुत हद तक मन के सुकून और खुशी पर निर्भर करता है और जब यही हासिल न हो तो स्थिति खराब होती चली जाती है. यही हालत थी इन दोनों की. मन से एकाकी, दुखी और शरीर से लाचार. बस एकदूसरे की खातिर दोनों जी रहे थे. पूरी ईमानदारी से एकदूसरे का साथ दे रहे थे. एक दिन दोनों बाहर बालकनी में बैठे थे, तो एक महिला अपने बच्चे के साथ उन के घर की तरफ आती दिखी. कौस्तुभ सहसा ही बोल पड़ा, ‘‘उस बच्चे को देख रही हो प्रिया, हमारा पोता भी अब इतना बड़ा हो गया होगा न? अच्छा है, उसे हमारा चेहरा देखने को नहीं मिला वरना मोहित की तरह वह भी डर जाता,’’ कहतेकहते कौस्तुभ की पलकें भीग गईं. प्रिया क्या कहती वह भी सोच में डूब गई कि काश मोहित पास में होता.

तभी दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों की तंद्रा टूटी. दरवाजा खोला तो सामने वही महिला खड़ी थी, बच्चे की उंगली थामे. ‘‘क्या हुआ बेटी, रास्ता भूल गईं क्या?’’ हैरत से देखते हुए प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं मांजी, रास्ता नहीं भूली, बल्कि सही रास्ता ढूंढ़ लिया है,’’ वह महिला बोली. वह चेहरे से विदेशी लग रही थी मगर भाषा, वेशभूषा और अंदाज बिलकुल देशी था. प्रिया ने प्यार से बच्चे का माथा चूम लिया और बोली, ‘‘बड़ा प्यारा बच्चा है. हमारा पोता भी इतना ही बड़ा है. इसे देख कर हम उसे ही याद कर रहे थे. लेकिन वह तो इतनी दूर रहता है कि हम आज तक उस से मिल ही नहीं पाए.’’

‘‘इसे भी अपना ही पोता समझिए मांजी,’’ कहती हुई वह महिला अंदर आ गई.

‘‘बेटी, हमारे लिए तो इतना ही काफी है कि तू ने हमारे लिए कुछ सोचा. कितने दिन गुजर जाते हैं, कोई हमारे घर नहीं आता. बेटी, आज तू हमारे घर आई तो लग रहा है, जैसे हम भी जिंदा हैं.’’

‘‘आप सिर्फ जिंदा ही नहीं, आप की जिंदगी बहुत कीमती भी है,’’ कहते हुए वह महिला सोफे पर बैठ गई और वह बच्चा भी प्यार से कौस्तुभ के बगल में बैठ गया. सकुचाते हुए कौस्तुभ ने कहा, ‘‘अरे, आप का बच्चा तो मुझे देख कर बिलकुल भी नहीं घबरा रहा.’’

ये भी पढ़ें- Family Story in Hindi: अगली बार कब

‘‘घबराने की बात ही क्या है अंकल? बच्चे प्यार देखते हैं, चेहरा नहीं.’’ ‘‘यह तो तुम सही कह रही हो बेटी पर विश्वास नहीं होता. मेरा अपना बच्चा जब इस की उम्र का था तो बहुत घबराता था मुझे देख कर. इसीलिए मेरे पास आने से डरता था. दादादादी के पास ही उस का सारा बचपन गुजरा था.’’

‘‘मगर अंकल हर कोई ऐसा नहीं होता. और मैं तो बिलकुल नहीं चाहती कि हमारा सागर मोहित जैसा बने.’’ इस बात पर दोनों चौंक कर उस महिला को देखने लगे, तो वह मुसकरा कर बोली, ‘‘आप सही सोच रहे हैं. मैं दरअसल आप की बहू सारिका हूं और यह आप का पोता है, सागर. मैं आप को साथ ले जाने के लिए आई हूं.’’ उस के बोलने के लहजे में कुछ ऐसा अपनापन था कि प्रिया की आंखें भर आईं. बहू को गले लगाते हुए वह बोली, ‘‘मोहित ने तुझे अकेले क्यों भेज दिया? साथ क्यों नहीं आया?’’ ‘‘नहीं मांजी, मुझे मोहित ने नहीं भेजा मैं तो उन्हें बताए बगैर आई हूं. वे 2 महीने के लिए पैरिस गए हुए हैं. मैं ने सोचा क्यों न इसी बीच आप को घर ले जा कर उन को सरप्राइज दे दूं. ‘‘मोहित ने आज तक मुझे बताया ही नहीं था कि मेरे सासससुर अभी जिंदा हैं. पिछले महीने इंडिया से आए मोहित के दोस्त अनुज ने मुझे आप लोगों के बारे में सारी बातें बताईं. फिर जब मैं ने मोहित से इस संदर्भ में बात करनी चाही तो उस ने मेरी बात बिलकुल ही इग्नोर कर दी. तब मुझे यह समझ में आ गया कि वह आप से दूर रहना क्यों चाहता है और क्यों आप को घर लाना नहीं चाहता.’’

‘‘पर बेटा, हम तो खुद भी वहां जाना नहीं चाहते. हमें तो अब ऐसी ही जिंदगी जीने की आदत हो गई है,’’ कौस्तुभ बोला.

ये भी पढ़ें- Romantic Story in Hindi- लियो: आखिर जोया का क्या कुसूर था

‘‘मगर डैडी, आज हम जो खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं, सब आप की ही देन है और अब हमारा फर्ज बनता है कि हम भी आप की खुशी का खयाल रखें. जिस वजह से मोहित आप से दूर हुए हैं, मैं वादा करती हूं, वह वजह ही खत्म कर दूंगी.’’ ‘‘मेरे अंकल एक बहुत ही अच्छे कौस्मैटिक सर्जन हैं और वे इस तरह के हजारों केस सफलतापूर्वक डील कर चुके हैं. कितना भी जला हुआ चेहरा हो, उन का हाथ लगते ही उस चेहरे को नई पहचान मिल जाती है. वे मेरे अपने चाचा हैं. जाहिर है कि वे आप से फीस भी नहीं लेंगे और पूरी एहतियात के साथ  इलाज भी करेंगे. आप बस मेरे साथ सिंगापुर चलिए. मैं चाहती हूं कि हमारा बच्चा दादादादी के प्यार से वंचित न रहे. उसे वे खुशियां हासिल हों जिन का वह हकदार है. मैं नहीं चाहती कि वह मोहित जैसा स्वार्थी बने और हमारे बुढ़ापे में वैसा ही सुलूक करे जैसा मोहित कर रहा है’’ प्रिया और कौस्तुभ स्तंभित से सारिका की तरफ देख रहे थे. जिंदगी ने एक बार फिर करवट ली थी और खुशियों की धूप उन के आंगन में सुगबुगाहट लेने लगी थी. बेटे ने नहीं मगर बहू ने उन के दर्द को समझा था और उन्हें उन के हिस्से की खुशियां और हक दिलाने आ गई थी.

Family Story in Hindi: विश्वास- भाग 3: क्या अंजलि अपनी बिखरती हुई गृहस्थी को समेट पाई?

अंजलि को बेटी का सवाल सुन कर तेज झटका लगा. उस ने अपना सिर झुका लिया. शिखा आगे एक भी शब्द न बोल कर अपने कमरे में लौट गई. दोनों मांबेटी ने तबीयत खराब होने का बहाना बना कर रात का खाना नहीं खाया. शिखा के नानानानी को उन दोनों के उखडे़ मूड का कारण जरा भी समझ में नहीं आया.

उस रात अंजलि बहुत देर तक नहीं सो सकी. अपने पति के साथ चल रहे मनमुटाव से जुड़ी बहुत सी यादें उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा रही थीं. शिखा द्वारा लगाए गए आरोप ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया था.

राजेश ने कभी स्वीकार नहीं किया था कि अपने दोस्त की विधवा के साथ उस के अनैतिक संबंध थे. दूसरी तरफ आफिस में काम करने वाली 2 लड़कियों और राजेश के दोस्तों की पत्नियों ने इस संबंध को समाप्त करवा देने की चेतावनी कई बार उस के कानों में डाली थी.

राजेश ने उसे प्यार से डांट कर भी खूब समझाया

तब खूबसूरत सीमा को अपने पति के साथ खूब खुल कर हंसतेबोलते देख अंजलि जबरदस्त ईर्ष्या व असुरक्षा की भावना का शिकर रहने लगी.

राजेश ने उसे प्यार से व डांट कर भी खूब समझाया पर अंजलि ने साफ कह दिया, ‘मेरे मन की सुखशांति, मेरे प्यार व खुशियों की खातिर आप को सीमा से हर तरह का संबंध समाप्त कर लेना होगा.’

‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से अपनी नजरों में गिर जाऊं. मैं कुसूरवार हूं ही नहीं, तो सजा क्यों भोगूं? अपने दिवंगत दोस्त की पत्नी को मैं बेसहारा नहीं छोड़ सकता हूं. तुम्हारे बेबुनियाद शक के कारण मैं अपनी नजरों में खुद को गिराने वाला कोई कदम नहीं उठाऊंगा,’ राजेश के इस फैसले को अंजलि किसी भी तरह से नहीं बदलवा सकी.

पहले अपने पति और अब अपनी बेटी के साथ हुए टकरावों में अंजलि को बड़ी समानता नजर आई. उस ने सीमा को ले कर राजेश पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया था और शिखा ने कमल को ले कर खुद उस पर.

ये भी पढ़ें- Crime Story: जिस्म के सौदागर

वह अपने को सही मानती थी, जैसे अब शिखा अपने को सही मान रही थी. वहां राजेश अपराधी के कटघरे में खड़ा हो कर सफाई देता था और आज वह अपनी बेटी को सफाई देने के लिए मजबूर थी.

अपने दिल की बात वह अच्छी तरह जानती थी. उस के मन में कमल को ले कर रत्ती भर भी गलत तरह का आकर्षण नहीं था. इस मामले में शिखा पूरी तरह गलत थी.

तब सीमा व राजेश के मामले में क्या वह खुद गलत नहीं हो सकती थी? इस सवाल से जूझते हुए अंजलि ने सारी रात करवटें बदलते हुए गुजार दी.

अगली सुबह शिखा के जागते ही अंजलि ने अपना फैसला उसे सुना दिया, ‘‘अपना सामान बैग में रख लो. नाश्ता करने के बाद हम अपने घर लौट रहे हैं.’’

अंजलि ने उसे अपने सीने से लगा लिया

‘‘ओह, मम्मी. यू आर ग्रेट. मैं बहुत खुश हूं,’’ शिखा भावुक हो कर उस से लिपट गई.

अंजलि ने उस के माथे का चुंबन लिया, पर मुंह से कुछ नहीं बोली. तब शिखा ने धीमे स्वर में उस से कहा, ‘‘गुस्से में आ कर मैं ने जो भी पिछले दिनों आप से उलटासीधा कहा है, उस के लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूं. आप का फैसला बता रहा है कि मैं गलत थी. प्लीज मम्मा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

अंजलि ने उसे अपने सीने से लगा लिया. मांबेटी दोनों की आंखों में आंसू भर आए. पिछले कई दिनों से बनी मानसिक पीड़ा व तनाव से दोनों पल भर में मुक्त हो गई थीं.

उस के बुलावे पर वंदना उस से मिलने घर आ गई. कमल के आफिस चले जाने के कारण अंजलि के लौटने की खबर कमल तक नहीं पहुंची.

वंदना को अंजलि ने अकेले में अपने वापस लौटने का सही कारण बताया, ‘‘पिछले दिनों अपनी बेटी शिखा के कारण राजेश और सीमा को ले कर मुझे अपनी एक गलती…एक तरह की नासमझी का एहसास हुआ है. उसी भूल को सुधारने को मैं राजेश के पास बेशर्त वापस लौट रही हूं.

ये भी पढ़ें- Romantic Story- कायरता का प्रायश्चित्त

‘‘सीमा के साथ उस के अनैतिक संबंध नहीं हैं, मुझे राजेश के इस कथन पर विश्वास करना चाहिए था, पर मैं और लोगों की सुनती रही और हमारे बीच प्रेम व विश्वास का संबंध कमजोर पड़ने लगा.

‘‘अगर राजेश निर्दोष हैं तो मेरा झगड़ालू रवैया उन्हें कितना गलत और दुखदायी लगता होगा. बिना कुछ अपनी आंखों से देखे, पत्नी का पति पर विश्वास न करना क्या एक तरह का विश्वासघात नहीं है?

‘‘मैं राजेश को…उन के पे्रम को खोना नहीं चाहती हूं. हो सकता है कि सीमा और उन के बीच गलत तरह के संबंध बन गए हों, पर इस कारण वह खुद भी मुझे छोड़ना नहीं चाहते. उन के दिल में सिर्फ मैं रहूं, क्या अपने इस लक्ष्य को मैं उन से लड़झगड़ कर कभी पा सकूंगी?

‘‘वापस लौट कर मुझे उन का विश्वास फिर से जीतना है. हमारे बीच प्रेम का मजबूत बंधन फिर से कायम हो कर हम दोनों के दिलों के घावों को भर देगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है.’’

अंजलि की आंखों में दृढ़निश्चय के भावों को पढ़ कर वंदना ने उसे बडे़ प्यार से गले लगा लिया.

Family Story in Hindi- अपना अपना रास्ता: भाग 4

वे क्रोध से भनभना उठते. दिलदिमाग सब सुन्न हो जाते. किस मुंह से उन के आरोपों का खंडन करते, जबकि वे स्वयं जानते थे कि इंद्रा के चरित्र को ले कर शहरभर में जो चर्चाएं होती थीं वे नितांत कपोलकल्पित नहीं थीं. अकसर आधीआधी रात को, अनजान अपरिचित लोगों की गाडि़यां इंद्रा को छोड़ने आती थीं. एक से एक खूबसूरत और बढि़या साडि़यां उस के शरीर की शोभा बढ़ातीं, जिन्हें वह लोगों के दिए उपहार बताती. क्यों आते थे वे लोग? क्यों देते थे वे सब कीमती उपहार? किस मुंह से लोगों के व्यंग्य और तानों को काटने का साहस करते?

इंद्रा को वे समझाने का यत्न करते तो पत्थर की तरह झनझनाता स्वर कानों से टकराता, ‘दुनिया के पास काम ही क्या है सिवा बकने के. लोगों की बकवास से डर कर मैं अपना मानवसेवा का काम नहीं छोड़ सकती.’

‘तुम जिसे मानवसेवा कहती हो, इंद्रा, वह तुम्हारी नाम और प्रशंसा की भूख है. जिन के पास करने को कुछ नहीं होता, उन धनी लोगों के ये चोंचले हैं. हमारीतुम्हारी असली मानवसेवा है अपने विनोद, प्रमोद और अचला को पढ़ालिखा कर कर इंसान बनाना, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना, उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक बनाना. पहले इंसान को अपना घर संवारना चाहिए. यह नहीं कि अपने घर में आग लगा कर दूसरों के घरों में प्रकाश फैलाओ.’

‘उफ, किस कदर संकीर्ण विचार हैं तुम्हारे, अपना घर, अपने बच्चे, अपना यह, अपना वह…तुम्हें तो सोलहवीं सदी में पैदा होना चाहिए था जब औरतों को सात कोठरियों में बंद कर के रखा जाता था. मुझे तो शर्म आती है किसी को यह बताते हुए कि मैं तुम जैसे मेढक की पत्नी हूं.’

ये भी पढ़ें- Family Story: दो टकिया दी नौकरी

कुएं का मेढक, संकीर्ण विचार, मानवसेवा…जैसे वे बहरे होते जा रहे थे. उन की इच्छाएं, आकांक्षाएं, स्वाभिमान सब राख के ढेर में बदलते जा रहे थे.

घर, बाहर, दफ्तर कहीं एक पल के लिए चैन नहीं, शांति नहीं. कोई एक प्याला चाय के लिए पूछने वाला नहीं. तनमन से थकेटूटे सुरेंद्र होटलों के चक्कर लगाने लगे. एक प्याला गरम चाय और शांति से बैठ कर दो रोटी खाने की छोटीछोटी अपूर्ण इच्छाओं का दर्द शराब में डूबने लगा.

‘तुम होटल में बैठ कर गंदी शराब मुंह से लगाते हो? शर्म नहीं आती तुम्हें?’

पत्नी का अंगारा सा दहकता चेहरा सुरेंद्र शांतिपूर्वक देखते रहे थे. ‘जब तुम्हें आधीआधी रात तक पराए मर्दों के साथ घूमने में शर्म नहीं आती, तो मुझे ही लालपरी के साथ कुछ क्षण बिताने में क्यों शर्म आए? जिस का घर नहीं, द्वार नहीं, पत्नी नहीं, उस का यह सब से अच्छा साथी है. तुम अपने रास्ते चलो, मैं ने भी अपना रास्ता चुन लिया है. अब कोई किसी की राह का रोड़ा नहीं बनेगा. जब तुम मुझ से बंध कर न रह सकीं तो मैं ही तुम से बंधने को क्यों विवश होऊं?’ उन के चहेरे पर खेलती व्यंग्यात्मक मुसकान इंद्रा को अंदर तक सुलगा गई थी. पांव पटकती हुई वह बाहर निकल गई थी.

फिर एक दिन सुना था कि वे अपनी 17 वर्षीय अविवाहित बेटी अचला के होने वाले शिशु का नाना बनने वाले थे. सुन कर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ था. वे जानते थे इंद्रा ने जिस खुली हवा में बच्चों को छोड़ा था वह एक दिन अवश्य रंग लाएगी. जबजब उन्होंने अचला को विनोद और प्रमोद के आवारा दोस्तों के साथ घूमनेफिरने से टोका था, वह अनसुना कर गई थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उन पर बुरी तरह झल्ला उठी थी, ‘पापा, आप अपनी शिक्षा और उपदेश अपने पास ही रखिए. मैं अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हूं. आप की तरह संकीर्ण विचारों वाली बन कर मैं दुनिया में जीना नहीं चाहती. जब मम्मी हम लोगों को कुछ नहीं कहतीं, फिर आप…’

15-20 दिनों के लिए मांबेटी कोलकाता गई थीं. जब वापस आईं तो अचला अपना लुटा कौमार्य फिर से वापस लौटा लाई थी, खुली हवा में और अधिक आजादी से घूमने के लिए.

कितनी सरलता से इंद्रा ने इतनी बड़ी समस्या से छुटकारा पा लिया था. ‘तुम समझते हो, हमारी अचला ने जैसे कोई अनहोनी बात कर डाली है. आएदिन मेरे पास ऐसे कितने ही मामले आते रहते हैं. मैं इन से निबटना भी अच्छी तरह जानती हूं. बच्चों से गलती हो जाती है. गलती नहीं करेंगे तो सीखेंगे कैसे?’

शराब की मात्रा और अधिक बढ़ गई थी. वे जानते थे, जिस रास्ते पर वे जा रहे थे वह उन्हें विनाश की ओर ले जा रहा था. मदिरा उन्हें कुछ क्षणों के लिए मानसिक तनाव से छुटकारा दिला सकती थी, उन के थके, टूटे तनमन को प्रेम से जोड़ नहीं सकती थी. स्नेह, विश्वास, शांति के अभाव ने आज उन्हें फूल की एकएक पंखुड़ी की तरह मसलकुचल कर 50 वर्ष की आयु में ही मौत के कगार पर ला पटका था.

डाक्टर कहते हैं, कुछ दिनों में ठीक हो कर वे फिर से घर जा सकेंगे. लेकिन वे जानते हैं, अब कभी घर नहीं लौट सकेंगे. लौटना भी नहीं चाहते. कौन है वहां जिस की ममता के बंधन उन्हें वापस लौटा लाने के लिए विवश करें? पत्नी, बेटे, बेटी? कौन?

दिल काबू से बाहर हुआ जा रहा था. सिर से पैर तक वे पसीने में नहा गए थे. ‘‘सिस्टर, सिस्टर,’’ उन्होंने घंटी पर हाथ मारा, ‘‘सिस्टर, पानी…’’

ये भी पढ़ें- Crime Story: जिस्म के सौदागर

अस्पताल से निकल कर इंद्रा ने तेजी से गाड़ी घर की ओर मोड़ दी. मन में जितना आक्रोश भरा था, उसी के अनुपात में गाड़ी का ऐक्सीलेटर तेज होता गया. इस व्यक्ति ने उसे कभी नहीं समझा, समझने की कोशिश ही नहीं की. ज्योंज्यों वह यश और प्रशस्ति के पथ पर बढ़ती चली गई, यह उन से कटता चला गया.

आज शहर में उस का कितना मान और आदर है. क्या नहीं है उस के पास? सरकारी गाड़ी, बंगला, महंगे मोबाइल? वह जिधर से गुजर जाती है, लोग उस की एक झलक देखने के लिए ठिठक कर रुक जाते हैं. शहर में कोई ऐसा आयोजन नहीं जहां उसे सम्मानपूर्वक आमंत्रित न किया जाता हो. मान और यश के इस उच्चतम शिखर पर पहुंचने के लिए उस ने कितना त्याग, कितना परिश्रम, कितना कठिन संघर्ष किया है? और यह व्यक्ति है कि घायल शेर की तरह उसे काटने को दौड़ता है.

घर आ गया था. गाड़ी गेट से होती हुई बरामदे के सामने जा कर रुक गई.

‘‘मम्मी, तुम आ गईं,’’ दौड़ती हुई अचला आ कर उस के गले से लिपट गई.

इंद्रा ने सिर से पैर तक सजीधजी बिटिया को देखा. वह पिता की नाजुक हालत की खबर पा कर आई थी.

‘‘कब आई?’’

‘‘यही कोई 4 साढ़े 4 बजे के करीब.’’

‘‘अकेली आई हो?’’

‘‘क्यों, अकेली क्यों आऊंगी? रमेश भी आए हैं साथ. अब कोई पापा का डर थोड़े ही है, जो न आते.’’ पापा के न होने की प्रसन्नता उस के चेहरे पर छलकीछलकी पड़ रही थी.

इंद्रा के गले में बांहें झुलाती हुई वह उसे ड्राइंगरूम में घसीट लाई. सालभर के बच्चे को पेट पर लिटाए रमेश सोफे पर पसरा पड़ा था. ‘‘उठो, रमेश, मम्मी आई हैं.’’

प्रेम ऋण- भाग 1: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

ये भी पढ़ें- कोई शर्त नहीं: भाग 1

अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

ये भी पढ़ें- कोई शर्त नहीं: भाग 2

मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

हकीकत- भाग 2: क्या रश्मि की मां ने शादी की मंजूरी दी?

राइटर- सोनाली करमरकर

रश्मि घर की कमाने वाली अकेली सदस्य थी, जाहिर था कि हर बात उसे पूछ कर की जाती थी. लिहाजा, वह घर के हालात और ठीक करने के लिए जीजान से जुट गई.

समय ‍बीतता गया. भाईबहन बड़े हो गए. मम्मी ने रश्मि से सलाहमशवरा कर के छोटी बेटी की शादी सीधेसादे अभय से कर दी.

पहले तो रश्मि ने कभी इस बात पर गौर नहीं किया, लेकिन अब जब उस की छोटी बहन घर आती और अपने पति और ससुराल वालों के गुण गाती, तो रश्मि को भी शादी करने की चाहत होने लगी.

एक दिन रश्मि ने शरमाते हुए मम्मी से बात छेड़ी. पापा पीछे खड़े हो कर सब सुन रहे थे.

“कैसी बात करती हो बेटी? घर में तुम अकेली कमाने वाली हो. अभी तो तुम्हारा भाई पढ़ रहा है. तुम शादी कर के चली गई, तो हमारा सहारा चला जाएगा. 1-2 साल और रुक जाओ. जब तुम्हारे भाई की नौकरी लगेगी, तो हम तुम्हारा भी ब्याह कर देंगे,” पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- Short Story: जवाब ब्लैकमेल का

दिन यों ही बीतते रहे, मौसम बदलते रहे. रश्मि हमेशा सोचती, ‘बस और थोड़ा इंतजार… फिर मेरी जिंदगी में भी बहारें होंगी…’

मगर… बहारें तो आईं, लेकिन रश्मि की जिंदगी में नहीं, भाई की जिंदगी में.

हालात ने अजीब सी करवट ली. घर में रहने वाली पैसों की तंगी के चलते भाई अलग रहना चाहता था. जिस दिन उसे पहली तनख्वाह मिली, उस ने मम्मी के सामने एक लड़की ला कर खड़ी कर दी और बोला, “मम्मी, यह है तुम्हारी होने वाली बहू. मैं अपनी नौकरी लगने तक रुका था. मैं दीदी पर एक और बोझ नहीं डालना चाहता. हम दोनों अगले महीने कोर्ट मैरिज कर रहे हैं…”

“अरे वाह बेटा, अच्छी है तुम्हारी पसंद. मुझे बहू अच्छी लगी. लेकिन बेटा, पहले हमें रश्मि के बारे में सोचना चाहिए. उस की भी तो उम्र बढ़ रही है. पहले उस के हाथ पीले कर दें, बाद में तुम्हारी शादी…”

“एक मिनट मम्मी, हम… मेरा मतलब है कि मैं और मेरी पत्नी शादी के बाद अलग रहने वाले हैं.”

“यह क्या कह रहा है तू ?” मां ने हैरानी से पूछा.

“हां मम्मी, मैं तंग आ गया हूं बचपन से गरीबी में रह कर. अब मैं खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं. दीदी की शादी की उम्र अब वैसे भी गुजर चुकी हे. उन के लिए तुम्हें कहां रिश्ता मिलने वाला है? जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो.

ये भी पढ़ें- बदला: सुगंधा ने कैसे लिया रमेश से बदला

“और हां, ध्यान से सुनो… हम दोनों शादी के बाद सीधे हमारे नए घर में चले जाएंगे. हम ने अपने लिए घर देख रखा है. मुझ से किसी बात की उम्मीद मत रखना. हम अब चलते हैं. सीमा को उस के घर छोड़ कर मुझे किसी काम से जाना है,” बात खत्म कर के भाई अपनी मंगेतर सीमा के साथ वहां से चलने को हुआ.

वे दोनों कमरे से बाहर आए तो रश्मि को वहां खड़ी देख कर आंखें चुरा कर निकल गए. भाई को इस तरह से जाते देख कर रश्मि निढाल सी सोफे पर गिर पड़ी. उसे जिंदगी की सारी खुशियां हाथों से छूटती नजर आईं… अपने लोगों का इस तरह रंग बदलना उस के मन में एक सवालिया निशान छोड़ गया.

जिस दिन भाई घर से निकला उस रात कोई भी नहीं सो सका. मम्मी पापा से कह रही थीं, “कैसे करेंगे अब? बेटे ने तो पल्ला झाड़ लिया. वह हमारे बुढ़ापे का सहारा था. बेटी की शादी कैसे करेंगे अब? हमारे पास तो पूंजी भी नहीं है…”

“यहां हमारे खाने के लाले पड़े हैं और तुम्हें बेटी की शादी की पड़ी है? भूल जाओ अब उस की शादी. जिंदगी जिस रफ्तार से चल रही है उसे ऐसे ही चलने दो. उम्र गुजर गई है अब रश्मि की शादी की.

“हर बार लड़का ही सहारा हो, यह जरूरी तो नहीं. लड़की भी तो घर का सहारा बन सकती है. बेटी को पालना अगर हमारा फर्ज है, तो उस का भी फर्ज है हमारा सहारा बनने का. अब सो जाओ,” कह कर उन्होंने करवट बदली, पर सामने रश्मि को देख कर वे चौंक गए.

“अरे, मैं तो बस यों ही गुस्से में कह रहा था. आज बेटे ने साथ छोड़ा है तो जरा सा मायूस हूं, लेकिन तू फिक्र मत कर. सब ठीक हो होगा. एक दिन तुम्हें भी विदा करूंगा. मैं कुछ न कुछ सोचता हूं…” पापा ने बात संभाल तो ली, पर उन के कौन से रूप पर भरोसा करे, रश्मि समझ नहीं पाई.

ये भी पढ़ें- Romantic Story- लव इन मालगाड़ी: मालगाड़ी में पनपा मंजेश और ममता का प्यार

घर के खर्चे अब काफी कम हो गए थे. रश्मि की तनख्वाह बढ़ गई थी. मम्मी थोड़ेथोड़े पैसे जमा करती रहीं. पति को हो न हो, उन्हें अपने बेटी की जरूर फिक्र थी.

एक दिन लड़के वाले रश्मि को देखने आए. लड़कलड़की ने एकदूसरे को पसंद किया. बात आगे बढ़ती गई.

हरिराम- भाग 1: शशांक को किसने सही राह दिखाई

शशांक अपने आफिस में काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘साहब, आप को बनर्जी बाबू याद कर रहे हैं.’’ उत्पल बनर्जी कंपनी के निदेशक थे. पीठ पीछे उन्हें सभी बंगाली बाबू कह कर संबोधित करते थे. कंपनी विद्युत संयंत्रों की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का काम करती थी. कंपनी के अलगअलग प्रांतों में विद्युत निगमों के साथ प्रोजेक्ट थे. शशांक इस कंपनी में मैनेजर था.

‘‘यस सर,’’ शशांक ने बनर्जी साहब के कमरे में जा कर कहा. ‘‘आओ शशांक,’’ इतना कह कर उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया.

शशांक के दिमाग में खतरे की घंटी बज उठी. उसे लगा कि उस की हालत उस बकरे जैसी है जिसे पूरी तरह सजासंवार दिया गया है और बस, गर्दन काटने के लिए ले जाना बाकी है. शशांक ने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और चुपचाप कुरसी पर बैठ गया. ‘‘तुम्हारा फरीदाबाद का प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है?’’

ये भी पढ़ें- डायन : दूर हुआ गेंदा की जिंदगी का अंधेरा

‘‘सर, बहुत अच्छा चल रहा है. निर्धारित समय पर काम हो रहा है और भुगतान भी ठीक समय से हो रहा है.’’ ‘‘बहुत अच्छा है. मुझे तुम से यही उम्मीद थी, पर मैं तुम्हें ऐसा काम देना चाहता हूं जो सिर्फ तुम ही कर सकते हो.’’

शशांक चुपचाप बैठा अपने निदेशक मि. बनर्जी को देखता रहा. उसे लगा कि बस, गर्दन पर तलवार गिरने वाली है. ‘‘शशांक, तुम्हें तो पता है कि लखनऊ वाले प्रोजेक्ट में कंपनी की बदनामी हो रही है. भुगतान बंद हो चुका है. हमें पैसा वापस करने का नोटिस भी मिल चुका है. मैं चाहता हूं कि तुम वह काम देखो.’’

‘‘लेकिन वह काम तो जतिन गांगुली देख रहे हैं,’’ शशांक ने कहा. ‘‘मैं ने फैसला किया है कि अब कंपनी के हित में लखनऊ का प्रोजेक्ट तुम देखोगे और जतिन गांगुली फरीदाबाद का प्रोजेक्ट संभालेगा.’’

शशांक की इच्छा हुई कि कह दे कि उस के साथ इसलिए ज्यादती हो रही है क्योंकि वह बंगाली नहीं है. उस ने सोचा कि कंपनी अध्यक्ष से जा कर मिले पर उसे याद आया कि कंपनी अध्यक्ष सेनगुप्ता साहब भी बंगाली हैं. वह भी बंगाली का ही साथ देंगे. शशांक अपने केबिन में जाने से पहले अपनी सहकर्मी वंदना के केबिन पर रुका.

‘‘वंदना, चलो काफी पीते हैं. मुझे तुम से कुछ पर्सनल बात करनी है.’’ काफी पीतेपीते शशांक ने उसे सारी बात बता दी.

‘‘अगले 3 माह में प्रमोशन के लिए निर्णय लिए जाएंगे. यह मामला जतिन गांगुली के प्रमोशन का है. लखनऊ प्रोजेक्ट की जो उस ने हालत की है, उस से प्रमोशन तो दूर उसे कंपनी से निकाल देना चाहिए,’’ वंदना ने कहा. ‘‘क्या मैं सेनगुप्ता साहब से मिलूं?’’

‘‘नहीं, उस से फायदा नहीं होगा. तुम्हें लखनऊ जाना पडे़गा पर फरीदाबाद प्रोजेक्ट की फाइलों की सूची बना कर, आज की स्थिति की रिपोर्र्ट बना कर तुम जतिन गांगुली के दस्तखत ले लेना और उस की कापी सेनगुप्ता साहब को भेज देना. प्रोजेक्ट में गड़बड़ होने पर वे लोग तुम्हें दोष दे सकते हैं,’’ वंदना ने सुझाव दिया. कुछ समय तक दोनों के बीच खामोशी छाई रही.

ये भी पढ़ें- इंसाफ का अंधेरा: क्या उसे मिल पाया इंसाफ

‘‘शशांक, तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. मुझे दोस्त समझ कर सचसच बताना,’’ वंदना बोली. ‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी सरिता के बीच तनाव तो नहीं?’’ ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘पिछले हफ्ते तुम फरीदाबाद प्रोजेक्ट की मीटिंग में थे तब शाम को 8 बजे सरिता का फोन मेरे घर पर आया था. तुम्हारे बारे में पूछ रही थी.’’ शशांक को अपनी पत्नी पर क्रोध आ गया. पर उस ने कहा, ‘‘उस दिन मैं उसे बताना भूल गया था. इसलिए वह परेशान होगी.’’

‘‘शशांक, प्रोजेक्ट और प्रमोशन के बीच में अपने परिवार को मत भूलो,’’ वंदना ने गंभीरता से कहा. ‘‘आज कोई मीटिंग नहीं थी क्या? जल्दी आ गए,’’ सरिता ने शशांक के घर पहुंचने पर व्यंग्य भरे लहजे में पूछा.

शशांक के मन में क्रोध भरा हुआ था. वह बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया. ‘‘मुझे लखनऊ वाले प्रोजेक्ट पर काम दिया गया है. कल ही मैं 1 सप्ताह के लिए लखनऊ जा रहा हूं,’’ उस ने रात को खाना खाते हुए सरिता से कहा.

‘‘अकेले जा रहे हो? क्या तुम्हारी प्यारी दोस्त वंदना नहीं जा रही है?’’ शशांक को लगा कि उस के संयम की सीमा पार हो चुकी है और वह अभी सरिता के गाल पर तमाचा लगा देगा. पर वह आग्नेय नेत्रों से सरिता को देख कर आधा खाना खा कर ही उठ गया.

दूसरे दिन लखनऊ पहुंच कर शशांक कंपनी के अतिथिगृह में ठहरा, जहां उस की मुलाकात अतिथिगृह के प्रभारी हरिराम से हुई. ‘‘नमस्ते साहब,’’ हरिराम ने हाथ जोड़ कर कहा.

ये भी पढ़ें- दूसरी भूल: क्या थी अनीता की भूल

Family Story in Hindi- अपना अपना रास्ता: भाग 5

सास को देख रमेश उठ कर बैठ गया, ‘‘मम्मी, आइए. कब से हम लोग आप का इंतजार कर रहे हैं. विनोद और प्रमोद भी घर से गायब हैं. लगता है, क्लब में यारदोस्तों के साथ पत्तों में मशगूल होंगे. हम दोनों बैठेबैठे बोर हो रहे थे अकेले.’’

सोफे पर पसर कर इंद्रा ने बेटीदामाद के चेहरों पर टटोलती सी दृष्टि डाली. न कोई दुख, न उदासी. बस, एक तटस्थ सा भाव, जैसे यह भी एक औपचारिकता है. खबर मिली, चले आए. बस.

मगर दुख और चिंता का भाव आता भी तो क्योंकर? कभी बच्चों ने पिता को पिता नहीं समझा. मातापिता की कलह में विजय हमेशा मां के हाथ रही. पिता सदा से एक परित्यक्त जीवन ढोता रहा. न उस की इच्छा और रुचि की कोई चिंता करने वाला था, न उस के दुख में कोई दुखी होने वाला. घर में सब से बेकार, सब से फालतू कोई चीज यदि थी तो वह था पिता नाम का प्राणी. फिर उस के प्रति किसी प्रकार की ममता, आदर या स्नेह आता तो कैसे?

‘‘अस्पताल क्यों नहीं गए?’’ इंद्रा ने सोफे की पीठ पर बाल फैलाते हुए अचला की ओर देखा.

‘‘अस्पताल? बाप रे, कौन जाता पागल कुत्ते से कटवाने अपने को?’’ अचला ने हाथमुंह नचाते हुए टेढ़ा मुंह बनाया.

‘‘साफसाफ क्यों नहीं कहती कि पापा अस्पताल में हैं, इसलिए हम लोग आप सब से मिलने आए हैं. उन के रहते तो इस घर में पांव रखने में भी डर लगता है. मुझे कैसी खूंखार आंखों से घूरते हैं. बाप रे’’ रमेश ने बिटिया को अचला की गोद में डाल, उसे शाल उढ़ाते हुए मन की सच्ची बात उगल दी.

अचला ने पिता की इच्छा के विरुद्घ घर से भाग कर उस से शादी की थी, क्योंकि सुरेंद्र की नजरों में वह एक आवारा और गुंडा किस्म का लड़का था. इसी वजह से वह ससुर से घृणा करता था.

‘‘तुम ठीक कहते हो. आजकल वे सचमुच पागल कुत्ते की तरह काटने दौड़ते हैं. मैं ने भी फैसला कर लिया है कि अब अस्पताल नहीं जाऊंगी. शायद जाना भी न पड़े. जानते हो, डाक्टर कहते हैं, वे 2-4 दिन के मेहमान हैं.’’

ये  भी पढ़ें- Romantic Story- अटूट प्यार: यामिनी से क्यों दूर हो गया था रोहित

इंद्रा ने चाय का घूंट निगलते हुए अचला की ओर देखा, ‘‘पहला दौरा उन्हें तब हुआ था जब विनोद कालेज से उषा को भगा कर मुंबई में बेच आया था. 3 दिनों तक वे घर नहीं आए थे. तीसरे दिन पता चला था, होटल में शराब पीतेपीते उन्हें दौरा पड़ा था. वहीं से उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया गया था. और अब तुम्हारे जाने के बाद उन के इस दूसरे दौरे ने उन के दिल की धज्जियां उड़ा दी हैं. मैं तो आज तक नहीं समझ पाई इस आदमी को. क्या चाहता है, क्या सोचता है, क्या नहीं है इस के पास?’’

निर्लप्त से स्वर में बोलतेबोलते उस ने चाय का खाली प्याला मेज पर रख दिया.

रात को खापी कर देर तक ड्राइंगरूम में बैठ सब ऊधम मचाते रहे. अचला और रमेश के आगमन की सूचना पा कर उन के मित्र भी मिलने चले आए थे.

इंद्रा को सुबह 7 बजे की फ्लाइट पकड़नी थी, सो 6 बजे का अलार्म लगा कर नौकर को सब आदेश दे, वह बिस्तर में दुबक गई.

सुबह घड़ी के अलार्म की जगह मोबाइल की घंटी टनटनाई तो इंद्रा रजाई फेंक कर बिस्तर से उठ बैठी.

‘‘हैलो,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘मिस्टर सुरेंद्र अब इस दुनिया में नहीं रहे.’’

‘‘ओहो, अच्छाअच्छा.’’

मोबाइल रख कर कुछ क्षण वह जैसे निर्णय सा लेती रही, ‘इन्हें भी यही वक्त मिला था खबर देने को,’ बड़बड़ाती हुई वह गुसलखाने में घुस गई.

वहां से हाथमुंह धो कर निकली तो नौकर को पुकारा, ‘‘देखो, रामू, मेरी चाय यहीं दे जाओ और ड्राइवर से कहो गाड़ी तैयार करे. जाने का टाइम हो गया है, समझे. और हां देखो, विनोद और प्रमोद को मेरे पास भेज दो जगा कर. कहना बहुत जरूरी काम है. समझ गए?’’

‘‘जी,’’ कह कर रामू ला गया तो वह ड्रैसिंगटेबल के सामने बैठ कर जल्दीजल्दी बालों में कंघी करने लगी. जूड़ा बना कर उस ने होंठों पर लिपस्टिक फैलाई ही थी कि विनोद आंखें मलता सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘क्या बात है, मम्मी? सुबहसुबह नींद क्यों बिगाड़ दी हमारी? क्या हमें जगाए बिना आप की सवारी सैमिनार में नहीं जा सकती थी?’’

ये भी पढ़ें- Social Story: जिस्म की सफेदी

इंद्रा ने लिपस्टिक को फिनिशिंग टच दे कर बेटे के चेहरे पर आंखें टिका दीं, ‘‘तुम्हारे पापा नहीं रहे. अभीअभी अस्पताल से फोन आया है. रात को वे बहुत बेचैन रहे और सुबह कोई 4 बजे के करीब डाक्टरों की पूरी कोशिश के बावजूद उन का हार्ट सिंक कर गया.’’

‘‘क्या?’’ विनोद की अधखुली आंखें अब पूरी तरह खुल कर फैल गई थीं,  ‘‘इतनी जल्दी?’’

‘‘जल्दी क्या? उन्होंने तो अपनी मौत खुद बुलाई है. खैर, मैं ने तो तुम्हें इसलिए बुलाया है कि मैं तो जा रही हूं. रुक नहीं सकती. वचन जो दे चुकी हूं. तुम लोग रमेश अंकल को फोन कर देना. वे आ कर सब संभाल लेंगे, समझे.’’

नित्य की तरह माथे पर सुहाग चिह्न लगाने के अभ्यस्त हाथ एक क्षण के लिए कांपे. क्या अब भी यह सौभाग्य चिह्न माथे पर अंकित करना चाहिए?

ये भी पढ़ें- Romantic Story- कायरता का प्रायश्चित्त

सौभाग्य चिह्न? कैसा सौभाग्य चिह्न? क्या इस रूप में उस ने कभी इसे माथे पर अंकित किया था?

बस, अन्य सौंदर्य प्रसाधनों की तरह जैसे चेहरे पर पाउडर और होंठों पर लिपस्टिक लगाती रही, वैसे ही यह भी उस के गोरे, उजले माथे पर शोभता रहा. फिर सोचना क्या?

हवा में ठिठका उस का हाथ आगे बढ़ा और माथे पर लाल रंग की गोलमोल बिंदी टिक गई.

कैसे पति? कैसी पत्नी? जब वे अपना रास्ता नहीं छोड़ सके तो मैं ही क्यों छोड़ दूं?

साड़ी का पल्ला ठीक करती हुई वह ड्रैसिंगटेबल के सामने से उठी और पर्स उठा कर बाहर निकल गई. ‘‘देखो, विनोद, कोई पूछे तो कह देना जब खबर आई, मैं घर से जा चुकी थी, समझे.’’

पलट कर तेजतेज कदम रखती हुई वह सीढि़यां उतर कर गाड़ी में बैठ गई. अनिश्चय की स्थिति में सकपकाया सा विनोद गाड़ी को गेट से निकलते देखता रहा. क्या मम्मीपापा में कभी कोई संबंध था? यदि हां, तो फिर कौन सा?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें