अंधविश्वास की बलिवेदी पर : भाग 1- रूपल क्या बचा पाई इज्जत

‘‘अरे बावली, कहां रह गई तू?’’ रमा की कड़कती हुई आवाज ने रूपल के पैरों की रफ्तार को बढ़ा दिया.

‘‘बस, आ रही हूं मामी,’’ तेज कदमों से चलते हुए रूपल ने मामी से आगे बढ़ हाथ के दोनों थैले जमीन पर रख दरवाजे का ताला खोला.

‘‘जल्दी से रात के खाने की तैयारी कर ले, तेरे मामा औफिस से आते ही होंगे,’’ रमा ने सोफे पर पसरते हुए कहा.

‘‘जी मामी,’’ कह कर रूपल कपड़े बदल कर चौके में जा घुसी. एक तरफ कुकर में आलू उबलने के लिए गैस पर रखे और दूसरी तरफ जल्दी से परात निकाल कर आटा गूंधने लगी.

आटा गूंधते समय रूपल का ध्यान अचानक अपने हाथों पर चला गया. उसे अपने हाथों से घिन हो आई. आज भी गुरु महाराज उसके हाथों को देर तक थामे सहलाते रहे और वह कुछ न कह सकी. उन्हें देख कर कितनी नफरत होती है, पर मामी को कैसे मना करे. वे तो हर दूसरेतीसरे दिन ही उसे गुरु कमलाप्रसाद की सेवादारी में भेज देती हैं.

पहली बार जब रूपल वहां गई थी तो बड़ा सा आश्रम देख कर उसे बहुत अच्छा लगा था. खुलीखुली जगह, चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी.

खिचड़ी बालों की लंबी दाढ़ी, कुछ आगे को निकली तोंद, माथे पर बड़ा सा तिलक लगाए सफेद कपड़े पहने, चांदी से चमकते सिंहासन पर आंखें बंद किए बैठे गुरु महाराज रूपल को पहली नजर में बहुत पहुंचे हुए महात्मा लगे थे जिन के दर्शन से उस की और उस के घर की सारी समस्याओं का जैसे खात्मा हो जाने वाला था.

अपनी बारी आने पर बेखौफ रूपल उन के पास जा पहुंची थी. महाराज उस के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते हुए देर तक उसे देखते रहे.

मामी की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस दिन गुरु महाराज की कृपा उस पर औरों से ज्यादा बरसी थी.

वापसी में महाराज के एक सेवादार ने मामी के कान में कुछ कहा, जिस से उन के चेहरे पर एक चमक आ गई. तब से हर दूसरेतीसरे दिन वे रूपल को महाराज के पास भेज देती हैं.

मामी कहती हैं कि गुरु महाराज की कृपा से उस के घर के हालात सुधर जाएंगे जिस से दोनों छोटी बहनों की पढ़ाईलिखाई आसान हो जाएगी और उन का भविष्य बन जाएगा.

रूपल भी तो यही चाहती है कि मां की मदद कर उन के बोझ को कुछ कम कर सके, तभी तो दोनों छोटी बहनों और उन्हें गांव में छोड़ वह यहां मामामामी के पास रहने आ गई है.

पिछले साल जब मामामामी गांव आए थे तब अपने दुखड़े बताती मां को आंचल से आंखों के गीले कोर पोंछते देख रूपल को बड़ी तकलीफ हुई थी.

14 साल की हो चुकी थी रूपल, पर अभी भी अपने बचपने से बाहर नहीं निकल पाई थी. माली हालत खराब होने से पढ़ाई तो छूट गई थी, पर सखियों के संग मौजमस्ती अभी भी चालू थी.

ठाकुर चाचा के आम के बगीचे से कच्चे आम चुराने हों या फुलवा ताई के दालान से कांटों की परवाह किए बगैर झरबेरी के बेर तोड़ने में उस का कहीं कोई मुकाबला न था.

पर उस दिन किवाड़ के पीछे खड़ी रूपल अपनी मां की तकलीफें जान कर हैरान रह गई थी. 4 साल पहले उस के अध्यापक बाऊजी किसी लाइलाज बीमारी में चल बसे थे. मां बहुत पढ़ीलिखी न थीं इसलिए स्कूल मैनेजमैंट बाऊजी की जगह पर उन के लिए टीचर की नौकरी का इंतजाम न कर पाया. अलबत्ता, उन्हें चपरासी और बाइयों के सुपरविजन का काम दे कर एक छोटी सी तनख्वाह का जुगाड़ कर दिया था.

इधर बाऊजी के इलाज में काफी जमीन बेचनी पड़ गई थी. घर भी ठाकुर चाचा के पास ही गिरवी पड़ा था. सो, अब नाममात्र की खेतीबारी और मां की छोटी सी नौकरी 4 जनों का खर्चा पूरा करने में नाकाम थी.

रूपल को उस वक्त अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया था कि वह मां के दुखों से कैसे अनजान रही, इसीलिए जब मामी ने अपने साथ चलने के लिए पूछा तो उस ने कुछ भी सोचेसमझे बिना एकदम से हां कर दी.

तभी से मामामामी के साथ रह रही रूपल ने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था. शुरुआत में मामी ने उसे यही कहा था, ‘देख रूपल, हमारे तो कोई औलाद है नहीं, इसलिए तुझे हम ने जिज्जी से मांग लिया है. अब से तुझे यहीं रहना है और हमें ही अपने मांबाप समझना है. हम तुझे खूब पढ़ाएंगे, जितना तू चाहे.’

बस, मामी के इन्हीं शब्दों को रूपल ने गांठ से बांध लिया था. लेकिन उन के साथ रहते हुए वह इतना तो समझ गई थी कि मामी अपने किसी निजी फायदे के तहत ही उसे यहां लाई हैं. फिर भी उन की किसी बात का विरोध करे बगैर वह गूंगी गुडि़या बन मामी की सभी बातों को मानती चली जा रही थी ताकि गांव में मां और बहनें कुछ बेहतर जिंदगी जी सकें.

रूपल को यहां आए तकरीबन 6-8 महीने हो चुके थे, लेकिन मामी ने उस का किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं कराया था, बल्कि इस बीच मामी उस से पूरे घर का काम कराने लगी थीं.

मामा काम के सिलसिले में अकसर बाहर रहा करते थे. वैसे तो घर के काम करने में रूपल को कोई तकलीफ नहीं थी और रही उस की पढ़ाई की बात तो वह गांव में भी छूटी हुई थी. उसे तो बस मामी के दकियानूसी विचारों से परेशानी होती थी, क्योंकि वे बड़ी ही अंधविश्वासी थीं और उस से उलटेसीधे काम कराया करती थीं.

वे कभी आधा नीबू काट कर उस पर सिंदूर लगा कर उसे तिराहे पर रख आने को कहतीं तो कभी किसी पोटली में कुछ बांध कर आधी रात को उसे किसी के घर के सामने फेंक कर आने को कहतीं. महल्ले में किसी से उन की ज्यादा पटती नहीं थी.

मामी की बातें रूपल को चिंतित कर देती थीं. वह भले ही गांव की रहने वाली थी, पर उस के बाऊजी बड़े प्रगतिशील विचारों के थे. उन की तीनों बेटियां उन की शान थीं.

गांव के माहौल में 3-3 लड़कियां होने के बाद भी उन्हें कभी इस बात की शर्मिंदगी नहीं हुई कि उन के बेटा नहीं है. उन के ही विचारों से भरी रूपल इन अंधविश्वासों पर बिलकुल यकीन नहीं करती थी. पर न चाहते हुए भी उसे मामी के इन ढकोसलों का न सिर्फ हिस्सा बनना पड़ता, बल्कि उन्हें मानने को भी मजबूर होना पड़ता. क्योंकि अगर वह इस में जरा भी आनाकानी करती तो मामी तुरंत उस की मां को फोन लगा कर उस की बहुत चुगली करतीं और उस के लिए उलटासीधा भिड़ाया करतीं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

औनर किलिंग- भाग 1: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

हत्या की सूचना पाकर पुलिस जब एक पुरानी फैक्टरी के पास पहुंची, तो उसे वहां खून से सनी एक लाश मिली. मरने वाला शख्स यही कोई 25-26 साल का नौजवान था. हत्यारे ने बड़ी बेरहमी से उस की हत्या की थी. पुलिस को यही लग रहा था कि हत्या लूट के चलते की गई थी, लेकिन सीसीटीवी फुटेज देखने पर पता चला है कि हत्या किसी लूट के इरादे से नहीं, बल्कि आपसी रंजिश के चलते हुई थी.

हत्या करने वाला एक नहीं, बल्कि  2 आदमी थे और दोनों के हाथों में धारदार चाकू थे. उन दोनों आदमियों ने उस नौजवान की बहुत पिटाई की थी. वह अपने दोनों हाथ जोड़ कर जान की भीख मांगता दिख रहा था, मगर उन दोनों ने बारीबारी से उस के पेट में चाकू से इतने वार किए कि मौके पर ही उस की मौत हो गई.

पुलिस को वहां गुनाह के कोई सुबूत नहीं मिल पाए और न ही गुनाहगारों की कोई पहचान हो पाई, क्योंकि दोनों  हत्यारों का चेहरा पूरी तरह से ढका  हुआ था.

गुनाहगारों की केवल 2 आंखें ही दिखाई दे रही थीं. उन दोनों ने अपने हाथों में दस्ताने पहने हुए थे और पैरों में जूते, इसलिए पुलिस पता नहीं लगा पा रही थी कि हत्यारे कौन हैं और उन्हें कैसे पकड़ा जाए?

बहुत खोजबीन करने के बाद पास की  झाडि़यों में पुलिस को खून लगी कमीज, जींस और चाकू पड़ा मिला, जिस से उस शख्स की हत्या की गई थी. लेकिन फिर भी यह कैसे पता लगाया जाए कि गुनाहगार कौन है?

उस पुरानी फैक्टरी के आसपास और सड़कों पर पुलिस के कुत्ते भी दौड़ाए गए, लेकिन हर बार वे कुछ दूर जा कर लौट आते थे. इस का मतलब यही था कि वे हत्यारे किसी गाड़ी में बैठ कर वहां से भाग गए होंगे, ऐसा पुलिस अंदाजा लगा रही थी.

मरने वाले शख्स की जेब से एक पर्स मिला, जिस से यही पता चल पाया कि उस नौजवान का नाम अतुल्य था और वह पास के ही एक गांव का रहने वाला था. उस के आइडैंटिटी कार्ड से पता चला कि वह एक कंपनी में नौकरी करता था और शायद छुट्टी में अपने गांव आ रहा था और रास्ते में ही उस के साथ यह वारदात हो गई.

जांचपड़ताल के लिए पुलिस जब उस के गांव पहुंची, तो पता चला कि अतुल्य अपने बूढ़े मांबाप का एकलौता बेटा था.

बेटे की मौत की खबर सुन कर उस की मां तो वहीं खड़ेखड़े ही बेहोश हो कर गिर पड़ीं और पिता जहां खड़े थे, वहीं जड़ हो गए.

पुलिस की गाड़ी देख कर गांव के बहुत से लोग भी वहां जुट गए और  यह सुन कर वे भी हैरान रह गए.

गांव की एक बुजुर्ग औरत ने अतुल्य की मां के चेहरे पर पानी की छींटें मारीं और उन्हें होश में लाईं. बेटे की मौत की सोच कर मां अपनी छाती पीटपीट कर यह बोल कर रोने लगीं, ‘‘हाय, अपने बेटे के जन्मदिन पर मैं ने उस के लिए खीर बनाई थी. मैं तो उस का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या हो गया? उस ने किस का क्या बिगाड़ा था? क्यों किसी ने मेरे एकलौते सहारे को मु झ से छीन लिया?’’

दूसरी तरफ पुलिस के बहुत पूछने पर अतुल्य के पिता फफकफफक कर रोते हुए बताने लगे, ‘‘हमारा बेटा एक कंपनी में नौकरी करता था. आज वह गांव आने वाला था, क्योंकि आज उस का जन्मदिन था और हम बड़ी बेसब्री से उस का इंतजार कर रहे थे.

‘‘वह तो बहुत सीधासरल लड़का था. कभी किसी से मुंह उठा कर बात भी नहीं करता था, फिर कौन उस का दुश्मन हो सकता है और क्यों मारा हमारे बेटे को?’’

बूढ़े मांबाप को रोतेबिलखते देख इंस्पैक्टर माधव भी भावुक हो गए. अतुल्य के मांबाप को हिम्मत बंधा कर पुलिस यह बोल कर वहां से चली गई कि जल्द ही हत्यारों को उन के गुनाह की सजा जरूर मिलेगी.

पुलिस हर तरह से जांच कर के थक गई, पर उन हत्यारों का कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था. आखिर हत्या की कोई तो वजह होगी न? कोई पागल तो नहीं होगा, जो आ कर यों ही किसी के पेट में चाकू मार कर भाग जाएगा?

फुटेज में साफसाफ दिख रहा था कि पूरी साजिश के तहत उस लड़के की हत्या की गई थी. हत्यारे पूरी तैयारी के साथ आए थे.

इस हत्या की वजह से पुलिस की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया था. ऊपर से दबाव आ रहा था, सो अलग. पुलिस अब निराश हो चली थी. लग रहा था कि अब यह केस कभी सुल झेगा ही नहीं.

तभी एक दिन पुलिस स्टेशन में दौड़तीहांफती एक लड़की दाखिल हुई और कहने लगी कि इस हत्या के बारे में उसे पता है. वह जानती है कि अतुल्य की हत्या किस ने की है.

23-24 साल की वह दुबलीपतली लड़की बहुत डरी हुई थी. वह अपने दुपट्टे से बारबार अपना मुंह पोंछ रही थी और पीछे मुड़मुड़ कर देख भी रही थी कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा है.

‘‘एक मिनट… पहले तुम बैठो…’’ इंस्पैक्टर माधव ने अपने सामने खड़े हवलदार को इशारे से उस लड़की को पानी देने को कहा, ‘‘तुम डरो मत… यहां कोई नहीं आ सकता. तुम इतमीनान से अपनी बात कह सकती हो…’’ उस लड़की के सामने पानी का गिलास बढ़ाते हुए इंस्पेक्टर माधव बोले, ‘‘लो, पानी पी लो पहले.’’

अहम की मारी – भाग 1: शशि की लापरवाही

शशि ने बबलू की ओर देखा. उस का चेहरा कितना भोला मालूम होता है. बहुत ही प्यारा बच्चा है. हर मांबाप को अपने बच्चे प्यारे ही लगते हैं. बबलू गोराचिट्टा बच्चा था, जिस को देख कर सभी का उसे प्यार करने को मन होता. फिर शशि तो उस की मां थी. सारे दिन उस की शरारतें देख कर खुश होती. बबलू को पा कर तो उसे ऐसा लगता कि बस, अब और कुछ नहीं चाहिए. बबलू से बड़ी 7-8 साल की बेटी नीलू भी कम प्यारी नहीं थी. दोनों बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहने वाली शशि उन के प्रति लापरवाह कैसे हो गई?

आज तो हद हो गई. सुबह जब वह आटो पर बैठने लगी तो बबलू उस के पांवों से लिपट गया. प्यार से मनाने पर नहीं माना तो शशि ने उसे डांटा. देर तो हो ही रही थी, उस ने आव देखा न ताव, उस के गाल पर एक चांटा जड़ दिया. चांटा कुछ जोर से पड़ गया था, उंगलियों के निशान गाल पर उभर आए थे. उस के रोने की आवाज सुन कर उस के दादाजी बाहर आ गए और बबलू को गोद में ले कर मनाने लगे. सास ने जो आंखें तरेर कर शशि की ओर देखा तो वह सहम गई. आटो में बैठते हुए ससुरजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘जब करते नहीं बनता तो क्यों करती है नौकरी. यहां क्या खाने के लाले पड़ रहे हैं?’’

स्कूल में उस दिन किसी काम में मन नहीं लगा. इच्छा तो हो रही थी छुट्टी ले कर घर जाए पर अभी नौकरी लगे दोढाई महीने ही हुए थे. प्रधान अध्यापिका वैसे भी कहती रहती थीं, ‘‘भई, नौकरी तो बच्चों वाली को करनी ही नहीं चाहिए. रहेंगी स्कूल में और ध्यान रहेगा पप्पू, लल्ली में,’’ यह कह कर वे एक तिरस्कारपूर्ण हंसी हंसतीं. वे खुद 45 वर्ष की आयु में भी कुंआरी थीं. स्कूल का समय समाप्त होते ही शशि आटो के लिए ऐसे दौड़ी कि सामने से आती हुई प्रधान अध्यापिका व अन्य 2 अध्यापिकाओं को अभिवादन करना तक भूल गई. आटो में आ कर बैठने के बाद उसे इस बात का खयाल आया. दोनों अध्यापिकाओं की प्रधान अध्यापिका के साथ बनती भी अच्छी थी, और वे उस से वरिष्ठ भी थीं. खैर, जो भी हुआ अब क्या हो सकता था.

आटो वाले से उतावलापन दिखाते हुए कहा, ‘‘जल्दी चलो.’’

कुछ दूर जा कर आटो वाले ने पूछा, ‘‘साहब क्या करते हैं?’’

‘‘बहुत बड़े वकील हैं,’’ शशि ने सगर्व कहा.

आटो वाले ने मुंह से कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक हलकी सी मुसकान के साथ पीछे मुड़ कर उसे देख लिया. उस की इस मुसकान से उसे सुबह की घटना फिर याद आ गई. जैसेजैसे घर करीब आता गया, शशि का संकोच बढ़ता गया. सासससुर से कैसे आंख मिलाए. सुबह तो पति अजय घर पर नहीं थे, पर अब अजय को भी मालूम हो गया होगा. बच्चों को वे कितना चाहते हैं. जहां तक हो सके वे प्यार से ही उन्हें समझाते हैं. बच्चे भी अपने पिता से बहुत हिलेमिले थे. घर के आगे आटो रुका. बबलू रोज की तरह दौड़ कर नहीं आया. नीलू भी सिर्फ एक बार झांक कर भीतर चली गई. अंदर जा कर उस ने धीरे से बबलू को आवाज दी. वह दूर से ही बोला, ‘‘अम नहीं आते. आप मालती हैं. आप से अमाली कुट्टी हो गई.’’

शशि वैसे ही बिस्तर पर पड़ गई. रोतेरोते उस के सिर में दर्द होने लगा. वह चुपचाप वैसे ही आंख बंद किए पड़ी रही. किसी ने बत्ती जलाई. सास ही थीं. उस के करीब आ कर बोलीं, ‘‘चलो बहू, हाथमुंह धो कर कुछ खापी लो.’’ सास की हमदर्दी अच्छी भी लगी और साथ ही शर्म भी आई. रात का खानपीना खत्म हुआ तो सब बिस्तर पर चले गए थे. अजय खाना खा कर दूसरे कमरे में चला गया, जरूरी केस देखने. शशि को उन का बाहर जाना भी उस दिन राहत ही दे रहा था. बबलू करवट बदलते हुए नींद  में कुछ बड़बड़ाया. शशि ने उस को चादर ओढ़ाई, फिर नीलू की ओर देखा. आज नीलू भी उस से घर आने के बाद ज्यादा बोली नहीं. और दिनों तो स्कूल की छोटी से छोटी बात बताती, तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती. साथ में खाना खाने की जिद करती. फिर सोते समय जब तक एकाध कहानी न सुन ले, उसे नींद न आती. पर आज शशि को लग रहा था, मानो बच्चे पराए, उस से दूर हो रहे थे. ढाई साल के बच्चे  में अपनापराया की क्या समझ हो सकती है. वह तो मां को ही सबकुछ समझता है. मां भी तो उस से बिछुड़ कर कहां रहना चाहती है.

वह दिन भी कितना बुरा था जब वह पहली बार इंदु से मिली थी, शशि सोचने लगी…

कैसी सजीधजी थी इंदु, बातबात पर उस का हंसना. शशि को उस दिन वह जीवन से परिपूर्ण, एकदम जीवंत लगी. अजय और मनोज साथ ही पढ़े थे. आजकल मनोज उसी शहर में ला कालेज में लैक्चरार से तरक्की पा कर प्रोफैसर बन गया था. उस दिन रास्ते में जो मुलाकात हुई तो मनोज ने अजय व शशि को अपने घर आने का निमंत्रण दिया. वहां जाने पर शशि भौचक्की सी रह गई. ड्राइंगरूम था या कोई म्यूजियम. महंगी क्रौकरी में नाश्ता आया.

अच्छी नईनई डिशेज. शशि तो नाश्ते के दौरान कुछ अधिक न बोली, पर इंदु चहकती रही. शायद भौतिक सुख से परिपूर्ण होने पर आदमी वाचाल हो जाता है. इंदु किसी काम से अंदर चली गई. अजय और मनोज बीते दिनों की यादों में खोए हुए थे. शशि सोचने लगी, उस का पति भी वकालत में इतना तो कमा ही लेता है जिस से आराम से रहा जा सके. खानेपहनने को है, बच्चों को घीदूध की कमी नहीं. बचत भी ठीक है. सुखशांति से भरापूरा परिवार है. पर मनोज के यहां की रौनक देख कर उसे अपना रहनसहन बड़ा तुच्छ लगा.

इंदु की आवाज से शशि इतनी बुरी तरह चौंकी कि अजय और मनोज दोनों उस की ओर देखने लगे. मनोज ने कहा, ‘शायद भाभी को घर में छोड़े हुए बच्चों की याद आ रही है. भाभी, इतना मोह भी ठीक नहीं. अब देखिए, हमारी श्रीमतीजी को, लेदे के एक तो लाल है, सो उस को भी छात्रावास में भेज दिया. मुश्किल से 8-10 साल का है. कहती हैं, ‘वहां शुरू से रहेगा तो तहजीब सीख लेगा.’ भाभी, आप ही बताइए, क्या घर पर बच्चे शिष्टाचार नहीं सीखते हैं?’ मनोज शायद आगे भी कुछ कहता पर इंदु शशि का हाथ पकड़ कर यह कहते हुए अंदर ले गई, ‘अजी, इन की तो यह आदत है. कोई भी आए तो शुरू हो जाते हैं. भई, हम को तो ऐसी भावुकता पसंद नहीं. आदमी को व्यावहारिक होना चाहिए.’

सच्चा रिश्ता: साहिल ने कैसे दिखाई हिम्मत

साहिल आज काफी मसरूफ था. सुबह से उठ कर वह जयपुर जाने की तैयारी में लगा था. उस की अम्मी उस के काम में हाथ बंटा रही थीं और समझा रही थीं, ‘‘बेटे, दूर का मामला है, अपना खयाल रखना और खाना ठीक समय पर खा लिया करना.’’ साहिल अपनी अम्मी की बातें सुन कर मुसकराता और कहता, ‘‘हां अम्मी, मैं अपना पूरा खयाल रखूंगा और खाना भी ठीक समय पर खा लिया करूंगा. वैसे भी अम्मी अब मैं बड़ा हो गया हूं और मुझे अपना खयाल रखना आता है.’’

साहिल को इंटरव्यू देने जयपुर जाना था. उस के दिल में जयपुर घूमने की चाहत थी, इसलिए वह 10-15 दिन जयपुर में रहना चाहता था. सारा सामान पैक कर के साहिल अपनी अम्मी से विदा ले कर चल पड़ा.

अम्मी ने साहिल को ले कर बहुत सारे ख्वाब देखे थे. जब साहिल 8 साल का था, तब उस के अब्बा बब्बन मियां का इंतकाल हो गया था. साहिल की अम्मी पर तो जैसे बिजली गिर गई थी. उन के दिल में जीने की कोई तमन्ना ही नहीं थी, लेकिन साहिल को देख कर वे ऐसा न कर सकीं. अम्मी ने साहिल की अच्छी परवरिश को ही अपना मकसद बना लिया था. इसी वजह से साहिल को कभी अपने अब्बा की कमी महसूस नहीं हुई थी. तभी तो साहिल ने अपनी अम्मी की इच्छाओं को पूरा करने के लिए एमए कर लिया था और अब वह नौकरी के सिलसिले में इंटरव्यू देने जयपुर जा रहा था.

साहिल को विदा कर के उस की अम्मी घर का दरवाजा बंद कर घर के कामों में मसरूफ हो गईं. उधर साहिल भी अपने शहर के बस स्टैंड पर पहुंच गया. जयपुर जाने वाली बस आई, तो साहिल ने बस में चढ़ कर टिकट लिया और एक सीट पर बैठ गया.

साहिल की आंखों से उस का शहर ओझल हो रहा था, पर उस की आंखों में अम्मी का चेहरा रहरह कर सामने

आ रहा था. अम्मी ने साहिल को काफी मेहनत से पढ़ायालिखाया था, इसलिए साहिल ने भी इंटरव्यू के लिए बहुत अच्छी तैयारी की थी. बस के चलतेचलते रात हो गई थी. ज्यादातर सवारियां सो रही थीं. जो मुसाफिर बचे थे, वे ऊंघ रहे थे.

रात के अंधेरे को रोशनी से चीरती हुई बस आगे बढ़ी जा रही थी. एक जगह जंगल में रास्ता बंद था. सड़क पर पत्थर रखे थे. ड्राइवर ने बस रोक दी. तभी 2-3 बार फायरिंग हुई और बस में कुछ लुटेरे घुस आए. इस अचानक हुए हमले से सभी मुसाफिर घबरा गए और जान बचाते हुए अपना सारा पैसा उन्हें देने लगे.

एक लड़की रोरो कर उन से दया की भीख मांगने लगी. वह बारबार कह रही थी, ‘‘मेरे पास थोड़े से रुपयों के अलावा कुछ नहीं है.’’ मगर उन जालिमों पर उस की मासूम आवाज का कुछ असर नहीं हुआ. उन में से एक लुटेरा, जो दूसरे सभी लुटेरों का सरदार लग रहा था, एक लुटेरे से बोला, ‘‘अरे ओ कृष्ण, बहुत बतिया रही है यह लड़की. अरे, इस के पास देने को कुछ नहीं है, तो उठा ले ससुरी को और ले चलो अड्डे पर.’’

इतना सुनते ही एक लुटेरे ने उस लड़की को उठा लिया और जबरदस्ती उसे अपने साथ ले जाने लगा. वह डरी हुई लड़की ‘बचाओबचाओ’ चिल्ला रही थी, पर किसी मुसाफिर में उसे बचाने की हिम्मत न हुई.

साहिल भी चुप बैठा था, पर उस के दिल के अंदर से आवाज आई, ‘साहिल, तुम्हें इस लड़की को उन लुटेरों से छुड़ाना है.’ यही सोच कर साहिल अपनी सीट से उठा और लुटेरों को ललकारते हुए बोला, ‘‘अरे बदमाशो, लड़की को छोड़ दो, वरना अच्छा नहीं होगा.’’

इतना सुनते ही उन में से 2-3 लुटेरे साहिल पर टूट पड़े. वह भी उन से भिड़ गया और लड़की को जैसे ही छुड़ाने लगा, तो दूसरे लुटेरे ने गोली चला दी. गोली साहिल की बाईं टांग में लगी. साहिल की हिम्मत देख कर दूसरे कई मुसाफिर भी लुटेरों को मारने दौड़े. कई लोगों को एकसाथ आता देख लुटेरे भाग खड़े हुए, पर तब तक साहिल की टांग से काफी खून बह चुका था. लिहाजा, वह बेहोश हो गया.

ड्राइवर ने बस तेजी से चला कर जल्दी से साहिल को एक अस्पताल में पहुंचा दिया. सभी मुसाफिर तो साहिल को भरती करा कर चले गए, पर वह लड़की वहीं रुक गई. डाक्टर ने जल्दी ही साहिल की मरहमपट्टी कर दी.

कुछ देर बाद जब साहिल को होश आया, तो सामने वही लड़की खड़ी थी. साहिल को होश में आता देख कर वह लड़की बहुत खुश हुई.

साहिल ने उसे देख राहत की सांस ली कि लड़की बच गई. पर अचानक इंटरव्यू का ध्यान आते ही उस के मुंह से निकला, ‘‘अब मैं जयपुर नहीं पहुंच सकता. मेरे इंटरव्यू का क्या होगा?’’ लड़की उस की बात सुन कर बोली, ‘‘क्या आप जयपुर में इंटरव्यू देने जा रहे थे? मेरी वजह से आप की ये हालत हो गई. मैं आप से माफी चाहती हूं. मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘अरे नहीं, यह आप क्या कह रही हैं? आप ने मेरी बात का गलत मतलब निकाल लिया. अगर मैं आप को बचाने न आता, तो पता नहीं मैं अपनेआप को माफ कर भी पाता या नहीं. खैर, छोडि़ए यह सब. अच्छा, यह बताइए कि आप यहां क्यों रुक गईं? मुझे लगता है कि सभी मुसाफिर चले गए हैं.’’ लड़की ने कहा, ‘‘जी हां, सभी मुसाफिर रात को ही चले गए थे. आप के पास भी तो किसी को होना चाहिए था. अपनी जान की परवाह किए बिना आप ने मेरी जान बचाई. ऐसे में मेरा फर्ज बनता था कि मैं आप के पास रुकूं. मैं आप की हमेशा एहसानमंद रहूंगी.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था, जो मैं ने पूरा किया. अच्छा, यह बताइए कि आप कल जयपुर जा रही थीं या कहीं और…?’’

इतना सुनते ही लड़की की आंखों में आंसू आ गए. वह बोली, ‘‘आप ने मेरी जान बचाई है, इसलिए मैं आप से कुछ नहीं छिपाऊंगी. मेरा नाम आरती?है. मेरे पैदा होने के कुछ साल बाद ही पिताजी चल बसे थे. मां ने ही मुझे पाला है. ‘‘मेरे ताऊजी मां को तंग करते थे. हमारे हिस्से की जमीन पर उन्होंने कब्जा कर लिया. उन्होंने मेरी मां से धोखे में कोरे कागज पर अंगूठा लगवा लिया और हमारी जमीन उन के नाम हो गई.

‘‘एक महीने पहले मां भी मुझे छोड़ कर चल बसीं. मेरे ताऊजी मुझे बहुत तंग करते थे. उन के इस रवैए से तंग आ कर मैं भाग निकली और उसी बस में आ कर बैठ गई, जो बस जयपुर जा रही थी. ‘‘मैं ने 12वीं तक की पढ़ाई की है. सोचा था कि कहीं जा कर नौकरी कर लूंगी,’’ यह कह कर आरती चुप हो गई.

साहिल को आरती की कहानी सुन कर अफसोस हुआ. कुछ देर बाद आरती बोली, ‘‘अब आप को होश आ गया है, 2-4 दिन में आप बिलकुल ठीक हो जाएंगे. अच्छा तो अब मैं चलती हूं.’’

साहिल ने कहा, ‘‘पर कहां जाएंगी आप? अभी तो आप ने बताया कि अब आप का न कोई घर है, न ठिकाना. ऐसे में आप अकेली लड़की. बड़े शहर में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं होता. ‘‘वैसे, मेरा नाम साहिल है. मजहब से मैं मुसलमान हूं, पर अगर आप हमारे घर मेरी छोटी बहन बन कर रहें, तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

‘‘लेकिन, आप तो मुसलमान हैं?’’ आरती ने कहा. साहिल ने कहा, ‘‘मुसलमान होने के नाते ही मेरा यह फर्ज बनता है कि मैं किसी बेसहारा लड़की की मदद करूं. मुझे हिंदू बहन बनाने में कोई परहेज नहीं, अगर आप तैयार हों, तो…’’

आरती ने साहिल के पैर पकड़ लिए, ‘‘भैया, आप सचमुच महान हैं.’’ ‘‘अरे आरती, यह सब छोड़ो, अब हम अपने घर चलेंगे. अम्मी तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होंगी.’’

एक हफ्ते बाद साहिल ठीक हो गया. डाक्टर ने उसे छुट्टी दे दी. साहिल आरती को ले कर अपने घर पहुंचा. दरवाजा खटखटाते हुए उस ने आवाज लगाई, तो उस की अम्मी ने दरवाजा खोला.

साहिल को देख कर वे चौंकीं, ‘‘अरे साहिल, सब खैरियत तो है न? तू इतनी जल्दी कैसे आ गया? तू तो 15 दिन के लिए जयपुर गया था. क्या बात है?’’ ‘‘अरे अम्मी, अंदर तो आने दो.’’

‘‘हांहां, अंदर आ.’’ साहिल जैसे ही लंगड़ाते हुए अंदर आया, तो उस की अम्मी को और धक्का लगा, ‘‘अरे साहिल, तू लंगड़ा क्यों रहा है? जल्दी बता.’’

साहिल ने कहा, ‘‘सब बताता हूं, अम्मी. पहले मैं तुम्हें एक मेहमान से मिलवाता हूं,’’ कह कर साहिल ने आरती को आवाज दी. आरती दबीसहमी सी अंदर आई.

खूबसूरत लड़की को देख कर साहिल की अम्मी का दिल खुश हो गया, पर अगले ही पल अपने को संभालते हुए वे बोलीं, ‘‘साहिल, ये कौन है? कहीं तू ने… ‘‘अरे नहीं, अम्मी. आप गलत समझ रही हैं.’’

अपनी अम्मी से साहिल ने जयपुर सफर की सारी बातें बता दीं. सबकुछ सुन कर साहिल की अम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, तू ने यह अच्छा किया. अरे, नौकरी तो फिर कहीं न कहीं मिल ही जाएगी, पर इतनी खूबसूरत बहन तुझे फिर न मिलती. बेटी आरती, आज से यह घर तुम्हारा ही है.’’

इतना सुनते ही आरती साहिल की अम्मी के पैरों में गिर पड़ी. ‘‘अरे बेटी, यह क्या कर रही हो. तुम्हारी जगह मेरे दिल में बन गई. अब तुम मेरी बेटी हो,’’ इतना कह कर अम्मी ने आरती को गले से लगा लिया.

साहिल एक ओर खड़ा मुसकरा रहा था. अब साहिल के घर में बहन की कमी पूरी हो गई थी. आरती को भी अपना घर मिल गया था. उस की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए थे.

विस्मृत होता अतीत – भाग 1: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

काफीदिनों के बाद अपना फेसबुक पेज अपडेट कर ही रही थी कि चैंटिंग विंडो पर ‘हाई’ शब्द ब्लिंक हुआ. पहले तो मैं ने ध्यान नहीं दिया, मगर बारबार ब्लिंक होने पर देखा तो कोई महोदय चैट करने को आतुर दिखाई दे रहे थे. निश्चित ही मेरी फ्रैंड्स लिस्ट में से यह कोई व्यक्ति था. उस से बात करने से पहले मैं ने उस का प्रोफाइल टटोला. नाम कौशल था. मैं ने चैट करने से परहेज किया, क्योंकि मैं चैट करने में रुचि नहीं रखती, पर यह तो कोई ढीठ बंदा था.

थोड़ी देर बाद उस ने मैसेज भेजा, ‘हाऊ आर यू मैम…?’ अब मुझे भी लगा कि जवाब न देना शिष्टाचार के विरुद्ध होगा. अत: अनमने ढंग से ‘हाई, फाइन’ लिखा. मेरी कोशिश यही थी कि उसे चैट के लिए हतोत्साहित किया जाए. मैं ने स्वयं को व्यस्त दिखाने की कोशिश की. फिर से मैसेज उभरा, ‘लगता है मैम बिजी हैं…?’ मेरे संक्षिप्त जवाब ‘हां’ से उस ने फिर मैसेज भेजा, ‘ओके… मैम. सम अदर टाइम.’ मैं ने भी ‘ओह’ लिख कर चैन की सांस ली ही थी कि डोरबैल बजी. घड़ी में देखा तो शाम के 6 बज रहे थे. लगता है राजीव औफिस से लौट आए थे.

जैसे ही दरवाजा खोला, ‘‘और क्या चल रहा है मैडम…?’’ राजीव ने कहा. उन्हें जब मुझे चिढ़ाना होता है तो वे इस शब्द का इस्तेमाल

करते हैं. वे जानते हैं कि मैं मैडम शब्द से बहुत चिढ़ती हूं.

‘‘कोई खास बात नहीं, बस नैट पर सर्फिंग कर रही थी…’’ मैं ने थोड़ा चिढ़ कर ही जवाब दिया. राजीव मुसकराए. मैं उन की इसी मुसकराहट पर फिदा थी. मेरा गुस्सा एकदम गायब हो चुका था. राजीव जानते थे कि मेरे गुस्से को कैसे कम किया जा सकता है. इसलिए वे मुझे चिढ़ाने के बाद अकसर अपनी जानलेवा मुसकराहट से काम लिया करते थे.

‘‘अच्छा यार, अदरक वाली चाय तो पिलाओ… और इस रिमझिम बारिश में गरमगरम पकौड़े हो जाएं तो अपना दिन… अरे नहीं शाम बन जाएगी…’’ उन की फ्लर्टिंग पर मुझे हंसी आ गई. बाहर वास्तव में बारिश हो रही थी. घर के अंदर होने से मेरा ध्यान ही नहीं गया था. मैं जल्दी से चाय और पकौड़े बनाने लगी और राजीव फ्रैश होने चले गए. उन्होंने हम दोनों की पसंदीदा जगह यानी बालकनी में चाय पीने की फरमाइश की. चाय पीतेपीते वे बड़े खुशगवार मूड में दिखे.

मुझ से रहा नहीं गया, ‘‘क्या बात है जनाब… बड़े मूड में लग रहे हैं…’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘अरे वाह कैसे जाना…,’’ वे थोड़ा हैरत से बोले.

‘‘आप की बैटरहाफ हूं. 15 सालों में इतना भी नहीं जानूंगी…?’’ थोड़ा इतराते हुए मैं ने कहा.

‘‘हां, बात तो तुम्हारी ठीक है,’’ वे थोड़ा गंभीर हो कर बोले.

कुछ देर हम दोनों चुपचाप चाय और पकौड़े का स्वाद लेते रहे. राजीव थोड़ी देर बाद मेरी ओर देख कर शरारत में मुसकराए और मैं उन का मंतव्य समझ गई.

‘‘कोई शरारत नहीं जनाब…,’’ मैं ने शरमाते हुए कहा. फिर हम घर के इंटीरियर के बारे में बात करने लगे. पूरा घर अस्तव्यस्त पड़ा था. इस नए फ्लैट में हम हाल ही में शिफ्ट हुए थे. घर का फाइनल टचअप बाकी था. राजीव और बच्चों में इसी बात को ले कर तकरार चल रही थी कि किस कमरे में कौन सा पेंट करवाया जाए. इसी बीच बेटा शुभांग और बेटी शिवानी भी आ गए. जिन्होंने जिद की तो राजीव उन्हें ले कर बाजार चले गए. मैं ने बहुत रोका कि पानी बरस रहा है पर बच्चों के उत्साह के आगे उन्हें सब फीका लगा. उन्होंने कार गैराज से निकाली और मुझे भी साथ चलने को कहा, पर मैं अस्तव्यस्त पड़े घर को ठीक करने की सोच कर रुक गई.

काम निबटा कर जैसे ही फ्री हुई तो लैपटौप पर निगाह गई तो सोचा कि क्यों न कुछ सर्फिंग हो जाए. अब जब इंटरनैट खोला तो खुद को फेसबुक ओपन करने से रोक नहीं पाई. अभी कुछ टाइप कर ही रही थी कि कौशल महोदय ‘हाई और हैलो’ के साथ हाजिर नजर आए. कुछ खास काम तो था नहीं और सोचा राजीव और बच्चे न जाने कितनी देर में आएंगे, तो इन्हीं कौशलजी से थोड़ी देर चैट कर लिया जाए.

मैं ने भी उसे हैलो किया और चैट करना शुरू किया तो उस ने अचानक मुझ से सवाल किया, ‘क्या आप तितली हैं…?’ मैं असमंजस में पड़ गई कि भला यह क्या सवाल हुआ…? उस ने मेरा ध्यान मेरी प्रोफाइल पिक्चर की ओर दिलवाया. इस बात पर मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. मुझे वह इमेज अच्छी लगी थी तो मैं ने उसे डाल दिया था. जब उस ने इसी बात को एक बार और पूछा तो मैं चिढ़ सी गई और बहाना बना कर लौगआउट कर लिया. मुझे गुस्सा भी आ रहा था कि इस बंदे को अपनी फ्रैंड्स लिस्ट से डिलीट कर दूं. अगली बार ऐसा ही करूंगी सोच कर मैं उठ गई और रात के खाने की तैयारी में जुट गई.

आने वाले कई दिनों तक हम घर की साजसज्जा में लगे रहे. घर के इंटीरियर का काम लगभग पूरा हो चुका था. आज घर पूरी तरह से सज चुका था और अब ऐसा लग रहा था कि मानों कंधों पर से कोई बोझ उतर गया हो. चूंकि बच्चे और राजीव घर पर नहीं थे तो थोड़ा रिलैक्स होने के लिए सोचा क्यों न नैट खोल कर बैठूं. अपना मेल चैक कर रही थी तो कुछ खास नहीं था सिवाय एरमा के मेल के.

उस ने मेल किया था कि उसे उसे नई जौब मिल गई है और वह लौसएंजिल्स शिफ्ट हो रही थी. उस ने बताया कि वह कंपनी की तरफ से बहुत जल्दी इंडिया भी आएगी. मैं ने उसे बधाई दी और उसे अपने घर आ कर ठहरने का न्योता भी दिया. एरमा मेरी फेसबुक फ्रैंड थी. मेल चैक करने के बाद एक बार फिर फेसबुक ओपन किया तो देखा तो मैसेजेस का ढेर लगा पड़ा था. मुझे आज तक इतने मैसेज कभी भी नहीं आए थे. जब खोला 7-8 मैसेज तो कौशल महोदय के थे. ‘हाई, कैसे हैं आप…?’, ‘नाराज हैं क्या…?’, ‘आप फेसबुक पर नहीं आ रहीं…’ इत्यादिइत्यादि. ये सब देख कर मेरा मूड खराब हो गया.

 

Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 1

अरु भाभी और शशांक भैया के चेहरे के उठतेगिरते भावों को पढ़तेपढ़ते मैं सोच रही थी कि बंद मुट्ठी में रेत की तरह जब सबकुछ फिसल जाता है तब क्यों इनसान चेतता है?

बीच में ही बात काटते हुए शशांक बोल पडे़ थे, ‘नहीं डाक्टर अवस्थी, ऐसा नहीं कि हम लोग निधि को प्यार नहीं करते या हमेशा उसे मारतेपीटते ही रहते हैं. समस्या तो यह है कि निधि बहुत गंदी बातें सीख रही है.’

नन्ही निधि का छोटा सा बचपन मेरी आंखों के सामने कौंध उठा. घटनाएं चलचित्र की तरह आंखों के परदे पर आजा रही थीं.

उस दिन तेज बरसात हो रही थी. ओले भी गिर रहे थे. पड़ोस के मकान से जोरजोर से आती आवाजें सुन कर मेरा दिल दहल उठा. शशांक कह रहे थे, ‘बदमिजाज लड़की, साफसाफ बता, क्या चाहती है तू? क्या इस नन्ही सी जान की जान लेना चाहती है. छोटी बहन आई है यह नहीं कि खुद को सीनियर समझ कर उस की देखभाल करे. हर समय मारपीट पर ही उतारू रहती है.’

कमरे में गूंजती बेरहम आवाजें बाहर तक सुनाई पड़ रही थीं. निधि की कराह के साथ पूरे वेग से फूटती रुलाई को साफसाफ सुना जा सकता था.

‘पापा प्लीज, मुझे मत मारो. ऐसा मैं ने किया क्या है?’

‘पूरा का पूरा रोटी का टुकड़ा सीमा के मुंह में ठूंस दिया और पूछती है किया क्या है? देखा नहीं कैसे आंखें फट गई थीं उस बेचारी की?’

‘पापा, मैं ने सोचा सब ने नाश्ता कर लिया है. गुड्डी भूखी होगी,’ रोंआसी आवाज में अंदर की ताकत बटोरते हुए निधि ने सफाई सी दी.

‘एक माह की बच्ची रोटी खाएगी, अरी, अक्ल की दुश्मन, वह तो सिर्फ मां का दूध पीती है,’ आंखें तरेरते हुए शशांक बिफर उठे और एक थप्पड़ निधि के गाल पर जड़ दिया.

उस घर में जब से सीमा का जन्म हुआ था. ऐसा अकसर होने लगा था और वह बेचारी पिट जाती थी.

निधि का आर्तनाद सुन कर मैं सोचती कि ये कैसे मांबाप हैं जो इतना भी नहीं समझ पाते कि ऐसा क्रूर और कठोर व्यवहार बच्चे की कोमल भावनाओं को समाप्त करता चला जाएगा.

निधि बचपन से ही मेरे घर आया करती थी. जिस दिन अरु अस्पताल से सीमा को ले कर घर आई, वह बेहद खुश थी. दादी की मदद ले कर अपने नन्हेनन्हे हाथों से उस ने पूरे कमरे में रंगबिरंगे खिलौने सजा दिए.

सीमा का नामकरण संस्कार संपन्न हुआ. मेहमान अपनेअपने घर चले गए थे. परिवार के लोग बैठक में जमा हो कर गपशप में मशगूल थे. निधि भी सब के बीच बैठी हुई थी. अचानक अपनी गोलगोल आंखें मटका कर बालसुलभ उत्सुकता से उस ने मां की तरफ देख कर पूछ लिया, ‘मां, मेरा भी नामकरण ऐसे ही हुआ था?’

‘ऊं हूं,’ चिढ़ाने के लिए उस ने कहा, ‘तुम्हें तो मैं फुटपाथ से उठा कर लाई थी.’

निधि को विश्वास नहीं हुआ तो दोबारा प्रश्न किया, ‘सच, मम्मी?’

अरु ने निधि की बात को सुनी- अनसुनी कर सीमा के नैपीज और फीडर उठाए और अपने कमरे में चली गई.

अगले दिन 10 बजे तक जब निधि सो कर नहीं उठी, तब अरु का ध्यान बेटी की तरफ गया. उस ने जा कर देखा तो पता चला कि तेज बुखार से निधि का पूरा शरीर तप रहा था. आंखों के डोरे लाल थे. कपोलों पर सूखे आंसुओं की परत जमा थी. अरु ने पुचकार कर पूछा, ‘तबीयत खराब है या किसी ने कुछ कहा है?’

निधि ने मां की किसी भी बात का उत्तर नहीं दिया.

निधि का बुखार तो ठीक हो गया पर अब वह हर समय गुमसुम सी बैठी रहती थी. घर में वह न तो किसी से कुछ कहती, न ज्यादा बात ही करती थी. अपने कमरे में पड़ीपड़ी घंटों किताब के पन्ने पलटती रहती. घर के सभी सदस्य यही समझते कि निधि पहले से ज्यादा मन लगा कर पढ़ने लगी है.

एक दिन सीमा को तेज बुखार चढ़ गया. दादी और शशांक दोनों घर पर नहीं थे. अरु समझ नहीं पा रही थी कि सीमा को ले कर कैसे डाक्टर के पास जाए. तभी निधि स्कूल से आ गई. उसे भी हरारत के साथ खांसीजुकाम था. अरु सीमा को निधि के हवाले कर डाक्टर के पास दवाई लेने चली गई. वापस लौटी तो सीमा के लिए ढेर सारी दवाइयां और टानिक थे पर उस में निधि के लिए कोई दवा नहीं थी.

शाम को शशांक और दादी लौट आए. कोई सीमा की पेशानी पर हाथ रखता, कोई गोदी में ले कर पुचकारता. मां पानी की पट्टियां सीमा के माथे पर रखती जा रही थीं पर किसी ने निधि की ओर ध्यान नहीं दिया.

शाम को सीमा थोड़ी ठीक हुई तो अरु उसे गोद में ले कर बालकनी में आ गई. मैं भी कुछ पड़ोसिनों के साथ अपनी बालकनी में बैठी थी. अचानक निधि ने एक छोटा सा पत्थर उठा कर नीचे फेंक दिया तो प्रतिक्रिया में अरु जोर से चिल्लाई, ‘निधि, चल इधर, वहां क्या देख रही है? छत से पत्थर क्यों फेंका?’

अरु की तेज आवाज सुन कर मेरे साथ बैठी एक पड़ोसिन ने कहा, ‘रहने दीजिए भाभीजी, बच्चा है.’

‘ऐसे ही तो बच्चे बिगड़ते हैं. यदि अभी से नहीं रोका तो सिर पर चढ़ कर बोलेगी,’ अरु की आवाज में चिड़- चिड़ापन साफ झलक रहा था.

मैं निधि के बारे में सोचने लगी थी कि उसे भी तो सीमा की तरह बुखार था. उस का भी तो मन कर रहा होगा कोई उसे पुचकारे, उस की तबीयत के बारे में पूछे. क्योंकि सीमा के जन्म से पहले उस के शरीर पर लगी छोटी सी खरोंच भी पूरे परिवार को चिंता में डाल देती थी. लेकिन इस समय सभी सीमा की तबीयत को ले कर चिंतित थे और निधि को अपने घर वालों की उपेक्षा बरदाश्त नहीं हो पा रही थी.

अम्मा- भाग 1: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

सब से बड़ी बात-बड़ों की जिंदगी का अनुभव कितनी समस्याओं को सुलझा देता है. लेकिन आज अम्मां वृद्धाश्रम में थीं. क्या वृद्धाश्रम से वापस घर आना उन्हें मंजूर हुआ? आफिस से फोन कर अजय ने नीरा को बताया कि मैं  आनंदधाम जा रहा हूं, तो उस के मन में विचारों की बाढ़ सी आ गई. आनंदधाम यानी वृद्धाश्रम. शहर के एक कोने में स्थित है यह आश्रम. यहां ऐसे बेसहारा, लाचार वृद्धों को शरण मिलती है जिन की देखभाल करने वाला अपना इस संसार में कोई नहीं होता. रोजमर्रा की सारी सुविधाएं यहां प्रदान तो की जाती हैं पर बदले में मोटी रकम भी वसूली जाती है.

बिना किसी पूर्व सूचना के क्यों जा रहा है अजय आनंदधाम? जरूर कोई गंभीर बात होगी.

यह सोच कर नीरा कार में बैठी और अजय के दफ्तर पहुंच गई. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, सब खैरियत तो है?’’

‘‘नीरा, अम्मां, पिछले 1 साल से आनंदधाम में रह रही हैं. आश्रम से महंतजी का फोन आया था. गुसलखाने में फिसल कर गिर पड़ी हैं.’’

अजय की आवाज के भारीपन से ही नीरा ने अंदाजा लगा लिया था कि अम्मां के अलगाव से मन में दबीढकी भावनाएं इस पल जीवंत हो उठी हैं.

‘‘हम चलते हैं, अजय. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘अच्छा होगा मां को यदि किसी विशेषज्ञ को दिखाएं.’’

‘‘ठीक है, रुपए बैंक से निकलवा कर चलते हैं. पता नहीं कब कितने की जरूरत पड़ जाए,’’ सांत्वना के स्वर में नीरा ने कहा तो अजय को तसल्ली हुई.

‘‘मैं तो इस घटना को सुनने के बाद इतना परेशान हो गया था कि रुपयों का मुझे खयाल ही नहीं आया. प्राइवेट अस्पताल में रुपए की तो जरूरत पड़ेगी ही.’’

कुछ ही समय में नीरा रुपए ले कर आ गई. कार स्टार्ट करते ही पत्नी की बगल में बैठे अजय की यादों में 1 साल पहले का वह दृश्य सजीव हो उठा जब तिर्यक कुटिल दृष्टि से नीरा ने अम्मां को इतना अपमानित किया था कि वह चुपचाप अपना सामान बांध कर घर से चली गई थीं.

जातेजाते भी अम्मां की तीक्ष्ण दृष्टि नीरा पर टिक गई थी.

‘अजय, मेरी जिंदगी बची ही कितनी  है? मेरे लिए तू अपनी गृहस्थी में दरार मत डाल,’ अम्मां की गंभीर आवाज और अभिजात दर्पमंडित व्यक्तित्व की छाप वह आज तक अपने मानसपटल से कहां मिटा पाया था.

‘जाना तो अम्मां सभी को है… और रही दरार की बात, तो वह तो कब की पड़ चुकी है. अब कहीं वह दरार खाई में न बदल जाए. यह सोच लीजिए,’ अम्मां के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई नीरा बोली. वह तो इसी इंतजार में बैठी थी कि कब अम्मां घर छोडे़ं और उसे संपूर्ण सफलता हासिल हो.

कहीं अजय की भावुकता अम्मां के पैरों में पुत्र प्रेम की बेडि़यां डाल कर उन्हें रोक न ले, इस बात का डर था नीरा को इसलिए भी वह और अधिक तल्ख हो गई थी.

अगले ही दिन अजय ने फोन पर कुटिल हंसी की खनक में डूबी और बुलंद आवाज की गहराई में उभरते दंभ की झलक के साथ नीरा को किसी से बात करते सुना:

‘जिंदगी भर अब पास न फटकने देने का इंतजाम कर लिया है. कुशलक्षेम पूछना तो दूर, अजय श्राद्ध तक नहीं करेगा अम्मां का.’

उस दिन पत्नी के शब्दों ने अजय को झकझोर कर रख दिया था. समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया. पर जब आंखों से परदा हटा तो उस ने निर्णय लिया कि किसी भी हाल में अम्मां को जाने नहीं देगा. रोया, गिड़गिड़ाया, हाथ जोडे़, पैर छुए, पर अम्मां रुकी नहीं थीं. दयनीय बनना उन की फितरत में नहीं था. स्वाभिमानी शुरू से ही थीं.

अम्मां के जाने के बाद उन के तकिए के नीचे से एक लिफाफा मिला था. लिखा था, ‘इनसान क्यों अपनेआप को परिवार की माला में पिरोता है? इसीलिए न कि परिवार का हर संबंधी एकदूसरे के लिए सुखदुख का साथी बने. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से परिवार की डोर टूटने लगे तो अकेले मोती की तरह इधरउधर डोलने या अपने इर्दगिर्द बने सन्नाटे में दुबक जाने के बजाय वहां से हट जाना बेहतर होता है.

‘हमेशा के लिए नहीं, कुछ समय के लिए ही जा रही हूं पर यह समय, कुछ दिन, कुछ महीने या फिर कुछ सालों का भी हो सकता है. दिल से दिल के तार जुड़े होते हैं और ये तार जब झंकृत होते हैं तो पता चल जाता है कि हमें किसी ने याद किया है. जिस पल हमें ऐसा महसूस होगा, हम जरूर मिलेंगे, अम्मां.’

तेज बारिश हो रही थी. गाड़ी से बाहर देखने की कोशिश में अजय ने अपना चेहरा खिड़की के शीशे से सटा दिया. बाहर खिड़की के कांच पर गिर रही एकएक बूंद धीरेधीरे एकसाथ मिल कर पूरे कांच को ढक देती थी. जरा सा कांच पोंछने पर अजय को हर बार एक चेहरा दिखाई देता था. ढेर सारा वात्सल्य समेटे, झुर्रियों भरा वह चेहरा, जिस ने उसे प्यार दिया, 9 माह अपनी कोख में रखा, अपने रक्तमांस से सींचा, आंचल की छांव दी. उस का स्वास्थ्य, उस की पढ़ाई, उस की खुशी, अम्मां की पूरी दुनिया ही अजय के इर्दगिर्द सिमटी थी.

जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में नीरा और अजय विवाह सूत्र में बंधे थे उन हालात में नीरा को परिवार का अंश बनने के लिए अम्मां को न जाने कितना संघर्ष करना पड़ा था.

लाखों रुपए के दहेज का प्रस्ताव ले कर, कई संपन्न परिवारों से अजय के लिए रिश्ते आए थे, पर अम्मां ने बेटे की पसंद को ही सर्वोपरि माना. अम्मां यही दोहराती रहीं कि गरीब घर की लड़की अधिक संवेदनशील होगी. घर का वातावरण सुखमय बनाएगी, अच्छी पत्नी और सुघड़ बहू साबित होगी.

पासपड़ोस के अनुभवों, किस्से- कहानियों को सुन कर अजय ने यही निष्कर्ष निकाला था कि बहू के आते ही घर का वातावरण बदल जाता है. अजय का मन किसी अज्ञात आशंका से घिरा है, अम्मां यह समझ गई थीं. बड़ी ही समझदारी से उन्होंने अजय को समझाया था :

‘बेटा, लोग हमेशा बहुओं को ही दोषी ठहराते हैं, पर मेरी समझ में ऐसा होता नहीं है. घर में जब भी कोई नया सामान आता है तो पुराने सामान को हटना ही पड़ता है. नया पत्ता तभी शाख पर लगता है जब पुराना उखड़ता है. जब भी किसी पौधे को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह आरोपित किया जाता है तो वह तभी पुष्पित, पल्लवित होता है जब उसे पर्याप्त मात्रा में खादपानी मिलता है. सामंजस्य, समझौता, समर्पण, दोनों ही पक्षों की तरफ से होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता, तो परिवार बिखरता है.’

अजय आश्वस्त हो गया. अम्मां ने नीरा को प्यार और अपनत्व से और नीरा ने उन्हें सम्मान और कर्तव्यनिष्ठा से अपना लिया. बहू में उन की आत्मा बसती थी. उसे सजतेसंवरते देख अम्मां मुग्धभाव से हिलोरें लेतीं. नीरा की कमियों को कोई गिनवाता तो चट से मोर्चा संभाल लेतीं.

‘मेरी अपर्णा को ही क्या आता था. पर धीरेधीरे जिम्मेदारियों के बोझ तले, सबकुछ सीखती चली गई.’

1 वर्ष बीततेबीतते अजय जुड़वां बेटों का बाप बन गया. अम्मां के चेहरे पर भारी संतोष की आभा झलक उठी. इसी दिन के लिए ही तो वह जैसे जी रही थीं. अस्पताल के कौरीडोर में नर्सों, डाक्टरों से बातचीत करतीं अम्मां को देख कर कौन कह सकता था कि वह घर से बाहर कभी निकली ही नहीं.

लवकुश नाम रखा उन्होंने अपने पोतों का. 40 दिन तक उन्होंने नीरा को बिस्तर से उठने नहीं दिया. अपर्णा को भी बुलवा भेजा. ननदभौजाई गप्पें मारतीं, अम्मां चौका संभालतीं.

‘अब तो महीना होने को आया. मेरी सास तो 21 दिन बाद ही घर की बागडोर मुझे संभालने को कह कर खुद आराम करती हैं,’ अम्मां की भागदौड़ से परेशान अपर्णा ने कहा तो अम्मां ने बुरा सा मुंह बनाया.

‘तेरी ससुराल में होता होगा. थोड़ा-बहुत काम करने से शरीर में जंग नहीं लगता.’

‘थोड़ाबहुत?’ अपर्णा ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा था.

‘संयुक्त परिवार की यही  तो परिभाषा है. जरूरत पड़ने पर एकदूसरे के काम आओ. कच्चा शरीर है. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो जिंदगी भर का रोना.’

सवा महीना बीत गया. अपर्णा अपनी ससुराल लौट रही थी. अम्मांबाबूजी हमेशा भरपूर नेग देते थे. और इस बार तो लवकुश भी आ गए थे. अपर्णा ने मनुहार की. ‘2 दिन बाद तो मैं चली जाऊंगी. अम्मां, एक बार बाजार तो मेरे साथ चलो.’

‘ऐसा कर, अजय दफ्तर के लिए निकले तो दोनों ननदभावज उस के साथ ही निकल जाओ. जो जी चाहे, खरीद लो. पेमेंट बाबूजी कर देंगे.’

‘आप के साथ जाने का मन है, अम्मां. एक दिन भाभी संभाल लेंगी,’ अपर्णा ने मचल कर कहा तो अम्मां की आंखें नम हो आई थीं.

‘फिर कभी सही. तेरे जाने की तैयारी भी तो करनी है.’

समझौता: आखिर क्यों परेशान हुई रिया

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प्रेम का दूसरा नाम: तलाश मंजिल की

दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा. आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था.

आहत- एक स्वार्थी का प्रेम

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