फैसला: किस बात से मनु की नींद उड़ गई

मनु और मीनू की जिंदगी मस्ती में कट रही थी. मीनू उस का छोटे से छोटा खयाल रखती थी. एक बार मनु को दिल का दौरा पड़ा. उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा. वहां एक नौजवान भी मीनू के साथ आता था. ठीक होने के बाद मनु ने उस नौजवान को शराब पिलाई. लड़के ने बहुतकुछ बक दिया. यह सुन कर मनु की नींद उड़ गई. ऐसा क्या कहा था उस नौजवान ने?

मनु को जब भी दफ्तर जाने की देरी होती तो वह कुछ हबड़तबड़ सी करने लगता था. उस की यह बेचैनी पलपल नजर आती तो मीनू चट इस को भांप जाती और जल्दी से काम करने लगती.

मीनू कब उस को थाली परोस कर लगा देती, मनु जैसे भौंचक सा ही रह जाता था.

कितनी दूर मनु का दफ्तर था, यह मीनू अच्छी तरह जानती थी. रोज 2 घंटे गाड़ी चला कर दूर गांव पहुंचना होता था. वापस आने मेें भी इतना ही समय लगता.

मीनू हमेशा ही कुछ रख दिया करती थी. कभी नमकीन, कभी मठरी ताकि दोपहर में कुछ सहारा तो रहे, जिस का मनु को दफ्तर पहुंच कर ही पता चलता.

मनु यह सब दोपहर को कौफी संग चाव से खाता. मीनू और वह इसी तरह एक सुरताल मे बंध कर गृहस्थी को जिए जा रहे थे.

मनु अकसर याद करता रहता कि कैसे थे, वे दिन जब उस को खुद खाना बनाना होता था. कमरा गंदा ही रहता. सबकुछ बिखराबिखरा सा. आज सब कितना संवरा और निखरा सा हो चला है. कोई चिंता ही नहीं रहती कि लंच में क्या पकाना है, डिनर में क्या खाना है. हर पोशाक कितनी व्यवस्थित रहती है. घर बिलकुल चमचमाता हुआ.

मनु सुबह 8 बजे घर से रवाना हो जाता और रात 9 बजे तक ही वापस आ पाता था. उस के इस दैनिक क्रम में घर पर बस सोना और खाना यही मुख्य काम होते थे. मीनू बाकी सब बहुत सहजता से संभाल लिया करती थी.

मनु को राशन, सब्जी, फलफूल, वारत्योहार किसी बात की फिक्र होती ही नहीं थी. मीनू कभी जताती तक नहीं थी कि दिनभर में वह सबकुछ कैसे संतुलित कर लेती है.

जिंदगी बहुत ही सुकून से आगे बढ़ रही थी. पिछले 2 साल से मनु जैसे शाही मौज उठा रहा था. शादी के कितने फायदे हैं, यह उस को पहले अंदाज हो जाता तो और जल्दी शादी कर चुका होता.

वे दोनों फेसबुक दोस्त थे. बस 2 महीने की दोस्ती मे ही कुछ ऐसा जादुई सा घट गया कि दोनों ने शादी करने का  फैसला कर लिया. एक दिलचस्प बात यह हुई कि मीनू और मनु दोनों ही खुद अपनेअपने अभिभावक थे. उन्हें ही अपना फैसला करना था और अपना जीवनसाथी चुनना था.

मनु को मीनू के विचार अच्छे लगे थे कि आगे मीनू बस एक गृहिणी बन कर जीना चाहती थी. उस का यही सपना था, घर पर रहना और घर की देखभाल करना.

मीनू ने मातापिता, परिवार ऐसा कुछ कभी देखा ही नहीं था. जाने कौन से  किसी बच्चों वाले आश्रम से शुरू हुआ उस का बचपन और किशोर जीवन, फिर  जवानी एक नारीशाला जैसे छात्रावास में बीत रहा था. ये युवतियां दोपहर तक सरकारी कालेज में पढ़ती थीं, शाम को मोमबत्ती बनाती थीं और यहीं रहती थीं.

अब मीनू गृहस्थी का मजा लेना चाहती थी. खूब पढ़ीलिखी तो थी, इसीलिए समझदार भी बहुत थी. मनु का जीवन भी तबाही की दास्तान ही था. उस ने सहमति दे दी. दोनों ने शादी कर ली. मनु यही सब याद कर रहा था.

मनु तो अब अपनी पूरी  तनख्वाह ही मीनू के हाथ पर रख देता है. बचत करना तो उस ने कभी सीखा ही नहीं. वैसे भी अभी उम्र ही क्या थी, जो रुपयापैसा जोड़ने की चिंता में गल जाते.

मनु अब बस आराम से पूरे मौज से अपनी नौकरी कर रहा था, पूरा मन लगा कर. वैसे भी उस को अपना काम डूब कर करने की आदत भी थी.

आज भी जैसे ही मनु दफ्तर पहुंचा, तो वह कुछ घबराहट सी महसूस कर रहा था. उसे अंदर जैसे कुछ चुभ रहा था. दर्द लगातार बढ़ रहा था. अब मनु ने एक ड्राइवर का इंतजाम किया और अस्पताल आया. मीनू को पहले ही खबर मिल गई थी. इसलिए उस ने अस्पताल में बात कर के सब तैयारी कर ली थी.

मनु को दिल का दौरा पड़ा था. सब पहले ही सतर्क थे. तुरंत उपकरण लगा दिया गया. धड़कन सामान्य हो गई. मनु की जान बच गई, मगर तबीयत अभी तक इतनी दुरुस्त नहीं थी. डाक्टर की सलाह से अब आराम की जरूरत थी. एक हफ्ते तक उस को अस्पताल में ही रहना था.

मनु देख रहा था कि कितनी मजबूती से मीनू ने यह सब संभाल लिया था. मीनू के  माथे पर एक शिकन तक नहीं देखी थी उस ने. हां, मगर वह किसी नौजवान के  साथ बाइक पर आजा रही थी.

मीनू ने कार चलाना सीखा ही नहीं. मनु ने बहुत जोर दिया, मगर वह हमेशा टालती रही.

मनु ने इस नौजवान को पहले कभी देखा नहीं था. तकरीबन 20-22 साल का  होगा.  मीनू को वही लाता था. मीनू खाना बना कर लाती तो वह साथ ही आता था.

मीनू बहुत प्यार से कहती तो वह फलों का जूस ले आता था. कौफी बनवा लाता. सब काम करता. कितनी बार तो उस ने मनु के पैर तक दबा दिए. सिर पर हलकी मालिश कर दी.

मनु बिलकुल ठीक हो कर घर आ गया. मनु ने कुछ दिन घर से ही काम करना उचित समझा. अब घर पर सुबह से शाम 2 मर्द रहा करते थे. एक तो राज और एक मनु. एक बीमार और एक बिलकुल फिट. मीनू पूरी फुरती से सारा काम संभालती और राज हर समय मनु की सेवा में रहता था.

मनु जब दफ्तर जाने लगा था. एक रविवार को वह अपने साथ राज को घुमाने ले गया. मीनू साथ नहीं गई थी. एक अच्छे से होटल में मनु ने राज को पहले बढि़या शराब पिलाई और इतनी ज्यादा पिला दी कि वह बहक गया.

किसी ने कहा है कि नशे मे आदमी हो या औरत हमेशा सच बोलते हैं. मनु उस से पूछता रहा और वह बताता रहा.

पिछले साल जब मंडी में आम आया ही था, तब राज को मीनू वही आम खरीदती मिली थी. दोनों में पहली मुलाकात में आमलीची की बातें इतनी गहराई से हुईं कि बारबार मिलने लगे.

2 हफ्ते बाद तक तो दोनों तन और मन से एकदूसरे के हो चुके थे.

मीनू उस का खूब खर्च उठाती थी. उस को शारीरिक, मानसिक सब तरह का सहारा देती थी. राज यहां पढ़ाई कर रहा था. किराए का कमरा ले कर वह रहता था. बहुत ही रूखासूखा सा जीवन था उस का, मगर मीनू से मुलाकात के बाद वह एक अनोखा रस भरा जीवन जी रहा था. रुपएपैसे हर समय उस के पास खूब रहते थे.

इसी तरह बोलतेबोलते राज नशे में धुत्त तो था ही, वहीं पर लुढ़क गया. मनु ने उस को सहारा दिया, बिठाया और सामान्य किया. दोनों ने जराजरा सा ही खाया और वापस लौट आए.

2 दिन तक मनु ने अपनेआप को शांत रखा. तीसरे दिन सामान पैक कर के कहीं जाने लगा. मीनू ने पूछा तो कह दिया कि अभी सूचना मिली है, जरूरी ट्रेनिंग पर जाना है.

मीनू ने कोई सवाल नहीं किया. उस को मनु पर पूरा भरोसा था और मनु भी ज्यादा कुछ न कह कर सीधा चला गया. वह गाड़ी चलाता रहा और उसी कसबे में जा कर रुका, जहां मीनू का मायका था. जहां वह छात्रावास में पलीबढ़ी थी और पढ़ाई भी कर रही थी.

बस, सिर्फ एक ही दिन की खोजखबर से मनु को पता लग गया कि मीनू के यहां भी एक दर्जन आशिक हुआ करते थे. यानी मीनू का स्वभाव तो पहले से ही आशिकाना है, मनु ने अंदाजा लगा लिया. फिर भी मन के किसी कोने में उस को जरा सा दुख तो हुआ कि उस ने शादी से पहले ही मीनू की सहीसही खोजखबर क्यों नहीं की? खैर, उस ने बहुत सोचसमझ कर अब दिल की गवाही से एक फैसला किया.

इतना सब जानने के बाद वह राज की बातें भी याद करता रहा. मन कुछ कड़वा सा हो गया था उस का जैसे नीम की पत्तियां चबा ली हों.

मनु वहां से अपने घर यानी मीनू के पास वापस नहीं लौटा. जिस तरह के तनाव से वह गुजर रहा था, उस में दोबारा दिल का दौरा पड़ सकता था. यों भी वह अब उस शहर में वापस जाना ही नहीं चाहता था.

मनु ने उसी समय तय किया कि अब वह पूरी जिंदगी किसी गांव में खेती करेगा, या फिर एकएक सांस समाजसेवा को समर्पित कर देगा. पैसा कमाना अब उस का मकसद नहीं था. पहले भी उस को खानेपहनने और ओढ़ने की कोई चिंता थी ही नहीं. बहुत कम पैसों में बड़ी खुशी से गुजारा करना तो उस की आदत थी.

मनु विचार कर ही रहा था कि एक दोस्त का संदेश आया कि पूना के पास ही एक गांव है, वहां एक सूखे जंगल को हराभरा करना है. यह 4 साल का प्रोजैक्ट है. मगर हरियाली में ही चौबीसों घंटे रहना होगा. बहुत सुविधाएं मिलेंगी. और भी बहुत सारी जानकारी उस ने मनु को भेज दी. आगे एक संदेश और भेजा कि अगर सहमति देते हो तो आगे बात करूं.

अंधा क्या चाहे दो आंखें. मनु ने कहा कि वह 1-2 दिन में ही वहां पहुंच रहा है और तुरंत काम पर लग जाना चाहता है.

मनु को जीवन जीने का एक मकसद  मिल गया था. उस ने मीनू को फोन पर ही अलविदा का एक डिजिटल लैटर लिखा, जिस में बेहद जरूरी और खास बात यही थी कि वह अब फिर से बिलकुल आजाद थी, अपनी मरजी से जो चाहे कर सकती थी.

राज ने पूरा किस्सा बयां कर दिया होगा, इसलिए मनु ने सोचा कि मीनू का कोई जवाब नहीं आएगा. मगर जवाब भी आ गया. मीनू ने लिखा था कि अपना पूरा खयाल रखना. जहां रहो खुश रहो.

सोने का झुमका : कहां गिरा आई थी पूर्णिमा अपना झुमका

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहांकहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाईझगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जातेजाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

शौकीन: आखिर प्रभा अपनी बहन से क्या छिपा रही थी?

मीनू ने लंबी सांस ली और खिड़की से बाहर झांका तो पता लगा कि अब अच्छीखासी सुबह हो गई थी. ड्राइवर को कहीं चाय के लिए रुकने की कह कर वह पवन के ताजा झोंकों का मजा लेने लगी.

अलसुबह 4 बजे मीनू पूना से चली थी. मुंबई आने को ही था. यह जगह कोई गांव जैसी लग रही थी.

खैर, मीनू को तो चाय की तलब लग रही थी. एक छोटा सा बाजार आ गया और वहां लाइन से चाय के ठेले लगे थे.

मीनू की आवाज पर ड्राइवर ने पहियों को रोक दिया. एक महिला चाय का और्डर लेने उस की कार के पास आई.

उस महिला की सूरत देख कर मीनू तो जैसे आसमान से गिरी. उस ने चाय मंगवा ली और ड्राइवर को दूर नजर आ रहे मंदिर में रुपए चढ़ाने भेज दिया. वह फटाफट चला भी गया. दरअसल, उसे भी बीड़ी की तलब लग रही थी.

मीनू को पक्का यकीन था कि ये महिला वो ही है और दो पल की बातचीत में यह साबित भी हो गया.

…तो वे उस की सगी भाभी प्रभा थी, और पिछले 5 सालों से गुमशुदा भी.

“ओह… तो आज यहां मिली,” मीनू ने कुशलमंगल पूछी और प्रभा ने उस को खुल कर बता दिया कि यह सबकुछ कैसे हुआ.

प्रभा आपबीती बताने लगी कि ससुराल में खेतों का मैनेजर ही उस का आशिक था और आशिकी के आखिरी चरण में संपत्ति के लोभ के वशीभूत हो कर उसी ने उस का यह हाल कर दिया था.

मीनू को उस ने विस्तार से बताया कि लड़कपन से ही वह बहुत आजाद किस्म की थी, शायद 3 भाइयों में अकेली होने के कारण.

विवाह हुआ तो ससुराल में सारी आबोहवा और माजरा बहुत जल्द समझ आ गया. बड़ेबड़े खेत थे. बागबगीचे थे. खूब दौलत थी और पति अकेले थे.

“तुम एक बहन थीं, मगर तुम भी मस्तमौला टाइप ही थीं,” प्रभा बोली.

“तो, यहां मेरी एक तरह से लौटरी ही खुल गई. मगर अपनी हवस में अंधी मैं यह नहीं समझ सकी कि यह क्या कर रही हूं.

“यह दौलत कोई मैं ने तो नहीं कमाई है. इस की रखवाली तक तो ठीक है, पर सब की आंखों मे धूल झोंक कर इतनी रंगीनियां, सब को खुलेआम धोखा.

“मैं यह सब कैसे कर सकती हूं. मगर, जवाब भी मैं अपने हिसाब से बना लिया करती. बचपन से कोई अंकुश रहा ही नहीं. सारे सहीगलत तो मैं ने अपने तरीके और अपनी  सहूलियत से जो बना कर रखे थे.

“जैसी मेरी फितरत हो रही थी, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आगे इतने बुरे दिन देखने थे, मगर यह जाजम तो मैं ने खुद ही अपने लिए बिछा रखी थी.

“हां तो मीनू तुम सब से कमजोर थीं, मैं तुम को फुसलाने  लगी, उल्लू बनाने लगी.

“मैं कभी नहीं कहती थी कि तुम से बात किए बिना मेरा काम नहीं चल पाता. मगर सिर्फ तुम्हारे ही लक्षण, सोचविचार, चालचलन थे ही ऐसे कि मेरा काम आसान हो गया.

“मैं तो आशिकमिजाज थी, लेकिन तुम्हारे ये अंदाज मेरे बाकी के अवगुण को भी बहुत आसानी से छिपाते चले गए.

“तुम्हारे पति को तो अपने हर मिनट को डॉलर में बदलने का जुनून सवार था और तुम्हारे होने ना होने से उस को कभी कोई फर्क नहीं पड़ा.

“वैसे भी वो अच्छी तरह समझ गया था कि तुम्हारे पर्स में नोट भरे हों और वार्डरोब में फैशनेबल कपड़े हों तो तुम को यह भी याद नहीं रहता कि तुम्हारा कोई पति भी है.

“वो इस बात का  फायदा उठा कर तुम को आजादी देने के नाम पर नजरअंदाज करता रहा.

“मीनू, वो खुद एक नंबर का ऐयाश है. 2-3 बार उस ने मुझ से लिपटने की कोशिश की, मगर उस के बदन का पसीना…

“उहूं… मुझे उलटी सी आती थी. पर, तुम तो बेफिक्र सी  अपने रंग मे रहीं.

“तुम आएदिन पीहर आ कर पड़ी रहतीं और तुम्हारे मातापिता यानी मेरे सासससुर तुम्हारी संगत में मिठास से सराबोर रहते. वो बस खातेपीते, आराम करते और तुम से ही बातें करते रहते.

“उन को, तुम्हारे पति को और तुम्हारे भाई तक को अपने जुआताश आदि के नशेपत्ते में, यह कभी पता तक नहीं रहता था कि मैं क्या कर रही हूं. खेत में जाने के बहाने वहां कौनकौन से गुल खिला रही हूं.

“मैं बस दिखावे के लिए तुम से लाड़ करती और सासससुर ही नहीं, मेरे पति भी भावुक हो कर बहुत खुश हो जाते कि कितनी व्यावहारिक हूं मैं. ननद के साथ इतनी सरल, सहज.”

“फिर, उन को कभी बुरा नहीं लगता था कि मैं अपनीअपनी चला रही हूं. उन की मरजी कहीं है ही नहीं. खाना रोज बाहर से आ रहा है. कितनी चीजें बरबाद भी हो रही हैं.

“और मैं… मैं तो अपनी रवानी  में उस के साथ कभी यहां तो कभी वहां, बस आवारागर्दी करती फिरती. तुम और वो सब यही सोचते कि मैं कितनी जिम्मेदार हूं, बागबगीचे, अनाज, मवेशी देख रही हूं. इस घर के लिए तन, मन, धन से जुटी हुई हूं.

“तुम तो भई हद दर्जे की  निकम्मी थीं अपने भाई की तरह, लेकिन मेरा काम तो आसान कर रही थीं. हौलेहौले मैं ने तुम्हें उपन्यास में डूबे रहने  और हर दूसरे दिन टाकीज जा कर फिल्म देखने का ऐसा आदी बना दिया कि तुम उस लत से बाहर आ ही नहीं सकीं. आती भी कैसे, मैं जो तुम्हारी हर बुरी आदत को खादपानी दे रही थी. और मुझे मुश्किल हुई भी नहीं, तुम्हारा जब तक मन होता, पसर कर सोती ही रहती थीं.

“तुम भी अजीब जीव थीं. जब जो मन होता वो करतीं. रात को बाहर बैठ कर नूडल्स खातीं. सुबह से दोपहर तक खर्राटे भर पलंग तोड़तीं.

“समयकुसमय भी नहीं देखती थीं, मैं ने तो बस तुम को हवा दी. मैं तुम को हमेशा राजकुमारी कहती रहती थी, जबकि सच यह था कि तुम इनसान कहलाने लायक भी नहीं थीं.

“तुम्हारे दिलोदिमाग में बस आरामतलबी के कीटाणु भरे पड़े थे. बस, खाना और सोना, बाकी समय ख्यालीपुलावों में मगन रहना. अपने सुकून में मस्तमगन रहना.

“मैं तुम्हारे भाई और तुम को इतना आराम दे रही थी कि तुम इस की आदी बनती चली गई. मातापिता तो खैर पैंसठ-सत्तर को छू रहे थे, उन का सुस्ताना लाजिमी था.

“मेरा हर अवैध काम तुम्हारे आलस के परदे में तसल्ली से परवान चढ़ रहा था कि एक दिन वो धोखेबाज मुझे अपनी चाल मे फंसाने आया. मैं उस के जाल में ऐसी अटकी कि वो मुझे उल्लू बना कर चला गया.

“मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 3 साल छोटा मेरा दीवाना मुझ से ही खेल खेल जाएगा. और मैं बिलकुल अकेली पड़ गई.

“याद है ना, उन दिनों तुम, तुम्हारे मातापिता और भाई के साथ शिमला गई थीं. गरमी बहुत थी और तुम लोग 2-3 हफ्ते तक वहां से वापस नहीं लौटना चाहते थे.

“मुझे कुछ पिलाया गया था. और फिर हलकी सी बेहोशी में मुझे याद है कि मुझे कस कर बांध दिया गया था.

“मैं हिल कर जितनी भी ताकत थी, जूझती रही. मैं बहुत चीखी, जितना दम बचा था उतना.

“पर, वो सब को अपने साथ मिला चुका था, बंगले का  कुक, माली और चौकीदार. मुझ को हाथपैर बांध कर ट्रक में पटक दिया गया और यहां इतनी दूर गांव में फेंक दिया.

“यहां पूरे 2 साल मजदूरों की तरह दिहाडी कर के मैं बच सकी. पत्थर तोड़ कर, झाड़ू लगा कर, नाली साफ कर के रोटी खाई.

“न जाने कैसा चमत्कार हुआ कि मैं निराश नहीं हुई. अब ये चाय का ठेला है, इस से बहुत ही मजे में गुजारा हो जाता है.

“तुम लोग बेहद याद आते थे. पर, अब तक तो मेरी हर  काली करतूत पता लग गई होगी. इस शर्म से यहीं रही. मैं कहीं नहीं गई. कितने दिन तो मुंह छिपाती रहती कि कोई मेरी पहचान न कर ले.”

“मगर, वो एकदम से इतनी घृणा क्यों करने लगा? इतना नाराज हुआ कैसे?” बीच में मीनू ने पूछ लिया.

“बस, जलन हो गई थी उस को. उस ने पकड़ लिया मुझे, रंगेहाथों.

“हां… वो सहन नहीं कर सका. तुम तो जानती हो ना मेरी तलब. मुझ को वो एक नया युवक, जो काम पर लगा था, एक  मवेशी संभालने वाला बहुत ही भा गया था. और मेरा काफी समय उस के साथ गुजरने लगा था. वो मेरे बालों को सहलाता, मेरे पैर दबाता, बहुत सेवा करता था.”

प्रभा ने एकदम चुप्पी साध ली.

उस के आगे और कुछ भी नहीं बता कर वह जरा ठहर कर  आगे बोली, “कैसे हैं सब..?संपत्ति तो वो डकैत लूट ले गया होगा. मैं बहुत शर्मिंदा हूं,” कह कर प्रभा सिसकने  लगी.

“नहीं… ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. हम लोग लौटे और तुम्हारी चिट्ठी पढी. तुम अपनी मरजी से चली गई थीं. फिर भी हम लोगों ने तुम्हारे अचानक  गायब होने की  रिपोर्ट लिखवाई.”

“चिट्ठी भी लिख दी मेरे नाम से. मेरे ही लेख को कौपी कर लिया. उफ,” तड़प कर रह गई प्रभा.

“हम ने तुम्हारे भाइयों को खबर की, पर वे आए ही नहीं. यह बहुत अजीब हुआ.

“हां… उस के बाद तकरीबन एक महीने बाद वो मैनेजर भी अफीम के नशे में कुएं में छलांग लगा बैठा.

“आगे उस की पत्नी और बच्चों  को हम लोगों ने सहारा दिया. अब वो ही मेरी नई भाभी हैं. सब संभाल रही हैं. मेरा पूरा खयाल रखती हैं.

“उस के बच्चों को हम ने अपने परिवार में शामिल कर लिया है. वे बहुत मेहनत करती हैं. इन दिनों उन्होंने नई जमीनें भी खरीदवा ली हैं. संपत्ति, रुपया  तो हर रोज बढ़ता जा रहा है.

“वाशिम अब बहुत ही सुंदर हो गया है. मैं तो कल शाम पूना आ गई थी. मेरे पति वहां पर एक आध्यात्मिक आश्रम के संचालक हो गए हैं. वे खुद नियम से स्नान, ध्यान करते हैं. लगता ही नहीं कि चालीस के हो गए हैं. मुझ से भी छोटे लगते हैं,” मीनू ने हंस कर कहा.

प्रभा बड़ी हैरत से सुन रही थी और बहुत मुश्किल से विश्वास कर पा रही थी.

“मुश्किल से 3-4  घंटे लगते हैं  यहां पहुंचन में,” मीनू बोली.

“हूं…” कह कर प्रभा चुप हो गई. अब वह कहीं भी नहीं जाना चाहती थी.

मीनू ने उस को बताया, “उस को 12 बजे तक फिजियोथैरैपी के लिए नानावटी अस्पताल पहुंचना है. जरा कलाई में दिक्कत है.”

“मुझे तुम्हारे लिए बहुत अफसोस है. तुम अपना खयाल रखना,” कह कर मीनू  अपनी कार में बैठ गई.

प्रभा उस को जाते हुए देर तक देखती रही और अपने वर्तमान पर वापस ठहर कर जूठे  गिलास मांजने  लगी.

प्यारा सा रिश्ता: परिवार के लिए क्या था सुदीपा का फैसला

12 साल की स्वरा शाम को खेलकूद कर वापस आई. दरवाजे की घंटी बजाई तो सामने किसी अजनबी युवक को देख कर चकित रह गई.

तब तक अंदर से उस की मां सुदीपा बाहर निकली और मुसकराते हुए बेटी से कहा, ‘‘बेटे यह तुम्हारी मम्मा के फ्रैंड अविनाश अंकल हैं. नमस्ते करो अंकल को.’’

‘‘नमस्ते मम्मा के फ्रैंड अंकल,’’ कह कर हौले से मुसकरा कर वह अपने कमरे में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी.

कुछ ही देर में उस का भाई विराज भी घर लौट आया. विराज स्वरा से 2-3 साल बड़ा था.

विराज को देखते ही स्वरा ने सवाल किया, ‘‘भैया आप मम्मा के फ्रैंड से मिले?’’

‘‘हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन तू कहीं गई

हुई थी?’’

‘‘वे सब छोड़ो भैया. आप तो मुझे यह बताओ कि वह मम्मा के बौयफ्रैंड हुए न?’’

‘‘यह क्या कह रही है पगली, वे तो बस फ्रैंड हैं. यह बात अलग है कि आज तक मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है मम्मा ने.’’

‘‘वही तो मैं कह रही हूं कि वह बौय भी है और मम्मा का फ्रैंड भी यानी वे बौयफ्रैंड ही तो हुए न,’’ स्वरा ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ज्यादा दिमाग मत दौड़ा. अपनी पढ़ाई कर ले,’’ विराज ने उसे धौल जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अविनाश चला गया तो सुदीपा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुई थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रैंड अब अकसर घर आने लगा है?’’

‘‘अरे नहीं मम्मीजी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह भी औफिस के किसी काम के सिलसिले में.’’

‘‘मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे औफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं, जबकि यह लड़का तो तुझ से भी छोटा लग रहा था.’’

‘‘मम्मीजी हम समान उम्र के ही हैं. अविनाश मुझ से केवल 4 महीने छोटा है. ऐक्चुअली हमारे औफिस में अविनाश का ट्रांसफर हाल ही में हुआ है. पहले उस की पोस्टिंग हैड औफिस मुंबई में थी. सो इसे प्रैक्टिकल नौलेज काफी ज्यादा है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह औफिस में बहुत जल्दी सब का दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मीजी आप बताइए आज खाने में क्या बनाऊं?’’

‘‘जो दिल करे बना ले बहू, पर देख लड़कों से जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना सही नहीं होता… तेरे भले के लिए ही कह रही हूं बहू.’’

‘‘अरे मम्मीजी आप निश्चिंत रहिए. अविनाश बहुत अच्छा लड़का है,’’ कह कर हंसती हुई सुदीपा अंदर चली गई, मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में जब सुदीपा का पति अनुराग घर लौटा तो खाने के बाद सास ने अनुराग को कमरे में बुलाया और धीमी आवाज में उसे अविनाश के बारे में सबकुछ बता दिया.

अनुराग ने मां को समझाने की कोशिश की, ‘‘मां आज के समय में महिलाओं और पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो सुदीपा कितनी समझदार है. आप टैंशन क्यों लेती हो मां?’’

‘‘बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं सकता. स्त्रीपुरुष की दोस्ती यानी घी और आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय नहीं लगता बेटे. मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.’’

‘‘डौंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,’’ अविनाश मां के पास से तो उठ कर चला आया, मगर कहीं न कहीं उन की बातें देर तक उस के जेहन में घूमती रहीं. वह सुदीपा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निबटा कर सुदीपा कमरे में आई तो अविनाश ने उसे छेड़ने के अंदाज में कहा, ‘‘मां कह रही थीं आजकल आप की किसी लड़के से दोस्ती हो गई है और वह आप के घर भी आता है.’’

पति के भाव समझते हुए सुदीपा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया, ‘‘जी हां आप ने सही सुना है. वैसे मां तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उस से प्यार न हो जाए और मैं आप को चीट न करने लगूं.’’

‘‘हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है, मगर मेरी नहीं. औफिस में मुझे भी महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था.’’

‘‘आई नो ऐंड आई लव यू,’’ प्यार से सुदीपा ने कहा.

‘‘ओहो चलो इसी बहाने ये लफ्ज इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए,’’ अविनाश ने उसे बांहों में भरते हुए कहा.

सुदीपा खिलखिला कर हंस पड़ी. दोनों देर तक प्यारभरी बातें करते रहे.

वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अविनाश अकसर सुदीपा के घर आ जाता. कभीकभी दोनों बाहर भी निकल जाते. अनुराग को कोई एतराज नहीं था, इसलिए सुदीपा भी इस दोस्ती को ऐंजौय कर रही थी. साथ ही औफिस के काम भी आसानी से निबट जाते.

सुदीपा औफिस के साथ घर भी बहुत अच्छी तरह से संभालती थी. अनुराग को इस मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी.

मां अकसर बेटे को टोकतीं, ‘‘यह सही नहीं है अनुराग. तुझे फिर कह रही हूं, पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनमलने देना उचित नहीं.’’

‘‘मां ऐक्चुअली सुदीपा औफिस के कामों में ही अविनाश की हैल्प लेती है. दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एकदूसरे को अच्छे से समझते हैं. इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथसाथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इस में कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो रही है. याद करो मां जब सुदीपा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए हमारे हाथ तंग हो जाते थे. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके इस के लिए सुदीपा का काम करना भी तो जरूरी है न फिर जब वह घर संभालने के बाद काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोकाटाकी भी तो अच्छी नहीं लगती न.’’

‘‘बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,’’ मां ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘ठीक है मां मैं बात करूंगा,’’ कह कर अनुराग चुप हो गया.

एक ही बात बारबार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर डालती है. ऐसा ही कुछ अनुराग के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने सुदीपा और अविनाश शहर से बाहर जाते तो अनुराग का दिल बेचैन हो उठता. उसे कई दफा लगता कि सुदीपा को अविनाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा कर नहीं पाता. आखिर उस की गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही है तो उस के पीछे कहीं न कहीं सुदीपा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख अनुराग के मांबाप ने अपने पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू का दिया. एक दिन दोनों बच्चों को बैठा कर वे समझाने लगे, ‘‘देखो बेटे आप की मम्मा की अविनाश अंकल से दोस्ती ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आप को या पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अविनाश अंकल के साथ घूमने चली जाती है?’’

‘‘दादीजी मम्मा घूमने नहीं बल्कि औफिस के काम से ही अविनाश अंकल के साथ जाती हैं,’’ विराज ने विरोध किया.

‘‘ भैया को छोड़ो दादीजी पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को ले जाते हैं. यह सही नहीं.’’

‘‘हां बेटे मैं इसीलिए कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो. मम्मा को कहो कि अपने दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करे.’’

उस दिन संडे था. बच्चों के कहने पर सुदीपा और अनुराग उन्हें ले कर वाटर पार्क जाने वाले थे.

दोपहर की नींद ले कर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने लगे तो मां को न देख कर दादी के पास पहुंचे, ‘‘दादीजी मम्मा कहां हैं… दिख नहीं रहीं?’’

‘‘तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रैंड के साथ.’’

‘‘मतलब अविनाश अंकल के साथ?’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बौयफ्रैंड इंपौर्टैं हो गया?’’ कह कर स्वरा ने मुंह फुला लिया. विराज भी उदास हो गया.

लोहा गरम देख दादी मां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ‘‘यही तो मैं कहती आ रही हूं इतने समय से कि सुदीपा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं आता.’’

‘‘मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है. कोई जरूरी काम आ गया होगा,’’ अनुराग ने सुदीपा के बचाव में कहा.

‘‘पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला?’’ कह कर विराज गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उस ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.

स्वरा भी चिढ़ कर बोली, ‘‘लगता है मम्मा को हम से ज्यादा प्यार उस अविनाश अंकल से हो गया है,’’ और फिर वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई.

शाम को जब सुदीपा लौटी तो घर में सब का मूड औफ था. सुदीपा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे अविनाश अंकल के पैर में गहरी चोट लग गई थी. तभी मैं उन्हें ले कर अस्पताल गई.’’

‘‘मम्मा आज हम कोई बहाना नहीं सुनने वाले. आप ने अपना वादा तोड़ा है और वह भी अविनाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी,’’ कह कर दोनों वहां से उठ कर चले गए.

स्वरा और विराज मां की अविनाश से इन नजदीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे. वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गरमी की छुट्टियों के बाद बच्चों के स्कूल खुल गए और विराज अपने होस्टल चला गया.

इधर सुदीपा के सासससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उस के मांबाप से भी कर दिया. सुदीपा के मांबाप भी इस दोस्ती के खिलाफ थे. मां ने सुदीपा को समझाया तो पिता ने भी अनुराग को सलाह दी कि उसे इस मामले में सुदीपा पर थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अविनाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं देनी चाहिए.

इस बीच स्वरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह स्वरा से 2-4 साल बड़ा था यानी विराज की उम्र का था. वह जूडोकराटे में चैंपियन और फिटनैस फ्रीक लड़का था. स्वरा उस की बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आनेजाने लगे. सुजय दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह स्वरा को अच्छी बातें बताता. उसे सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ स्वरा को बहुत पसंद आता.

एक दिन स्वरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. सुदीपा ने उस की अच्छे से आवभगत की. सब को सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने स्वरा से कोई पूछताछ नहीं की. अब तो सुजय अकसर ही घर आने लगा. वह स्वरा की मैथ्स की प्रौब्लम भी सौल्व कर देता और जूडोकराटे भी सिखाता रहता.

एक दिन स्वरा ने सुदीपा से कहा, ‘‘मम्मा आप को पता है सुजय डांस भी जानता है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लौन में या फिर अपने कमरे में डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो.’’

‘‘मम्मा आप को या घर में किसी को एतराज तो नहीं होगा?’’ स्वरा ने पूछा.

‘‘अरे नहीं बेटा. सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पैंड करते हो. फिर हमें ऐतराज क्यों होगा? बस बेटा यह ध्यान रखना सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना. काम की बातें सीखो, खेलोकूदो, उस में क्या बुराई है?’’

‘‘ओके थैंक यू मम्मा,’’ कह कर स्वरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे स्वरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय इसी तरह बीतता रहा. एक दिन सुदीपा और अनुराग किसी काम से बाहर गए हुए थे.

घर में स्वरा दादीदादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो स्वरा उस से मैथ्स की प्रौब्लम सौल्व कराने लगी. इसी बीच अचानक स्वरा को दादी के कराहने और बाथरूम में गिरने की आवाज सुनाई दी.

स्वरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी हैं. स्वरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उन के पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वे अपने कमरे में सोए थे. स्वरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया और जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. स्वरा ने अपने मम्मीडैडी को भी हर बात बता दी. इस बीच सुजय जल्दी से दादी को ले कर पास के अस्पताल भागा. उस ने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुंच कर उस ने बहुत समझदारी के साथ दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उन को हार्ट अटैक आया था. अब तक स्वरा के मांबाप भी हौस्पिटल पहुंच गए थे.

डाक्टर ने सुदीपा और अनुराग से सुजय की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘इस लड़के ने जिस फुरती और समझदारी से आप की मां को हौस्पिटल पहुंचाया वह काबिलेतारीफ है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी यहां तक कि जान को भी खतरा हो सकता था.’’

सुदीपा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. अनुराग और उस के पिता ने भी नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज उन के परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर स्वरा की दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई

घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा, ‘‘आज मुझे पता चला कि दोस्ती का रिश्ता इतना खूबसूरत होता है. तुम ने मेरी जान बचा कर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे कि दोस्ती का मतलब क्या है.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था दादीजी,’’ सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने सुदीपा की तरफ देख कर ग्लानि भरे स्वर में कहा, ‘‘मुझे माफ कर दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है, बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और अविनाश की दोस्ती पर शक कर के हम ने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही नहीं पाई थी.’’

सुदीपा बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी आप बड़ी हैं. आप को मुझ से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं. आप अविनाश को जानती नहीं थीं, इसलिए आप के मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था. पर मैं उसे पहचानती हूं, इसलिए बिना कुछ छिपाए उस रिश्ते को आप के सामने ले कर आई थी.’’

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सुदीपा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल और गुलदस्ता लिए अविनाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उस ने पूछा, ‘‘मैं ने सुना है कि अम्मांजी की तबीयत खराब हो गई है. अब कैसी हैं वे?’’

‘‘बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,’’ हंसते

हुए सुदीपा ने कहा और हाथ पकड़ कर उसे अंदर ले आई.

एक किन्नर की लव स्टोरी : रानो की कहानी

रानो बहुत खुश थी कि उसे भी कोई चाहने वाला मिल गया है. किन्नरों की जिंदगी में ऐसा कम ही होता है. किन्नरों के ऊपर पैसे फेंकने वाले तो बहुत होते हैं, मगर उन के ऊपर कोई अपना दिल फेंक दे, ऐसा कभी देखा नहीं. राजू एक आटोरिकशा ड्राइवर था. रानो रात के 10 बजे सहेलियों के साथ सड़क पर खड़ी थी. राजू की सांसें तेज चल रही थीं. उस से रानो का खुला हुआ कंधा देखा नहीं जा रहा था. वह गजब की खूबसूरत दिख रही थी. रानो अपनी सहेलियों से हंसहंस कर बातें कर रही थी. कुछ बातें राजू के कानों में भी पड़ रही थीं, मगर पता नहीं क्यों राजू उन बातों को सुनना नहीं चाह रहा था. उस की आंखों में इस वक्त रानो का गोरा कंधा घुसा हुआ था.

स्ट्रीट लाइट की रोशनी में रानो की ड्रैस रहरह कर चमक जाती थी. उस की ड्रैस पर ढेर सारे सितारे लगे हुए थे. रानो ने अपने बालों को खुला छोड़ रखा था. वह रहरह कर अपने बालों को कंधे के पीछे करती और कभीकभी अपनी छाती की ओर कर उंगलियों से अपनी लटों के साथ खेलती.

राजू को पता नहीं था कि उस के आटोरिकशे में कौन जाने वाला है, मगर वह पूरे मन से यही चाह रहा था कि रानो उस की सवारी बन जाए. वैसा ही हुआ. रानो हंसती हुई राजू के आटोरिकशे में बैठ गई.

राजू ने पहली ही नजर में उसे अपना दिल दे दिया था, एक लड़की समझ कर. लेकिन जब उसे पता चला कि रानो एक किन्नर है, तब भी वह उस की खूबसूरती के आगे सबकुछ भूल गया. ‘‘बहुत खूबसूरत लग रही हो,’’

राजू ने आटोरिकशे के साइड मिरर में देख कर रानो से कहा. यह सुन कर रानो हंस दी और बोली, ‘‘ऐसे मत देख पगले, प्यार हो जाएगा.’’

रानो ने राजू की हंसी उड़ाई, मगर उसे नहीं पता था कि राजू सच कह रहा है. वह तो पहले ही फंस चुका था उस के हुस्न के जाल में. रानो ने देखा कि राजू ने उस की बात का जवाब नहीं दिया, मगर बीचबीच में वह उसे देख जरूर रहा था.

रानो ने महसूस किया कि राजू एक सीधासादा लड़का है. उस की नजर में फूहड़पन नहीं था. वह उसे ऐसे देख रहा था, जैसे कोई एक खूबसूरत लड़की को देखता है. रानो ने अपने मन में कुछ सोचा कि तभी होटल आ गया. आटोरिकशे से उतर कर रानो ने ड्राइवर को पैसे दिए. राजू ने देखा भी नहीं कि उस ने कितने पैसे दिए. उस ने एक हाथ में पैसे पकड़े और रानो को देखता रहा. उसे रानो को कुछ पैसे वापस करने थे. रानो इंतजार कर रही थी, मगर उस ने देखा कि राजू उदास लग रहा है. रानो समझ गई.

‘‘कल 10 बजे वहीं आना, जहां से आज मुझे बैठाया है,’’ इतना कह कर रानो मुसकराते हुए होटल के अंदर चली गई.

यह सुन कर राजू खुश हुआ कि रानो ने उसे कल भी बुलाया है. अगले दिन ठीक 10 बजे राजू उसी नुक्कड़ पर पहुंच गया, जहां से रानो उस के आटोरिकशे में बैठी थी.

‘‘चलो,’’ यह सुन कर राजू चौंक गया. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो रानो उस के आटोरिकशे में बैठ चुकी थी. ‘‘किधर से आईं तुम? मैं तो सामने देख रहा था,’’ राजू थोड़ा खुल सा

गया था आज. फिर उस ने आटोरिकशा स्टार्ट किया और साइड मिरर से उसे देखने लगा. आज रानो ने बैंगनी रंग की ड्रैस पहनी हुई थी. वैसी ही मादक ड्रैस, जिसे देखते ही नशा चढ़ जाए.

रानो मेकअप करती थी. वह छोटे से आईने में अपने मेकअप को देख रही थी. जल्दीजल्दी में आज वह ठीक से तैयार नहीं हो पाई थी, तभी उस की नजर राजू से टकरा गई. ‘‘सामने देख कर चलाओ…’’ रानो ने मुसकरा कर कहा. राजू समझ गया कि वह क्या कहना चाह रही थी.

‘‘तुम जैसी खूबसूरत लड़की साथ बैठी हो, तो नजर भटकेगी ही न,’’ राजू ने भी कह दिया. ‘‘क्यों मजाक उड़ा रहे हो. मैं लड़की नहीं हूं,’’ रानो के मन में जैसे कुछ चुभ सा गया था.

‘‘कम भी नहीं हो. कोई भी देखे, तो एकदम पगला जाएगा,’’ राजू ने अपनी बात कही. ‘‘मेरी तरफ से ध्यान हटाओ. मैं तुम्हारे किसी काम की नहीं,’’ रानो ने राजू को आगे बढ़ने से रोका.

‘‘तुम इतनी खूबसूरत हो कि मैं तुम्हारे लिए जिंदगीभर आटोरिकशा चला सकता हूं,’’ राजू बोला, तो रानो हंस दी. राजू ने उस के मन को छू लिया था. अब रानो राजू के आटोरिकशे को ही अपने आनेजाने के लिए इस्तेमाल करती थी. राजू को अब कुछ की जगह बहुत सारे पैसे मिलने लगे. बड़ीबड़ी पार्टियों में उस का आनाजाना होने लगा.

रानो के मना करने के बावजूद राजू नहीं माना और इस बात पर अड़ा रहा कि वह उस से प्यार करता है. उस दिन पता नहीं क्या हुआ. रानो होटल में गई, मगर कुछ ही देर में गुस्से से भरी हुई बाहर निकली. राजू का आटोरिकशा उसे वहीं खड़ा मिला.

‘‘तुम गए नहीं अब तक?’’ रानो ने आटोरिकशे में बैठते हुए गुस्से से कहा. ‘‘पता नहीं क्यों आज मन नहीं हुआ जाने का,’’ राजू बोला.

‘‘घर ले चलो,’’ आज रानो पहली बार इतनी जल्दी घर जा रही थी. आटोरिकशे से उतरने के बाद रानो अपनी बिल्डिंग में जाने लगी, तभी उस ने देखा कि राजू भी उस के पीछेपीछे आ रहा है.

‘‘तुम को घर नहीं जाना है क्या?’’ रानो ने पूछा. ‘‘नहीं, आज तुम्हारे पास रुकने का मन है.’’

‘‘अच्छा…’’ कह कर रानो आगे बढ़ गई. वह बड़े से घर में अकेले रहती थी. घर में घुसते ही रानो ने अपनी ड्रैस ऐसे उतारी, जैसे वह इस ड्रैस से खूब नाराज हो. उसे यह भी खयाल नहीं आया कि आज उस के साथ कोई और भी आया है.

राजू बड़ीबड़ी आंखों से रानो को कपड़े उतारते देख रहा था. उस ने पीले रंग की ड्रैस पहनी थी, जो उस ने अभीअभी उतारी थी. अब उस के भरे हुए सीने पर काले रंग की ब्रा दिख रही थी, जिस से उस का हुस्न जितना ढका हुआ था, उस से ज्यादा दिख रहा था. यह देख राजू के मुंह में पानी आ गया. उस से रहा नहीं गया और उस ने रानो के पूरे जिस्म पर अपनी नजर दौड़ा दी. पूरी औरत तो लगती थी रानो.

रानो सोफे पर ऐसे बैठ गई, मानो उसे राजू से कोई शर्म नहीं आ रही थी. ‘‘कुछ खाओगे?’’ पूछ कर रानो ने राजू का ध्यान भंग किया.

राजू ने भी कह दिया, ‘‘हां.’’ राजू इस वक्त रानो की खुली जांघों को घूर रहा था, जो एकदूसरे पर चढ़ी हुई थीं. रानो को उस ने पहली बार इतना खुल कर देखा था.

रानो की तरफ से कोई मनाही न देख उस का हौसला बढ़ गया और वह रानो के पास बैठ गया. रानो ने अपनी आंखें बंद कर लीं. राजू ने उस के होंठों को अपनी उंगली से छुआ. फिर उस ने रानो के पूरे जिस्म को अपनी उंगली से छुआ. राजू को अपने पास पा कर रानो बहुत खुश थी.

अब यह सिलसिला बहुत तेजी से आगे बढ़ने लगा. दोनों एकदूसरे की बांहों में घंटों पड़े रहते. अपने धंधे के बाद भी रानो अब खुश रहने लगी थी. उस का बड़ेबड़े अमीरों से वास्ता पड़ता था. बड़ेबड़े लोग भी अजीब शौक रखते हैं और ऐसे ही एक अजीब शौक को पूरा करने के लिए रानो जैसी किन्नरों की जरूरत पड़ती है.

रानो बस कहने को किन्नर थी, वरना उस के हुस्न के आगे अच्छीअच्छी लड़कियां पानी भरें. यही वजह थी कि उसे उस के काम के औरों से ज्यादा पैसे मिलते थे. इतनी कम उम्र में उस ने इतना पैसा कमा लिया था कि उसे पैसे से अब कोई मोह नहीं रह गया था. मगर जब रानो पूरी तरह राजू के प्यार में गिरफ्त हो गई, तब राजू के मन में लालच आ गया. अब वह किसी न किसी काम के बहाने उस से पैसे मांगने लगा था.

रानो ने पहले मना नहीं किया. राजू के ऊपर खूब पैसे लुटाए. मगर लालच का पेट इतना बड़ा होता है कि बड़े से बड़ा खजाना भी खाली हो जाए. फिर एक दिन रानो की दौलत भी कम पड़ गई. रानो ने बहुत समझाया, मगर राजू को बात समझ नहीं आई. आखिर में रानो ने साफसाफ कह दिया कि अब वह पैसे नहीं दे सकती. मगर तब तक राजू के मन में शैतान आ चुका था. रानो के पास बहुत पैसा था और राजू उस के सारे भेद जान चुका था.

राजू ने पूरी योजना बनाई और एक दिन रानो के पास पहुंचा और कहा कि उसे उस की बात समझ में आ गई है. रानो बहुत खुश हुई. दोनों में प्यार हुआ. इस के बाद उन्होंने खाना खाया. फिर प्यार हुआ.

जब रानो एकदम मस्त हो गई, तब राजू ने उस की हसरत भी पूरी की. राजू ने रानो की पीठ सहलाते हुए उस के बालों को आगे की तरफ सरका दिया, जिस से रानो को अब फर्श के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था. रानो के बाल बहुत घने थे. जब भी वह घर में बिना कपड़ों के रहती, अपने बालों को संवारती रहती. उसे आईने में अपने उभारों को देखना अच्छा लगता था. फिर लंबे काले बालों से अपने गोरेगोरे उभारों को ढकती थी.

कभीकभी तो राजू के सामने भी वह ऐसा करती थी. क्या करती, प्यार में पड़ गई थी न. रानो के शरीर में बस एक ही कमी थी कि वह औरत हो कर भी औरत नहीं थी. वह राजू को एक औरत का सुख देना चाहती थी. राजू ने रानो को महसूस नहीं होने दिया था कि वह एक किन्नर है. वह उसे एक लड़की की ही नजर से देखता था.

रानो अब उस के सामने पूरी कोशिश करती कि एक लड़की ही दिखे. कपड़े भी उस ने शरीफ लड़कियों वाले खरीद लिए थे. जब वह राजू के साथ बाहर निकलती, तो सब देखते रह जाते. रानो ने राजू को अपना पति ही मान लिया था और उसे खुश रखने की भरपूर कोशिश करती थी. आज भी रानो बहुत खुश थी कि राजू ने उस की बात मान ली है. पैसे की उस के पास कमी नहीं थी. वह बस राजू के मन से लालच दूर कर देना चाहती थी.

इस वक्त भी रानो और राजू प्यार करने में मस्त थे. अपने घने बालों की वजह से रानो को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. तभी राजू ने जेब से चाकू निकाला और रानो की छाती में एक जोरदार वार किया. रानो चीखती हुई निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी. थोड़ी देर में उस की मौत हो गई. घर में जितनी भी दौलत थी, राजू ले कर फरार हो गया.

मिस्टर बेचारा : कैसा था उस लड़की का खुमार?

दरवाजा खुला. जिस ने दरवाजा खोला, उसे देख कर चंद्रम हैरान रह गया. वह अपने आने की वजह भूल गया. वह उसे ही देखता रह गया.

वह नींद में उठ कर आई थी. आंखों में नींद की खुमारी थी. उस के ब्लाउज से उभार दिख रहे थे. साड़ी का पल्लू नीचे गिरा जा रहा था. उस का पल्लू हाथ में था. साड़ी फिसल गई. इस से उस की नाभि दिखने लगी. उस की पतली कमर मानो रस से भरी थी.

थोड़ी देर में चंद्रम संभल गया, मगर आंखों के सामने खुली पड़ी खूबसूरती को देखे बिना कैसे छोड़ेगा? उस की उम्र 25 साल से ऊपर थी. वह कुंआरा था. उस के दिल में गुदगुदी सी पैदा हुई.

वह साड़ी का पल्लू कंधे पर डालते हुए बोली, ‘‘आइए, आप अंदर आइए.’’

इतना कह कर वह पलट कर आगे बढ़ी. पीछे से भी वह वाकई खूबसूरत थी. पीठ पूरी नंगी थी.

उस की चाल में मादकता थी, जिस ने चंद्रम को और लुभा दिया था. उस औरत को देखने में खोया चंद्रम बहुत मुश्किल से आ कर सोफे पर बैठ गया. उस का गला सूखा जा रहा था.

उस ने बहुत कोशिश के बाद कहा, ‘‘मैडम, यह ब्रीफकेस सेठजी ने आप को देने को कहा है.’’

चंदम ने ब्रीफकेस आगे बढ़ाया.

‘‘आप इसे मेज पर रख दीजिए. हां, आप तेज धूप में आए हैं. थोड़ा ठंडा हो जाइएगा,’’ कहते हुए वह साथ वाले कमरे में गई और कुछ देर बाद पानी की बोतल, 2 कोल्ड ड्रिंक ले आई और चंद्रम के सामने वाले सोफे पर बैठ गई.

चंद्रम पानी की बोतल उठा कर सारा पानी गटागट पी गया. वह औरत कोल्ड ड्रिंक की बोतल खोलने के लिए मेज के नीचे रखे ओपनर को लेने के लिए झुकी, तो फिर उस का पल्लू गिर गया और उभार दिख गए. चंद्रम की नजर वहीं अटक गई.

उस औरत ने ओपनर से कोल्ड ड्रिंक खोलीं. उन में स्ट्रा डाल कर चंद्रम की ओर एक कोल्ड ड्रिंक बढ़ाई.

चंद्रम ने बोतल पकड़ी. उस की उंगलियां उस औरत की नाजुक उंगलियों से छू गईं. चंद्रम को जैसे करंट सा लगा.

उस औरत के जादू और मादकता ने चंद्रम को घायल कर दिया था. वह खुद को काबू में न रख सका और उस औरत यानी अपनी सेठानी से लिपट गया. इस के बाद चंद्रम का सेठ उसे रोजाना दोपहर को अपने घर ब्रीफकेस दे कर भेजता था. चंद्रम मालकिन को ब्रीफकेस सौंपता और उस के साथ खुशीखुशी हमबिस्तरी करता. बाद में कुछ खापी कर दुकान पर लौट आता. इस तरह 4 महीने बीत गए.

एक दोपहर को चंद्रम ब्रीफकेस ले कर सेठ के घर आया और कालबेल बजाई, पर घर का दरवाजा नहीं खुला. वह घंटी बजाता रहा. 10 मिनट के बाद दरवाजा खुला.

दरवाजे पर उस की सेठानी खड़ी थी, पर एक आम घरेलू औरत जैसी. आंचल ओढ़ कर, घूंघट डाल कर.

उस ने चंद्रम को बाहर ही खड़े रखा और कहा, ‘‘चंद्रम, मुझे माफ करो. हमारे संबंध बनाने की बात सेठजी तक पहुंच गई है. वे रंगे हाथ पकड़ेंगे, तो हम दोनों की जिंदगी बरबाद हो जाएगी.

‘‘हमारी भलाई अब इसी में है कि हम चुपचाप अलग हो जाएं. आज के बाद तुम कभी इस घर में मत आना,’’ इतना कह कर सेठानी ने दरवाजा बंद कर दिया.

चंद्रम मानो किसी खाई में गिर गया. वह तो यह सपना देख रहा था कि करोड़पति सेठ की तीसरी पत्नी बांहों में होगी. बूढ़े सेठ की मौत के बाद वह इस घर का मालिक बनेगा. मगर उस का सपना ताश के पत्तों के महल की तरह तेज हवा से उड़ गया. ऊपर से यह डर सता रहा था कि कहीं सेठ उसे नौकरी से तो नहीं निकाल देगा. वह दुकान की ओर चल दिया.

सेठानी ने मन ही मन कहा, ‘चंद्रम, तुम्हें नहीं मालूम कि सेठ मुझे डांस बार से लाया था. उस ने मुझ से शादी की और इस घर की मालकिन बनाया. पर हमारे कोई औलाद नहीं थी. मैं सेठ को उपहार के तौर पर बच्चा देना चाहती थी. सेठ ने भी मेरी बात मानी. हम ने तुम्हारे साथ नाटक किया. हो सके, तो मुझे माफ कर देना.’ इस के बाद सेठानी ने एक हाथ अपने बढ़ते पेट पर फेरा. दूसरे हाथ से वह अपने आंसू पोंछ रही थी.

मुलाकात : विनीत और सुधा का ब्याह

विनीत प्लेटफार्म पर बेतहाशा भागता जा रहा था, क्योंकि ट्रेन चल पड़ी थी. अगर यह गाड़ी छूट जाती तो पूरे 6 घंटे बाद ही उसे दूसरी गाड़ी मिलती. यही सोच कर उस ने आखिरी डब्बा पकड़ना चाहा.

अगर वह लड़की उस पल विनीत का हाथ न पकड़ती, तो शायद वह गाड़ी के नीचे ही आ जाता.

उस लड़की का नाम सुधा था. उस ने कहा, ‘‘अगर आप का हाथ छूट जाता तो क्या होता?’’

विनीत कुछ नहीं बोला, बस एहसान जताती निगाहों से उसे देखता रहा.

‘‘अरे, आप तो हांफ रहे हैं… चलिए, मेरी सीट पर बैठ जाइए,’’ कहते हुए सुधा चल पड़ी.

विनीत सुधा के पीछेपीछे चल पड़ा. वह अपनी मंडली में आते हुए बोली, ‘‘वनी, हटना. इन्हें बिठाना है.’’

एक अनजान नौजवान को सुधा के साथ देख कर वनी सवालिया निगाहों से उसे घूरते हुए थोड़ा खिसक गई.

सुधा ने पानी का गिलास विनीत की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए, गला तर कर लीजिए,’’ फिर उस ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘वनी, ये साहब भागतेभागते डब्बा पकड़ रहे थे. अगर मैं सहारा…’’

‘‘तो बेचारे चारों खाने चित हो जाते,’’ हंसते हुए सुधा की सहेली वनी ने बात पूरी की, ‘‘अरे सुधा, तू भी बैठ जा हमारे पास.’’

सुधा विनीत के पास बैठ गई.

ट्रेन तेज रफ्तार से भागती जा रही थी. थोड़ी देर चुप्पी छाई रही, फिर विनीत ने पूछा, ‘‘आप कहां तक जाएंगी?’’

‘‘चंडीगढ़,’’ सुधा ने कहा.

‘‘मुझे भी तो वहीं जाना है. वहां किस जगह?’’

‘‘कालेज की ओर से खेलों में हिस्सा लेने जाना है,’’ वनी ने कहा.

‘‘मैं भी तो वहां बैडमिंटन खेलने जा रहा हूं,’’ विनीत ने मुसकराते हुए कहा.

विनीत के सजीलेपन से सुधा बहुत खुश हुई. रास्ते में जहां भी ट्रेन रुकती, चायनाश्ता लेने विनीत ही उतरता था. पूरे 7 घंटे बाद सभी चंडीगढ़ जा पहुंचे.

सुधा और वनी की हौकी की टीम जीत चुकी थी. इधर विनीत का खेल भी बहुत अच्छा रहा.

इन 2-3 दिनों में सुधा और विनीत बहुत करीब आ चुके थे. एक दिन खेल खेलने के बाद शाम को दोनों घूमने निकल पड़े. आसमान पर कालेकाले बादल तैर रहे थे. ठंडी हवा चल रही थी. वे एक पार्क में आ बैठे. रंगबिरंगे फूलों के बीच फुहारे बड़े सुंदर लग रहे थे. विनीत आइसक्रीम ले आया.

सुधा ने कहा, ‘‘इस को लाने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘देखती नहीं, अभी कितनी गरमी पड़ रही है.’’

फिर वह आइसक्रीम का मजा लेते हुए बोला, ‘‘सुधा, 2-3 दिन पता ही नहीं चले कि कैसे कट गए.’’

‘‘हां,’’ सुधा ने धीरे से कहा.

‘‘घर जा कर कहीं तुम मुझे भूल तो नहीं जाओगी?’’

‘‘नहीं, अब मैं भला तुम्हें कैसे भुला सकती हूं. तुम तो मेरी धड़कन बन चुके हो,’’ विनीत के पास सिमटते हुए सुधा ने जवाब दिया.

‘‘तो मैं समझूं कि मैं तुम्हें प्यार कर सकता हूं?’’

सुधा शरमा गई. जिंदगी में पहली बार उसे किसी से प्यार हुआ था.

अचानक रिमझिम पानी बरसने लगा. विनीत बोला, ‘‘आओ सुधा, चलें. लगता है, तेज बारिश होगी.’’

सुधा उठने लगी तो जोर की बिजली कड़की. सुधा डर कर विनीत से लिपट गई, तो विनीत ने भी उसे बांहों में जकड़ लिया.

पार्क खाली होने लगा था. थोड़ी देर रुकने के लिए वे दोनों वहीं पास की खाली कोठरी में चले गए.

अब जोरों से बारिश होने लगी. उन्हें उम्मीद थी कि बिन मौसम की बरसात है, इसलिए जल्दी ही बादल छंट जाएंगे, लेकिन उन का सोचना गलत था.

रात बहुत हो चुकी थी. बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. भीगने की वजह से सुधा ठंड से कांप रही थी.

विनीत ने सुधा का हाथ अपने हाथ में ले लिया. इतना भीगने पर भी सुधा के जिस्म से आग बरस रही थी.

विनीत सुधा को अपने आगोश में लेने लगा, तो वह बोली, ‘‘नहीं, अभी नहीं विनीत.’’

‘‘लेकिन, इस मौसम ने मुझे पागल बना दिया है. मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह पाऊंगा,’’ विनीत हवस की आग में जल रहा था.

सुधा का तेजी से दिल धड़क उठा. उस के जिस्म में तूफान उमड़ रहा था. वह भी जैसे सोचनेसमझने की ताकत खो चुकी थी. उस ने खुद को विनीत के हवाले कर दिया.

काफी देर बाद जब बारिश रुकी, तो वे किसी तरह होस्टल में पहुंचे और चुपचाप अपनेअपने कमरे में जा कर दुबक गए.

घर आ कर सुधा को लगा कि वह बहुत बड़ा जुर्म कर के आई है. कहीं विनीत बेवफा निकला, तो क्या होगा. नहीं, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. लेकिन अब सोचने से क्या फायदा था. तीर कमान से निकल चुका था.

सुधा अंदर ही अंदर घुटने लगी. अगर कुछ हो गया तो वह अपने पिताजी को क्या बताएगी, जिन्होंने उसे इतनी आजादी दे रखी थी. वह क्यों इस चक्रव्यूह में फंस गई?

तकरीबन एक महीने बाद डाकिया एक लिफाफा दे गया. जब उसे खोला तो सुधा खुशी से झूम उठी. उस में लिखा था, ‘सुधा, अगले महीने मेरे बाबूजी तुम्हारे यहां रिश्ता तय करने आ रहे हैं. दूसरी खुशखबरी है कि मुझे नौकरी भी मिल गई है. तुम्हारा, विनीत.’

जब विनीत के पिता सुधा को देख कर लौटे, तो उन का चेहरा गुस्से से लालपीला हो रहा था. आते ही वे बोले, ‘‘एक बात कान खोल कर सुन लो. तुम्हारी शादी उस बदनाम लड़की से कभी नहीं हो सकती.’’

‘‘लेकिन क्या हुआ? कुछ बताइए न. पिताजी, मुझे पूरी उम्मीद है कि सुधा ऐसी नहीं हो सकती,’’ विनीत जल्दी से बोला.

‘‘मैं कहता हूं, उस लड़की को भूल जाओ. वह तो अच्छा हुआ कि मेरा पुराना दोस्त डाक्टर मदन मिल गया. अगर वह समय पर नहीं बताता, तो

हम अपनी बिरादरी में नाक कटा बैठते. जानते हो, वह लड़की मां बनने वाली है.’’

‘‘लेकिन पिताजी, आप मेरी बात सुन लीजिए,’’ गुजारिश करते हुए विनीत ने कहा.

‘‘नहीं बेटा, मेरे जीतेजी यह रिश्ता नहीं हो सकता,’’ नफरत से उन्होंने मुंह फेर लिया.

‘‘नहीं पिताजी, मेरे जुर्म की सजा आप सुधा को मत दीजिए. गलती मेरी ही है. उस की होने वाली औलाद का पिता मैं ही हूं.’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’ फिर थोड़ी देर रुक कर वह मुसकराते हुए बोले, ‘‘बेटा, मुझे खुशी है कि इतना सब होते हुए भी तुम ने उस लड़की को अपनाने की बात की है.’’

विनीत के चेहरे पर मुसकान तैर गई. कुछ दिनों बाद विनीत और सुधा का ब्याह हो गया.

वह अनजान लड़की: स्टेशन पर दिनेश के साथ क्या हुआ

दिनेश नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ‘राजधानी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन के इंतजार में कुरसी पर बैठा था, तभी जींसटौप, सैंडल पहने और मौडल सी दिखने वाली खूबसूरत सी लड़की दनदनाती हुई आई और उस के दोनों हाथ पकड़ कर ‘जीजूजीजू…’ कहते हुए उस के बगल की कुरसी पर बैठ गई.

वह लड़की लगातार बोले जा रही थी, ‘‘पूरे 2 साल बाद आप मिल रहे हैं. इस बीच आप ने अपनी हैल्थ को काफी मेंटेन कर लिया है. सुषमा दीदी कैसी हैं? प्रेम और बिपाशा की क्या खबर है?’’

दिनेश हैरान था, फिर भी इतनी खूबसूरत लड़की से बात करने का लालच वह छोड़ नहीं पा रहा था. वह भी उस की हां में हां मिलाने लगा. सच कहें, तो उसे भी उस लड़की से बात करने में मजा आने लगा था.

तकरीबन 45 मिनट तक वह लड़की दिनेश से बात करती रही. बीचबीच में वह एकाध शब्द बोल लेता था.

उस लड़की ने पूछा, ‘‘जीजू, आप कहां जा रहे हैं?’’

दिनेश ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘मैं पटना जा रहा हूं.’’

फिर वह लड़की बोली, ‘‘जीजू, मुझे मुंबई की ट्रेन पकड़नी है. क्या आप मुझे ट्रेन में बिठाने में मदद कर देंगे? प्लीज…’’

दिनेश ने घड़ी देखी. उस की ट्रेन आने में तकरीबन एक घंटे की देरी थी. उस ने लड़की से पूछा, ‘‘तुम्हारी ट्रेन कितने बजे की है?’’

उस ने कहा, ‘‘बस, 10 मिनट में आने वाली है.’’

कुछ देर बाद ही उस लड़की की ट्रेन आ गई. दिनेश ने उस का बैग संभाल लिया और एसी बोगी में उसे बर्थ पर बिठा कर उस का सामान रख दिया.

कुछ पल के बाद लड़की के चेहरे पर बेफिक्री का भाव आया. उस ने दिनेश के दोनों हाथ पकड़ लिए, फिर बोली, ‘‘सर, मैं आप की मदद के लिए सचमुच दिल से आभारी हूं. मेरा नाम प्रिया है. मैं मुंबई में रहती हूं. मैं एक मौडल हूं. ‘‘दरअसल, मैं एक जरूरी काम के सिलसिले में दिल्ली आई थी. आज होटल से निकलते वक्त ही कुछ गुंडेमवाली किस्म के लोग मेरी टैक्सी का पीछा कर रहे थे. उस के बाद वे मेरे पीछेपीछे प्लेटफार्म पर भी घुस आए. फिर आप से मुलाकात हुई और वे गुंडे तितरबितर हो कर लौट गए.

‘‘मैं आप की मदद के लिए सचमुच एहसानमंद हूं. यह रहा मेरा विजिटिंग कार्ड. कभी मुंबई आना हुआ, तो आप मुझे काल कर लेना.’’

दिनेश ने उठतेउठते पूछ ही लिया, ‘माफ कीजिएगा प्रियाजी, मैं भी एक मर्द ही हूं. मुझ पर आप ने कैसे भरोसा कर लिया?’’

प्रिया ने बड़ी शोख अदा से मुसकराते हुए कहा, ‘‘सर, मैं एक राज की बात बताती हूं, लड़कियां किसी जैंटलमैन को पहचानने में कभी भूल नहीं करतीं.’’

प्रिया की यह बात सुन कर दिनेश ने एक लंबी राहत भरी सांस ली, उसे ‘हैप्पी जर्नी’ कहा और ट्रेन से उतर गया.

एक मुलाकात : क्या हालात के साथ समझौते का नाम ही जिंदगी है

नेहा ने होटल की बालकनी में कुरसी पर बैठ अभी चाय का पहला घूंट भरा ही था कि उस की आंखें खुली की खुली रह गईं. बगल वाले कमरे की बालकनी में एक पुरुष रेलिंग पकडे़ हुए खड़ा था जो पीछे से देखने में बिलकुल अनुराग जैसा लग रहा था. वही 5 फुट 8 इंच लंबाई, छरहरा गठा बदन.

नेहा सोचने लगी, ‘अनुराग कैसे हो सकता है. उस का यहां क्या काम होगा?’ विचारों के इस झंझावात को झटक कर नेहा शांत सड़क के उस पार झील में तैरती नावों को देखने लगी. दूसरे पल नेहा ने देखा कि झील की ओर देखना बंद कर वह व्यक्ति पलटा और कमरे में जाने के लिए जैसे ही मुड़ा कि नेहा को देख कर ठिठक गया और अब गौर से उसे देखने लगा.

‘‘अरे, अनुराग, तुम यहां कैसे?’’ नेहा के मुंह से अचानक ही बोल फूट पड़े और आंखें अनुराग पर जमी रहीं. अनुराग भी भौचक था, उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस की नेहा इतने सालों बाद उसे इस तरह मिलेगी. वह भी उस शहर में जहां उन के जीवन में प्रथम प्रेम का अंकुर फूटा था.

दोनों अपनीअपनी बालकनी में खड़े अपलक एकदूसरे को देखते रहे. आंखों में आश्चर्य, दिल में अचानक मिलने का आनंद और खुशी, उस पर नैनीताल की ठंडी और मस्त हवा दोनों को ही अजीब सी चेतनता व स्फूर्ति से सराबोर कर रही थी.

अनुराग ने नेहा के प्रश्न का उत्तर मुसकराते हुए दिया, ‘‘अरे, यही बात तो मैं तुम से पूछ रहा हूं कि तुम 30 साल बाद अचानक नैनीताल में कैसे दिख रही हो?’’

उस समय दोनों एकदूसरे से मिल कर 30 साल के लंबे अंतराल को कुछ पल में ही पाट लेना चाहते थे. अत: अनुराग अपने कमरे के पीछे से ही नेहा के कमरे में चले आए. अनुराग को इस तरह अपने पास आता देख नेहा के दिल में खुशी की लहरें उठने लगीं. लंबेलंबे कदमों से चलते हुए नेहा अनुराग को बड़े सम्मान के साथ अपनी बालकनी में ले आई.

‘‘नेहा, इतने सालों बाद भी तुम वैसी ही सुंदर लग रही हो,’’ अनुराग उस के चेहरे को गौर से देखते हुए बोले, ‘‘सच, तुम बिलकुल भी नहीं बदली हो. हां, चेहरे पर थोड़ी परिपक्वता जरूर आ गई है और कुछ बाल सफेद हो गए हैं, बस.’’

‘‘अनुराग, मेरे पति आकाश भी यही कहते हैं. सुनो, तुम भी तो वैसे ही स्मार्ट और डायनैमिक लग रहे हो. लगता है, कोई बड़े अफसर बन गए हो.’’

‘‘नेहा, तुम ने ठीक ही पहचाना. मैं लखनऊ में डी.आई.जी. के पद पर कार्यरत हूं. हलद्वानी किसी काम से आया था तो सोचा नैनीताल घूम लूं, पर यह बताओ कि तुम्हारा नैनीताल कैसे आना हुआ?’’

‘‘मैं यहां एक डिगरी कालिज में प्रैक्टिकल परीक्षा लेने आई हूं. वैसे मैं बरेली में हूं और वहां के एक डिगरी कालिज में रसायन शास्त्र की प्रोफेसर हूं. पति साथ नहीं आए तो मुझे अकेले आना पड़ा. अभी तक तो मेरा रुकने का इरादा नहीं था पर अब तुम मिले हो तो अपना कार्यक्रम तो बदलना ही पडे़गा. वैसे अनुराग, तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

अनुराग ने हंसते हुए कहा, ‘‘नेहा, जिंदगी में सब कार्यक्रम धरे के धरे रह जाते हैं, वक्त जो चाहता है वही होता है. हम दोनों ने उस समय अपने जीवन के कितने कार्र्यक्रम बनाए थे पर आज देखो, एक भी हकीकत में नहीं बदल सका… नेहा, मैं आज तक यह समझ नहीं सका कि तुम्हारे पापा अचानक तुम्हारी पढ़ाई बीच में ही छुड़वा कर बरेली क्यों ले गए? तुम ने बी.एससी. फाइनल भी यहां से नहीं किया?’’

नेहा कुछ गंभीर हो कर बोली, ‘‘अनुराग, मेरे पापा उस उम्र में  ही मुझ से जीवन का लक्ष्य निर्धारित करवाना चाहते थे. वह नहीं चाहते थे कि पढ़ाई की उम्र में मैं प्रेम के चक्कर में पड़ूं और शादी कर के बच्चे पालने की मशीन बन जाऊं. बस, इसी कारण पापा मुझे बरेली ले गए और एम.एससी. करवाया, पीएच.डी. करवाई फिर शादी की. मेरे पति बरेली कालिज में ही गणित के विभागाध्यक्ष हैं.’’

‘‘नेहा, कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘2 बेटे हैं. बड़ा बेटा इंगलैंड में डाक्टर है और वहीं अपने परिवार के साथ रहता है. दूसरा अमेरिका में इंजीनियर है. अब तो हम दोनों पतिपत्नी अकेले ही रहते हैं, पढ़ते हैं, पढ़ाते है.’’

‘‘अनुराग, अब तक मैं अपने बारे में ही बताए जा रही हूं, तुम भी अपने बारे में कुछ बताओ.’’

‘‘नेहा, तुम्हारी तरह ही मेरा भी पारिवारिक जीवन है. मेरे भी 2 बच्चे हैं. एक लड़का आई.ए.एस. अधिकारी है और दूसरा दिल्ली में एम्स में डाक्टर है. अब तो मैं और मेरी पत्नी अंशिका ही घर में रहते हैं.’’

इतना कह कर अनुराग गौर से नेहा को देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो अनुराग?’’ नेहा बोली, ‘‘अब सबकुछ समय की धारा के साथ बह गया है. जो प्रेम सत्य था, वही मन की कोठरी में संजो कर रखा है और उस पर ताला लगा लिया है.’’

‘‘नेहा…सच, तुम से अलग हो कर वर्षों तक मेरे अंतर्मन में उथलपुथल होती रही थी लेकिन धीरेधीरे मैं ने प्रेम को समझा जो ज्ञान है, निरपेक्ष है और स्वयं में निर्भर नहीं है.’’

‘‘अनुराग, तुम ठीक कह रहे हो,’’ नेहा बोली, ‘‘कभी भी सच्चे प्रेम में कोई लोभ, मोह और प्रतिदान नहीं होता है. यही कारण है कि हमारा सच्चा प्रेम मरा नहीं. आज भी हम एकदूसरे को चाहते हैं लेकिन देह के आकर्षण से मुक्त हो कर.’’

अनुराग कमरे में घुसते बादलों को पहले तो देखता रहा फिर उन्हें अपनी मुट्ठी में बंद करने लगा. यह देख नेहा हंस पड़ी और बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हो बच्चों की तरह?’’

‘‘नेहा, तुम्हारी हंसी में आज भी वह खनक बरकरार है जो मुझे कभी जीने की पे्ररणा देती थी और जिस के बलबूते पर मैं आज तक हर मुश्किल जीतता रहा हूं.’’

नेहा थोड़ी देर तक शांत रही, फिर बेबाकी से बोल पड़ी, ‘‘अनुराग, इतनी तारीफ ठीक नहीं और वह भी पराई स्त्री की. चलो, कुछ और बात करो.’’

‘‘नेहा, एक कप चाय और पियोगी.’’

‘‘हां, चल जाएगी.’’

अनुराग ने कमरे से फोन किया तो कुछ ही देर में चाय आ गई. चाय के साथ खाने के लिए नेहा ने अपने साथ लाई हुई मठरियां निकालीं और दोनों खाने लगे. कुछ देर बाद बातों का सिलसिला बंद करते हुए अनुराग बोले, ‘‘अच्छा, चलो अब फ्लैट पर चलें.’’

नेहा तैयार हो कर जैसे ही बाहर निकली, कमरे में ताला लगाते हुए अनुराग उस की ओर अपलक देखने लगा. नेहा ने टोका, ‘‘अनुराग, गलत बात…मुझे घूर कर देखने की जरूरत नहीं है, फटाफट ताला लगाइए और चलिए.’’

उस ने ताला लगाया और फ्लैट की ओर चल दिया.

बातें करतेकरते दोनों तल्लीताल पार कर फ्लैट पर आ गए और उस ओर बढ़ गए जिधर झील के किनारे रेलिंग बनी हुई थी. दोनों रेलिंग के पास खड़े हो कर झील को देखते रहे.

कतार में तैर रही बतखों की ओर इशारा करते हुए अनुराग ने कहा, ‘‘देखो…देखो, नेहा, तुम ने भी कभी इसी तरह तैरते हुए बतखों को दाना डाला था जैसे ये लड़कियां डाल रही हैं और तब ठीक ऐसे ही तुम्हारे पास भी बतखें आ रही थीं, लेकिन तुम ने शायद उन को पकड़ने की कोशिश की थी…’’

‘‘हां अनुराग, ज्यों ही मैं बतख पकड़ने के लिए झुकी थी कि अचानक झील में गिर गई और तुम ने अपनी जान की परवा न कर मुझे बचा लिया था. तुम बहुत बहादुर हो अनुराग. तुम ने मुझे नया जीवन दिया और मैं तुम्हें बिना बताए ही नैनीताल छोड़ कर चली गई, इस का मुझे आज तक दुख है.’’

‘‘चलो, तुम्हें सबकुछ याद तो है,’’ अनुराग बोला, ‘‘इतने वर्षों से मैं तो यही सोच रहा था कि तुम ने जीवन की किताब से मेरा पन्ना ही फाड़ दिया है.’’

‘‘अनुराग, मेरे जीवन की हर सांस में तुम्हारी खुशबू है. कैसे भूल सकती हूं तुम्हें? हां, कर्तव्य कर्म के घेरे में जीवन इतना बंध जाता है कि चाहते हुए भी अतीत को किसी खिड़की से नहीं झांका जा सकता,’’  एक लंबी सांस लेते हुए नेहा बोली.

‘‘खैर, छोड़ो पुरानी बातों को, जख्म कुरेदने से रिसते ही रहते हैं और मैं ने  जख्मों पर वक्त का मरहम लगा लिया है,’’ अनुराग की गंभीर बातें सुन कर नेहा भी गंभीर हो गई.

‘यह अनुराग कुछ भी भूला नहीं है,’ नेहा मन में सोचने लगी, पुरुष हो कर भी इतना भावुक है. मुझे इसे समझाना पड़ेगा, इस के मन में बंधी गांठों को खोलना पडे़गा.’

नेहा पत्थर की बैंच पर बैठी कुछ समय के लिए शांत, मौन, बुत सी हो गई तो अनुराग ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्या मेरी बातें बुरी लगीं? तुम तो बेहद गंभीर हो गईं. मैं ने तो ऐसे ही कह दिया था नेहा. सौरी.’’

‘‘अनुराग, यौवनावस्था एक चंचल, तेज गति से बहने वाली नदी की तरह होती है. इस दौर में लड़केलड़कियों में गलतसही की परख कम होती है. अत: प्रेम के पागलपन में अंधे हो कर कई बार दोनों ऐसे गलत कदम उठा लेते हैं जिन्हें हमारा समाज अनुचित मानता है. और यह तो तुम जानते ही हो कि हम भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर

हर शनिवाररविवार खूब घूमतेफिरते थे. नैनीताल का वह कौन सा स्थान है जहां हम नहीं घूमे थे. यही नहीं जिस उद्देश्य के लिए हम मातापिता से दूर थे, वह भी भूल गए थे. यदि हम अलग न हुए होते तो यह सच है कि न तुम कुछ बन पाते और न मैं कुछ बन पाती,’’ कहते हुए नेहा के चेहरे पर अनुभवों के चिह्न अंकित हो गए.

‘‘हां, नेहा तुम बिलकुल ठीक कह रही हो. यदि कच्ची उम्र में हम ने शादी कर ली होती तो तुम बच्चे पालती रहतीं और मैं कहीं क्लर्क बन गया होता,’’ कह कर अनुराग उठ खड़ा हुआ.

नेहा भी उठ गई और दोनों फ्लैट से सड़क की ओर आ गए जो तल्लीताल की ओर जाती है. चारों ओर पहाडि़यां ही पहाडि़यां और बीच में झील किसी सजी हुई थाल सी लग रही थी.

नेहा और अनुराग के बीच कुछ पल के लिए बातों का सिलसिला थम गया था. दोनों चुपचाप चलते रहे. खामोशी को तोड़ते हुए अनुराग बोला, ‘‘अरे, नेहा, मैं तो यह पूछना भूल ही गया कि खाना तुम किस होटल में खाओगी?’’

‘‘भूल गए, मैं हमेशा एंबेसी होटल में ही खाती थी,’’ नेहा बोली.

अपनेअपने परिवार की बातें करते हुए दोनों चल रहे थे. जब दोनों होटल के सामने पहुंचे तो अनुराग नेहा का हाथ पकड़ कर सीढि़यां चढ़ने लगा.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अनुराग. मैं स्वयं ही सीढि़यां चढ़ जाऊंगी. प्लीज, मेरा हाथ छोड़ दो, यह सब अब अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘सौरी,’’ कह कर अनुराग ने हाथ छोड़ दिया.

दोनों एक मेज पर आमनेसामने बैठ गए तो बैरा पानी के गिलास और मीनू रख गया.

खाने का आर्डर अनुराग ने ही दिया. खाना देख कर नेहा मुसकरा पड़ी और बोली, ‘‘अरे, तुम्हें तो याद है कि मैं क्या पसंद करती हूं, वही सब मंगाया है जो हम 25 साल पहले इसी तरह इसी होटल में बैठ कर खाते थे,’’ हंसती हुई नेहा बोली, ‘‘और इसी होटल में हमारा प्रेम पकड़ा गया था. खाना खाते समय ही पापा ने हमें देख लिया था. हो सकता है आज भी न जाने किस विद्यार्थी की आंखें हम लोगों को देख रही हों. तभी तो तुम्हारा हाथ पकड़ना मुझे अच्छा नहीं लगा. देखो, मैं एक प्रोफेसर हूं, मुझे अपना एक आदर्श रूप विद्यार्थियों के सामने पेश करना पड़ता है क्योंकि बातें अफवाहों का रूप ले लेती हैं और जीवन भर की सचरित्रता की तसवीर भद्दी हो जाती है.’’

मुसकरा कर अनुराग बोला, ‘‘तुम ठीक कहती हो नेहा, छोटीछोटी बातों का ध्यान रखना जरूरी है.’’

‘‘हां, अनुराग, हम जीवन में सुख तभी प्राप्त कर सकते हैं जब सच्चे प्यार, त्याग और विश्वास को आंचल में समेटे रखें, छोटीछोटी बातों पर सावधानी बरतें. अब देखो न, मेरे पति मुझे अपने से भी ज्यादा प्यार करते हैं क्योंकि मेरा अतीत और वर्तमान दोनों उन के सामने खुली किताब है. मैं ने शाम को ही आकाश को फोन पर सबकुछ बता दिया और वह निश्ंिचत हो गए वरना बहुत घबरा रहे थे.’’

बातों के साथसाथ खाने का सिलसिला खत्म हुआ तो अनुराग बैरे को बिल दे कर बाहर आ गए.

अनुराग और नेहा चुपचाप होटल की ओर चल रहे थे, लेकिन नेहा के दिमाग में उस समय भी कई सुंदर विचार फुदक रहे थे.  वह चौंकी तब जब अनुराग ने कहा, ‘‘अरे, होटल आ गया नेहा, तुम आगे कहां जा रही हो?’’

‘‘ओह, वैरी सौरी. मैं तो आगे ही बढ़ गई थी.’’

‘‘कुछ न कुछ सोच रही होगी शायद…’’

‘‘हां, एक नई कहानी का प्लाट दिमाग में घूम रहा था. दूसरे, नैनीताल की रात कितनी सुंदर होती है यह भी सोच रही थी.’’

‘‘अच्छा है, तुम अपने को व्यस्त रखती हो. साहित्य सृजन रचनात्मक क्रिया है, इस में सार्थकता और उद्देश्य के साथसाथ लक्ष्य भी होता है…’’ होटल की सीढि़यां चढ़ते हुए अनुराग बोला. बात को बीच में ही काटते हुए नेहा बोली, ‘‘यह सब लिखने की प्रेरणा आकाश देते हैं.’’

नेहा अपने कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर जाने लगी तो अनुराग ने पूछा, ‘‘क्या अभी से सो जाओगी? अभी तो 11 बजे हैं?’’

‘‘नहीं अनुराग, कल के लिए कुछ पढ़ना है. वैसे भी आज बातें बहुत कर लीं. अच्छी रही हम लोगों की मुलाकात, ओ. के. गुड नाइट, अनुराग.’’ और एक मीठी मुलाकात की महक बसाए दोनों अपनेअपने कमरों में चले गए.

नेहा अपने कमरे में पढ़ने में लीन हो गई लेकिन अनुराग एक बेचैनी सी महसूस कर रहा था कि वह जिस नेहा को एक असहाय, कमजोर नारी समझ रहा था वह आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की जीतीजागती प्रतिरूप है. एक वह है जो अपनी पत्नी में हमेशा नेहा का रूप देखने का प्रयास करता रहा. सदैव उद्वेलित, अव्यवस्थित रहा. काश, वह भी समझ लेता कि परिस्थितियों के साथ समझौते का नाम ही जीवन है. नेहा ने ठीक ही कहा था, ‘अनुराग, हमें किसी भी भावना का, किसी भी विचार का दमन नहीं करना चाहिए, वरन कुछ परिस्थितियों को अपने अनुकूल और कुछ स्वयं को उन के अनुकूल करना चाहिए तभी हमारे साथ रहने वाले सभी सुखी रहते हैं.’

Holi 2024 सतरंगी रंग: कैसा था पायल का जीवन- भाग 1

पायल ने उस दिन सुबह से ही घर में हंगामा खड़ा कर रखा था. वह तेजतेज चिल्ला कर बोले जा रही थी, ‘‘भाई को बचपन से इंगलिश के प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया है. चलो, मु झे हिंदी मीडियम में पढ़ाया तो कोई बात नहीं, लेकिन अब मैं जो करना चाहती हूं, सब कान खोल कर सुन लो, वह मैं कर के ही रहूंगी.’’

‘‘मगर, तू ठहरी लड़की. तु झे यहीं रह कर जो करना है कर, वह ठहरा लड़का,’’ दादी की यह बात सुन कर पायल उन्हें चुप कराते हुए बोली, ‘‘दादी, आप तो चुप ही रहिए. जमाना कहां से कहां चला गया और आप की घिसीपिटी सोच अभी तक नहीं बदली.’’

पायल एकबारगी दादी को इतना सब बोल तो गई, पर अचानक उसे लगा कि उस ने दादी को कुछ ज्यादा ही बोल दिया है, इसलिए वह मन में पछतावा करते हुए दादी के गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘अरे मेरी प्यारी दादी, सौरी,’’ फिर उस ने अपने दोनों कान पकड़ लिए थे.

दादी के गाल सहलाते हुए पायल बोली, ‘‘जमाना बहुत बदल गया है दादी. अब लड़कियां वे सब काम कर रही हैं, जो पहले सिर्फ लड़के करते थे. दादी, आज हम सब को भी अपनी सोच बदलने की जरूरत है.’’

गांव में कहीं भी कोई भी रूढि़वादी बातें करता, तो पायल उस से उल झ जाती. कई बार तो घर में ही किसी न किसी से किसी न किसी बात पर उस की कहासुनी हो जाती.

इस के बाद पायल अपने होस्टल चली गई. वहां वह अपनी 12वीं जमात की तैयारी में जुटी हुई थी. कुछ महीने बाद ही उस के इम्तिहान शुरू होने वाले थे. उस दिन वह बैठीबैठी सोच रही थी, ‘मैं अपनी जिद पर इतनी दूर पढ़ने आई हूं. मम्मीपापा ने मु झ पर भरोसा कर के ही परदेश में पढ़ने भेजा है. मु झे कुछ तो ऐसा कर के दिखाना चाहिए, जिस से मेरे मम्मीपापा का सिर गर्व से ऊंचा हो सके,’ अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि उस के घर से फोन आ गया. उस ने  झट से मोबाइल उठाया और बोल उठी, ‘‘मैं अभी आप सब को याद ही कर रही थी.’’

पर यह क्या, उधर से तो कोई और ही बोल रहा था. किसी अनजान शख्स की आवाज सुन कर पायल घबरा गई.

‘‘अरे, आप कौन बोल रहे हैं?’’ उस के इतना पूछने पर उधर से आवाज आई, ‘हम तुम्हारे पड़ोसी मदन चाचा बोल रहे हैं. तुम्हारी मम्मी की तबीयत ज्यादा खराब हो गई है, तुम तुरंत यहां आ जाओ.’

पायल घबराते हुए मदन चाचा से पूछ बैठी, ‘‘आखिर हुआ क्या है मेरी मां को?’’

जवाब में मदन चाचा ने बस इतना ही कहा, ‘अरे बिटिया, तुम बस जल्दी से घर आ जाओ.’

पायल फिर कुछ परेशान सा होते हुए बोली, ‘‘चाचा, मेरी पापा से बात तो कराओ.’’

इस पर मदन चाचा ने कहा, ‘पापा अभी यहां नहीं हैं. वे डाक्टर साहब को लेने गए हैं.’

मोबाइल फोन अपनी जेब में रखते हुए पायल ने जल्दी से बैग में 3-4 जोड़ी कपड़े डाले और फटाफट चल पड़ी रेलवे स्टेशन की ओर. उस के मन में तरहतरह की बातें आ रही थीं. रास्ते में वह थोड़ीथोड़ी देर में अपने पापा व चाचा के मोबाइल पर काल करती रही, पर कोई भी उस की काल नहीं उठा रहा था. इस से उस के मन की बेचैनी और भी बढ़ती जा रही थी.

घर के दरवाजे पर काफी भीड़ देख कर पायल की बेचैनी और भी बढ़ गई. वह आपे से बाहर हो गई. उस के कदमों की रफ्तार और भी तेज हो गई. वह एक ही सांस में अपने घर तक पहुंच गई.

पायल ने देखा कि उस की मां को जमीन पर लिटा कर रखा गया था. उन के चारों ओर गांव की कई औरतें बैठी हुई थीं.

इतना देखते ही वह दहाड़ें मारमार कर रोने लगी. वह अपनी दादी से चिपक कर फूटफूट कर रो पड़ी. वह उन से पूछती जाती, ‘‘मां को क्या हो गया… मेरी मां कहां चली गईं मु झे छोड़ कर.’’

पायल दादी के सामने सवालों की  झड़ी लगाती चली जा रही थी, पर दादी के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था.

रूपा चाची ने पायल को चुप कराते हुए कहा, ‘‘चुप हो जा पायल बेटी,’ और फिर वे खुद भी फूटफूट कर रोने लगीं.

रूपा चाची रोतेरोते ही बोलीं, ‘‘अचानक ही सबकुछ हो गया. पता ही नहीं चला कि क्या हुआ था दीदी को. डाक्टर ने आ कर देखा तो बताया कि इन की तो सांस ही बंद हो चुकी है.’’

उस समय पायल को रहरह कर अपनी मां की सभी बातें याद आ रही थीं और रोना भी आ रहा था.

वहां मौजूद सभी औरतें आपस में बातें कर रही थीं कि पायल की मां बहुत ही सौभाग्यशाली थीं, जो वे सुहागिन हो कर अपने पति के कंधे पर सवार हो कर जाएंगी.

ये सब बातें पायल भी सुन रही थी. वह मन ही मन सोचने लगी, ‘इन औरतों को भी कुछ न कुछ बकवास करने को चाहिए. मेरी मां चली गईं और इन सब को उन के सौभाग्य की बातें सू झ रही हैं.’

थोड़ी ही देर में पायल की मां को नहलाधुला कर उन का खूब साजशृंगार किया गया और फिर उन्हें श्मशान घाट ले जाया गया.

मां की मौत के कुछ दिनों बाद से ही पायल के रिश्तेदारों ने उस की दादी से कहना शुरू कर दिया कि अभी सुकेश की उम्र ही क्या है? अभी तो 45 भी पार नहीं किया है उस ने और यह सब हो गया. वह अकेले बेचारा कैसे गुजारेगा अपनी इतनी लंबी जिंदगी? अब उस की दूसरी शादी कर देनी चाहिए.

पायल की दादी को भी लगने लगा था कि सभी ठीक ही तो कह रहे हैं. पायल से भी अपने पापा की उदासी देखी नहीं जा रही थी.

पायल कुछ दिन घर में रह कर होस्टल वापस चली गई. वहां जा कर वह इम्तिहानों की तैयारी में जुट गई.

कुछ महीने बाद ही दादी ने एक बड़ी उम्र की लड़की देख कर पायल के पापा की शादी तय कर दी. शादी की सूचना पायल को भी भेज दी गई.

पायल को जब यह खबर मिली तो वह खुश हुई और सोचने लगी कि मां के जाने के बाद पापा सचमुच अकेले हो गए थे. अब दूसरी शादी हो जाने से उन का अकेलापन दूर हो जाएगा.

पायल इम्तिहान दे कर शादी के समय घर आ गई. उस के पापा की शादी सारे रस्मोरिवाज के साथ बड़ी धूमधाम से हुई. घर में नई दुलहन का स्वागत भी बड़े जोरशोर से हुआ. पायल खुश थी, क्योंकि वह नए खयालों वाली लड़की थी. उसे घिसेपिटे रीतिरिवाज और रूढि़यों से चिढ़ थी.

कुछ समय बाद पायल फिर से अपने होस्टल वापस चली गई और वहां जा कर अपनी पढ़ाई में मसरूफ हो गई.

पर यह क्या, अभी कुछ महीने ही बीते होंगे कि अचानक एक दिन पायल के पास घर से फोन आ गया. पता चला कि उस के चाचाजी सख्त बीमार हैं. उसे जल्द घर आने को कहा गया.

चाचाजी की बीमारी की खबर सुनते ही पायल के दिमाग में तरहतरह के खयाल आने लगे. वह सोचने लगी, ‘अब चाचाजी को क्या हुआ? अभी तो मैं उन्हें अच्छाखासा छोड़ कर आई थी.’

पायल मन में उल झन लिए होस्टल से निकल कर रेलवे स्टेशन पहुंची, फिर बस पकड़ कर अपने गांव पहुंची. आज फिर उस ने दूर से दरवाजे पर भीड़ लगी देखी, तो किसी अनहोनी के डर से?घबरा गई. जब वह घर के नजदीक पहुंची तो उस ने देखा कि उस के मदन चाचा की लाश जमीन पर रखी थी और उस की चाची दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं.

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