श्यामली- भाग 3: जब श्यामली ने कुछ कर गुजरने की ठानी

मैं तुम्हारा खर्च उठा रहा हूं, तुम्हारे बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ा रहा हूं. तुम्हें महंगेमहंगे गिफ्ट, जेवर, कपड़े ला कर देता हूं. गाड़ी है, ड्राइवर है. बड़ी कोठी में रह रही हो. इस से अधिक तुम्हें और क्या चाहिए?

पत्नी हो, पत्नी बन कर रहो. यदि यहां नहीं रहना है तो चली जाओ अपने गांव. लेकिन एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मेरे बच्चे यहीं रहेंगे.

इतनी बातें कहसुन कर सोम क्लब या न जाने कहां चले गए. वे सहम कर चुप हो गई थीं. बच्चे तो उन की जान थे. वही तो उन के जीवन का संबल और आधार थे. उन्हीं के लिए तो वे जी रही थीं. उन की चुप्पी और सहनशीलता को देख सोम का हौसला बढ़ता गया. अब एक लड़की नइमा के साथ वे खुल्लमखुल्ला घूमने लगे थे. कई बार उसे वे घर भी ले कर आ जाते. कई बार वे रात में भी घर न आते.

श्यामलीजी चुप रहतीं, उन की पीड़ा आंसू बन कर आंखों से बहती. एकांत उन के हर दुख का साक्षी रहता. विद्रोह करना उन का स्वभाव नहीं था. वे समझ रही थीं कि यदि वे कुछ भी बोलेंगी तो उन का घरौंदा टूट जाएगा. उन के बच्चे अनाथ हो जाएंगे. अपनी बेचारगी पर वे कई बार स्वयं को धिक्कारती भी थीं, परंतु घर टूट जाने के डर से वह हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं. नन्हीं राशि जब उन के आंसू पोंछती और उन्हें चुप हो जाने को कहती, तो उन को अपने आंसू रोकने मुश्किल हो जाते.

बुजुर्ग मैनेजर ने उन के पास भी 2-3 बार फोन कर के कहा कि सोम नकली दवाइयों का कारोबार बढ़ाते जा रहे हैं, साथ ही ड्रग्स का धंधा भी.

यदि इसी तरह से चलता रहा तो जल्द ही किसी मामले में फंस जाएंगे. वे चिंतित हो उठी थीं. उन के अपने प्यारे बच्चों और स्वयं का भविष्य दांव पर लगा था. उन्होंने दूसरे सेल्समैन लड़कों से बात कर के पता किया तो मालूम हुआ कि सच में सोम रास्ता भटक गए हैं.

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आखिर एक दिन एक हादसा हो ही गया. उन के स्टोर से खरीदी नकली दवा से एक बच्चे की मौत हो गई. मामले ने तूल पकड़ा. वे लोग लाठियां ले कर आ गए और फिर दुकान में तोड़फोड़ कर दी. सोम की भी खूब पिटाई की. पुलिस आ गई. पुलिस को कुछ लेदे कर किसी तरह मामला शांत करवाया. पर इसी बीच बच्चे के पिता ने ‘ड्रग्स कंट्रोल डिपार्टमैंट’ में मेल कर दिया था. और वहां की टीम रेड करने आ गई. इस अचानक हमले का किसी को कोई अनुमान या तैयारी नहीं थी. नकली और ऐक्सपायरी दवा के साथसाथ ड्रग्स का भी स्टौक पकड़ा गया.

मामला संगीन था. लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने के आरोप में सोम गिरफ्तार हो गए और मैडिकल स्टोर को सील कर दिया गया. वकीलों पर पैसा पानी की तरह बहाया गया.

बेल होने में लगभग 3 महीने लग गए. घर खर्चे की दिक्कत होने लगी. एकएक कर सारे नौकर हटा दिए गए. यहां तक कि बच्चों के लिए दूध की भी परेशानी होने लगी थी. सामान बेच कर कुछ दिन काम चला.

इतनी विषम परिस्थिति कभी होगी, इस का उन्हें कतई अनुमान भी नहीं था. जब सोम जमानत के बाद घर आए, तो उन को पहचानना मुश्किल था. रंग काला पड़ गया था और शरीर कृषकाय हो चुका था. वे किसी का सामना नहीं करना चाहते थे. यहां तक कि बच्चों से भी बात नहीं करते थे. चुपचाप अपने कमरे में लेट कर छत को निहारते रहते.

सोम नया रास्ता तलाशने के बजाय निराशा के गर्त में डूब कर डिप्रैशन का शिकार बन गए. जख्मों को कुरेदने के लिए सांत्वना के नाम पर रिश्तेदारों और परिचितों के ताने और उलटेसीधे व्यंग्य वाणों के कारण सब का जीना दूभर हो गया था.

अब यह श्यामलीजी के लिए परीक्षा की घड़ी थी. अब आवश्यक हो चुका था कि वे स्वयं आगे बढ़ कर घर के हालात को सुधारने के लिए कुछ करें.

एक ओर नैराश्य में जकड़ा हुआ सोम दूसरी ओर 12 वर्ष की राशि तो 11 वर्ष का शुभ, ऐसे कठिन समय में घर का मोरचा संभाला. वे सोम का हौसलाअफजाई करतीं. बच्चों का भी उन्होंने पूरा ध्यान रखा.

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मित्रों के सहयोग से एक नामी बुटीक में ड्रैस डिजाइनर की नौकरी मिल गई. जल्द ही बुटीक की मालकिन कल्पनाजी ने उन की प्रतिभा को पहचान लिया, उन के डिजाइन किए हुए कपड़े कस्टमर को पसंद आने लगे. 1 साल में ही बुटीक का बिजनैस काफी बढ़ गया, साथ में उन की सैलरी भी बढ़ गई.

जीवन पटरी पर लौटने लगा था. उन्हें नौकरी करते हुए लगभग 2 वर्ष हो चुके थे. अब वे अपना बुटीक खोलना चाह रही थीं. लेकिन पैसे की कमी बाधा बनी हुई थी.

उन्होंने ‘महिला गृह उद्योग’ योजना के अंतर्गत बैंक से लोन के लिए आवेदन किया और जल्दी ही घर के एक कमरे में अपना बुटीक शुरू कर दिया. 4 सिलाई मशीनें और कुछ कारीगर लड़कियों को रख कर काम शुरू कर दिया. देखते ही देखते उन की मेहनत और क्रिएटिविटी की क्षमता ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए.

आज उन के बुटीक की शहर में 2 ब्रांच और खुल गई हैं. करीब 40 लोगों को उन्होंने रोजगार दे रखा है.

राशि की आवाज ने उन की तंद्रा भंग कर दी, ‘‘मां, आज कहां खो गई हैं? घर नहीं चलना है क्या?’’

वे वर्तमान में लौटी ही थीं कि उन का मोबाइल बज उठा, ‘‘मैडम श्यामली?’’

‘‘यस.’’

‘‘महिला दिवस पर ‘विषम परिस्थितियों में स्वयं को सिद्ध करने के लिए’ आप को ‘विजय नगरम् हाल’ में मेयर के द्वारा सम्मानित किया जाएगा. कल हम लोग निमंत्रणपत्र ले कर आप के पास आएंगे.’’

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‘‘धन्यवाद,’’ कहते हुए श्यामलीजी भावुक हो उठी थीं. चूंकि फोन स्पीकर पर था, इसलिए सभी ने इस खबर को सुन लिया था.

सोम भी भावुक हो उठे थे. उन्होंने प्यार से बांहों के घेरे में उन्हें ले लिया, ‘‘श्यामली, तुम्हें मैं वह प्यार और सम्मान नहीं दे पाया, जिस के योग्य तुम थीं. इसलिए अब पूरा लखनऊ शहर तुम्हें सम्मानित करेगा.’’

आज बरसों बाद सोम के प्यार भरे आलिंगन से वे अभिभूत हो उठी थीं. उन्होंने भी प्यार से सोम को अपनी बांहों में कैद कर लिया. बेटी राशि पर निगाह पड़ते ही उन का मुखमंडल शर्म से लाल हो उठा.

सोम फोन पर श्यामलीजी के मम्मीपापा को निमंत्रण दे रहे थे. आज उन के सारे विषाद धुल गए थे.

प्रतिबद्धता- भाग 2: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

Writer- VInita Rahurikar

मन में कहीं गहराई तक दृढ़ विश्वास था अपने प्यार पर कि वह उस की गलती को माफ कर देगी. अपने निर्मल और निश्छल प्रेम से उस के मन पर लगे दाग को धो डालेगी. उबार लेगी उसे इस ग्लानि से, जिस में वह बरसों से जल रहा है. क्षमा कर देगी उस अपराध को जो उस से अनजाने में हो गया था.

पीयूष का न तो उस घटना के पहले और न ही बाद में कभी किसी भी लड़की से कोई रिश्ता रहा है और उस लड़की के साथ भी रिश्ता कहां था. रिश्ते तो मन के होते हैं. वहां तो बस नशे की खुमारी में शरीर शामिल हो गए थे. मन से तो वह पूरी तौर पर बस पलक का ही था, है और रहेगा. लेकिन पलक के व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया. क्या वह पलक को अब तक पूरी तरह जान नहीं पाया था? क्या उस के मन की थाह पाना अभी बाकी था?

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लेकिन तीर अब कमान से निकल चुका था, जिस ने उस की प्यार भरी जिंदगी को

एक ही पल में बरबाद कर के रख दिया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि पलक के आहत मन को कैसे सांत्वना दे. उसे लगा था कि अपने प्यार से कोई भी बात छिपाना गलत है. लेकिन उस के इस सच से पलक को इतनी अधिक पीड़ा पहुंचेगी, इस का अंदाजा उसे नहीं था. वह तो उस से बात तक नहीं कर रही. बेगानों जैसा बरताव हो गया है उस का.

इधर 8 दिनों में ही पीयूष वर्षों का बीमार लगने लगा है. उस का न काम में मन लगता है और न ही घर में.

दूसरे दिन अरुणाजी के पास पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘अरुणाजी, आप ने पलक से कोई बात की क्या? मुझे तो कोई समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चों को अचानक क्या हो गया. पलक बिना कुछ कहे अचानक चली गई. उस का फोन भी औफ है. यहां पीयूष भी गुमसुम सा कमरे में पड़ा रहता है. पूछने पर कुछ बताता ही नहीं है. पलक कैसी है, ठीक तो है न?’’ पीयूष की मां के स्वर में चिंता झलक रही थी.

‘‘पलक जब से आई है, तब से उदास और दुखी लग रही है. मैं ने 1-2 बार पूछना चाहा तो टाल गई, पर कुछ बात तो जरूर है. मैं आज उस से बात करूंगी. आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुणाजी ने पीयूष की मां को आश्वासन दिया.

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‘अब पलक से साफसाफ पूछना ही होगा. यहां पलक उदास है तो वहां पीयूष भी दुखी है. आखिर दोनों के बीच ऐसा क्या हो गया? यदि समय रहते बात को संभाला नहीं गया तो ऐसा न हो जाए कि बात और बिगड़ जाए. अब देर करना ठीक नहीं,’ अरुणाजी न तय किया.

दोपहर को पलक के पिता किसी काम से बाहर गए थे. पलक खाना खा कर अपने कमरे में लेटी थी. अरुणाजी को यही सही मौका लगा उस से बात करने का. अत: वे पलक के पास गईं.

‘‘पलक, क्या बात है बेटा, जब से आई हो परेशान लग रही हो? मुझे बताओ बेटा तुम्हारे और पीयूष के बीच सब ठीक तो है?’’ अरुणाजी ने प्यार से पलक का माथा सहलाते हुए पूछा.

रात का खाना खा कर पलक अपने कमरे में सोने चली गई. वह पलंग पर लेटी थी, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

8 दिन पहले जिंदगी क्या थी और अब कैसी हो गई. कितनी खुश थी वह पीयूष का प्यार पा कर. पूरी तरह उस के प्यार के रंग में रंग गई थी. सिर से पैर तक पीयूष के प्रेमरस में सराबोर थी. लेकिन पीयूष के जीवन के एक राज के खुलते ही उस की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. कल तक जो पीयूष अपने दिल का एक टुकड़ा लगता था, अचानक ही इतना बेगाना, इतना अजनबी लगने लगा कि विश्वास ही नहीं होता था कि कभी दोनों की एक जान हुआ करती थी.

पश्चाताप- भाग 3: क्या सास की मौत के बाद जेठानी के व्यवहार को सहन कर पाई कुसुम?

“मम्मी, आप प्लीज ज्यादा ड्रामा न करो. हमें पता है कि चाची की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? सबकुछ अपनी आंखों से देखा है मैं ने,” छोटे बेटे ने उस का हाथ झटकते हुए कहा तो बड़ा बेटा भी चिढ़े स्वर में बोलने लगा,” कितनी अच्छी हैं हमारी चाची. कितना प्यार करती थीं हमें. पर आप… मम्मी, आप ने उन के साथ कितना बुरा किया. वी हेट यू,” कहते हुए दोनों बच्चे मधु के पास से उठ कर बाहर भाग गए.

मधु भीगी पलकों से उन्हें जाता देखती रही. उस के हाथ कांप रहे थे. दिल पर 100 मन का भारी पत्थर सा पड़ गया था. उस ने सोचा भी नहीं था कि बच्चे उसे इस तरह दुत्कारेंगे. बिना आगेपीछे सोचे लालच में आ कर उस ने कुसुम के साथ ऐसा बुरा व्यवहार किया. कितनी जलीकटी सुनाई. वे सब बातें बच्चों के दिमाग में इस तरह छप गईं थीं कि अब बच्चे उस के वजूद को ही धिक्कार रहे हैं.

मधु ने आंखें बंद कर लीं. आंखों से आंसू गिरने लगे. पुरानी बातें एकएक कर उस के जेहन में उभरने लगीं. अपने बच्चों की नजरों में इतनी नीचे गिर कर कैसे जिएगी वह… सच में कुसुम ने तो कभी भी उस से ऊंचे स्वर में बात भी नहीं की थी. उस ने हमेशा कुसुम को बात सुनाया. उस के मधुर व्यवहार का उपहास उड़ाया.  उस पर इतना गंदा इल्जाम लगाया.

तभी बगल वाली बुजुर्ग महिला की सांसें उखड़ने लगीं. डाक्टरों की टीम आई और उस महिला को आईसीयू में ले जाया गया. उस का बेटा भी पीछेपीछे तेजी से निकल गया.  इस सारे घटनाक्रम के फलस्वरूप मधु के दिमाग पर एक अजीब सा सदमा लगा था.

वह बैठीबैठी चीखने लगी. उसे लगा जैसे कुसुम शरीर छोड़ कर बाहर आ गई है और उस की तरफ हिकारत भरी नजरों से देखती हुई दूर जा रही है. मधु को एहसास हुआ जैसे वह पूरी तरह अकेली हो गई है. सब उस पर हंस रहे हैं. वह जोरजोर से रोने लगी. रोतीरोती बेहोश हो गई. जब आंखें खुलीं तो खुद को बैड पर पाया. पास में डाक्टर खड़े थे. दूर पति भी खड़े थे. उस ने तुरंत अपनी आंखें बंद कर लीं. वह अंदर से इतना टूटा हुआ महसूस कर रही थी कि उसे पति से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

तभी उस ने सुना कि डाक्टर उस के देवर से कह रहे थे कि कुसुम की सर्जरी करनी पड़ेगी. सर्जरी, दवा और हौस्पिटल के दूसरे खर्च मिला कर करीब ₹15-20 लाख तो लग ही जाएंगे पर कुसुम को ठीक करने के लिए यह सर्जरी करानी बहुत जरूरी है.

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डाक्टर की बात सुन कर देवर काफी परेशान दिख रहा था. मधु जानती थी कि उस के देवर के पास अभी ₹2- 3 लाख से अधिक नहीं हैं. हाल ही में उस ने अपनी सास की हार्ट सर्जरी में करीब ₹10 लाख लगाए थे और वह खाली हो चुका था.

मधु हिसाब लगाने लगी कि उस के पति के पास भी ₹4-5 लाख से ज्यादा नहीं निकल सकेंगे. वैसे भी दोनों भाईयों ने अपनी आधी से ज्यादा जमापूंजी बिजनैस में जो लगा रखी थी.

तभी मधु को अपने जेवर का खयाल आया. कुल मिला कर ₹7-8 लाख के जेवर तो थे ही उस के पास. बाकी के रुपए कहां से आएंगे, वह इस सोच में डूब गई. तब उसे अपनी बड़ी बहन का खयाल आया. उस से थोड़े जेवर ले सकती है. कुछ रुपए अपने भैया से उधार भी मिल सकते हैं.

डाक्टर के जाने के बाद दोनों भाई आपस में बातें करने लगे. छोटे ने उदास स्वर में कहा,”भैया, डाक्टर तो इलाज के लिए इतना लंबाचौड़ा खर्च बता रहे हैं. कहां से लाऊंगा मैं इतने रुपए?”

“हां अमन, इतने रूपए तो मेरे पास भी नहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करें.”

तभी बैड पर लेटी मधु उठ बैठी और बोली,” देवरजी आप चिंता न करो. रुपयों का इंतजाम मैं करूंगी. आप बस डाक्टर को सर्जरी के लिए हां बोल दो और 2 दिनों की मुहलत ले लो.”

“मगर भाभी आप 2 दिनों के अंदर रूपए कहां से ले आएंगी?”

“देवरजी मेरे गहने किस दिन काम आएंगे? फिर भी रूपए कम पड़े तो दीदी या मां के जेवर भी मिला लूंगी. मेरे भैया से कुछ कैश रूपए भी मिल जाएंगे.”

मधु की बात सुन कर देवर मना करने लगा. मधु के पति ने भी टोका,”मधु उन से रूपए लेना ठीक होगा क्या? और फिर तुम्हारे जेवर… तुम तो कभी उन्हें हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. अपने जेवर तो तुम्हें जान से प्यारे थे.”

“प्यारे तो हैं पर कुसुम की जान से प्यारे नहीं,” मधु ने कहा तो दोनों भाई उसे आश्चर्य से देखने लगे.

मधु ने 2 दिन के अंदर ही ₹20 लाख इकट्ठे कर लिए. कुसुम की सर्जरी हो गई. सर्जरी सफल रही.
15 दिन अस्पताल में रहने के बाद कुसुम घर आ गई. अब भी उसे काफी कमजोरी थी. इस दौरान करीब 1 महीने तक मधु ने पूरे दिल से कुसुम की सेवा की. अपने बच्चों के साथ कुसुम की बेटी को भी संभाला. इस भागदौड़ में मधु का वजन काफी कम हो गया.

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एक दिन कुसुम से मिलने उस की बहन आई तो उस ने मधु को आश्चर्य से देखते हुए कहा,”अरे मधु दीदी तुम्हारा वजन तो आधा रह गया.”

इस पर हंसती हुई मधु बोली,”हम दोनों जेठानीदेवरानी का वजन मिला लो तो उतना ही वजन मिल जाएगा, जितना पहले मेरा हुआ करता था.”

यह सुन कर कुसुम की आंखें खुशी से भीग उठीं और वह उठ कर मधु को गले से लगा ली. दोनों लड़के भी प्यार से अपनी मां की तरफ देखने लगे.

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी- भाग 3: क्यों सुकांत की बेटियां उन्हें छोड़कर चली गई

Writer- Dr. Neerja Srivastava

सप्ताह उपरांत उन्नति ने रवि की मदद से एक प्राइवेट डैंटल हौस्पिटल में काम करना शुरू कर दिया. रवि से उस ने साफ कह दिया, ‘‘जानती हूं कि और कुछ तो मम्मीपापा लेंगे नहीं पर कम से कम अपना ऐजुकेशन लोन जो मैं ने लिया था उसे अवश्य चुकाना चाहूंगी… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

रवि ने प्यार से उस के कंधे पर हाथ रख मन ही मन सोचा कि काश उस की बहनें भी ऐसा सोच पातीं.

कुछ सालों बाद काव्या के ससुराल वालों ने उसे अपना लिया. उधर प्रतीक को बड़ी प्रमोशन मिली. उस ने यूएसए के क्लाइंट से अपनी कंपनी को बड़ा फायदा पहुंचाया था. वह एक झटके में ऊंचे ओहदे पर पहुंच गया.

काव्या को ऐशोआराम की सारी सुविधाएं मिलने लगीं तो उसे रहरह कर मम्मीपापा और घर की परिस्थितियों से जूझते भाई की तकलीफ ध्यान आने लगी कि उस ने कैसेकैसे उन का साथ दिया. हम बहनें तो निकम्मी निकलीं. उस का मन पश्चात्ताप से भर उठा. फिर उस ने उन्नति से मन की पीड़ा शेयर की तो उन्नति ने उस से.

इधर सुकांत के गांव की बरसों से मुकदमे में फंसी पैतृक संपत्ति का फैसला उन के पक्ष में हो गया. करीब 50 लाख उन की झोली में आ गए.

‘‘शुक्र है निधि जो फैसला हमारे पक्ष में हो गया. देर आए दुरुस्त आए. मैं ने सुरम्य को औफिस में ही फोन कर बता दिया. आता ही होगा. उन्नति और काव्या को भी खुशखबरी दे दो. उन्हें संडे को आने को कहना.’’

सुकांत के स्वरों में खुशी और उत्साह छलक रहा था. वे जल्द ही अपनी खुशी तीनों बच्चों में बांट लेना चाहते थे और रकम भी.

‘‘संडे को तो दोनों वैसे भी आने वाली हैं. रक्षाबंधन जो है. तभी सरप्राइज देंगे. अभी नहीं बताते,’’ निधि बोलीं.

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पीछे का दरवाजा खुला था. उन्नति और काव्या दबे पांव हिसाब लगाते हुए कि पापा इस समय बाथरूम में होंगे और मां किचन में. मेड जा चुकी होगी. 9 बज रहे हैं तो सुरम्य सो ही रहा होगा. एकदूसरे को देख मुसकराते हुए वे सुकांत और निधि के बैडरूम में पहुंच गईं. सुकांत की दराज खोल उन्होंने चुपके से कुछ रखा. फिर सीधे सुरम्य के रूम में जा कर तकियों के वार से उसे जगा दिया.

‘‘आज भी देर तक सोएगा? संडे तो है पर रक्षाबंधन भी है. उठ जल्दी नहा कर आ. राखी नहीं बंधवानी?’’

‘‘अरे उठ भी तुझे राखी बांधने के बाद ही मां कुछ खाने को देंगी… बहुत जोर की भूख लग रही है,’’ कहते हुए काव्या ने एक तकिया उसे और जमा दिया.

‘‘क्या है,’’ सुरम्य आंखें मलते हुए उठ बैठा.

दोनों बहनें उसे बाथरूम की ओर धकेल हंसती हुई किचन की ओर बढ़ गईं.

‘‘मां सरप्राइज,’’ कह दोनों निधि से लिपट गईं.

‘‘अरे, कब घुसी तुम दोनों? मुझे तो पता ही नहीं चला,’’ कह निधि मुसकरा उठी.

राखियां बंधवाने के बाद जब सुरम्य ने दोनों को 6-6 लाख के चैक दिए तो दोनों बहनें उस का चेहरा देखने लगीं.

‘‘मजाक कर रहा है?’’

‘‘मजाक नहीं सच में बेटा… हम वह मुकदमा जीत गए… उसी के 4 हिस्से कर दिए. एक मेरा व निधि का बाकी तुम तीनों के.’’

‘‘अरे नहीं पापा ये हम नहीं ले सकतीं,’’ काव्या और उन्नति एकसाथ बोलीं. उन्होंने उन पैसों को लेने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘नहीं मम्मीपापा, इन पर केवल सुरम्य का ही हक है. उसी ने आप दोनों के साथ सारी जिम्मेदारियां उठाई हैं. पहले घर के छोटेछोटे कामों में फिर बड़े कामों में… लोन, बिल्स, औपरेशन, इलाज, रिश्तेदारी, गाड़ी और अब यह मकान. आप दोनों और घर से अलग अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा उस ने.

‘‘सच है मम्मीपापा हर बात में बराबरी करने वाली हम बेटियां पढ़लिख कर भी बेटियां ही रह गईं बेटा न बन सकीं. हम ने शान और मस्ती के अलावा कुछ सोचा ही नहीं… कभी समझना ही नहीं चाहा. दायित्व तो दूर की बात… मेरे और काव्या के लिए बहुत कुछ कर लिया आप ने… अब तो इस का ही हक बनता है हमारा नहीं.’’

‘‘हां पापा, अब तो बस झट से इस के लिए अच्छी सी लड़की पसंद कीजिए और इस की धूमधाम से शादी कर दीजिए, बहुत आनाकानी कर चुका है. हां, नेग हम बड़ाबड़ा लेंगी.’’

उन्नति और काव्या एक के बाद एक बोले जा रही थीं. फिर वे सुरम्य को छेड़ने लगीं, ‘‘वैसे एक बहुत सुंदर लड़की मेरे पड़ोस में है. बस थोड़ी तोतली है. उस से करेगा शादी?’’ उन्नति ने ठिठोली की तो काव्या भी पीछे नहीं रही, ‘‘अरे, मेरी ननद की देवरानी की छोटी बहन दूध जैसी गोरीचिट्टी है. बस थोड़ी भैंगी है. पर उस के बड़े फायदे रहेंगे एक नजर किचन में तो दूसरी से वह तुझे निहारेगी.’’

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काव्या और उन्नति दोनों अगले ही दिन चली गईं. घर सूना हो गया.

‘‘निधि… ये मेरी दराज में लिफाफे कैसे रखे हैं?’’ कह उन्होंने एक खोला तो पत्र में लिखावट उन्नति की थी. लिफाफे में हजारहजार के नोट रखे थे. वे अचरज से पढ़ने लगे-

‘‘मम्मीपापा यह मेरी पहली कमाई का छोटा सा अंश है,  आप दोनों के चरणों में. आप इसे मना मत करिएगा. आप दोनों ने मुझे इस काबिल बनाया. मैं कमा कर कम से कम अपना लोन तो खुद उतार सकती थी पर मैं तो अपने में ही मस्त थी. मैं इतनी स्वार्थी कैसे बन गई.

‘‘न कभी आप लोगों के लिए सोचा न सुरम्य के लिए. छोटा था पर हर बात में उस से बराबरी करते हुए उस से घर के कामों में भी फायदा उठाया और अपने बाहर के काम भी उसी से करवाए कि वह लड़का है. सब कुछ उसी पर डाल कर हम बहनें मजे लेती रहीं. सौरी मम्मीपापा. मैं फिर जल्द आऊंगी. आप की डैंटिस्ट बेटी उन्नति.’’

दूसरा लिफाफा काव्या का था, लिखा था-

‘‘मां और पापा, आप ने हमेशा हम तीनों को बराबर का प्यार दिया, हक दिया. बराबर मानते हैं न तो सुरम्य की ही तरह मुझे भी अपना लोन चुकाने दीजिए. आप दोनों मना नहीं करेंगे, सामने से देती तो आप बिलकुल न लेते पर सोचिए तो पापा अगर बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं मानते तो आप को इसे लेना ही पड़ेगा. प्रतीक की भी यही इच्छा है.

‘‘पता नहीं बेटियों का बेटों की तरह मांबाप पर तो हक है पर मांबाप को बेटों की तरह बेटियों पर हक अभी भी समाज में क्यों मान्य नहीं हो पा रहा? प्रतीक ऐसा ही सोचता है. आप ने अपनी परेशानियों को एक ओर कर के हमारे सपने, हमारी जरूरतें पूरी की हैं. हमारा आप पर हक है ठीक है पर हमारा फर्ज भी तो है कुछ… जिसे मैं पहले कभी नहीं समझ पाई. आप दोनों की लाडली बेटी काव्या.’’

पत्र के पीछे लोन अमाउंट का चैक संलग्न था.

बेटियों की चिट्ठियां पढ़ रहे सुकांत और उन के पास खड़ी निधि की आंखें सजल हो उठी थी और सीना गर्व से भर उठा.

‘‘हमें इन्हें वापस करना होगा निधि, कितने समझदार बन गए हैं बच्चे. इन्होंने हमारे लिए इतना सोचा यही बहुत है… अब हमें वैसे भी पैसे की कोई जरूरत नहीं रही.’’

निधि ने आंचल से आंखों के कोरों को पोंछ मुसकराते हुए अपनी सहमति में सिर हिला दिया.

कोई सही रास्ता- भाग 3: स्वार्थी रज्जी क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई?

आत्महत्या का केस था जिस वजह से पोस्टमार्टम जरूरी था. रज्जी ने विलाप करते हुए जो कहानी सब को सुनाई उस से तो सुकेश के मातापिता और ननद हक्केबक्के रह गए. रज्जी ने बताया कि उस की ननद चरित्रहीन है जिस की शरम में उस का पति जहर खा कर मर गया. बेटा तो गया ही गया बच्ची का मानसम्मान भी रज्जी ने धूल में मिला दिया. जीतेजी मर गया वह परिवार. मेरी मां ने भी दिल खोल कर रज्जी की ननद को कोसा.

शोक के साथसाथ बदहवास था सुकेश का परिवार. सत्य क्या होगा मैं समझ सकता हूं. बुरा हो मेरी मां का, मेरी बहन का जिन्हें झूठ बोलने से जरा भी डर नहीं लगता. मरने वाले की मिट्टी का इस से बड़ा अपमान, इस से बड़ा मजाक क्या होगा जिस की आत्महत्या का रंग उस की निर्दोष बहन के चेहरे पर कालिख बन कर पुत गया.

ऐसा क्या किया सुकेश ने? आत्महत्या क्यों की? मारना ही था तो रज्जी को मार डालता. सुकेश का दाहसंस्कार हुआ और उसी चिता में मेरा, मेरी मां और बहन के साथ जन्मजात रिश्ता भी जल कर राख हो गया. अच्छा नहीं किया रज्जी ने. अपना घर तो जलाया, अपनी ननद का भविष्य भी पाताल में धकेल दिया. श्मशान भूमि में खड़ा मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? मेरा घर कहां है? क्या वह मेरा घर है जहां मेरी विधवा मां, विधवा बहन रहती है जिन के साथ हर किसी की सहानुभूति है या कहीं और जहां मैं अकेला रह कर चैन से जीना चाहता हूं?

सच्ची श्रद्धांजलि- भाग 1: विधवा निर्मला ने क्यों की थी दूसरी शादी?

सच्चा भय था मेरे पिता की आंख में जब उन की मृत्यु हुई थी. सच है, मैं इन दोनों के साथ नहीं जी सकता. नहीं रह पाऊंगा अब मैं इन दोनों के साथ. किसी के हंसतेखेलते परिवार से उन का जवान बेटा छीन कर उस के परिवार का तमाशा बना दिया, कौन सजा देगा इन दोनों को? किसी भी परिवार के अंदर की कहानी भला कानून कैसे जान सकता है जो इन्हें कोई सजा मिले. सजा तो मिलनी चाहिए इन्हें, किसी का सहारा छीना है न इन्होंने, अब इन का भी सहारा छिन जाए तो पता चले आग का लगना, घर का जलना किसे कहते हैं.

सुकेश की पीड़ा मेरी पीड़ा बन कर मेरा भीतरबाहर सब जला रही है. मैं उस से आंखें कैसे मिलाऊं? क्या होगा उस की बहन का, क्या होगा उस के मांबाप का?

औफिस के काम के बहाने मैं कितने ही दिन अपने घर नहीं गया. अपने अभिन्न मित्र के घर पर रहने लगा जो मेरी सारी की सारी समस्या समझता था. कुछ दिन बीत गए. मेरे घर हो कर आया था वह.

‘‘सुकेश के मातापिता का गुजारा तो उन की पैंशन से हो जाएगा लेकिन तुम्हारी मां का क्या होगा? अब तो रज्जी भी वापस आ गई है. सुकेश के घर वालों ने उसे वापस नहीं लिया. शहरभर में उन की बेटी की बदनामी हो रही है और तुम सचाई से मुंह छिपाए मेरे घर पर रह रहे हो?’’

‘‘सचाई क्या है, यह सारा शहर जानता है. सचाई तो वही है जो रज्जी ने सब को दिखाई है. मेरी मां जो कह रही हैं, दुनिया तो उसी को सच कह रही है. मैं किस सचाई से मुंह छिपाए बैठा हूं, क्या तुम नहीं जानते हो? सुकेश की बहन बदनाम हो गई मेरे परिवार की वजह से. मैं तो इस सचाई से नजरें नहीं मिला रहा. वह सीधीसादी सी मासूम लड़की सिर्फ इस दोष की सजा भोग रही है कि रज्जी उस की भाभी है. क्या कुसूर है उस का? सिर्फ यही कि वह सुकेश की बहन है.’’

‘‘एक बार दोनों परिवारों से मिलो तो, सोम. दोनों की सुनो तो सही.’’

‘‘अपने परिवार की तो कब से सुन रहा हूं. बचपन से मैं ने भी वही भोगा है जो सुकेश और उस का परिवार भोग रहा है. अपनी मां और अपनी बहन की नसनस जानता हूं मैं. सुकेश ने इतना बड़ा कदम क्यों उठा लिया, वह उस के परिवार से ज्यादा कौन जानता है? मेरी तो वे सूरत भी देखना नहीं चाहेंगे. तुम सुकेश के मित्र बन कर वहां जाओ, पता तो चले क्या हुआ. मेरा एक और काम कर दो, मेरे भाई.’’

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मान गया वह. औफिस के बाद वह सुकेश के घर से होता आया. मेरी तरह वह भी बेहद बेचैन था. बोला, ‘‘रज्जी को तो राजनीति में होना चाहिए था, कहां आप लोगों ने उस की शादी कर दी.’’

सांस रोक कर मैं ने उस की बात सुनी. वह आगे बोला, ‘‘कुछ दिन से सब ठीक चल रहा था. बड़े प्यार से रज्जी ने सब के मन में जगह बना ली थी. सीधासादा परिवार उस की सारी आदतें भुला कर उस पर पूर्ण विश्वास करने लगा था. सुकेश की बहन का सारा गहना उस ने अपने लौकर में रखवा लिया था. सुकेश की मां ने भी अपनी सारी जमापूंजी बहू को यानी रज्जी को दे दी ताकि वह ठीक से संभाल सके.

‘‘कुछ दिन पहले उन्हें किसी शादी में जाना था. ननद, भाभी लौकर से गहने निकालने गईं. वापसी पर ननद किसी काम से अपने कालेज चली गई. कुछ विद्यार्थी एक्स्ट्रा क्लास के लिए आने वाले थे. लगभग 3 घंटे बाद जब वह घर आई तो हैरान रह गई, क्योंकि रज्जी ने घर वालों को बताया कि गहने उस के पास हैं ही नहीं. घर में बवाल उठा. सारा का सारा इलजाम उस की ननद पर कि वही सारे के सारे गहने समेट कर किसी के साथ भाग जाने वाली है. तनाव इतना बढ़ गया कि सुकेश ने कुछ खा लिया.’’

‘‘कालेज में प्राध्यापिका है वह. पढ़ीलिखी सुलझी हुई लड़की. उसे भला भागने की क्या जरूरत थी. भागना तो रज्जी को था सब समेट कर. कुछ ऐसा होगा, इस का अंदेशा था मुझे लेकिन सुकेश आत्महत्या कर लेगा, यह नहीं सोचा था. सुकेश रज्जी की वजह से डिप्रैशन में रहने लगा था कुछ समय से. सच पूछो तो इंसान डिप्रैशन में जाता ही तब है जब उस के अपने उस के साथ धोखा करते हैं या उसे समझने की कोशिश नहीं करते. बाहर वालों की गालियां भी खा कर इंसान इतना विचलित नहीं होता जितना अपनों की बोलियां उसे परेशान करती हैं. परिवार में एक स्वस्थ माहौल की जगह लागलपेट और हेराफेरी चले तो इंसान डिप्रैशन में ही तो जाएगा. ऐसा इंसान आखिर करेगा भी तो क्या?’’

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‘‘अब क्या करेगा तू, सोम?’’

समझ नहीं पा रहा हूं, क्या करूं? पर इतना सच है कि मैं रज्जी और मां के साथ नहीं रह पाऊंगा. मेरा जीवन एक दोराहे पर आ कर रुक गया है. दोराहा भी नहीं कह सकता. एक चौराहा समझो. मां और रज्जी के साथ रहना भी नहीं चाहता, सुकेश का परिवार मेरी सूरत से भी नफरत करेगा, आत्महत्या को कायरता समझता हूं और चौथा रास्ता है घर से दूर का तबादला ले कर इन दोनों को ही पीठ दिखा दूं. क्या करूं? पीठ ही दिखाना ठीक रहेगा. लड़ नहीं सकता.

कुछ रिश्ते इस तरह के होते हैं जिन से लड़ा नहीं जा सकता, जिन से न हारा जाता है न ही जीतने में खुशी या संताप होता है. इन से दूर चला जाऊं तो क्या पता इन्हें सुकेश के मांबाप की पीड़ा का जरा सा एहसास हो. क्या करूं, मैं समझ नहीं पा रहा, कोई भी रास्ता साफसाफ नजर नहीं आता. क्या आप बताएंगे मुझे कोई उचित रास्ता?

तुम्हारे हिस्से में- भाग 2: पत्नी के प्यार में क्या मां को भूल गया हर्ष?

लेखक- महावीर राजी 

फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डाक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देशी टोटकों को देह पर सहेजा. देखतेदेखते 9वां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमा कर बर्दाश्त करने की नाकाम कोशिश करती रही, तभी डाक्टर ने ऐलान किया, ‘केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है.’

रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, पर दूसरे ही पल उस ने दृढ़ता के साथ डाक्टर से कहा, ‘सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर. रमेसर की गोद में हमारे प्यार की निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’

डाक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति 15 दिनों तक बनी रही. डाक्टरों ने उस की जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. पर मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई.

हर्ष पढ़नेलिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जा कर आवारा लड़कों के संग इधरउधर मटरगश्ती करता रहता. राजमार्ग के पास वाली पुलिया पर बैठ कर आतीजाती लड़कियों को छेड़ा करता. इन सब बातों को ले कर रमेसर अकसर उस की पिटाई कर देता.

‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे,’ रमा उसे प्यार से समझाती, ‘पढ़लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटियां मिलने लगेंगी, नहीं तो अभावों और जलालत की जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’

किसी तरह मैट्रिक पास हो गया तो रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.

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‘पर वहां का खर्च क्या आसमान से आएगा?’ रमेसर ने शंका जाहिर की तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल आई, ‘आसमान से कभी कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्चा हम पूरा करेंगे. आधा पेट खा कर रह लेंगे. जरूरतों में और कटौती कर लेंगे. चाहे जैसे भी हो, हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उस की जिंदगी संवारनी होगी.’

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. एक सस्ते से पीजी होम में रहने का इंतजाम हुआ. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. रमा पैसे लगातार भेजती रही. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को कोई मतलब नहीं था. पहले इंटर, फिर बीए और फिर एमबीए. एकएक सीढि़यां तय करता हुआ हर्ष अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया.

एमबीए की डिगरी का झोली में आ जाना टर्निंग पौइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में एक बड़ी स्टील कंपनी में जौब मिल गया. फिर सुंदर और पढ़ीलिखी संजना से ब्याह हो गया. कोलकाता में पोस्ंिटग और अलीपुर में कंपनी के आवासीय कौंप्लैक्स में शानदार फ्लैट. अरसे से दानेदाने को मुहताज किसी वंचित को जैसे अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. एकबारगी ढेर सारी सुविधाएं, ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार क्रैडिट कार्ड में कैद.

उस स्टील कंपनी में जौब लगे 3 साल हो गए. जौब लगते ही हर्ष ने कहा था, ‘नई जगह है मम्मी, सैट होने में हमें वक्त लगेगा. सैट होते ही तुम्हें यहां अपने पास बुला लेंगे. इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’

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सुन कर अच्छा लगा. रफूगीरी का काम करतेकरते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पां हो गए हैं कि घिन्न आने लगी है इन से. अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन सी संपत्ति पड़ी है? सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में ही समा जाएगी.

लेकिन 3 साल गुजर गए. इसी बीच हर्ष कई बार आया यहां. 2 दिनों के प्रवास के डेढ़ दिन ससुराल में बीतते. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है,’ इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती रमा.

‘तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए, गिड़गिड़ाते हुए विनती करनी होगी? मां की तनहाइयों और मुसीबतों का एहसास खुद ही नहीं होना चाहिए उसे? न, वह ऐसा नहीं कर सकती. उस के जमीर को ऐसा कतई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ एक बार, कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करनी ही होगी. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.’

दूरियां- भाग 1: क्यों अपने बेटे को दोषी मानता था उमाशंकर

 ‘‘नेहा बेटा, जरा ड्राइंगरूम की सेंटर टेबल पर रखी मैगजीन देना. पढ़ूंगा तो थोड़ा टाइम पास हो जाएगा,’’ उमाशंकर ने अपने कमरे से आवाज लगाई.

आरामकुरसी पर वह लगभग लेटे ही हुए थे और खुद उठ कर बाहर जाने का उन का मन नहीं हुआ. पता नहीं, क्यों आज इतनी उदासी हावी है…खालीपन तो पत्नी के जाने के बाद से उन के अंदर समा चुका है, पर कट गई थी जिंदगी बच्चों को पालते हुए.

शांता की तसवीर की ओर उन्होंने देखा… बाहर ड्रांगरूम में नहीं लगाई थी उन्होंने वह तसवीर, उसे अपने पास रखना चाहते थे, वैसे ही जैसे इस कमरे में वह उन के साथ रहा करती थी, जाने से पहले.

नेहा तो उन की एक आवाज पर बचपन से ही दौड़दौड़ कर काम करने की आदी है. शांता के गुजर जाने के बाद वह उस पर ही पूरी तरह से निर्भर हो गए थे. बेटा तो शुरू से ही उन से दूर रहा था. पहले पढ़ाई के कारण होस्टल में और फिर बाद में नौकरी के कारण दूसरे शहर में.

एक सहज रिश्ता या कहें कंफर्ट लेवल उस के साथ बन नहीं पाया था. हालांकि वह जब भी आता था, पापा की हर चीज का खयाल रखता था, जरूरत की चीजें जुटा कर जाता था ताकि पापा और नेहा को कोई परेशानी न हो.

 

बेटे ने जब भी उन के पास आना चाहा, न जाने क्यों वह एक कदम पीछे हट जाते थे- एक अबूझ सी दीवार खींच दी थी उन्होंने. किसी शिकायत या नाराजगी की वजह से ऐसा नहीं था, और कारण वह खुद भी समझ नहीं पाए थे और न ही बेटा.

शांता की मौत की वजह वह नहीं था, फिर भी उन्हें लगता था कि अगर वह उन छुट्टियों में घर आ जाता तो शांता कुछ दिन और जी लेती. होस्टल में फुटबाल खेलते हुए उस के पांव में फ्रैक्चर हो गया था और उस के लिए यात्रा करना असंभव सा था…छोटा ही तो था, छठी क्लास में. घर से दूर था, इसलिए चोट लगने पर घबरा गया था. बारबार उसे बुखार आ रहा था और अकेले भेजना संभव नहीं था, और उमाशंकर शांता को ऐसी हालत में नन्ही नेहा के भरोसे उसे लेने भी नहीं जा सकते थे.

यह मलाल भी उन्हें हमेशा सताता रहा कि काश, वह चले जाते तो मां जातेजाते अपने बेटे को देख तो लेती. वह 2 साल से कैंसर जूझ रही थी, तभी तो तरुण को होस्टल भेजने का निर्णय लिया गया था. यही तय हुआ था कि 2 साल बाद जब नेहा 5वीं जमात में आ जाएगी, उसे भी होस्टल भेज देंगे.

आखिरी दिनों में नेहा को सीने से चिपकाए शांता तरुण को ही याद करती रही थीं.

तरुण ने भी बड़े होने के बाद नेहा से कहा था, “पापा मुझे लेने आ जाते या किसी को भेज देते तो मैं मां से मिल तो लेता.”

नेहा जो समय से पहले ही बड़ी हो गई थी, इस प्रकरण से हमेशा बचने की ही कोशिश करती थी. बेकार में दुख को और क्यों बढ़ाया जाए, किस की गलती थी, किस ने क्या नहीं किया… इसी पर अगर अटके रहोगे तो आगे कैसे बढ़ोगे. मां को तो जाना ही था…दोष देने और खुद को दोषी मानना फिजूल है. तभी से वह उन दोनों के बीच की कड़ी बन गई थी…चाहे, अनचाहे.

पापा को ले कर हालांकि तरुण ने कभी भी विरोधात्मक रवैया नहीं रखा था और न ही नेहा को ले कर कोई द्वेष था मन में. भाईबहन में खूब प्यार था और एक सहज रिश्ता भी. रूठनामनाना, लड़ाईझगड़ा और अपनी बातें शेयर करना…जैसा कि आम भाईबहन के बीच होता है. लेकिन पापा और भाई की यही कोशिश रहती कि उस के द्वारा एकदूसरे तक बात पहुंच जाए.

यह कहना गलत न होगा कि नेहा पापा और भाई के बीच एक सेतु का काम करती थी. उस के माध्यम से अपनीअपनी बात एकदूसरे तक पहुंचाना उन दोनों को ही आसान लगता था. कभीकभी नेहा को लगता था कि उस की वजह से ही पितापुत्र दो किनारों पर छिटके रहे, वह ऐसी नदी बन गई, जिस की लहरें दोनों किनारों पर जा कर बहाव को यहांवहां धकेलती रहती हैं. लेकिन दोनों किनारों के बहाव को चाह कर भी आपस में एक कर पाने में असमर्थ रही है.

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बचपन की बात अलग है, तब उसे उन दोनों के बीच माध्यम बनने में बहुत आनंद आता था, लगता था कि वह बहुत समझदार है. मां भी बहुत हंसा करती थी कि देखो छुटकी को बड़ा बनने में कितना आनंद आता है. अरे, अभी से क्यों इन पचड़ों में पड़ती है, बड़े होने पर तो जिम्मेदारियों के भारीभारी बोझ उठाने ही पड़ते हैं, वह अकसर कहती. लेकिन उसे तो पापा और भाई दोनों पर रोब झाड़ने में बहुत मजा आता था.

पर, अब जिंदगी और रिश्तों के मर्म को समझने के बाद उसे एहसास हो चुका था कि उस का माध्यम बने रहना कितना गलत है. दूरियां तभी खत्म होंगी, जब वह बीच में नहीं होगी. पर उस के बिना जीने की कल्पना दोनों ही नहीं करना चाहते थे. नदी बस निर्विघ्न बहती रहे तो रिश्ता रीतेगा नहीं, सूखेगा नहीं.

आवाज लगाने के बाद उमाशंकर को अपनी भूल का एहसास हुआ. नेहा तो अब है ही नहीं यहां.

दिशाएं और भी हैं- भाग 1

Writer- Sushila Dwivedi

दोपहर से बारिश हो रही थी. रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. घर सुनसान था. कमरा खामोश था. कभीकभी नमिता को नितांत सन्नाटे में रहना भला लगता था. टीवी, रेडियो, डैक सब बंद रखना, अपने में ही खोए रहना अच्छा लगता था.

वह अपने खयालों में थी कि तभी उसे लगा कि साथ वाले कमरे में कुछ आहट हुई है. वह ध्यान से सुनने लगी, पर फिर कोई आवाज नहीं हुई. शायद उस के मन में अकेलेपन का भय होगा. कमरे में शाम का अंधेरा वर्षा के कारण कुछ अधिक घिर आया था.

नमिता खिड़की से निहार रही थी. इसी बीच उसे फिर लगा कि कमरे में आहट हुई है. अंधेरे में ही उस ने कमरे में नजर दौड़ाई. जब उस ने दरवाजा बंद किया था तब चारों ओर देख कर बंद किया था. कहीं सिटकिनी लगाना तो नहीं भूल गई.

जाते वक्त मां ने कहा था, ‘‘घर के खिड़कीदरवाजे बंद रखना, शाम ढलने के पहले घर लौट आना.’’

मां की इस हिदायत पर नमिता हंसी थी, ‘‘मैं छुईमुई बच्ची नहीं हूं मां. कानून पढ़ चुकी हूं और अब पीएचडी कर रही हूं. जूडोकराटे में भी पारंगत हूं. किसी भी बदमाश से 2-2 हाथ कर सकती हूं.’’

बावजूद इस के मां ने चेतावनी देते हुए कहा था, ‘‘मत भूल बेटी कि तू एक लड़की है और लड़की को ऊंचनीच और अपनी इज्जतआबरू के लिए डरना चाहिए.’’

‘‘मां तुम फिक्र मत करो. मैं पूरा एहतियात और खयाल रखूंगी,’’ वह बोली थी.

आज तो वह घर से बाहर निकली ही नहीं थी कि कोई घर में आ कर छिप गया हो. मां को गए अभी पूरा दिन भी नहीं गुजरा था. वह अभी इसी उधेड़बुन में थी कि उसे लगा जैसे कमरे में कोई चलफिर रहा है. हाथ बढ़ा कर नमिता ने स्विच औन किया. पर यह क्या लाइट नहीं थी. भय से उसे पसीना आ गया.

वह मोमबत्ती लेने के लिए उठी ही थी कि लाइट आ गई. बारिश फिर शुरू हो गई थी. वह सोचने लगी शायद बारिश के कारण आवाज हो रही थी. वह बेकार डर गई. अंधेरा भी डर का एक कारण है. अभी रात की शुरुआत थी. केवल 7 बजे थे.

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नमिता को प्यास लग रही थी. किचन की लाइट औन कर जैसे ही फ्रिज की ओर बढ़ी कि उस की चीख निकल गई. सप्रयास वह इतना ही बोल पाई, ‘‘कौन हो तुम?’’

पुरुष आकृति के चेहरे पर नकाब था. उस ने बढ़ कर उस का मुंह अपनी हथेली से दबा दिया. बोला, ‘‘शोर करने की कोशिश मत करना वरना अंजाम ठीक नहीं होगा.’’

‘‘क्या चाहते हो? कौन हो तुम?’’

‘‘नासमझ लड़की कोई मनचला जवान पुरुष लड़की के पास क्यों आता है? तुझे मैं आतेजाते देखता था. मौका आज मिला है.’’

‘‘अपनी बकवास बंद करो… मैं इतनी कमजोर नहीं कि डर जाऊंगी. तुरंत निकल जाओ यहां से वरना मैं पुलिस को खबर करती हूं.’’

वह फोन की ओर बढ़ ही रही थी कि उस ने पीछे से उसे दबोच लिया. अचानक इस स्थिति से वह विवश हो गई. नकाबपोश ने उसे पलंग पर पटक दिया और कपड़े उतारने की कोशिश करने लगा.

‘‘वासना के कीड़े हर औरत को इतना कमजोर मत समझ. एक अकेली औरत अपने बल से एक अकेले पुरुष का सामना न कर पाए, यह संभव नहीं.’’ कहते हुए उस गुंडे की गिरफ्त से बचने के लिए नमिता अपना पूरा जोर लगा रही थी.

जैसे वह दरिंदा उस पर झुका नमिता ने उस की दोनों टांगों के मध्य अपने दोनों पैरों से जबरदस्त प्रहार किया. इस अप्रत्याशित प्रहार से वह तिलमिला उठा और दूर जा गिरा. वह उठ पाता उस से पहले ही नमिता भागी और कमरे का दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में पहुंच गई. उस ने पुलिस को फोन कर दिया. तुरंत पुलिस घटनास्थल पर पहुंच गई. दरवाजा खोला गया पर दरिंदा खिड़की की राह भागने में कामयाब हो गया. चारों ओर बिखरी चीजें. अस्तव्यस्त कमरे से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि नमिता को कितना संघर्ष करना पड़ा होगा.

खबर मिलते ही नमिता के मम्मीपापा रातोंरात टैक्सी कर के आ गए. नमिता मां से लिपट कर बहुत रोई.

मां सहमी बेटी को सहलाती रहीं. उस के पूरे शरीर में नीले निशान और खरोंचें थीं.

‘‘बेटा, पूरी घटना बता… डर छोड़… तू तो बहादुर बेटी है न.’’

‘‘हां मां, मैं ने उस दरिंदे को परास्त कर दिया,’’ कह नमिता ने पूरी घटना बयां कर दी.

सुबह का पेपर आ चुका था. जंगल की आग की तरह कल रात की घटना पड़ोसियों और परिचितों में फैल चुकी थी.

छात्रा के साथ बलात्कार की घटना छपी थी. मां को पढ़ कर सदमा लगा कि यह सब तो बेटी ने नहीं बताया.

मां को परेशान देख नमिता बोली, ‘‘मां, तुम परेशान क्यों होती हो… मेरे तन पर वह दरिंदा अभद्र हरकत करता उस के पहले ही मेरे अंदर की शक्ति ने उस पर विजय पा ली थी. मेरा विश्वास करो मां,’’ कह कर नमिता अंदर चली गई.

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मां पापा से कह रही थीं, ‘‘घरघर में पढ़ी जा रही होगी हमारी बेटी के साथ हुई घटना की खबर… मुझे तो बहुत डर लग रहा है.’’

तभी फोन की घंटी बजने लगी. लोग अफसोस जताने के बहाने कुछ सुनना चाहते थे.

मांपापा बोले, ‘‘हमें अपनी बेटी की बहादुरी पर नाज है… पेपर झूठ बता रहे हैं.’’

शाम होतेहोते इंदौर से योगेशजी का फोन आ गया जहां नमिता की सगाई हुई थी. दिसंबर में उस की शादी होने जा रही थी.

‘‘पेपर में आप की बेटी के बारे में पढ़ा, अफसोस हुआ… मैं फिर आप से बात करता हूं.’’

योगेशजी के लहजे से भयभीत हो उठे नमिता के पिता विमल. पत्नी से बोले, ‘‘पेपर में छपी यह खबर हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी. योगेशजी का फोन था. उन के आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे. कह रहे थे अभी आप परेशान होंगे, आप की और परेशानी बढ़ाना नहीं चाहता, बाद में बात करते हैं.’’

पुलिस और मीडिया वाले फिर घर के चक्कर लगा रहे थे, ‘‘हम नमिता का इंटरव्यू लेने आए हैं.’’

‘‘क्यों इतना कुछ छाप देने के बाद भी आप लोगों का जी नहीं भरा? लड़की ने अपनी सुरक्षा स्वयं कर ली, इतना काफी नहीं है?’’

‘‘नहीं सर, हम तो अपराधी को सजा दिलाना चाहते हैं… नमिता उस की पहचान बयां करती तो अच्छा था.’’

पापा बोले, ‘‘पुलिस में रिपोर्ट कर के तुम ने अच्छा नहीं किया बेटी. कितनी जलालत का सामना करना पड़ रहा है…’’

‘‘आप ने अन्याय के खिलाफ बोलने की आजादी दी है पापा,’’ नमिता उन्हें परेशान देख बोली, ‘‘मैं ने आप दोनों को सहीसही सारी घटना बता दी… मुझ पर भरोसा कीजिए.’’

मेरी खातिर- भाग 1: माता-पिता के झगड़े से अनिका की जिंदगी पर असर

राइटर- मेहर गुप्ता

‘‘निक्की तुम जानती हो कि कंपनी के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं छोटेछोटे कामों के लिए बारबार बौस के सामने छुट्टी के लिए मिन्नतें नहीं कर सकता हूं. जरूरी नहीं कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ चलूं. तुम अकेली भी जा सकती हो न. तुम्हें गाड़ी और ड्राइवर दे रखा है… और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘चाहती? मैं तुम्हारी व्यस्त जिंदगी में से थोड़ा सा समय और तुम्हारे दिल के कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह चाहती हूं.’’

‘‘बस शुरू हो गया तुम्हारा दर्शनशास्त्र… निकिता तुम बात को कहां से कहां ले जाती हो.’’

‘‘अनिकेत, जब तुम्हारे परिवार में कोई प्रसंग होता है तो तुम्हारे पास आसानी से समय निकल जाता है पर जब भी बात मेरे मायके

जाने की होती है तो तुम्हारे पास बहाना हाजिर होता है.’’

‘‘मैं बहाना नहीं बना रहा हूं… मैं किसी भी तरह समय निकाल कर भी तेरे घर वालों के हर सुखदुख में शामिल होता हूं. फिर भी तेरी शिकायतें कभी खत्म नहीं होती हैं.’’

‘‘बहुत बड़ा एहसान किया है तुम ने इस नाचीज पर,’’ मम्मी के व्यंग्य पापा के क्रोध की अग्निज्वाला को भड़काने का काम करते थे.

‘‘तुम से बात करना ही बेकार है, इडियट.’’

‘‘उफ… फिर शुरू हो गए ये दोनों.’’

‘‘मम्मा व्हाट द हैल इज दिस? आप लोग सुबहशाम कुछ देखते नहीं… बस शुरू हो जाते हैं,’’ आंखें मलते हुए अनिका ने मम्मी से कहा.

‘‘हां, तू भी मुझे ही बोल… सब की बस मुझ पर ही चलती है.’’

पापा अंदर से दरवाजा बंद कर चुके थे, इसलिए मुझे मम्मी पर ही अपना रोष डालना पड़ा था.

अनिका अपना मूड अच्छा करने के लिए कौफी बना, अपने कमरे की खिड़की के पास जा खड़ी हो गई. उस के कमरे की खिड़की सामने सड़क की ओर खुलती थी, सड़क के दोनों तरफ  वृक्षों की कतारें थीं, जिन पर रात में हुई बारिश की बूंदें अटकी थीं मानो ये रात में हुई बारिश की चुगली कर रही हों. अनिका उन वृक्षों के हिलते पत्तों को, उन पर बसेरा करते पंछियों को, उन पत्तियों और शाखाओं से छन कर आती धूप की उन किरणों को छोटी आंखें कर देखने पर बनते इंद्रधनुष के छल्लों को घंटों निहारती रहती. उसे वक्त का पता ही नहीं चलता था. उस ने घड़ी की तरफ देखा 7 बज गए थे. वह फटाफटा नहाधो कर स्कूल के लिए तैयार हो गई. कमरे से बाहर निकलते ही सोफे पर बैठे चाय पीते पापा ने ‘‘गुड मौर्निंग’’ कहा.

‘‘गुड मौर्निंग… गुड तो आप लोग मेरी मौर्निंग कर ही चुके हैं. सब के घर में सुबह की शुरुआत शांति से होती पर हमारे घर में टशन और टैंशन से…’’ उस ने व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी भौंहें चढ़ाते हुए कहा.

‘‘चलिए बाय मम्मी, बाय पापा. मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है.’’

‘‘पर बेटे नाश्ता तो करती जाओ,’’ मम्मी डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगाते हुए बोली.

‘‘सुबह की इतनी सुहानी शुरुआत से मेरा पेट भर गया है,’’ और वह चली गई.

अनिका जानती थी अब उन लोगों के बीच इस बात को ले कर फिर से बहस छिड़ गई होगी कि सुबह की झड़प का कुसूरवार कौन है. दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराने पर तुल गए होंगे. शाम को अनिका देर से घर लौटी. घर जाने से बेहतर उसे लाइब्रेरी में बैठ कर

पढ़ना अच्छा लगा. वैसे भी वह उम्र के साथ बहुत एकांतप्रिय और अंतर्मुखी बनती जा रही थी. घर में तो अकेली थी ही बाहर भी वह ज्यादा मित्र बनाना नहीं सीख पाई.

‘‘मम्मी मेरा कोई छोटा भाईबहन क्यों नहीं है? मेरे सिवा मेरे सब फ्रैंड्स के भाईबहन हैं और वे लोग कितनी मस्ती करती हैं… एक मैं ही हूं… बिलकुल अकेली,’’ अनगिनत बार वह मम्मी से शिकायत कर अपने मन की बात कह चुकी थी.

‘‘मैं हूं न तेरी बैस्ट फ्रैंड,’’ हर बार मम्मी यह कह कर अनिका को चुप करा देतीं. अनिका अपने तनाव को कम करने और बहते आंसुओं को छिपाने के लिए घंटों खिड़की के पास खड़ी हो कर शून्य को निहारती रहती.

घर में मम्मीपापा उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दरवाजे की घंटी बजते ही दोनों उस के पास आ गए.

‘‘आज आने में बहुत देर कर दी… फोन भी नहीं उठा रही थी… कितनी टैंशन हो गई थी हमें,’’ कह मम्मी उस का बैग कंधे से उतार कर उस के लिए पानी लेने चली गई.

‘‘हमारी इन छोटीमोटी लड़ाइयों की सजा तुम स्वयं को क्यों देती हो,’’ ?पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘किस के मम्मीपापा ऐसे होंगे, जिन के बीच अनबन न रहती हो.’’

‘‘पापा, इसे हम साधारण अनबन का नाम तो नहीं दे सकते. ऐसा लगता है जैसे आप दोनों रिश्तों का बोझ ढो रहे हो. मैं ने भी दादू, दादी, मां, चाची, चाचू, बूआ, फूफाजी को देखा है पर ऐसा अनोखा प्रेम तो किसी के बीच नहीं देखा है,’’ अनिका के कटाक्ष ने पापा को निरुत्तर कर दिया था.

‘‘बेटे ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम अतिसंवेदनशील हो?’’

पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, मम्मी से शादी आप ने दादू के दबाव में आ कर की थी क्या?’’

तुम्हारे हिस्से में- भाग 3: पत्नी के प्यार में क्या मां को भूल गया हर्ष?

लेखक- महावीर राजी 

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा. जींसटौप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी खरीद ली. क्रैडिट कार्ड पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के गुच्छों में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज से चलते हुए मुख्यद्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.

‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उन के लिए साड़ी,’’ हर्ष मिमियाया.

‘‘ओह,’’ संजना भी थम गई.

‘‘एक बार फिर वापस अप्सरा,’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने को मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़ कर रोक लिया, ‘‘अब उतर ही आए हैं तो चलो न, बाहर के किसी स्टोर से ले लेंगे.’’

‘‘बाहर के स्टोर से?’’ हर्ष सकपका गया.

‘‘ऐनी प्रौब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाईं, ‘‘मां ही तो हैं, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि साउथ मौल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी. हुंह…वैसे भी उन जैसी कसबाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहां से खरीदी गई है. बाहर के स्टोर से खरीदने पर सस्ती भी तो मिलेगी, आखिर बचत ही तो होगी.’’

‘‘सचमुच, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस, जेन,’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा, ‘‘पर लेनी तो प्योर सिल्क ही है यार.’’

‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी, ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’

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‘‘पिछली बार वहां गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वादा कर के आया था,’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.

‘‘उफ, तुम भी न…’’ संजना बड़बड़ाई, ‘‘इस तरह के उलटेसीधे वादे करने से पहले थोड़ा तो सोचना चाहिए था न.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता, जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दी तो मम्मी क्या सोचेंगी?’’

‘‘ठीक है. कोई उपाय करते हैं,’’ संजना सोच में पड़ गई.

बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जा कर हर्ष की कमर को लपेट लिया. संजना की सांसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भर दे रही थी.

रासबिहारी मैट्रो स्टेशन के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उन के हाथों में भारीभरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके. ऐसे हाईफाई ग्राहक का उन के साधारण से शोरूम में क्या काम?

‘‘वैलकम मैडम, क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.

‘‘प्योर सिल्क की एक साड़ी लेनी है हमें. कुछ बढि़या डिजाइनें दिखाइए.’’

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिया. देखते ही देखते काउंटर पर दसियों साडि़यां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एकएक साड़ी खोल कर डिजाइन व रंगों की प्रशंसा करने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली, 3 से 4 हजार की थीं साडि़यां. उस ने हर्ष की ओर देखा.

‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना धीमे से बोली.

‘‘मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छी क्वालिटी की प्योर सिल्क नहीं आएगी. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, ‘इतना मालदार आसामी प्राइस देख कर हड़क क्यों रहा है?’

‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंगरेजी में बातें करने लगे.

‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है. माना 40-45 की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. यह बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हुंह. प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का चाव चढ़ा है.’’

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‘‘आय एम सौरी, जेन. वायदा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं,’’

हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया.

उसे अच्छी तरह याद है. उस दिन दोस्तों के संग घूमफिर कर घर लौटा तो रात के 10 बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उस का इंतजार कर रही थीं. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा. ऊपर चेहरे पर उस के ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसा सम्मोहन घुला था इन में कि झपकी आ गई. काफी दिनों के बाद एक सुकून भरी नींद. 3 घंटे बाद अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों की त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही हैं.

उन्हीं क्षणों के दौरान उस के मुंह से निकल गया, ‘इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क की साड़ी दूंगा तुम्हें.’ यह सुन कर मम्मी सिर्फ मुसकरा भर दी थीं.

हर्ष और जेन के बीच बातचीत भले ही अंगरेजी में हो रही थी और मुखर्जी बाबू को अंगरेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी.

‘‘मैडम,’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किस के लिए ले रही हैं?’’

इस के पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने झट से स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया, ‘‘न, न, मैडम, अन्यथा न लें, सिर्फ इसलिए पूछा कि हम उस के अनुकूल दूसरा किफायती औप्शन बता सकें.’’

संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी, ‘‘साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए.’’

पलक झपकते मुखर्जी बाबू के जेहन में पूरा माजरा बेपरदा हो गया. मैडम ने साहब की मां को ‘मम्मी’ नहीं कहा, ‘सासूमां’ भी नहीं कहा, बल्कि ‘साहब की विडो मदर’ कहा और साहब कार्टून की तरह खड़ा दुम हिलाता ‘खीखी’ करता रहा.

‘‘आप का काम हो गया,’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए. थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क का नया बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरा. एक से एक खूबसूरत प्रिंट. एक से एक लुभावने कलर.

‘‘वैसे तो ये साडि़यां भी 4 हजार से ऊपर की ही हैं मैडम, पर हम इन्हें सिर्फ 800 रुपए में सेल कर रहे हैं. लोडिंगअनलोडिंग के समय हुक लग जाने से या चूहे के काट देने से माल में छोटामोटा छेद हो जाता है. हमारा ट्रैंड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी कर के उस नुक्स को इस माफिक ठीक करता है कि साड़ी एकदम नई हो जाती है. सरसरी नजर से देखने पर नुक्स बिलकुल भी पता नहीं चलेगा.’’

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‘‘यानी कि रफू की हुई,’’ संजना हकला उठी.

‘‘रफू नहीं मैडम, प्लास्टिक सर्जरी बोलिए. रफू तो देहाती शब्द है. आप खुद देखिए न.’’

सचमुच, बिलकुल नई और बेदाग साडि़यां. जहांतहां छोटेछोटे डिजाइनर तारे नजर आ रहे थे जो साड़ी की खूबसूरती को बढ़ा ही रहे थे. सरसरी तौर पर कोई भी नुक्स नहीं दिख रहा था साडि़यों में, दोनों की बाछें खिल उठीं. आंखों में ‘यूरेकायूरेका’ के भाव उभर आए, मन तनावमुक्त हो गया जैसे जेन का.

आननफानन ढेर में से एक साड़ी चुनी गई और पैक हो कर आ गई. यह नया पैकेट मौल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था जैसे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के बीच किसी सरकारी स्कूल का बच्चा आ घुसा हो.

‘‘मैं ने कहा था न, सही मौका आते ही क्रैडिट कार्ड की खरोंचों पर रफू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा भी पूरा हो गया और चिराग पर पूरे 3 हजार का रफू भी लग गया.’’

‘‘यू आर जीनियस, जेन,’’ हर्ष की प्रशंसा सुन कर संजना खिलखिलाई तो बालों की कई महीन लटें पहले की ही तरह आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आईं. बाइक की ओर बढ़ते हुए दोनों के चेहरे खिले हुए थे.

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