Mother’s Day Special: आनंदी – ममता के डौलर

पलंग पर चारों ओर डौलर बिखरे हुए थे. कमरे के सारे दरवाजे व खिड़कियां बंद थीं, केवल रोशनदान से छन कर आती धूप के टुकड़े यहांवहां छितराए हुए थे. डौलर के लंबेचौड़े घेरे के बीच आनंदी बैठी थीं. उन के हाथ में एक पत्र था. न जाने कितनी बार वे यह पत्र पढ़ चुकी थीं. हर बार उन्हें लगता कि जैसे पढ़ने में कोईर् चूक हो गई है, ऐसा कैसे हो सकता है. उन का बेटा ऐसे कैसे लिख सकता है. जरूर कोई मजबूरी रही होगी उस के सामने वरना उन्हें जीजान से चाहने वाला उन का बेटा ऐसी बातें उन्हें कभी लिख ही नहीं सकता. हो सकता है उस की पत्नी ने उसे इस के लिए मजबूर किया हो.

पर जो भी वजह रही हो, सुधाकर ने जिस तरह से सब बातें लिखी थीं, उस से तो लग रहा था कि बहुत सोचसमझ कर उस ने हर बात रखी है.

कितनी बार वे रो चुकी थीं. आंसू पत्र में भी घुलमिल गए थे. दुख की अगर कोई सीमा होती है तो वे उसे भी पार कर चुकी थीं.

ताउम्र संघर्षों का सामना चुनौती की तरह करने वाली आनंदी इस समय खुद को अकेला महसूस कर रही थीं. बड़ीबड़ी मुश्किलें भी उन्हें तोड़ नहीं सकी थीं, क्योंकि तब उन के पास विश्वास का संबल था पर आज मात्र शब्दों की गहरी स्याही ने उन के विश्वास को चकनाचूर कर दिया था. बहुत हारा हुआ महसूस कर रही थीं. यह उन को मिली दूसरी गहरी चोट थी और वह भी बिना किसी कुसूर के.

हां, उन का एक बहुत बड़ा कुसूर था कि उन्होंने एक खुशहाल परिवार का सपना देखा था. उन्होंने ख्वाबों के घोंसलों में नन्हेंनन्हें सपने रखे थे और मासूम सी अपनी खुशियों का झूला अपने आंगन में डाला था. उमंगों के बीज परिवारनुमा क्यारी में डाले थे और सरसों के फूलों की पीली चूनर के साथ ही प्यार की इंद्रधनुषी कोमल पत्तियां सजा दी थीं. पर धीरेधीरे उन के सपने, उन की खुशियां, उन की पत्तियां सब बिखरती चली गईं. खुशहाल परिवार की तसवीर सिर्फ उन के मन की दीवार पर ही टंग कर रह गई. अपनी मासूम सी खुशियों का झूला जो बहुत शौक से उन्होंने अपने आंगन में डाला था, उस पर कभी बैठ झूल ही नहीं पाईं वे. हिंडोला हिलता रहता और वे मनमसोस कर रह जातीं.

शादी एक समझौता है, यह बात उन की मां ने उन की शादी होने से बहुत पहले ही समझानी शुरू कर दी थी. पर वे हमेशा सोचती थीं कि समझौता करने का तो मतलब होता है कि चाहे पसंद हो या न हो, चाहे मन माने या न माने, जिंदगी को दूसरे के हिसाब से चलने दो. फिर प्यार, एहसास, एकदूसरे के लिए सम्मान और समपर्ण की भावना कैसे पनपेगी उस बंधन में.

आनंदी को यह सोच कर भी हैरानी होती कि जब शादी एक बंधन है तो उस में कोईर् खुल कर कैसे जी सकता है. एकदूसरे को अगर खुल कर जीने ही नहीं दिया जाएगा या एक साथी, जो हमेशा पति ही होता है, दूसरे पर अपने विचार, अपनी पसंदनापसंद थोपेगा तो वह खुश कैसे रह पाएगा.

मां डांटतीं कि बेकार की बातें मत सोचा कर. इतना मंथन करने से चीजें बिगड़ जाती हैं. मां को उन्होंने हमेशा खुश ही देखा. कभी लगा ही नहीं कि वे किसी तरह का समझौता कर रही हैं. पापामम्मी का रिश्ता उन्हें बहुत सहज लगता था. फिर बड़ी दीदी और उस के बाद मंझली दीदी की शादी हुई तो उन को देख कर कभी नहीं लगा कि वे दुखी हैं. आनंदी को तब यकीन हो गया था कि उन्हें भी ऐसा ही सहज जीवन जीने का मौका मिलेगा. सारे मंथन को विराम दे, वे रंजन के साथ विवाह कर उन के घर में आ गईर् थीं.

शुरुआती दिन घोंसले का निर्माण करने के लिए तिनके एकत्र करने में फुर्र से उड़ गए, खट्टेमीठे दिन, थोड़ीबहुत चुहलबाजी, दैहिक आकर्षण और उड़ती हुई रंगबिरंगी तितलियों से बुने सपनों के साथ. समय बीता तो आनंदी को एहसास होने लगा कि रंजन और वे बिलकुल अलग हैं. रंजन रिश्ते को सचमुच बंधन बनाने में यकीन रखते हैं. खुल कर सांस लेना मुश्किल हो गया उन के लिए.

दरवाजे पर खटखट हुई तो आनंदी सोच और डौलरों के घेरे से हिलीं. अंधेरा था कमरे में. दोपहर कब की शाम की बांहों में समा गई थी. लाइट जलानी ही पड़ी उन्हें.

‘‘मांजी दूध लाया हूं. आप डेयरी पर नहीं आईं तो मैं ही देने चला आया. एकदम ताजा निकाल कर लाया हूं.’’

चुपचाप दूध ले लिया उन्होंने. वरना अन्य दिनों की तरह कहतीं, ‘बहुत पानी मिलाने लगे हो आजकल.’ जब मेरा बेटा आएगा न, तब एकदम खालिस दूध लाना या तब ज्यादा दूध देना पड़ेगा तुझे. मेरे बेटे को दूध अच्छा लगता है. बड़े शौक से पीता है.

कमरे में आईं तो रोशनी आंखों को चुभने लगी. निराशा की परतें उन के चेहरे पर फैली हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि मात्र कुछ घंटों में ही वे 2 साल बूढ़ी हो गई हैं. उदास नजरों से उन्होंने एक बार फिर डौलरों को देखा. पलकें नम हो गईं. नहीं देखना चाहतीं वे इन डौलरों को. क्या करेंगी वे इन का. जीरो वाट का बल्ब जलाया उन्होंने. लेकिन धुंधले में भी डौलर चमक रहे थे. उन के भीतर जो पीड़ा की लपटें सुलग रही थीं, उन की रोशनी से खुद को बचाना उन के लिए ज्यादा मुश्किल था.

रंजन के साथ लड़ाई होना आम बात हो गई थी. वे कुछ फैसला लेतीं, उस से पहले ही उन्हें पता चला कि उन के अंदर एक अंकुर फूट गया है. सचमुच समझौता करने लगीं वे उस के बाद. उम्मीद भी थी कि रंजन घर में बच्चा आने के बाद सुधर जाएंगे. ऐयाशियां, दूसरी औरतों से संबंध रखना और शराब पीना शायद छोड़ दें, पर वे गलत थीं.

बच्चा आने के बाद रंजन और उग्र हो गए और बोलने लगे, बहुत कहती थी न कि चली जाएगी. अकेले बच्चे को पालना आसान नहीं. हां, वे जानती थीं इस बात को, इसलिए सहती रहीं रंजन की ज्यादतियों को.

तब मां ने समझाया, तू नौकरी करती है न, चाहे तो अलग हो जा रंजन से. हम सब तेरे साथ हैं. वह नहीं मानी. जिद थी कि समझौता करती रहेंगी. सुधाकर पर रंजन का बुरा असर न पड़े, यह सोच कर दिल पर पत्थर रख कर उसे होस्टल में डाल दिया.

उन की सारी आस, उम्मीद अब सुधाकर पर ही आ कर टिक गई थी. बस, वे चाहती थीं कि सुधाकर खूब पढे़ और रंजन के साए से दूर रहे. वैसे भी रंजन के सुधाकर को ले कर न कोई सपने थे न ही वे उस के कैरियर को ले कर परेशान थे. संभाल लेगा मेरा बिजनैस, बस वे यही कहते रहते. आनंदी नहीं चाहती थीं कि सुधाकर उन का बिजनैस संभाले जो लगभग बुरी हालत में था. उन का औफिस दोस्तों का अड्डा बन चुका था.

वे कभी समझ ही नहीं पाईं रंजन को. कोई अपने परिवार से ज्यादा दोस्तों को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई अपनी पत्नी व बेटे से बढ़ कर शराब को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई परिवार संभालने की कोशिश कैसे नहीं कर सकता. पर रंजन ऐसे ही थे. जिम्मेदारी से दूर भागते थे. कमिटमैंट तो जैसे उन के लिए शब्द बना ही नहीं था.

यह तो शुक्र था कि सुधाकर मेहनती निकला. लगातार आगे बढ़ता गया. रंजन उन दोनों को छोड़ कर किसी और औरत के पास रहने लगे. सुधाकर अकसर दुखी रहने लगा. बिखरे हुए परिवार में सपने दम न तोड़ दें, यह सोच कर आनंदी ने अपनी जमापूंजी की परवा न कर उसे विदेश भेज दिया. वे चाहती थीं कि बेटा विदेश जाए, खूब पैसा और नाम कमाए ताकि उन के जीवन की काली परछाइयों से दूर हो जाए. उसे उन के जीवन की कड़वाहट को न झेलना पड़े. पतिपत्नी के रिश्तों में आई दीवारों व अलगाव के दंश उसे न चुभें.

मां से अलग होना सुधाकर के लिए आसान न था. उस ने देखा था अपनी मां को अपने लिए तिलतिल मरते हुए, उस की खुशियों की खातिर त्याग करते हुए. वह नहीं जाना चाहता था विदेश, पर आनंदी पर जैसे जिद सवार हो गई थी. सब ने समझाया था कि ऐसा मत कर. बेटा विदेश गया तो पराया हो जाएगा. तू अकेली रह जाएगी. पर वे नहीं मानीं.

वे सुधाकर को कामयाब देखना चाहती थीं. वे उसे रंजन की परछाईं से दूर रखना चाहती थीं, मां की ममता तब शायद अंधी हो गईर् थी, इसीलिए देख ही नहीं पाईं कि बेटे को यह बात कचोट गई है.

पिता का प्यार जिसे न मिला हो और जो मां के आंचल में ही सुख तलाशता हो, जिस के मन के तार मां के मन के तारों से ही जुड़े हों, उस बेटे को अपने से दूर करने पर आनंदी खुद कितनी तड़पी थीं, यह वही जानती हैं. पर सुधाकर भी आहत हुआ था.

कितना कहा था उस ने, ‘मां, तुम मेरे बिना कैसे रहोगी. मैं यहीं पढ़ सकता हूं.’ पर वे नहीं मानीं और भेज दिया उसे आस्ट्रेलिया. फिर उसे वहीं जौब भी मिल गई. वह बारबार उन्हें बुलाता रहा कि मां अब तो आ जाओ. और वे कहती रहीं कि बस 2 साल और हैं नौकरी के, रिटायर होते ही आ जाऊंगी. वे जाने से पहले सारे लोन चुकाना चाहती थीं. बेटे पर कोई बोझ डालना तो जैसे आंनदी ने सीखा ही नहीं था. फिर विश्वास भी था कि बेटा तो उन्हीं का है. एक बार सैटल हो जाए तो कह देंगी कि आ कर सब संभाल ले. बुला लेंगी उसे वापस. कामयाबी की सीढि़यां तो चढ़ने ही लगा है वह.

नहीं आ पाया सुधाकर. जौब में उलझा तो खुद की जड़ें पराए देश में जमाने की जद्दोजेहद में लग गया. फिर उस की मुलाकात रोजलीना से हुई और उस से ही शादी भी कर ली. मां को सूचना भेज दी थी. पर इस बार आने का इसरार नहीं किया था. रोजलीना का साथ पा कर उस के बीते दिनों के जख्म भर गए थे. अपने परिवार को सींचने में वह मां के त्याग को याद रखना चाह कर भी नहीं रख पाया.

रोजलीना ने साफ कह दिया था कि वह किसी तरह की दखलंदाजी बरदाश्त नहीं कर सकती. वैसे भी वह मानती थी कि इंडियन मदर अपने बेटों को ले कर बहुत पजैसिव होती हैं, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि आनंदी वहां उन के साथ आ कर रहें.

सुधाकर मां से यह सब नहीं कह सकता था. मां की तकलीफें अभी भी उसे कभीकभी टीस दे जाती थीं. पर अब उस की एक नई दुनिया बस गई थी और वह नहीं चाहता था कि मांपापा की तरह उस के वैवाहिक जीवन में भी कटुता की काली छाया पसरे.

रोजलीना को वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था. एक सुखद वैवाहिक जीवन की राह न जाने कब से उस के भीतर पलती आईर् थी. बहुत कठिन था उस के लिए मां और पत्नी में से एक को चुनना, पर मां के पास वह वापस लौट नहीं पा रहा था और पत्नी को छोड़ना नहीं चाहता था.

वैसे भी मां का उसे अपने से दूर करने की टीस भी उसे अकसर गहरी पीड़ा से भर जाती थी. पिता के प्यार से वंचित सुधाकर मां से दूर नहीं रहना चाहता था. भले ही मां ने उसे भविष्य संवारने के लिए अपने से उसे दूर किया था, पर फिर भी किया तो, अकसर वह यही सोचता. ऐसे में रोजलीना का पलड़ा भारी होना स्वाभाविक ही था.

आनंदी को लगा जैसे उन का गला सूख रहा है, पर पानी के लिए वे उठीं नहीं. रात गहरा गईर् थी. वे समझ चुकी थीं कि सुधाकर को विदेश भेजने की उन की जिद ने उन के जीवन में भी इस रात की तरह अंधेरा भर दिया है. बेटे की खुशियां चाहना क्या सच में इतना बड़ा कुसूर हो सकता है या नियति की चाल ही ऐसी होती है. शायद अकेलापन ही उन के हिस्से में आना था. वे जान चुकी थीं कि वह जा चुका है कभी न लौटने के लिए. उन्होंने एक बार और पत्र पढ़ा.

लिखा था, ‘‘मां, आई एम सौरी. मैं आप से दूर नहीं जाना चाहता था पर मुझे जाना पड़ा और अब चाह कर भी मैं स्वदेश वापस लौटने में असमर्थ हूं. आप के त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकता और इस बात की ग्लानि भी रहेगी कि मैं आप के प्रति कोई फर्ज न निभा सका. शायद पापा से विरासत में मुझे यह अवगुण मिला होगा. जिम्मेदारी नहीं निभा पाया, तभी तो डौलर भेज रहा हूं और आगे भी भेजता रहूंगा. पर मेरे लौटने की उम्मीद मत रखना. अब मैं इस दुनिया में बस गया हूं, यहां से बाहर आ कर फिर भारत में बसना मुमकिन नहीं है. आप भी ऐसा ही चाहती थीं न.’’

आनंदी ने डौलरों पर हाथ फेरा. पूरी ममता जिस बेटे पर लुटा दी थी, उस ने कागज के डौलर भेज उस ममता के कर्ज से मुक्ति पा ली थी.

Mother’s Day Special- मिटते फासले: दो मांओं की दर्दभरी कहानी

मोबाइल फोन ने तो सुरेखा की दुनिया ही बदल दी है. बेटी से बात भी हो जाती है और अमेरिका दर्शन भी घर बैठेबिठाए हो जाता है. अमेरिका में क्या होता है, सुरेखा को पूरी खबर रहती है. मोबाइल के कारण आसपड़ोस में धाक भी जम गई कि अमेरिका की ताजा से ताजा जानकारी सुरेखा के पास होती है.

सर्दी का दिन था. कुहरा छाया हुआ था. खिड़की से बाहर देख कर ही शरीर में सर्दी की एक झुरझुरी सी तैर जाती थी. अभी थोड़ी देर पहले ही शालिनी से बात हुई थी.

शालिनी 2 महीने बाद छुट्टियों में भारत आ रही है. कुरसी खींच कर आंखें मूंद प्रसन्न मुद्रा में सुरेखा शालिनी के बारे में सोच रही थी. कितनी चहक रही थी भारत में आने के नाम से. अपनों से मिलने के लिए, मोबाइल पर मिलना एक अलग बात है. साक्षात अपनों से मिलने की बात ही कुछ और होती है.

विवाह के 5 वर्षों बाद शालिनी परिवार से मिलने भारत आएगी. 5 वर्षों  में काफीकुछ बदल गया है. शालिनी भारत से गई अकेली थी, वापस 2 बच्चों के साथ आ रही है.

परदेस की अपनी मजबूरी होती है. सुखदुख खुद अकेले ही सहना पड़ता है. इतने दिनों में बहुतकुछ बदल गया है. छोटे भाई की शादी हो गई. उस के भी 2 बच्चे हो गए. बड़े भाई का एक बच्चा था, एक और हो गया. नानी गुजर गईं. जिस मकान में रहती थी उस को बेच कर दिल्ली में आशियाना बना लिया. पापा बीमार चल रहे हैं. दुकान अब दोनों भाई चलाते हैं. पापा तो कभीकभार ही दुकान पर जाते हैं.

पंजाब का एक छोटा सा शहर है राजपुरा, जहां शालिनी का जन्म हुआ, पलीबढ़ी. पढ़ाई में मन लगता नहीं था. बस जैसेतैसे 12वीं पास कर पाई. मांबाप को चिंता विवाह की थी. घरेलू कामों में दक्ष थी, इसलिए बिना किसी खास कोशिश के राजपुरा से थोड़ी ही दूर मंडी गोबिंदगढ़ में एक मध्यवर्गीय परिवार के बड़े लड़के महेश के साथ रिश्ता संपन्न हुआ. महेश के पिता सरकारी कर्मचारी थे. महेश एक किराना स्टोर चलाता था.

सुरेखा शालिनी के विवाह से काफी खुश थी कि लड़की आंखों के सामने है. राजपुरा और मंडी की दूरी एक घंटे की थी, जब दिल चाहा मिल लिए. लेकिन यह खुशी मुश्किल से 5 महीने भी नहीं चल सकी. एक दिन सड़क दुर्घटना में महेश की मौत हो गई. शालिनी का सुहाग मिट गया. वह विधवा हो गई. उस पर दुखों का पहाड़ टूट गया.

सास के तानों से तंग और व्यवहार से दुखी बेटी को सुरेखा अपने घर ले आई. आखिर कितने दिन तक ब्याहता पुत्री को घर में रखे, चाहे विधवा ही सही, ब्याहता का स्थान तो ससुराल में है.

एक दिन सुरेखा ने शालिनी से कहा, ‘बेटी, तेरी जगह तो ससुराल में है, आखिर कितने दिन मां के पास रहेगी?’

‘मां, वहां मैं कैसे रहूंगी?’

‘रहना तो पड़ेगा बेटी, दुनिया की रीति ही यही है,’ सुरेखा ने शालिनी को समझाया.

‘मां, आप तो मेरी सास के तानों और व्यवहार से परिचित हैं. मैं वहां रह नहीं सकूंगी,’ शालिनी ने अपनी असमर्थता जाहिर की.

‘दिल पर पत्थर तो रखना ही पड़ेगा, दुनियादारी भी तो कोई चीज है.’

‘मां, दुनियादारी तो यह भी कहती है कि बेटे की मृत्यु के बाद बहू को पूरा हक और सम्मान देना चाहिए. किसी भी ग्रंथ में यह नहीं लिखा कि बेटे की मौत के बाद बहू को घर से धक्के मार कर निकाल दिया जाए,’ कहतेकहते शालिनी की आंखें भर आईं.

फिर भी कुछ रिश्तेदारों के साथ शालिनी ससुराल पहुंची तो सास ने घर के अंदर ही नहीं घुसने दिया. घर के बाहर अकेली सास 10 रिश्तेदारों पर हावी थी.

‘शालिनी घर के अंदर नहीं घुस सकती,’ कड़कती आवाज में सास ने कहा.

‘यह आप की बहू है,’ सुरेखा ने विनती की.

‘बेटा मर गया, बहू भी मर गई,’ सास की आवाज में कठोरता अधिक हो गई. शालिनी के पिता ने महेश के पिता से बात करने की विनती की.

‘जो बात करनी है, मुझ से करो. मेरा फैसला न मानने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता.’

महेश के पिता केवल मूकदर्शक बने रहे. यह देखसुन कर सारे रिश्तेदारों ने शालिनी के मांबाप को समझाया कि लड़की को ससुराल में रखने का मतलब है कि लड़की को मौत के हवाले करना. गर्भवती लड़की को मायके में रखना ही ठीक होगा. थकहार कर शालिनी मायके आ गई. जवान दामाद की मृत्यु के बाद गर्भवती लड़की की दशा ने शालिनी के पिता को समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया. शालिनी क्या कहे और क्या करे? वह तो अपने बच्चे के जन्म का इंतजार करने लगी.

समय पर शालिनी ने एक खूबसूरत बेटे को जन्म दिया. एक खिलौना पा कर शालिनी अपना दुख भूल गई, लेकिन यह सुख केवल कुछ पलों तक ही सीमित रहा. पोते के जन्म की खबर सुन कर शालिनी की सास पोते पर अपना अधिकार जताने पहुंच गई. शालिनी ने अपने बच्चे को सौंपने से मना कर दिया.

‘आप ने तो मुझे महेश की मृत्यु के बाद घर से बाहर कर दिया था, अब मैं अपने बच्चे को अपने से जुदा नहीं करूंगी,’ शालिनी ने दोटूक जवाब दे दिया.

महेश की मां से कोई पहले जीत न सका तो अब भी किसी को कोई आस नहीं रखनी चाहिए थी. शोर मचा कर अधिकार जताया, ‘मेरा पोता है, कोई मुझ से मेरे पोते को जुदा नहीं कर सकता. उस की जगह मेरे घर में है.’

‘जब मेरे गर्भ में आप का पोता पल रहा था, तब आप को अधिकार याद नहीं आया. तब मैं सब से बड़ी दुश्मन थी. बिरादरी के सामने आप ने घर में नहीं घुसने दिया था. अब किस मुंह से हक जता रही हैं. मैं आप की तरह निष्ठुर नहीं हूं कि धक्के मार कर बेइज्जत करूं, लेकिन न तो मैं आप के साथ जाऊंगी और न ही अपने बच्चे को जाने दूंगी,’ शालिनी ने जवाब दिया.

शालिनी की सास भी हार मानने को तैयार नहीं थी. उस ने पुलिस का सहारा लिया. कानूनी रूप से तो बहू और पोते का स्थान मरणोपरांत भी पति के घर में ही है. पुलिस के कहने पर भी शालिनी ने सास के साथ जाने से मना कर दिया. कुछ बड़ेबूढ़ों ने सुझाया कि शालिनी को मायके में ही रहना चाहिए और बच्चे को उस की सास को सौंप दिया जाए.

उन का तर्क यह था कि बच्चे के साथ शालिनी का दूसरा विवाह करना मुश्किल होगा. यदि उस की सास बच्चे को पा कर खुश है तो यह शालिनी के भविष्य के लिए सही है. दूसरे विवाह की सारी अड़चनें अपनेआप दूर हो जाएंगी.

शालिनी बच्चे को छोड़ने को तैयार नहीं थी. फिर बड़ेबूढ़ों के समझाने पर वह बच्चे को अपने से जुदा कर सास को देने को तैयार हो गई. सारी उम्र अकेले बच्चे के साथ बिताना कठिन है. मांबाप भी कब तक साथ रहेंगे, जीवनसाथी तो तलाशना होगा. उस के और बच्चे के भविष्य के लिए बलिदान आवश्यक है.

कलेजे पर एक शिला रख कर शालिनी ने बच्चा सास के सुपुर्द कर दिया. सास को शालिनी से कोई मतलब नहीं था. उसे तो वंश चलाने के लिए वारिस चाहिए था, जो मिल गया.

जहां चाह वहां राह. शालिनी के लिए वर की तलाश शुरू हुई, अमेरिका में रह रहे एक विधुर से रिश्ता पक्का हो गया. परिवार के फैसले को मानते हुए सात फेरे ले कर पति सुशील के साथ नई गृहस्थी निभाने सात समंदर पार चली गई.

समय सभी जख्मों को भर देता है. धीरेधीरे वह अपना अतीत भूल कर वह नई दुनिया में व्यस्त हो गई. अपने अंश की जुदाई की याद आती तो कभी व्यक्त नहीं करती थी. एक बच्चे की जुदाई ने अब 2 बच्चों की मां बना दिया. मां से अकसर फोन पर बातें हो जाती थीं तो ऐसा लगता था कि आसपास बैठ कर बातें कर रही हैं, वैसे तो कोई कमी नहीं खटकती थी. उदासी, मजबूरी, सुख और दुख में अपनों से दूरी जरूर परेशान करती थी.

समय हवा के झोंकों के साथ उड़ जाता है. आज शालिनी अपने पति सुशील और 2 बच्चों के साथ मायके आई तो मांबेटी गले मिल कर आत्मविभोर हो गईं. बच्चों को देख कर सुरेखा ने प्यार से पुचकारते हुए कहा, ‘‘शालिनी, बच्चे तो एकदम गोरेचिट्टे हैं.’’

हंसते हुए शालिनी ने कहा, ‘‘बोलते भी अंगरेजी ज्यादा हैं.’’ एकदम अमेरिकन अंगरेजी बोलते देख हैरानपरेशान हो कर सुरेखा ने पूछा, ‘‘हिंदी नहीं जानते?’’

‘‘समझ सब लेते हैं, पर बोलते नहीं हैं. आप की सब बात समझ लेंगे,’’ शालिनी ने कहा.

सर्दियों के दिन थे. सुरेखा और शालिनी दोपहर में फुरसत के समय धूप सेंकते हुए बातें कर रही थीं. बातोंबातों में शालिनी ने मां से महेश की मां अर्थात अपनी पहली सास और अपने बच्चे के बारे में पूछा तो सुरेखा अचंभे में आ गई. फिर कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘बेटे, क्या तू अभी भी उस के बारे में सोचती है?’’

‘‘क्या करूं मां, अपनी कोख से जनमे बच्चे की याद कभीकभी आ ही जाती है. इंसान अतीत को कितना ही भुलाने की कोशिश करे, यादें पीछा नहीं छोड़ती हैं.’’

‘‘तू खुद ही सोच, अगर तू बच्चे को पालती तो क्या तेरी शादी सुशील से हो सकती थी? क्या यह सब तुझे मिलता? आज जो तेरे पास है.’’

‘‘वह तो ठीक है मां, फिर भी.’’

कुछ कहने से पहले सुरेखा ने शालिनी को बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘जो तेरे मन में है, मन में ही रख. अतीत भूल जा. यदि भूल नहीं सकती तो कभी भी किसी के आगे जबान पर ये बातें मत लाना. लोगों के कान बड़े पतले होते हैं. किसी का सुख कोई देख नहीं सकता है.’’ तभी फोन की घंटी बजी और बातों का सिलसिला रुक गया. सुशील ने बात की. सुशील ने शाम को सिनेमा देख कर बाहर होटल में डिनर का कार्यक्रम तय किया था.

‘‘शालिनी, अपनी सफल गृहस्थी को अपने हाथों में रख. सुशील ने सब जानते हुए तुझे अपनाया था. कोई ऐसी बात जबान पर मत ला जिस से कोई जरा सी भी दरार आए. शाम को सिनेमा देख और पुरानी बातों को भूल जा. जितनी खुश तू आज है, बच्चे को रख कर नहीं होती. भूल जा शालिनी, भूल जा.’’

मां की बात पल्ले बांध कर शाम को शालिनी ने परिवार के साथ सिनेमा देखा. 2 महीने कैसे बीते, सुरेखा को पता ही नहीं चला. आज शालिनी सपरिवार अमेरिका वापस जा रही है. एयरपोर्ट पर बेटी को विदा करते समय सुरेखा की आंखें नम हो गईं. मां को उदास देख कर शालिनी बोली, ‘‘यह क्या, बच्चों जैसी रो रही हो? मोबाइल पर हमेशा हम साथ ही तो रहते हैं? बातें तो होंगी ही तुम से बात न करूं तो मन फिर भी तो नहीं होता. सुरेखा को लगा जैसे फोन रिश्तों के फासलों के बीच एक पुल है. शालिनी का चेहरा उस की छलछलाई आंखों में तैरता रह गया.

Mother’s Day Special- निश्चय: क्या सुधा ने लिया मातृत्व का गला घोंटने का फैसला?

सुधा और अनिल ने एकसाथ डाक्टरी की पढ़ाई की थी. दोनों की यही इच्छा थी कि वे अमेरिका जा कर अपना काम शुरू करें और साथसाथ पढ़ाई भी जारी रखें. दोनों के परस्पर विवाह पर भी मातापिता की ओर से कोई रुकावट नहीं हुई थी. इसलिए दोनों विवाह के कुछ समय बाद ही अमेरिका आ गए.

अमेरिका का वातावरण उन्हें काफी रास आया. अनिल और सुधा ने यहां आ कर 5 वर्ष में काफी तरक्की कर ली थी. अब अनिल ने नौकरी छोड़ कर अपना क्लीनिक खोल लिया था, लेकिन सुधा अभी भी नौकरी कर रही थी. उस का कहना था, ‘नौकरी में बंधेबंधाए घंटे होते हैं. उस के साथसाथ घर पर भी समया- नुसार काम और आराम का समय मिलता है, जबकि अपने काम में थोड़ा लालच भी होता है और यह भी निश्चित होता है कि जब तक अंतिम रोगी को देख कर विदा न कर दिया जाए, डाक्टर अपना क्लीनिक नहीं छोड़ सकता.’  खैर, जो भी हो, सुधा को नौकरी करना ही ज्यादा उचित लगा था. शायद पैसों के पीछे भागना उसे अच्छा नहीं लगता था और न ही वह उस की जरूरत समझती थी. वह अब एक भरापूरा घरपरिवार चाहती थी. भरेपूरे परिवार से उस का मतलब था कि घर में बच्चे हों, हंसी- ठिठोली हो. जीवन के एक ही ढर्रे की नीरसता से वह ऊबने लगी थी.

पहलेपहल जब वे यहां आए थे तो दोनों की ही इच्छा थी कि अभी 3-4 वर्ष पढ़ाई पूरी करने के पश्चात अपनी प्रैक्टिस जमा लें और आर्थिक स्थिति मजबूत कर लें, फिर बच्चों का सोचेंगे. अब सुधा को लगने लगा था कि वह समय आ गया है, जब वह एकाध वर्ष छुट्टी ले कर या नौकरी छोड़ कर आराम कर सकती है और मां बनने की अपनी इच्छा पूरी कर सकती है. इसी आशय से एक दिन उस ने अनिल से बात भी चलाई थी, लेकिन वह यह कह कर टाल गया था कि ‘नहीं, अभी तो हमें बहुत कुछ करना है.’ यह ‘बहुत कुछ करना’ जो था, वह सुधा अच्छी तरह जानती थी.

वास्तव में अनिल यहां आ कर इतना ज्यादा भौतिकवादी हो गया था कि दिनरात रुपए के पीछे भागता फिरता था. वे केवल 2 ही प्राणी थे. रहने को अच्छा बड़ा सा मकान था, जो सभी सुखसुविधाओं से सुसज्जित था. दोनों के पास गाडि़या थीं. अपना एक क्लीनिक भी था, लेकिन अनिल पर तो नर्सिंगहोम खोलने की धुन सवार थी. नर्सिंगहोम खोलने से सुधा ने कभी इनकार नहीं किया था, लेकिन वह अब थोड़ा आराम भी करना चाहती थी. उसे लगता था कि पिछले कितने वर्ष भागदौड़ में ही बीत गए हैं.

कभी चैन से छुट्टियां बिताने का भी समय दोनों को नहीं मिल पाया. वैसे भी सुधा अब वास्तव में मातृत्व का सुख भी लेना चाहती थी.  प्राय: जब अनिल क्लीनिक से घर लौटने में देर कर देता तो सुधा अकेली बैठीबैठी यही सब सोचा करती कि कैसी मशीनी जिंदगी जी रहे हैं, वे लोग. बाहर से थक कर आओ तो घर का काम करना होता था. अपने लिए तो कोई समय ही नहीं बचता था. रोज ही वह सोचती कि अनिल से बात करेगी पर हर रोज अनिल किसी न किसी बहाने से बच्चे की बात को टाल जाता.

धीरेधीरे सुधा की शादी को 8 साल बीत गए. पहले पढ़ाईलिखाई के कारण ही उस ने विवाह औसत आयु की अपेक्षा देर से किया था. फिर काम और अनिल की बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं के कारण वह अपनी इच्छा को पूरा नहीं कर पाई थी, लेकिन एक डाक्टर होने के नाते अब वह जानती थी कि वैसे ही बच्चे को जन्म देने की दृष्टि से उस की आयु बढ़ती जा रही है. दूसरी ओर अनिल की ओर से कोई उत्साह भी नहीं दिखाई देता था. अंत में उस ने यही तय किया कि वह अनिल से साफसाफ कह देगी कि उस के नर्सिंगहोम और दूसरी इच्छाओं की खातिर वह अपने अरमानों का गला नहीं घोंटेगी. वह अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं करेगी.

अनिल जब रात को लौटा तो सुधा टीवी के सामने बैठी उस की प्रतीक्षा कर रही थी. अनिल ने जब आराम से खाना वगैरह खा लिया तो सुधा ने धीरेधीरे बात आरंभ की, लेकिन अनिल ने उत्साह दिखाना तो दूर, उसे फटकार दिया, ‘‘यह  क्या बेवकूफी भरी हरकत है. Mother’s Day Special- निश्चय: क्या सुधा ने लिया मातृत्व का गला घोंटने का फैसला? अपने इलाके में एक शानदार नर्सिंगहोम खोलना है, जिस में तुम्हारी सहायता की आवश्यकता भी होगी. अभी कम से कम 3 साल तक इस विषय में सोचना भी असंभव है.’’

सुधा की अवस्था एक चोट खाई हुई नागिन जैसी हो गई. वह चिल्ला कर बोली, ‘‘भाड़ में जाए तुम्हारी सफलता, तुम्हारा पैसा और भाड़ में जाए नर्सिंगहोम…मुझे नहीं चाहिए यह सब- कुछ…  बात बिगड़ते देख कर अनिल ने बड़ी चतुराई से स्थिति को संभालने की कोशिश की. सुधा को पुचकार कर समझाने लगा और अपनी ओर से पूरा प्रयत्न कर के उसे शांत किया.

इस झगड़े के लगभग 4 महीने पश्चात एक दिन सुधा को लगा कि वह गर्भवती है. इस बात से वह बहुत प्रसन्न थी. डाक्टर से जांच करवाने के पश्चात ही वह अनिल को यह समाचार देना चाहती थी. वह एक दोपहर अपने ही अस्पताल की डाक्टर के पास जांच करवाने गई. जांच रिपोर्ट ने यही बताया कि अब वह मां बनने वाली है. शाम को जब सुधा घर आई तो वह अपने को रोक नहीं पा रही थी. उस ने 2 बार रिसीवर उठाया कि अनिल को बताए, लेकिन फिर यह सोच कर रुक गई कि यदि वह फोन पर बता देगी तो अनिल के चेहरे पर आने वाले खुशी और आनंद के भावों को कैसे देख सकेगी.

रात को जब अनिल घर आया तो सुधा ने उसे बड़े उत्साह से यह खुशखबरी सुनाई. अनिल तो सुन कर भौचक्का रह गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘तुम्हें ऐसा करने को किस ने कहा था? मेरी सारी योजनाओं को तुम ने मिट्टी में मिला दिया. कोई जरूरत नहीं, अभी इस की. कल जा कर गर्भपात करवा लो. मैं डाक्टर से समय ले दूंगा.’’

इतना सुनते ही सुधा चीख कर बोली, ‘‘मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी. मैं ने कितनी प्रतीक्षा के बाद इसे पाया है. इतने चाव से इस की प्रतीक्षा की और आज मैं इस की हत्या कर दूं? ऐसा कभी नहीं हो सकता.’’

अनिल बोला, ‘‘तुम यह तो सोचो कि इस से मुझे कितनी मुश्किल होगी. कम से कम 1 साल तक तो तुम बंध ही जाओगी और मुझे तुम्हारे होते हुए दूसरे डाक्टरों की नियुक्ति करनी पड़ेगी. तुम तो जानती ही हो कि यहां डाक्टरों को कितना ज्यादा वेतन देना पड़ता है. मैं ने तुम से कहा था कि हमें अभी किसी बच्चे की कोई आवश्यकता नहीं है…अभी हमारे पास फुरसत ही कहां है, इन सब झमेलों के लिए.’’

‘‘आवश्यकता तो मुझे है…मेरा मन करता है कि मैं भी मां बनूं. मेरी भी इच्छा होती है कि एक नन्हामुन्ना बच्चा मेरे इस सूने, नीरस से घर और जीवन को अपनी मीठी आवाज और किलकारियों से भर दे,’’ सुधा बोली.

‘‘तो तुम नहीं जाओगी डाक्टर के पास?’’ अनिल ने क्रोध में भर कर पूछा.

‘‘हरगिज नहीं,’’ सुधा फिर चीखी.

‘‘तो फिर कान खोल कर सुन लो, अगर तुम इस बच्चे को रखना चाहती हो तो मुझे खोना होगा,’’ इतना कह कर अनिल घर का द्वार बंद कर बाहर चला गया.

कुछ क्षणों में ही अनिल की कार के स्टार्ट होने की आवाज आई. सुधा टूट कर पलंग पर गिर पड़ी और फूटफूट कर रोने लगी. सोचने लगी कि क्या करे, क्या न करे. उसे लगता कि 2 नन्हीनन्ही बांहें उस की ओर बढ़ रही हैं. उसे लगा, कोई नन्हा शिशु उस की गोद में आने को मचल रहा है. न जाने कब सुधा रोतेरोते कल्पना के जाल बुनतीबुनती सो गई. सवेरा हुआ तो वह उठी. रोज की भांति तैयार हुई और अपने अस्पताल की ओर चल पड़ी. दिन भर सोचती रही कि शायद अनिल का फोन आएगा या वह स्वयं आ कर उसे मना लेगा, लेकिन कोई फोन नहीं आया.

सुधा भारी मन से घर लौटी. देर तक टीवी देखने के बहाने अनिल का इंतजार करती रही, लेकिन अनिल घर ही नहीं आया. अगले दिन सवेरे अनिल आया और कुछ जरूरी सामान उठा कर बोला, ‘‘अगर तुम ने अपना फैसला नहीं बदला तो मेरी भी एक बात सुन लो, मैं भी अब इस घर में कभी कदम नहीं रखूंगा. मैं ने वहीं एक फ्लैट ले लिया है और वहीं रह कर अपना क्लीनिक संभालूंगा. बाद में नर्सिंगहोम का काम भी मैं खुद ही संभाल लूंगा. तुम्हारा और मेरा अब कोई संबंध नहीं है.’’

अनिल के जाते ही सुधा का निश्चय और भी पक्का हो गया. धीरेधीरे मन को समझाबुझा कर उस ने भी कामकाज में स्वयं को व्यस्त कर लिया. अगर कभी अनिल का खयाल आया भी तो उस ने अपनेआप को किसी न किसी बहाने से बहलाने की ही कोशिश की और स्वयं को किसी भी क्षण दुर्बल नहीं होने दिया. कभीकभार दोनों की मुलाकात हो भी जाती तो दोनों चुपचाप एकदूसरे से किनारा कर लेते. समय गुजरता गया. सुधा ने एक सुंदर, स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. वह शिशु को पा कर बहुत प्रसन्न थी. अनिल के पास भी उस ने सूचना भिजवाई, लेकिन वह अपनी संतान को देखने भी नहीं आया.

अनिल अब दिनबदिन अधिक व्यस्त होता जा रहा था. उस के नर्सिंगहोम की ख्याति फैल रही थी. एक दिन अचानक अनिल को अपने नर्सिंगहोम से फोन आया. उसे जल्दी ही बुलाया गया था. एक महिला का गंभीर औपरेशन होना था. महिला दिल की मरीज थी और डाक्टरों ने उसे कहा था कि यदि वह बच्चा पैदा करने का साहस करेगी तो उस की जान को खतरा है.

वही महिला आज डाक्टर अनिल के पास गर्भावस्था में आ पहुंची थी. उस के बचने की संभावना बिलकुल नहीं थी. औपरेशन तो करना ही था, सो किया गया, लेकिन अनिल जच्चाबच्चा को न बचा सका. बड़ा ही दुखद दृश्य था. उस महिला का पति फूटफूट कर बच्चों की तरह रो रहा था. थोड़ी देर तक जी भर कर रो लेने के पश्चात जब उस का आवेग थोड़ा सा कम हुआ तो अनिल ने एक ही प्रश्न पूछा, ‘‘यदि तुम्हारी पत्नी गंभीर हालत में थी तो तुम ने उसे डाक्टर के मना करने पर भी ऐसा करने से रोका क्यों नहीं?’’

उस व्यक्ति ने भीगी आंखों से उत्तर दिया, ‘‘मेरी पत्नी जानती थी कि मुझे बच्चों से बहुत लगाव है. मैं आसपास के बच्चों को ही प्यार कर के अपना जी बहला लेता था.

‘‘आखिरी समय तक मैं उस से प्रार्थना करता रहा कि उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं और वह बच्चे को जन्म देने के योग्य नहीं, लेकिन वह मुझे प्रसन्न करने के लिए अकसर कहती, ‘यदि मैं मर भी गई तो यह बच्चा तो हम दोनों के प्यार और रिश्ते की यादगार के रूप में तुम्हारे पास रहेगा ही. मुझे इसी से बेहद खुशी मिलेगी.’

‘‘अंत में जिस बात के लिए उस ने इतना बड़ा बलिदान दिया, वह भी पूरी न हुई. न वह रही, न बच्चा. मैं उसे मना करता रहा, लेकिन उस ने मेरी एक न सुनी,’’ और वह व्यक्ति फिर रोने लगा.

अनिल भारी मन से घर आया. सहसा उसे अपनी सुधा की बहुत याद आने लगी. उस ने साहस बटोर कर घर के बाहर खड़ी गाड़ी स्टार्ट की और सुधा के घर के सामने जा पहुंचा. अनिल ने दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. थोड़ी देर में दरवाजा खुला. सुधा अवाक् अनिल को देखती रह गई. कुछ क्षणों तक दोनों उसी अवस्था में खड़े रहे. फिर धीरे से अनिल ने कहा, ‘‘माफी यहीं से ही मांग लूं या अंदर आने की मुझे अनुमति है?’’ थोड़ी देर के लिए सुधा कुछ सोचती रही. फिर दरवाजा छोड़ कर उस ने अनिल के अंदर आने के लिए रास्ता बना दिया.

रावण अब भी जिंदा है : क्या मीना बचा पाई इज्जत

मीना सड़क पर आ कर आटोरिकशे का इंतजार करने लगी, मगर आटोरिकशा नहीं आया. वह अकेली ही बूआ के यहां गीतसंगीत के प्रोग्राम में गाने आई थी. तब बूआ ने भी कहा था, ‘अकेली मत जा. किसी को साथ ले जा.’ मीना ने कहा था, ‘क्यों तकलीफ दूं किसी को? मैं खुद ही आटोरिकशे में बैठ कर चली जाऊंगी?’

मीना को तो अकेले सफर करने का जुनून था. यहां आने से पहले उस ने राहुल से भी यही कहा था, ‘मैं बूआ के यहां गीत गाने जा रही हूं.’ ‘चलो, मैं छोड़ आता हूं.’

‘नहीं, मैं चली जाऊंगी,’ मीना ने अनमने मन से कह कर टाल दिया था. तब राहुल बोला था, ‘जमाना बड़ा खराब है. अकेली औरत का बाहर जाना खतरे से खाली नहीं है.’

‘आप तो बेवजह की चिंता पाल रहे हैं. मैं कोई छोटी बच्ची नहीं हूं, जो कोई रावण मुझे उठा कर ले जाएगा.’ ‘यह तुम नहीं तुम्हारा अहम बोल रहा है,’ समझाते हुए एक बार फिर राहुल बोला था, ‘जब से दिल्ली में चलती बस में निर्भया के साथ…’

‘इस दुनिया में कितनी औरतें ऐसी हैं, जो अकेले ही नौकरी कर रही हैं…’ बीच में ही बात काटते हुए मीना बोली थी, ‘मैं तो बस गीत गा कर वापस आ जाऊंगी.’ यहां से उस की बूआ का घर

3 किलोमीटर दूर है. वह आटोरिकशे में बैठ कर बूआ के यहां पहुंच गई थी. वहां जा कर राहुल को फोन कर दिया था कि वह बूआ के यहां पहुंच गई है. फिर वह बूआ के परिवार में ही खो गई. मगर अब रात को सड़क पर आ कर आटोरिकशे का इंतजार करना उसे महंगा पड़ने लगा था.

जैसेजैसे रात गहराती जा रही थी, सन्नाटा पसरता जा रहा था. इक्कादुक्का आदमी उसे अजीब सी निगाह डाल कर गुजर रहे थे. जितने भी आटोरिकशे वाले गुजरे, वे सब भरे हुए थे. जब कोई औरत किसी स्कूटर के पीछे मर्द के सहारे बैठी दिखती थी, तब मीना भी यादों में खो जाती थी. वह इसी तरह राहुल के स्कूटर पर कई बार पीछे बैठ चुकी थी.

आटोरिकशा तो अभी भी नहीं आया था. रात का सन्नाटा उसे डरा रहा था. क्या राहुल को यहां बुला ले? अगर वह बुला लेगी, तब उस की हार होगी. वह साबित करना चाहती थी कि औरत अकेली भी घूम सकती है, इसलिए उस ने राहुल को फोन

नहीं किया. इतने में एक सवारी टैंपो वहां आया. वह खचाखच भरा हुआ था. टैंपो वाला उसे बैठने का इशारा कर रहा था. मीना ने कहा, ‘‘कहां बैठूंगी भैया?’’

वह मुसकराता हुआ चला गया. तब वह दूसरे टैंपों का इंतजार करने लगी, मगर काफी देर तक टैंपो नहीं आया. तभी एक शख्स उस के पास आ कर बोला, ‘‘चलोगी मेरे साथ?’’

‘‘कहां?’’ मीना ने पूछा. ‘‘उस खंडहर के पास. कितने पैसे लोगी?’’ उस आदमी ने जब यह कहा, तब उसे समझते देर न लगी. वह आदमी उसे धंधे वाली समझ रहा था.

वह भी एक धंधे वाली औरत बन कर बोली, ‘‘कितना पैसा दोगे?’’ वह आदमी कुछ न बोला. सोचने लगा. तब मीना फिर बोली, ‘‘जेब में कितना माल है?’’

‘‘बस, 50 रुपए.’’ ‘‘जेब में पैसा नहीं है और आ गया… सुन, मैं वह औरत नहीं हूं, जो तू समझ रहा है,’’ मीना ने कहा.

‘‘तब यहां क्यों खड़ी है?’’ ‘‘भागता है कि नहीं… नहीं तो चप्पल उतार कर सारा नशा उतार दूंगी तेरा,’’ मीना की इस बात को सुन कर वह आदमी चलता बना.

अब मीना ने ठान लिया था कि वह खाली आटोरिकशे में नहीं बैठेगी, क्योंकि उस ड्राइवर में अकेली औरत को देख कर न जाने कब रावण जिंदा हो जाए? ‘‘कहां चलना है मैडम?’’ एक आटोरिकशा वाला उस के पास आ कर बोला. जब मीना ने देखा कि उस की आंखों में वासना है, तब वह समझ गई कि इस की नीयत साफ नहीं है.

वह बोली, ‘‘कहीं नहीं.’’ ‘‘मैडम, अब कोई टैंपो मिलने वाला नहीं है…’’ वह लार टपकाते हुए बोला, ‘‘आप को कहां चलना है? मैं छोड़ आता हूं.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना है,’’ वह उसे झिड़कते हुए बोली. ‘‘जैसी आप की मरजी,’’ इतना कह कर वह आगे बढ़ गया.

मीना ने राहत की सांस ली. शायद आटोरिकशे वाला सही कह रहा था कि अब कोई टैंपो नहीं मिलने वाला है. अगर वह मिलेगा, तो भरा हुआ मिलेगा. मगर अब कितना भी भरा हुआ टैंपो आए, वह उस में लद जाएगी. वह लोगों की निगाह में बाजारू औरत नहीं बनना चाहती थी. मीना को फिल्मों के वे सीन याद आए, जब हीरोइन को अकेले पा कर गुंडे उठा कर ले जाते हैं, मगर न जाने कहां से हीरो आ जाता है और हीरोइन को बचा लेता है. मगर यहां किसी ने उस का अपहरण कर लिया, तब उसे बचाने के लिए कोई हीरो नहीं आएगा.

मीना आएदिन अखबारों में पढ़ती रहती थी कि किसी औरत के साथ यह हुआ, वह हुआ, वह यहां ज्यादा देर खड़ी रहेगी, तब उसे लोग गलत समझेंगे. तभी मीना ने देखा कि 3-4 नौजवान हंसते हुए उस की ओर आ रहे थे. उन्हें देख वह सिहर गई. अब वह क्या करेगी? खतरा अपने ऊपर मंडराता देख कर वह कांप उठी.

वे लोग पास आ कर उस के आसपास खड़े हो गए. उन में से एक बोला, ‘यहां क्यों खड़ी है?’’ दूसरे आदमी ने जवाब दिया, ‘‘उस्ताद, ग्राहक ढूंढ़ रही है.’’

तीसरा शख्स बोला, ‘‘मिला कोई ग्राहक?’’ पहले वाला बोला, ‘‘अरे, कोई ग्राहक नहीं मिला, तो हमारे साथ चल.’’

मीना ने उस अकेले शख्स से तो मजाक कर के भगा दिया था, मगर यहां 3-3 जिंदा रावण उस के सामने खड़े थे. उन्हें कैसे भगाए? वे तीनों ठहाके लगा कर हंस रहे थे, मगर तभी पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती हुई आती दिखी.

एक बोला, ‘‘चलो उस्ताद, पुलिस आ रही है.’’ वे तीनों वहां से भाग गए. मगर मीना इन पुलिस वालों से कैसे बचेगी?

पुलिस की जीप उस के पास आ कर खड़ी हो गई. उन में से एक पुलिस वाला उतरा और कड़क आवाज में बोला, ‘‘इतनी रात को सड़क पर क्यों खड़ी है?’’

‘‘टैंपो का इंतजार कर रही हूं,’’ मीना सहमते हुए बोली. ‘‘अब रात को 11 बजे टैंपो नहीं मिलेगा. कहां जाना है?’’

‘‘सर, सांवरिया कालोनी.’’ ‘‘झूठ तो नहीं बोल रही है?’’

‘‘नहीं सर, मैं झूठ नहीं बोलती,’’ मीना ने एक बार फिर सफाई दी. ‘‘मैं अच्छी तरह जानता हूं तुम जैसी धंधा करने वाली औरतों को…’’ पुलिस वाला जरा अकड़ कर बोला, ‘‘अब जब पकड़ी गई हो, तो सती सावित्री बन रही हो. बता, वे तीनों लोग कौन थे?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम सर.’’ ‘‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती तुझे,’’ पुलिस वाला फिर गरजा.

‘‘मैं सच कह रही हूं सर. वह तीनों कौन थे, मुझे कुछ नहीं मालूम. मुझे अकेली देख कर वे तीनों आए थे. मैं वैसी औरत नहीं हूं, जो आप समझ रहे हैं,’’ मीना ने अपनी सफाई दी. ‘‘चल थाने, वहां सब असलियत का पता चल जाएगा. चल बैठ जीप में… सुना कि नहीं?’’

‘‘सर, मुझे मत ले चलो. मैं घरेलू औरत हूं.’’ ‘‘अरे, तू घरगृहस्थी वाली औरत है, तो रात के 11 बजे यहां क्या कर रही है? ठीक है, बता, तेरा पति कहां है?’’

‘‘सर, वे तो घर में हैं.’’ ‘‘मतलब, वही हुआ न… तू धंधा करने के लिए रात को अकेली निकली है और अपने पति की आंखों में धूल झोंक रही है. तेरा झूठ यहीं पकड़ा गया…

‘‘अच्छा, अब बता कि तू कहां से आ रही है?’’ ‘‘बूआ के यहां गीतसंगीत के प्रोग्राम में आई थी सर. वहीं देर हो गई.’’

‘‘फिर झूठ बोल रही है. बैठ जीप में,’’ पुलिस वाला अब तक उस पर शिकंजा कस चुका था. ‘‘ठीक है सर, अगर आप को यकीन नहीं हो रहा है, तो मैं उन्हें फोन कर के बुलाती हूं, ताकि आप को असलियत का पता चल जाए,’’ कह कर वह पर्स में से मोबाइल फोन निकालने लगी.

तभी पुलिस वाला दहाड़ा, ‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मुझे मालूम है कि तू अपने पति को बुला कर उस के सामने अपने को सतीसावित्री साबित करना चाहेगी. सीधेसीधे क्यों नहीं कह देती है कि तू धंधा करती है.’’ मीना की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था कि तभी अचानक राहुल उसे गाड़ी से आता दिखाई दिया. उस ने आवाज लगाई, ‘‘राहुल… राहुल.’’

राहुल पास आ कर बोला, ‘‘अरे मीना, तुम यहां…’’ अचानक उस की नजर जब पुलिस पर पड़ी, तब वह हैरानी से आंखें फाड़ते हुए देखता रहा.

पुलिस वाला उसे देख कर गरजा, ‘‘तुम कौन हो?’’ ‘‘मैं इस का पति हूं.’’

‘‘तुझे झूठ बोलते हुए शर्म नहीं आती,’’ पुलिस वाला अपनी वरदी का रोब दिखाते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों मुझे बेवकूफ बना रहे हो. अपनी पत्नी से धंधा कराते हुए तुझे शर्म नहीं आती. चल थाने में जब डंडे पड़ेंगे, तब भूल जाएगा अपनी पत्नी से धंधा कराना.’’ यह सुन कर राहुल हाथ जोड़ता हुआ बोला, ‘‘आप यकीन रखिए सर, यह मेरी पत्नी है, बूआ के यहां गीत गाने अकेली गई थी. लौटने में जब देर हो गई, तब बूआ ने बताया कि यह तो घंटेभर पहले ही निकल चुकी है.

‘‘जब यह घर न पहुंची, तब मैं इसे ढूंढ़ने के लिए निकला. अगर आप को यकीन न हो, तो मैं बूआ को यहीं बुला लेता हूं.’’ ‘‘ठीक है, ठीक है. तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो,’’ पुलिस वाले ने जरा नरम पड़ते हुए कहा.

‘‘अकेली औरत को देर रात को बाहर नहीं भेजना चाहिए,’’ पुलिस वाले को जैसे अब यकीन हो गया था, इसलिए अपने तेवर ठंडे करते हुए वह बोला, ‘‘यह तो मैं समय पर आ गया, वरना वे तीनों गुंडे आप की पत्नी की न जाने क्या हालत करते. फिर आप लोग पुलिस वालों को बदनाम करते.’’ ‘‘गलती हमारी है. आगे से मैं ध्यान रखूंगा,’’ राहुल ने हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए कहा.

पुलिस की गाड़ी वहां से चली गई. मीना नीचे गरदन कर के खड़ी रही.

राहुल बोला, ‘‘देख लिया अकेले आने का नतीजा.’’ ‘‘राहुल, मुझे शर्मिंदा मत करो. रावण तो एक था, मगर इस 2 घंटे के समय में मुझे लगा कि आज भी कई रावण जिंदा हैं.

‘‘अगर आप नहीं आते, तो वह पुलिस वाला मुझे थाने में बैठा देता,’’ कह कर मीना ने मन को हलका कर लिया.

‘‘तो बैठो गाड़ी में…’’ गुस्से से राहुल ने कहा, ‘‘बड़ी लक्ष्मीबाई बनने चली थी.’’ मीना नजरें झुकाए चुपचाप गाड़ी में जा कर बैठ गई.

औनर किलिंग- भाग 4: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

लेकिन अमृता को तो यह बात पहले से ही पता थी. छोटी भाभी को ऐसा ही तो होता था जब रुद्र पैदा होने वाला था. तब उन्हें भी तो कुछ खाने का मन नहीं होता था. तबीयत खराब रहती थी, उलटी होने का सा एहसास रहता था. अब ठीक अमृता को भी वैसा ही लग रहा है. इस का मतलब वह पेट से थी. अपने भीतर वह एक हलचल सी महसूस करने लगी थी.

अपने अजन्मे बच्चे के बारे में जान कर अतुल्य तो खुशी से बावला हो गया और कहने लगा कि वह जल्द ही वहां आ रहा है और हाथ जोड़ कर वह उस के भाइयों से उस का हाथ मांगेगा, जिसे उन्हें देना ही पड़ेगा.

अमृता अपने आने वाले बच्चे के बारे में सोच कर ही खुश हुए जा रही थी, लेकिन उस ने कितने बड़े तूफान को न्योता दिया था, उसे नहीं पता था.

रुक्मिणी के पूछने पर अमृता ने सब सचसच बता दिया और कहने लगी, ‘‘मैं और अतुल्य एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं.’’

यह सुन कर रुक्मिणी ने अपना माथा पीट लिया और बोली, ‘‘यह क्या अनर्थ कर डाला. पता भी है, अगर घर में किसी को यह बात पता चल गई तो क्या होगा? काट डालेंगे तुम दोनों को. अच्छा, वह लड़का… मेरा मतलब है, अतुल्य यहां कब आ रहा है?’’

‘‘वह आज रात आने वाला है और मैं उस से मिलने उसी पुरानी फैक्टरी में जाने वाली हूं. इस काम में आप को मेरी मदद करनी पड़ेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, पर मैं तुम्हारे भैया को क्या कहूंगी? देखो अमृता, मु झे बहुत डर लग रहा है. लग रहा है, जैसे कोई बहुत बड़ा तूफान आने वाला है.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. भैया को अभी कुछ बताने की जरूरत ही क्या है?’’

‘‘पर, कभी तो बताना ही पड़ेगा न,’’ रुक्मिणी बोली. लेकिन उन दोनों को नहीं पता था कि बाहर खड़ा रघुवीर उन की सारी बातें सुन चुका था. उस का खून ऐसे खौल रहा था, जैसे सब जला कर राख कर देगा.

रघुवीर को अचानक अपने सामने खड़ा देख कर रुक्मिणी और अमृता का तो जैसे खून ही सूख गया. अमृता अभी कुछ बोलती ही कि वह उस के बालों को पकड़ कर घसीटता हुआ बाहर आंगन में ले गया. तब तक घर के बाकी लोग भी वहां पहुंच चुके थे. सच जानने के बाद सब की आंखें गुस्से से लाल हो गई थीं.

‘‘गलती हो गई, जो इसे शहर पढ़ने भेजा. कहा था मैं ने इस की शादी करवा देते हैं, पर नहीं. कलक्टर जो बनाना था बेटी को. लेकिन सिर्फ इस लड़की की वजह से मेरे परिवार की नाक कटे, यह मैं सहन नहीं कर सकता पिताजी, इसलिए जितनी जल्दी हो इस की शादी करवानी होगी,’’ गरजते हुए रघुवीर ने जोर से दरवाजे पर अपना हाथ पीटा था.

रुक्मिणी दौड़ कर रघुवीर के पास गई, तो उस ने उसे जोर से धक्का दे दिया. भाई का यह रूप देख कर अमृता कुछ पल के लिए अंदर तक कांप उठी थी.

मगर अमृता में भी वही गरम खून था. वह कहने लगी, ‘‘मैं हरगिज किसी और से ब्याह नहीं करूंगी. शादी तो मैं अपने अतुल्य से ही करूंगी.’’

अमृता का यह कहना ही था कि घर के दूसरे लोगों ने उस पर लातघूंसों की ऐसी बारिश कर दी कि वह बेदम हो कर जमीन में लोट गई. वह तो रुक्मिणी बीच में आ गई, नहीं तो आज उस की जान ले ली जाती.

अमृता के दोनों भाई आज इस किस्से को खत्म कर देना चाहते थे. दोनों भाइयों को धारदार चाकू ले कर भागते देख अमृता उन के पीछे भागी, मगर घर के लोगों ने उसे कमरे में बंद कर दिया. और तो और गांव की दाई को बुलवा कर उस का बच्चा भी गिरवा दिया.

मोटी रकम ले कर दाई भी यह वादा कर के चली गई कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगी. वे लोग नहीं चाहते थे कि गांव के लोगों को इस बात की भनक भी लगे. अगर ऐसा हुआ, तो पूरे गांव में उन की थूथू हो जाएगी…

‘‘मैं अपना कुछ भी नहीं बचा पाई इंस्पैक्टर साहब… न अपने प्यार को और न उस की निशानी को ही…’’ बोल कर अमृता अपना पेट पकड़ते हुए बिलख पड़ी.

अमृता की दर्दनाक कहानी सुन कर इंस्पैक्टर माधव के साथ वहां खड़े बाकी लोगों की रूह भी कांप उठी थी कि कोई इनसान इतना जालिम कैसे हो सकता है कि अपनी ही बहनबेटी की खुशियां नोच डाले… मगर यह सब सच था.

‘‘लेकिन, तुम यहां तक कैसे पहुंची? तुम्हें तो कमरे में बंद कर पहरा बिठा दिया गया था?’’ इंस्पैक्टर माधव के पूछने पर अमृता बताने लगी कि जब उसे पता चला कि दोनों भाइयों ने अतुल्य को खत्म कर दिया, तो वह चीख उठी थी. लगा जैसे अब सबकुछ खत्म हो गया, तो उस के जीने का मतलब क्या रह गया? वह मर जाना चाहती थी. वह पंखे से  झूलने ही जा रही थी कि रुक्मिणी वहां पहुंच गई.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम… मरने जा रही हो?’’ उस के हाथों से दुपट्टा छीनते हुए रुक्मिणी चीखी थी.

‘‘तो और क्या करूं मैं भाभी… किस के लिए जीऊं? कौन है अब मेरा? नहीं, मु झे मर जाने दो,’’ भाभी के हाथ से दुपट्टा छीनते हुए अमृता बोली.

‘‘मर जा, ले अभी मर जा. चल, मैं तेरी मदद करती हूं मरने में. और आजाद घूमने दे इन हत्यारों को, ताकि ये फिर किसी मासूम की बलि चढ़ा सकें. क्या तू नहीं चाहती कि इन हत्यारों को सजा मिले? क्या अतुल्य और अपने अजन्मे बच्चे को इंसाफ नहीं दिलाएगी तू?

‘‘तू सोच रही होगी कि मैं अपने ही पति के बारे में कैसी बातें कर रही हूं, लेकिन रघुवीर जैसा इनसान न तो किसी का पति बनने के लायक है और न ही भाई…’’

भाभी का ऐसा रूप देख कर एक पल के लिए तो अमृता सिहर उठी, लेकिन फिर रुक्मिणी कहने लगी, ‘‘जब किसी का प्यार छिन जाता है, तो उसे कितना दर्द होता है, यह मैं भुगत चुकी हूं.

‘‘मैं भी किसी से प्यार करती थी. हम दोनों शादी करने वाले थे. परिवार भी राजी था. मगर ऐयाश रघुवीर की नजर जाने कब और कैसे मु झ पर पड़ गई. वह हर हाल में मु झे अपना बना लेना चाहता था. उस ने मेरे मांबाप को धमकी दी कि अगर उस की शादी रुक्मिणी से नहीं हुई, तो वह किसी को नहीं छोड़ेगा.

‘‘अपनी जान की सलामती के डर से मेरे मातापिता ने मेरी शादी रघुवीर से करवा तो दी, लेकिन बाद में जब उन्हें पता चला कि रघुवीर नामर्द है, तो उन्होंने अपना माथा पीट लिया था कि उन की बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई.’’

अपने भाई की सचाई सुन कर अमृता के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी.

‘‘तुम तो मर कर आजाद हो जाओगी. मगर सोचो उन बेचारे बूढ़े मांबाप के बारे में, जिन का एकलौता बेटा चला गया. अमृता, मैं तुम्हारा साथ दूंगी इस में…’’

अमृता के घर वालों को जब पता चला कि वह उन की कैद से भाग गई है, तो पुलिस के डर से वे लोग भी घर छोड़ कर भाग गए. लेकिन कहां यह रुक्मिणी को भी नहीं पता था, क्योंकि अब वह अपने पिता के घर चली गई थी.

इंस्पैक्टर माधव को पता था कि अब उस के भाई अमृता को छोड़ेंगे नहीं, इसलिए उन्होंने उसे महिला संरक्षणगृह में रखवा दिया और गुनाहगारों की खोज में लग गए.

पर कोई कामयाबी नहीं मिली, तो अमृता ने बताया कि अगर एक पकड़ा जाए, तो अपनेआप सब मिल जाएंगे. और वह जानती है कि उस का भाई रघुवीर कहां हो सकता है. पास के एक गांव में ही एक औरत रहती है लालबाई, उस के घर भाई का डेरा होता है.

और ऐसा ही हुआ. रघुवीर के पकड़ में आते ही बाकी सब लोग भी धीरेधीरे पुलिस की गिरफ्त में आ गए.

जब कोर्ट में उन से पूछा गया कि क्यों उन्होंने अतुल्य की हत्या की? उस पर रघुवीर ने आंखें लाल कर के कहा, ‘‘एक गांव में लड़कालड़की बहनभाई होते हैं, जिन में शादी नहीं हो सकती. और वैसे भी वह निचली जाति का लड़का था. कहीं से भी उन की बराबरी का नहीं था. ऐसे लोगों की हत्या कर देना बिलकुल ठीक है.’’

कोर्ट में अमृता ने उन सब के खिलाफ गवाही दी और कहा कि इन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए. क्योंकि इन्होंने सिर्फ उन के प्यार की हत्या नहीं की, बल्कि उस के बच्चे के खून से भी अपने हाथ रंगे हैं.

उस दाई ने भी कोर्ट में आ कर उन के खिलाफ गवाही दी. नतीजतन, अमृता के दोनों भाइयों को उम्रभर कैद की सजा सुनाई गई. और बाकी सभी लोगों को भी सजा हुई.

अमृता के पास जीने का कोई मकसद नहीं रह गया था. वह एक पुल से नदी में छलांग लगाने ही वाली थी कि पीछे से इंस्पैक्टर माधव ने उस का हाथ खींच लिया और कहने लगे, ‘‘क्या तुम नहीं चाहती कि औनर किलिंग के नाम पर दुनिया में जो अपराध हो रहे हैं, उन्हें रोका जाना चाहिए?’’

‘‘पर, मैं जब खुद के प्यार को नहीं बचा पाई, तो और लोगों की क्या मदद कर पाऊंगी? और कौन देगा मेरा साथ इंस्पैक्टर साहब?’’

‘‘मैं दूंगा,’’ कह कर इंस्पैक्टर माधव ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो अमृता ने उन का हाथ थाम लिया.

‘‘और तुम मु झे सिर्फ माधव बुला सकती हो, क्योंकि आज से हम दोनों दोस्त बन गए हैं.’’

अमृता माधव के कंधे पर सिर रख कर जी भर कर रोई और माधव ने भी उसे रोने दिया, ताकि उस के मन का सारा दुख आंसुओं के रास्ते बह जाए. उन दोनों ने एकसाथ प्रण लिया कि वे इस सामाजिक बुराई के खिलाफ मिल कर लड़ेंगे.

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : भाग 3- रूपल क्या बचा पाई इज्जत

अगले दिन मामी की योजना के तहत रूपल बाबा के खास कमरे में थी. दूसरी सेवादारिनों ने उसे देवी की तरह कपड़े व गहने वगैरह पहना कर दुलहन की तरह सजा दिया था.

पलपल कांपती रूपल को आज अपनी इज्जत लुट जाने का डर था. लेकिन वह किसी भी तरह से हार नहीं मानना चाहती थी. अभी भी वह अपने बचाव की सारी उम्मीदों पर सोच रही थी कि गुरु कमलाप्रसाद ने कमरे में प्रवेश किया. आमजन का भगवान एक शैतान की तरह अट्टहास लगाता रूपल की तरफ बढ़ चला.

‘‘बाबा, मैं पैर पड़ती हूं आप के, मुझ पर दया करो. मुझे जाने दो,’’ उस ने दौड़ कर बाबा के चरण पकड़ लिए.

‘‘देख लड़की, सुहाग सेज पर मुझे किसी तरह का दखल पसंद नहीं. क्या तुझे समर्पण का भाव नहीं समझाया गया?’’

बाबा की आंखों में वासना का ज्वार अपनी हद पर था. उस के मुंह से निकला शराब का भभका रूपल की सांसों में पिघलते सीसे जैसा समाने लगा.

‘‘बाबा, छोड़ दीजिए मुझे, हाथ जोड़ती हूं आप के आगे…’’ रूपल ने अपने शरीर पर रेंग रहे उन हाथों को हटाने की पूरी कोशिश की.

‘‘वैसे तो मैं किसी से जबरदस्ती नहीं करता, पर तेरे रूप ने मुझे सम्मोहित कर दिया है. पहले ही मैं बहुत इंतजार कर चुका हूं, अब और नहीं… चिल्लाने की सारी कोशिशें बेकार हैं. तेरी आवाज यहां से बाहर नहीं जा सकती,’’ कह कर बाबा ने रूपल के मुंह पर हाथ रख उसे बिस्तर पर पटक दिया और एक वहशी दरिंदे की तरह उस पर टूट पड़ा.

तभी अचानक ‘धाड़’ की आवाज से कमरे का दरवाजा खुला. अगले ही पल पुलिस कमरे के अंदर थी. बाबा की पकड़ तनिक ढीली पड़ते ही घबराई रूपल झटक कर अलग खड़ी हो गई.

पुलिस के पीछे ही ‘रूपल…’ जोर से आवाज लगाती उस की मां ने कमरे में प्रवेश किया और डर से कांप रही रूपल को अपनी छाती से चिपटा लिया.

इस तरह अचानक रंगे हाथों पकड़े जाने से हवस के पुजारी गुरु कमलाप्रसाद के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. फिर भी वह पुलिस वालों को अपने रोब का हवाला दे कर धमकाने लगा.

तभी उस की एक पुरानी सेवादारिन ने आगे बढ़ कर उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद किया. पहले वह भी इसी वहशी की हवस का शिकार हुई थी. वह बाबा के खिलाफ पुलिस की गवाह बनने को तैयार हो गई.

बाबा का मुखौटा लगाए उस ढोंगी का परदाफाश हो चुका था. आखिरकार एक नाबालिग लड़की पर रेप और जबरदस्ती करने के जुर्म में बाबा को

तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. उस के सभी चेलेचपाटे कानून के शिकंजे में पहले ही कसे जा चुके थे.

मां की छाती से लगी रूपल को अभी भी अपने सुरक्षित बच जाने का यकीन नहीं हो रहा था, ‘‘मां… मामी ने मुझे जबरदस्ती यहां…’’

‘‘मैं सब जान चुकी हूं मेरी बच्ची…’’ मां ने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा. ‘‘तू चिंता मत कर, भाभी को भी सजा मिल कर रहेगी. पुलिस उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है.

‘‘मैं अपनी बच्ची की इस बदहाली के लिए उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तू मेरे ही पास रहेगी मेरी बच्ची. तेरी मां गरीब जरूर है, पर लाचार नहीं. मैं तुझ पर कभी कोई आंच नहीं आने दूंगी.

‘‘मेरी मति मारी गई थी कि मैं भाभी की बातों में आ गई और सुनहरे भविष्य के लालच में तुझे अपने से दूर कर दिया.

‘‘भला हो तुम्हारे उस पड़ोसी का, जिस ने तुम्हारे दिए नंबर पर फोन कर के मुझे इस बात की जानकारी दे दी वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ शर्मिंदगी में मां अपनेआप को कोसे जा रही थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो दीदी. मैं रमा की असलियत से अनजान था. गलती तो मुझ से भी हुई है. मैं ने सबकुछ उस के भरोसे छोड़ दिया, यह कभी जानने की कोशिश नहीं की कि रूपल किस तरह से कैसे हालात में रह रही है,’’ सामने से आ रहे मामा ने अपनी बहन के पैर पकड़ लिए.

बहन ने कोई जवाब न देते हुए भाई पर एक तीखी नजर डाली और बेटी का हाथ पकड़ कर अपने घर की राह पकड़ी. रूपल मन ही मन उस पड़ोसी का शुक्रिया अदा कर रही थी जिसे सेवइयों के लिए दूध लाते वक्त उस ने मां का फोन नंबर दिया था और उस ने ही समय रहते मां को मामी की कारगुजारी के बारे में बताया था जिस के चलते ही आज वह अंधविश्वास की बलिवेदी पर भेंट चढ़ने से बच गई थी.

मां का हाथ थामे गांव लौटती रूपल अब खुली हवा में एक बार फिर सुकून की सांसें ले रही थी.

अम्मा- भाग 3: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

‘तड़ाक,’ एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा नीरा के गाल पर, ‘यह क्या हो गया?’ अम्मां क्षुब्ध मन से सोचने लगीं, ‘मेरे दिए हुए संस्कार, शिक्षा, सभी पर पानी फेर दिया अजय ने?’

अश्रुपूरित दृष्टि से अपर्णा की ओर अम्मां ने देखा था. जैसे पूछ रही हों कि यह सब क्यों हो रहा है इस घर में. कुछ देर तक नेत्रों की भाषा पढ़ने की कोशिश की पर एकदूसरे के ऊपर दृष्टि निक्षेप और गहरी श्वासों के अलावा कोई वार्तालाप नहीं हो सका था.

अचानक अपर्णा का स्वर उभरा, ‘सारी लड़ाईर् पैसे को ले कर है. बाबूजी थे तो इन पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब खर्च करना पड़ रहा है तो परेशानी हो रही है.’

अम्मां ने दीर्घनिश्वास भरा, ‘मैं ने तो नीरा से कहा है कि कोई नौकरी तलाश ले. कुछ पेंशन के पैसे अजय को मैं दे दूंगी.’

जीवन में ऐसे ढेरों क्षण आते हैं जो चुपचाप गुजर जाते हैं पर उन में से कुछ यादों की दहलीज पर अंगद की तरह पैर जमा कर खड़े हो जाते हैं. मां के साथ बिताए कितने क्षण, जिस में वह सिर्फ याचक है, उस की स्मृति पटल पर कतार बांधे खडे़ हैं.

बच्चे दादी को प्यार करते, अड़ोसीपड़ोसी अम्मां से सलाहमशविरा करते, अपर्णा और अजय मां को सम्मान देते तो नीरा चिढ़ती. पता नहीं क्यों? चाहे अम्मां यही प्यार, सम्मान अपनी तरफ से एक तश्तरी में सजा कर, दोगुना कर के बहू की थाली में परोस भी देतीं फिर भी न जाने क्यों नीरा का व्यवहार बद से बदतर होता चला गया.

अम्मां के हर काम में मीनमेख, छोटीछोटी बातों पर रूठना, हर किसी की बात काटना, घरपरिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता, उस के व्यवहार के हिस्से बनते चले गए.

एक बरस बाद बाबूजी का श्राद्ध था. अपर्णा को तो आना ही था. बेटी के बिना ब्राह्मण भोज कैसा? उस दिन पहली बार, स्थिर दृष्टि से अपर्णा ने अम्मां को देखा. कदाचित जिम्मेदारियों के बोझ से अम्मां बुढ़ा गई थीं. हर समय तनाव की स्थिति में रहने की वजह से घुटनों में दर्द होना शुरू हो गया था.

ब्राह्मण भोज समाप्त हुआ तो अम्मां धूप में खटोला डाल कर बैठ गईं. अजय, अपर्णा और नीरा को भी अपने पास आ कर बैठने को कहा. तेल की तश्तरी में से तेल निकाल कर अपने टखनों पर धीरेधीरे मलती हुई अम्मां बोलीं, ‘याद है, अजय, मैं ने एक बार कहा था कि घर में कोई भी नया सामान तभी जगह पा सकता है जब पुराने सामान को अपनी जगह से हटाया जाए. इसी तरह जब परिवार के लोग पुराने सामान को कूड़ा समझ कर फेंकने पर ही उतारू हो जाएं तो भलाई इसी में है कि उस सामान को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाए. शायद वह सामान तब भी किसी के काम आ सके? जो इनसान समझौता करते हैं वे ही सार्थक जीवन जीते हैं पर जो समझौता करतेकरते टूट जाते हैं वे कायर कहलाते हैं. और मैं कायर नहीं हूं.’

अम्मां के बच्चे उन का मंतव्य समझे या नहीं पर अगले दिन वह कमरे में नहीं थीं. तकिये के नीचे एक नीला लिफाफा ही मिला था.

विचारों में डूबताउतराता अजय आश्रम के जंग खाए, विशालकाय गेट के सामने आ खड़ा हुआ. सड़क पतली, वीरान और खामोश थी. न जाने उसे यहां आ कर ऐसा क्यों लग रहा था कि अम्मां पूर्ण रूप से यहां सुरक्षित हैं. उस की सारी चिंताएं, तनाव न जाने कहां खो गए. गेट खोल कर अजय अंदर आया तो अम्मां अपने कमरे में बैठी एक बच्ची को वर्णमाला का पाठ पढ़ा रही थीं. अजय को देखते ही उन की आंखें भर आईं.

‘‘तू कब आया?’’ आंसू भरी आंखों को छिपाने के लिए इधरउधर देखने लगीं. दोबारा पूछा, ‘‘अकेले ही आया? मेरी बहू नीरा कहां है? लवकुश कैसे हैं? होमवर्क करते हैं कि नहीं?’’

अजय ने अम्मां का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और बोला, ‘‘मां, सबकुछ एक ही पल में पूछ लोगी?’’

अम्मां को धैर्य कहां था, अजय को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, तू बहू को काम पर जाने से मत रोकना. जानता है, जब बच्चे सैटिल हो जाते हैं तो औरत को खालीपन का एहसास होने लगता है. ऐसा लगता है जैसे वह एक निरर्थक सी जिंदगी जी रही है, एक ऐसी जिंदगी, जिस का इस्तेमाल कर के बच्चे और पति अपनेअपने क्षेत्र में सफल हो गए और वह उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी है.’’

अपने भीतर के दर्द को ढांपने के लिए अम्मां ने हलकी मुसकान के साथ अपनी नजरें अजय पर टिका दी थीं. अजय बारबार अम्मां को शांत करता, उन का ध्यान दूसरी बातों में लगाने का प्रयास करता पर जहां यादों का खजाना और पीड़ा का मलबा हो वहां अपने लिए छोटा सा कोना भी पा सकना मुश्किल है.

‘‘अजय, क्या खाएगा तू? मठरी, पेठा, लड्डू?’’ और अम्मां दीवार की तरफ हो कर अलमारी में से डब्बे निकालने लगीं.

‘‘अम्मां, अब भी अपनी अलमारी में आप यह सब रखती हो? कौन ला कर देता है ये सारा सामान तुम्हें?’’ अजय ने छोटे से बच्चे की तरह मचल कर पूछा.

‘‘चौकीदार को 5 रुपए दे कर मंगा लेती हूं. यहां भी लवकुश की तरह कई नन्हेनन्हे बालगोपाल हैं. कमरे में आते ही कुछ भी मांगने लगते हैं. सच में अजय, ऐसा लगता है, खाते वह हैं, तन मेरे लगता है.’’

अजय सोच रहा था, भावनाओं और अनुराग की कोई सीमा नहीं होती. जिन का आंचल प्यार, दया और ममता से भरा होता है वह कहीं भी इन भावनाओं को बांट लेते हैं. अम्मां अलमारी में रखे डब्बे में से सामान निकाल रही थीं कि अचानक नीरा का स्वर उभरा, ‘‘अम्मां, मुझे कुछ नहीं चाहिए. सिर्फ अपनी गोदी में सिर रख कर हमें लेटने दीजिए.’’

‘‘तू कब आई?’’ अम्मां आत्म- विभोर हो उठी थीं.

‘‘अजय के साथ ही आई, अम्मां. जानती हैं, आप के जाने के बाद कितने अकेले हो गए थे हम. कितना सहारा मिलता था आप से? निश्ंिचत हो कर स्कूल जाती. लौटती तो सबकुछ बना- बनाया, पकापकाया मिलता था. घर का दरवाजा तो खुला ही रहता था. अहंकार और अहं की अग्नि में राख हुई मैं यह भी नहीं जान पाई कि बच्चों को जो सुख, आनंद, नानीदादी के मुख से सुनी कहानियों में मिलता है वह वीडियो कैसेट में कहां?

‘‘बच्चों के स्कूल बैग टटोलती तो छोटेछोटे चोरी से लाए सामान मिलते. अजय घंटों आप के फोटो के पास बैठे रोते. फिर मन का संताप दूर करने के लिए नशे का सहारा लेते तो मन तिरोहित हो उठता कि क्यों जाने दिया मैं ने आप को?

‘‘मैं ने अजय से अनुनय की कि मुझे एक बार मां से मिलना है पर वह नहीं माने. कैसे मानते? मेरे दुर्व्यवहार की परिणति से ही तो आप को घर से बेघर होना पड़ा था. मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या स्नेह की आंच से मां के मन में ठोस हुई कोमल भावनाओं को पिघलाया नहीं जा सकता. मां का आंचल तो सुरक्षा प्रदान करता है. एक ऐसे प्यार की भावना देता है जिस के उजास से तनमन भीग जाता है.’’

अम्मां चुप्पी साधे रहीं. शुरू से ही चिंतन, मनन, आत्मविश्लेषण करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचती थीं.

‘‘इतना बड़ा ब्रह्मांड है, अम्मां. आकाश, तारे, नक्षत्र, सूर्य सब अपनीअपनी जगह पर अपना दायित्व निभाते रहते हैं. कमाल का समायोजन है. लेकिन हम मानव ही इतने असंतुलित क्यों हैं?’’

अम्मां समझ रही थीं, अजय बेचैन है. अंदर ही अंदर खौल रहा था. अम्मां ने उस की जिज्ञासा शांत की, ‘‘क्योंकि इनसान ही एक ऐसा प्राणी है जो राग, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्धा जैसी भावनाओं से घिरा रहता है.’’

‘‘सच अम्मां, मेरा विरोधात्मक तरीका आज मुझे उस मुकाम पर ले आया जहां आत्मसम्मान के नाम पर रुपया, पैसा, आरामदायक जिंदगी होते हुए भी घर खाली है. साथ है तो केवल अकेलापन. यह सब मैं अब समझ पाई हूं.’’

अपने मन के सामने अपराधिनी बनी नीरा अम्मां के कथन की सचाई को सहन कर, हृदय की पीड़ा के चक्र से अपनेआप को मुक्त करती बोली तो अम्मां की आंखों से भी आंसुओं की अविरल धारा बह निकली.

‘‘अम्मां, हम तो बातोें में ही उलझ गए. आप को लिवाने आए हैं. कहां चोट लगी आप को?’’ अजय नन्हे बालक की तरह मचल उठा.

‘‘अरे, कुछ नहीं हुआ. तुम से मिलने को जी चाहा तो बहाना बना दिया. महंतजी से फोन करवा दिया. जानती थी, मैं तुम्हें याद करती हूं तो तुम लोग भी जरूर याद करते होगे. दिल से दिल के तार मिले होते हैं न.’’

‘‘तो फिर अम्मां, चलोगी न हमारे साथ?’’ अजय ने पूछा, तो अम्मां हंस दीं, ‘‘मैं ने कब मना किया.’’

अजय ने नीरा की ओर देखा. अपने ही खयालों में खोई नीरा भी शायद यही सोच रही थी, ‘घरपरिवार की दौलत छोटीछोटी खुशियां होती हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का सम्मान करने से प्राप्त होती हैं.’ आज सही मानों में दोनों को खुशी प्राप्त हुई थी.

औनर किलिंग- भाग 3: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

‘‘ओह… यह बात है. इतना प्यार करते हो तुम मु झ से?’’ यह सुन कर  झटके से उठ बैठी थी अमृता.

‘‘बिलकुल… कहो, कैसे यकीन दिलाऊं कि मैं तुम्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता हूं. बोलो तो इस पहाड़ से नीचे खाई में छलांग लगा दूं…’’ कह कर अतुल्य ने अपना एक पैर आगे बढ़ाया ही था कि अमृता ने उस का हाथ खींच लिया.

‘‘अतुल्य, पागल हो गए हो क्या? अरे, मैं तो मजाक कर रही थी और तुम… जाओ, मैं तुम से बात नहीं करती.’’

इतना सुन कर अतुल्य ने अमृता को अपनी बांहों में भर के चूम लिया  था. शर्म के मारे अमृता की नजरें  झुक गई थीं…

अमृता अपनी यादों से बाहर निकल आई. अपने प्यार भरे दिन याद कर के वह मुसकराई, लेकिन फिर एकदम से फफक पड़ी और कहने लगी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मेरे जालिम भाइयों ने उसे

इंमार  डाला…’’स्पैक्टर माधव ने उठ कर उसे चुप कराते हुए पानी पीने को दिया, तो वह जरा सामान्य हुई. उसे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि जिन पिता और

भाइयों ने उसे इतना प्यार दिया, उन्होंने ही उस की खुशियों का कत्ल कर दिया. बड़ी जाति का घमंड और पैसे के गुमान में वे यह भी भूल गए कि अतुल्य भी किसी का प्यार था, किसी का बेटा था.

अपने बहते आंसू पोंछ कर अमृता फिर बताने लगी कि पढ़ाईलिखाई में तो उस का मन कभी लगा ही नहीं. लेकिन अपने प्यार की खातिर उस ने शहर के कालेज में दाखिले की जिद की थी, ताकि अतुल्य के और करीब रह सके.

अमृता की सखियों ने उस से कहा भी था कि वह लड़का कुम्हार है. लेकिन अतुल्य के कुम्हार होने का मतलब अमृता ठीक से सम झ नहीं पाई थी. जब तक उसे कुम्हार जाति का ठीक से मतलब सम झ आता, तब तक उस का दिल उस के हाथ से निकल कर अतुल्य का हो चुका था.

कई बार अतुल्य ने कहा भी था कि उन का मिलन होना इतना भी आसान नहीं है, क्योंकि वह एक ठाकुर परिवार की बेटी है और वह एक कुम्हार का बेटा. दोनों परिवारों के बीच जमीनआसमान का फर्क है. लेकिन अमृता का कहना था कि प्यार का कोई धर्मजाति, मजहब नहीं होता. प्यार का तो एक ही जातिधर्म है और वह है प्यार. अब अंजाम चाहे कुछ भी हो, वह पीछे नहीं हटने वाली.

उस दिन कालेज में इम्तिहान का आखिरी परचा देने के बाद वे दोनों अकेले में कुछ समय बिताना चाहते थे. वे तारों से भरी चांदनी रात में दीनदुनिया से बेखबर एकदूसरे में खोए हुए थे. लेकिन कब और कैसे दोनों मर्यादा का बांध तोड़ कर तनमन से एक हो गए, पता ही नहीं चल पाया उन्हें. उन के बीच की अब सारी दूरियां खत्म हो चुकी थीं.

कुछ दिन बाद अमृता का भाई उसे आ कर ले गया. अतुल्य उसी शहर में नौकरी तलाशने लगा.

एक दिन फोन पर अतुल्य ने बताया कि एक कंपनी में उस की नौकरी लग गई है. उतनी अच्छी तो नहीं है, पर ठीक है.

यह सुन कर अमृता खुश तो हुई थी, पर वह चाहती थी कि और 1-2 जगह उसे नौकरी की तलाश करनी चाहिए थी. इतनी हड़बड़ी करने की क्या जरूरत थी?

अमृता को लगा था कि अगर अतुल्य की किसी बड़ी कंपनी में नौकरी लग जाती, तो वह उस के बारे में अपने परिवार को बता सकती थी.

लेकिन अतुल्य को नौकरी की सख्त जरूरत थी. वजह, उस के पिताजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहने लगी थी. सारे रखेधरे पैसे तो छोटी बहन की शादी में लग गए, इसलिए अतुल्य चाहता था कि कहीं भी नौकरी लग जाए, वह मना नहीं करेगा, फिर बाद में और अच्छी नौकरी तलाशता रहेगा. अतुल्य नौकरी करने के साथसाथ आईएएस की तैयारी भी कर रहा था. यह बात उस ने अमृता को भी बताई थी.

अतुल्य से विदा लेते समय अमृता ने उसे विश्वास दिलाया था कि वह अपने परिवार से इस रिश्ते के बारे में बात कर लेगी. उस ने कई बार कोशिश भी की, पर उस की हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी मुंह खोलने की.

अमृता के निखरे रूप को देख कर उस की भाभी रुक्मिणी ने एक दिन छेड़ते हुए कहा था कि कहीं उस के दिल में कोई समा तो नहीं गया? किस के खयालों में खोई रहती है उस की ननद रानी?

यह सुन कर अमृता के गाल शर्म से गुलाबी हो गए थे.

एक दिन अमृता अपनी भाभी को अपने और अतुल्य के बारे में सब बताने ही वाली थी कि तभी ‘तड़ाक’ की आवाज से चौंक पड़ी थी. देखा तो बड़े भैया रघुवीर गरजते हुए भाभी पर थप्पड़ बरसाते हुए बोल रहे थे, ‘‘अगर दोबारा मुंह से ऐसी बात निकली तो जबान खींच ली जाएगी…

‘‘हमारे घर की लड़कियां कभी प्यारमुहब्बत में नहीं पड़तीं, बल्कि वे वहीं चुपचाप ब्याह कर लेती हैं, जहां परिवार वाले चाहते हैं…’’

भैया का गुस्सा देख कर अमृता सहम उठी थी, इसलिए उस ने चुप रहना ही बेहतर सम झा.

रघुवीर अपनी पत्नी रुक्मिणी के साथ बहुत ही गंदा बरताव करता था, मगर वह इसलिए सब सहन कर लेती थी, क्योंकि इस के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रुक्मिणी को गांव में सब बां झ सम झते थे, क्योंकि शादी के 8 साल बाद भी वह मां नहीं पाई थी. मगर उसे पता था कि उस में कोई कमी नहीं है. शक तो उसे रघुवीर पर था कि शायद उस में ही कोई कमी हो, इसलिए एक दिन दबे मुंह ही उस ने उस से शहर जा कर डाक्टर से जांच कराने की बस गुजारिश की थी.

इसी बात पर रघुवीर ने उसे इतना मारा था कि बेचारी कई दिनों तक बिछावन पर से उठ नहीं पाई थी.

रघुवीर का कहना था कि उस की हिम्मत कैसे हुई उसे जांच कराने को बोलने की? अरे, नामर्द वह नहीं, बल्कि बां झ रुक्मिणी है. तब से रुक्मिणी ने अपना मुंह सिल लिया था.

पहले तो शहर जा कर पढ़ाई करने का बहाना था, पर अब अमृता शादी न करने का क्या बहाना बनाती? उसे सम झ नहीं आ रहा था कि कैसे वह शादी के लिए मना करे? कैसे कहे कि वह किसी और से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है?

‘‘अरे अमृता, खा क्यों नहीं रही हो? क्या सोच रही हो? देख रही हूं कि कुछ दिनों से तुम खोईखोई सी रहती हो. सब ठीक तो है न?’’ एक दिन रुक्मिणी ने टोका, तो अमृता ने सोचा कि वह कैसे बताए. पिछले 2-3 दिन से उस की तबीयत अच्छी नहीं लग रही थी. खाना खाना तो दूर देखने तक का मन नहीं हो रहा है.

‘‘देखो, आज मैं ने तुम्हारी पसंद की सब्जी बनाई है, खाओ अच्छे से…’’ बोल कर रुक्मिणी अमृता की थाली में और सब्जी डालने ही लगी कि उसे लगा जैसे यहीं पर उलटी हो जाएगी.

अमृता अपने कमरे की तरफ भागी और रुक्मिणी हैरान सी उसे देखती रह गई. मर्द भले ही न सम झ पाए, पर एक औरत को सम झते देर नहीं लगती और रुक्मिणी ने भी भांप लिया था कि बात बहुत आगे बढ़ चुकी है.

मैं अहम हूं- भाग 3: शशि की लापरवाही

फिर उस के कमाने से क्या फायदा हुआ, सिवा इस के कि घर का खर्चा पहले से बढ़ गया. सब कपड़े धोबी को जाने लगे और कपड़ों का नुकसान भी ज्यादा होने लगा. अब महरी को भी काम बढ़ जाने से ज्यादा पैसे देने पड़ते थे. आटो का खर्च अलग, इस प्रकार मासिक खर्च बढ़ ही गया. इस के अलावा घर और बच्चे अव्यवस्थित हो गए सो अलग. सास बेचारी दिनभर काम में पिसती रहती. और जब  नहीं कर पाती तो बड़बड़ाती रहती. इन्हीं 2 महीनों में घर की शांति भंग हो गई. जिस पर उस ने जो कल्पना की थी कि अपनी तनख्वाह से घर की सजावट के लिए कुछ खरीदेगी, उसे कार्यरूप से परिणत करना कितना मुश्किल है, यह उसे तुरंत पता लग गया. उसे कुछ कहने में ही झिझक हो रही थी. कहीं अजय यह न समझ ले कि उस ने सिर्फ इन दिखावे की चीजों के लिए ही नौकरी की है. अजय के मन में हीनभावना भी आ सकती है. पर यह सब उसे पहले क्यों नहीं सूझा? खैर, अब तो सुध आई. ‘बाज आई ऐसी नौकरी से,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘बच्चे जरा बड़े हो जाएं तो देखा जाएगा.’

अगले दिन उस ने अजय के चपरासी के हाथों एक महीने का नोटिस देते हुए अपना त्यागपत्र तथा एक दिन के आकस्मिक अवकाश की अरजी भेज दी. अजय ने यही समझा कि शायद तबीयत खराब होने से 1-2 दिन की छुट्टी ले रखी है. बादल उमड़घुमड़ रहे थे और बारिश की हलकीहलकी बूंदें भी पड़नी शुरू हो चुकी थीं. बहुत दिनों बाद उस रात को दोनों चहलकदमी को निकले. अजय ने पूछा, ‘‘क्यों, अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हो गया, तुम ने कितने दिन की छुट्टी ले ली है?’’

शशि बोली, ‘‘हमेशा के लिए.’’ अजय परेशान सा उस की ओर देखने लगा, ‘‘सच, शशि, सच, अब तुम नहीं जाओगी स्कूल? चलो, अब कमीजपैंट में बटन नहीं टांकने पड़ेंगे. धोबी को डांटने का काम भी अब तुम संभाल लोगी. हां, अब रात को थके होने का बहाना भी नहीं कर सकतीं. पर यह तो बताओ, नौकरी छोड़ क्यों दी?’’

शशि उस के उतावलेपन को देख कर हंसते हुए मजा ले रही थी. उसे पति पर दया भी आई, बोली, ‘‘हां, मुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी, जनाब दरजी तो बन ही जाते. अजीब आदमी हो, कम से कम एक बार तो मुंह से कहा होता कि शशि, तुम्हारे स्कूल जाने से मुझे कितनी परेशानी होती है.’’ डियर, हम तो शुरू से कहना चाहते थे, पर हमारी बात आप को तब जंचती थोडे़ ही. हम ने भी सोचा कर लेने दो थोड़े मन की, अपनेआप सब हाल सामने आएगा तो जान जाएगी. पर यह उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी जल्दी नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाओगी. खैर, तुम ने अपनी परिस्थिति पहचान ली तो सब ठीक है,’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘हां, शशि सद्गृहिणी बनना कितना कठिन है. तुम जब अपने इस दायित्व को अच्छे से निभाती हो तो मुझे कितना गर्व होता है, मालूम है? यह मत सोचो कि मैं तुम्हें घर से बांधने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी ओर से पूरी छूट है, तुम पढ़ोलिखो, कुछ नया सीखो, पर अपने दायित्व को समझ कर.’’

फिर कुछ दूर दोनों मौन चलते रहे. अजय को लग रहा था कि शशि कुछ पूछना चाह रही है, पर हिचक रही है. 2-3 बार उस ने शशि की ओर देखा, मानोे हिम्मत बंधा रहा हो. ‘‘इंदु को देख कर आप को यह नहीं लगता कि वह कितनी लायक औरत है, उस ने अपना घर कैसे सजा लिया है. तब आप को मुझ में कमी नहीं लगती?’’ आखिर शशि ने पूछ ही लिया. अजय इतना खुल कर हंसे कि राह के इक्कादुक्का लोग भी मुड़ कर उन की ओर देखने लगे. आखिर हंसने का यह कैसा और कौन सा मौका है, शशि समझ न पाई. जब उन की हंसी रुकी तो बोले, ‘‘तुम को क्या लगता है कि मनोज बहुत खुश है. वह क्या कह रहा था मालूम है? ‘यार, जबान का स्वाद ही चला गया. मनपसंद चीजें खाए अरसा हो गया. श्रीमतीजी दफ्तर से आ कर परांठे सेंक देती हैं, बस. इतवार के दिन वे छुट्टी के मूड में रहती हैं. देर से उठना, आराम से नहानाधोना, फिर होटल में खाना, पिक्चर, बस. यार, तू बड़ा सुखी है. यहां तो हर महीने मांबाप को रुपए भेजने पर टोका जाता है. आखिर मांबाप के प्रति कुछ फर्ज भी तो है कि नहीं?

‘‘और सुनोगी? उस दिन हमारे बच्चों को देख कर बोला, ‘यार, तुम्हारे बच्चे कितने सलीके से रहते हैं. इच्छा तो होती है कि इंदु को बताऊं कि देखो, इन बच्चों को शिष्टचार की कोई सीख कौन्वैंट या पब्लिक स्कूल से नहीं, बल्कि मां के सिखाने से मिली है.’

‘‘मैं ने यह सुन कर कैसा अनुभव किया होगा, तुम अनुमान लगा सकती हो, यही तुम्हारी जीत थी, और तुम्हारी जीत यानी मेरी जीत. इंदु की आधी तनख्वाह तो अपनी साडि़यों, मेकअप, होटल और सैरसपाटे में खर्च हो जाती है. बेटे को छात्रावास में रखने का खर्च अलग. उस में अहं की भावना है, और ‘मेरे’ की भावना से ग्रस्त वह यही समझती है कि उस के नौकरी करने से ही घर में इतनी चीजें आई हैं. जहां यह ‘मेरे’ की भावना आई, घर की सुखशांति नष्ट समझो.’’ कुछ रुक कर अजय बोले, ‘‘चलो, शशि, अब घर चलें, काफी दूर निकल आए हैं,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘आज के बाद रात को थकान का बहाना न चलेगा.’’

शशि को गुदगुदी सी हुई और बहुत दिनों बाद उस के मन में बसी बेचैनी दूर जाती लगी.

Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 3

जीवन मंथर गति से चल रहा था. सीमा ने एम.बी.ए. कर लिया. अपनी योग्यता के आधार पर उसे बैंक में नौकरी मिल गई. सीमा ने अपनी पहली तनख्वाह से परिवार के हर सदस्य को उपहार दिए. उस में सब से महंगा उपहार हीरों का लाकेट निधि के लिए खरीदा था.

निधि नानुकुर करती रही. अब भी बहन के अपनापन को उस का एहसान समझ रही थी. पर सीमा दृढ़संकल्प थी. किसी भी तरह  से वह निधि के दिमाग से यह गलतफहमी निकालना चाह रही थी कि घर के सदस्य उसे प्यार नहीं करते.

निधि अब नन्हे अभिनव की मां बन गई थी. राहुल के पास अब भी नौकरी नहीं थी. उधर रिटायर ससुर को बेटेबहू और पोते का खर्च बोझ सा लगने लगा तो गृहकलह बढ़ गया. आएदिन की चिखचिख से निधि की तबीयत गिरने लगी. डाक्टरों से परामर्श किया गया तो हाई ब्लड प्रेशर निकला. ससुर ने पूरी तरह से हाथ खींचा तो रोटी के भी लाले पड़ने लगे.

शशांक ने सुना तो माथा पीट कर कहने लगे कि कितना समझाया था. कमाऊ लड़के से ब्याह करो पर नहीं. अब भुगतो.

निधि उन लोगों में से नहीं थी जो दूसरों की बात चुपचाप सुन लेते हैं. तड़ातड़ जवाब देती चली गई.

‘दुखी क्यों हो रहे हैं आप लोग? आप की कोखजाई बेटी तो सुखी है न? मुझे तो फुटपाथ से उठा कर लाए थे न? नसीब ने फुटपाथ पर ला कर पटक भी दिया.’

सीमा बारबार बहन का पक्ष लेती. उसे शांत करने का प्रयास भी करती पर निधि चुप क्यों होती और जब उस का क्रोध शांत हुआ तो वह जोरजोर से रोने लगी.

सीमा से बहन की ऐसी दशा देखी नहीं जा रही थी. दौड़ भाग कर के उस ने गारंटी दी और बैंक से लोन ले कर राहुल को साइबर कैफे खुलवा दिया. फिर निधि से विनम्र स्वर में बोली, ‘जिंदगी की राहें इतनी कठिन नहीं जो कोई रास्ता ही न सुझा सके. अपना रास्ता खुद ढूंढ़ने का प्रयास कीजिए, दीदी. आप ने एम.ए. किया है और कुछ नहीं तो ट्यूशन कर के आप भी कुछ कमा सकती हैं.’

सीमा का ब्याह हो गया. दिव्यांश बैंक में मैनेजर था. सुखद गृहस्थी और 2 बेटों के साथ सुखसुविधा के सभी साधन दिए थे उसे दिव्यांश ने. जिंदगी से उसे कोई शिकायत नहीं थी.

उधर मानसिक तनाव के चलते निधि के दोनों गुर्दों ने लगभग काम करना बंद कर दिया था. जिंदगी डायलिसिस के सहारे चलने लगी तो डाक्टर गुर्दा प्रत्यारोपण करवाने पर जोर देने लगे.

निधि की जान को खतरा था, यह जान कर सीमा ने कहा कि परिवार में इतने लोग हैं कोई भी दीदी को अपना एक गुर्दा दे कर उन्हें नया जीवन दे सकता है.

सभी सदस्यों के टेस्ट हुए पर सीमा के ही टिशू मैच कर पाए. वो सहर्ष गुर्दा देने के लिए तैयार हो गई. यद्यपि घर के ही कुछ सदस्य इस का विरोध कर रहे थे पर सीमा अपने फैसले पर अडिग रही.

अस्पताल के पलंग पर लेटी अपनी दोनों बेटियों को देख अरु का मन रो उठा था. बारबार निधि के शब्द कानों से टकरा रहे थे. वे शब्द चाहे पीड़ा दें या विस्मित कर दें, सहने तो थे ही.

मेरी निगाहें बरबस ही बाहर का दृश्य देखने लगीं. पश्चात्ताप की आग में जलती अरु और शशांक आई.सी.यू. के बाहर कई बार चक्कर काट चुके थे. बारबार अरु रोते हुए कहती, ‘कैसी ग्रंथि पाल ली इस लड़की ने. कितनी बीमारियां घर कर गईं इस के शरीर में?’

उधर, अपनी ही सोच में डूबतीउतराती मैं सोच रही थी कि बरसों पुरानी कड़वाहटें अब भी निधि के मन से धुल जाएं तो रिश्ते सहज हो उठेंगे.

होश में आने पर बड़ी कठिनाई से निधि ने पलकें उठाईं तो उन बेजान आंखों में मुझे मोह और मिठास की एक झलक दिखाई दी. घर के सब लोगों को अपने और सीमा के प्रति चिंतित देख कर उसे पहली बार महसूस हुआ कि भावनाओं, प्यार और अनुराग की कोई सीमा नहीं होती. अरु ने सांत्वना के लिए सिर हिलाया तो रोती निधि, मां के सीने से जा लगी.

‘मां, मुझे सीमा से मिलना है.’

एक माह बाद सीमा और निधि जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद ले रही थीं. सभी के चेहरे पर खुशी के भाव देख मुझे ऐसा लगा कि टूटते तार अब जुड़ गए हैं. हंसी की एक किरण बस, फूटने ही वाली है.

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