ऐसा ही होता है : गंगूबाई ने अपने मरद को क्यो दिया धोखा

‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मुझे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मु झे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

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शगुन का नारियल : शादी और जात पांत का चक्रव्यूह

‘‘दिमाग फिर गया है इस लड़की का. अंधी हो रही है उम्र के जोश में. बापदादा की मर्यादा भूल गई. इश्क का भूत न उतार दिया सिर से तो मैं भी बाप नहीं इस का,’’ कहते हुए पंडित जुगलकिशोर के मुंह से थूक उछल रहा था. होंठ गुस्से के मारे सूखे पत्ते से कांप रहे थे.

‘‘उम्र का उफान है. हर दौर में आता है. समय के साथसाथ धीमा पड़ जाएगा. शोर करोगे तो गांव जानेगा. अपनी जांघ उघाड़ने में कोई समझदारी नहीं. मैं समझाऊंगी महिमा को,’’ पंडिताइन बोली.

‘‘तू ने समझाया होता, तो आज यों नाक कटने का दिन न देखना पड़ता. पतंग सी ढीली छोड़ दी लड़की. अरे, प्यार करना ही था, तो कम से कम जातबिरादरी तो देखी होती. चल पड़ी उस के पीछे जिस की परछाईं भी पड़ जाए तो नहाना पड़े. उस घर में देने से तो अच्छा है कि लड़की को शगुन के नारियल के साथ जमीन में गाड़ दूं,’’ पंडित जुगलकिशोर ने इतना कह कर जमीन पर थूक दिया.

बाप के गुस्से से घबराई महिमा सहमी कबूतरी सी गुदड़ों में दुबकी बैठी थी. आज अपना ही घर उसे लोहे के जाल सा महसूस हो रहा था, जिस में से सिर्फ सांस लेने के लिए हवा आ सकती है.

शगुन के नारियल के साथ जमीन में गाड़ देने की बात सुनते ही महिमा को ‘औनर किलिंग’ के नाम पर कई खबरें याद आने लगीं. उस ने घबरा कर अपनी आंखें बंद कर लीं.

21 साल की उम्र. 5 फुट 7 इंच का निकलता कद. धूप में संवलाया रंग और तेज धार कटार सी मूंछ. पहली बार महिमा ने किशोर को तब देखा था, जब गांव के स्कूल से 12वीं जमात पास कर वह अपना टीसी लेने आया था.

महिमा भी वहां खड़ी अपनी 10वीं जमात की मार्कशीट ले रही थी. आंखें मिलीं और दोनों मुसकरा दिए थे. किशोर झेंप गया, महिमा शरमा गई. तब वह कहां जातपांत के फर्क को समझाती थी.

धीरेधीरे बातचीत मुलाकातों में बदलने लगी और आंखों के इशारे शब्दों में ढलने लगे. महक की तरह इश्क भी फिजाओं में घुलने लगा और जबानजबान चर्चा होने लगी.

इस से पहले कि चिनगारी शोला बन कर घर जलाती, किशोर आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया, इसलिए उन की मुलाकातें कम हो गईं.

इधर महिमा ने 12वीं जमात पास करने के बाद कालेज जाने की जिद की. उधर, किशोर की कालेज की पढ़ाई पूरी होने वाली थी. महिमा होस्टल में रह कर कालेज की पढ़ाई करने लगी और किशोर ग्रेजुएट होने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया.

सही खादपानी मिलते ही दम तोड़ती प्यार की दूब फिर से हरी हो गई. मुलाकातें परवान चढ़ने लगीं. एक दिन गांव के किसी भले आदमी ने दोनों को साथसाथ देख लिया. बस, फिर क्या था तिल का ताड़ बनते कहां देर लगती है.

नमकमिर्च लगी खिचड़ी पंडित जुगलकिशोर के घर तक पहुंचने की ही देर थी कि पंडितजी राशनपानी ले कर किशोर के बाप मदना के दरवाजे पर जा धमके.

‘‘सरकार ने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी क्या दे दी, अपनी औकात ही भूल बैठे. आसमान में बसोगे क्या? अरे, चार अक्षर पढ़ने से जाति नहीं बदल जाती. नींव के पत्थर कंगूरे में नहीं लगा करते,’’ और भी न जाने क्याक्या वे मदना को सुनाते, अगर बड़ा बेटा महेश उन्हें जबरदस्ती घसीट कर न ले जाता.

‘‘कमाल करते हो बापू. अरे, यह समय उबलने का नहीं है. जरा सोचो, अगर जातिसूचक गालियां निकालने के केस में अंदर करवा दिया, तो बिना

गवाह ही जेल जाओगे. जमानत भी नहीं मिलेगी,’’ महेश ने अपने पिता को सम?ाया.

पंडित जुगलकिशोर को भी अपनी जल्दबाजी पर पछतावा तो हुआ, लेकिन गुस्सा अभी भी जस का तस बना हुआ था.

‘‘पंचायत बुला कर गांव बदर न करवा दिया तो नाम नहीं,’’ पंडितजी ने बेटे की आड़ में मदना को सुनाया.

पंडित जुगलकिशोर का गांव में बड़ा रुतबा था. मंदिर के पुजारी जो ठहरे. हालांकि अब पुरोहिताई में वह पहले वाली सी बात नहीं रही थी. बस, किसी तरह से दालरोटी चल जाती है, लेकिन कहते हैं न कि शेर भूखा मर जाएगा, लेकिन घास नहीं खाएगा. वही तेवर पंडितजी के भी हैं. चाहे आटे का कनस्तर रोज पैंदा दिखाता हो, लेकिन मजाल है, जो चंदन के टीके में कभी कोई कमी रह जाए.

वह तो पंडिताइन के मायके वाले जरा ठीकठाक कमानेखाने और दानदहेज में भरोसा करने वाले हैं, इसलिए समाज में पंडित जुगलकिशोर की पंडिताई की साख बची हुई है, वरना कभी की पोल चौड़े आ जाती. महिमा की पढ़ाईलिखाई का खर्चा भी उस के मामा यानी पंडिताइन के भाई सालग्राम ही उठा रहे हैं.

कुम्हार का कुम्हारी पर जोर न चले, तो गधे के कान उमेठता है. पंडित जुगलकिशोर ने भी महेश को भेज कर महिमा को शहर से बुलवा कर घर में नजरबंद कर दिया. पति का बिगड़ा मिजाज देख कर पंडिताइन ने अपने भाई को तुरंत आने को कह दिया.

50 साल का सालग्राम कसबे में क्लर्की करता था. सरकारी नौकरी में रहने के चलते राजकाज के तौरतरीके और सरकार की पहुंच समझता था. वह जानता था कि भले ही सरकारी काम सरकसरक कर होते हैं, लेकिन यह सरकार अगर गौर करने लगे तो फिर ऐक्शन लेने में मिनट लगाती है.

गांव से पहले घर में पंचायत बैठी. मामा को देख महिमा के जी को शांति मिली. प्यार मिले न मिले, किस्मत की बात… जान की सलामती तो रहेगी.

एक तरफ पंडित जुगलकिशोर थे, तो वहीं दूसरी तरफ पूरा परिवार, लेकिन अकेले पंडितजी सब पर भारी पड़ रहे थे. रहरह कर दबी हुई स्प्रिंग से उछल रहे थे.

‘‘चौराहे पर बैठा समझ लिया क्या ससुरों ने? अरे, शासन की सीढ़ियां चढ़ लीं तो क्या गढ़ जीत लिया? चले हैं हम से रिश्ता जोड़ने… दो निवाले दोनों बखत मिलने क्या लगे तो औकात भूल गए…’’ पंडितजी ने अपने साले को सुनाया.

‘‘समय को समझने की कोशिश करो जीजाजी. अब रजवाड़ों का समय नहीं है. यह लोकतंत्र है. यहां भेड़बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं,’’ सालग्राम ने पंडित जुगलकिशोर को समझाया.

‘‘मामा सही कह रहे हैं बापू. जातपांत आजकल पिछड़ी सोच वाली बात हो गई. आप कभी गांव से बाहर गए नहीं न इसलिए आप को अटपटा लग रहा है. शहरों में आजकल दो ही जात होती हैं, अमीर और गरीब,’’ मामा की शह पा कर महेश के मुंह से भी बोल फूटे.

पंडितजी ने उसे खा जाने वाली नजरों से घूरा. महेश सिर नीचा कर के खड़ा हो गया.

‘‘इस बच्चे को क्या आंखें दिखाते हो. सब सही ही तो कह रहे हैं. आप तो रामायण पढ़े हो न… भगवान राम ने केवट और शबरी को कैसा मान दिया था, याद नहीं…?’’ पंडिताइन बातचीत के बीच में कूदीं.

‘‘हां, रामायण पढ़ी है. माना कि समाज में सब का अपना महत्व है, लेकिन पैर की जूती को सिर पर पगड़ी की जगह नहीं पहना जाता,’’ पंडितजी ने पत्नी को घुड़क दिया.

‘‘चलो छोड़ो इस बहस को. बाहर  चल कर चाय पी कर आते हैं,’’ सालग्राम ने एक बार के लिए घर की पंचायत बरखास्त कर दी. महिमा की उम्मीदों की कडि़यां जुड़तीजुड़ती बिखर गईं.

‘‘जीजाजी, मैं मानता हूं कि जो संस्कार हमें घुट्टी में पिलाए गए हैं, उन के खिलाफ जाना आसान नहीं है, लेकिन मैं तो सरकारी नौकर हूं और मेरे अफसर यही लोग हैं. हमें तो इन के बुलावे पर जाना भी पड़ता है और इन का परोसा खाना भी पड़ता है. इन्हें भी अपने यहां न्योतना पड़ता है और इन के जूठे कपगिलास भी उठवाने पड़ते हैं.

‘‘अब इस बात को ले कर आप मुझे जात बाहर करो तो बेशक करो,’’ सालग्राम के हरेक शब्द के साथ पंडित जुगलकिशोर की आंखें हैरानी से फैलती जा रही थीं.

‘‘आप छोरी की पढ़ाईलिखाई मत छुड़वाओ. उसे पढ़ने दो. हो सकता है कि वह खुद ही आप के कहे मुताबिक चलने लगे या फिर समय का इंतजार करो. ज्यादा जोरजबरदस्ती से तो गाय भी खूंटा तोड़ कर भाग जाती है,’’ सालग्राम ने कहा.

वे दोनों गांव के बीचोंबीच बनी चाय की थड़ी पर आ कर बैठ गए. लड़का  2 कप चाय रख गया. तभी शोर ने उन का ध्यान खींचा. देखा तो पुलिस की गाड़ी सरपंचजी के घर के सामने आ कर रुकी थी.

2 सिपाही उतर कर हवेली में गए और वापसी में सरपंचजी हाथ जोड़े उन के साथ आते दिखे.

‘‘देखें, क्या मामला है…’’ सालग्राम ने कहा और दोनों जीजासाला तमाशबीन भीड़ का हिस्सा बन गए.

सालग्राम ने पुलिस अफसर की वरदी पर लगी नाम की पट्टी को देखा और जीजा को कुहनी से ठेला मार कर उन का ध्यान उधर दिलाया. नाम पढ़ कर पंडितजी सोच में पड़ गए.

‘‘इन का यह रुतबा है. सरपंच भी हाथ जोड़े खड़ा है,’’ सालग्राम ने कहा, तो पंडित जुगलकिशोर समझने की कोशिश कर रहे थे.

तभी हवेली के भीतर से चायपानी आया और सरपंचजी मनुहार करकर के अफसर को खिलानेपिलाने लगे.

‘रामराम… धर्म भ्रष्ट हो गया…’ पंडितजी कहना चाह कर भी नहीं कह सके. वे साले के साथ चुपचाप वापस लौट आए.

रात को घर की पंचायत में फैसला हुआ कि महिमा की पढ़ाई जारी रखी जाएगी. उसे ऊंचनीच समझ कर मामा के साथ वापस शहर भेज दिया गया.

जब पंडित जुगलकिशोर के घर से इस चर्चा पर विराम लग गया, तो  फिर किसी और की हिम्मत भी नहीं हुई बात का बतंगड़ बनाने की.

साल बीततेबीतते महिमा ग्रेजुएट हो गई और अब शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई.

महेश ने भी शहर के कालेज में भरती ले ली थी. इस बीच न तो महिमा की जबान पर कभी किशोर का नाम आया और न ही बेटे ने कोई चोट देती खबर दी तो पंडितजी ने राहत की सांस ली. उन्हें लगा मानो यह दूध का उफान था,जो अब रूक गया है. लड़की अपना भलाबुरा सम?ा गई है.

‘‘जीजाजी, सुना आप ने… प्रशासनिक सेवाओं का नतीजा आ गया है. आप के गांव के किशोर का चयन हुआ है,’’ सालग्राम ने घर में घुसते ही कहा.

यह सुनते ही पंडिताइन खिल गईं. पंडितजी के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘हुआ होगा.. हमें क्या? बहुत से लोगों के हुए हैं,’’ पंडित जुगलकिशोर ने लापरवाही से कहा.

‘‘बावली बातें मत करो जीजाजी. समय को समझ. जून सुधर जाएगी कुनबे की. अरे, छोरी तो राज करेगी ही, आगे की पीढ़ियां भी तर जाएंगी. बच्चों के साथ तो बाप का नाम ही जुड़ेगा न,’’ सालग्राम ने जीजा को समझाया.

‘‘मामा सही कह रहे हैं बापू. जिस की लाठी हो भैंस उस की ही हुआ करे. राज में भागीदारी न हो तो जात का लट्ठ बगल में दबाए घूमते रहना. कोई घास न डालने का,’’ महेश भी मामा के समर्थन में उतर आया था.

‘‘अरे, ये तो छोराछोरी के भले संस्कार हैं जो इज्जत ढकी हुई है, वरना शहर में कोर्टकचहरी कर लेते तो क्या कर लेता कोई? कानून भी उन्हीं का साथ देता,’’ पंडिताइन कहां पीछे रहने वाली थीं.

‘‘लगता है, पूरा कुनबा ही ज्ञानी हो गया, एक मैं ही बोड़म बचा,’’ पंडितजी से कुछ बोलते नहीं बना, तो उन्होंने सब को झिड़क दिया, लेकिन इस झिड़क में उन की झेंप और कुछकुछ सहमति भी झलक रही थी.

मामला पक्ष में जाते देख पंडिताइन झट भीतर से नारियल निकाल कर लाईं और जबरदस्ती पति के हाथ में थमा दिया.

‘‘छोरा गांव आया हुआ है, आज ही रोक लो, वरना गुड़ की खुली भेली पर मक्खियां आते कितनी देर लगती है,’’ पंडिताइन ने सफेद कुरताधोती भी ला कर पलंग पर रख दिए.

पंडितजी कभी अपने कपड़ों को तो कभी सामने रखे मोली बंधे शगुन के नारियल को देख रहे थे. उन्होंने कुरता पहन कर धोती की लांग संवारी और नारियल को लाल गमछे में लपेट कर मदना के घर चल दिए बधाई देने.

रेखाएं : क्या भविष्यवाणी को झुठला पाई निशा

Social Story in Hindi: ‘‘छि, मैं सोचती थी कि बड़ी कक्षा में जा कर तुम्हारी समझ भी बड़ी हो जाएगी, पर तुम ने तो मेरी तमाम आशाओं पर पानी फेर दिया. छठी कक्षा में क्या पहुंची, पढ़ाई चौपट कर के धर दी.’’ बरसतेबरसते थक गई तो रिपोर्ट उस की तरफ फेंकते हुए गरजी, ‘‘अब गूंगों की तरह गुमसुम क्यों खड़ी हो? बोलती क्यों नहीं? इतनी खराब रिपोर्ट क्यों आई तुम्हारी? पढ़ाई के समय क्या करती हो?’’ रिपोर्ट उठा कर झाड़ते हुए उस ने धीरे से आंखें ऊपर उठाईं, ‘‘अध्यापिका क्या पढ़ाती है, कुछ भी सुनाई नहीं देता, मैं सब से पीछे की लाइन में जो बैठती हूं.’’

‘‘क्यों, किस ने कहा पीछे बैठने को तुम से?’’

‘‘अध्यापिका ने. लंबी लड़कियों को  कहती हैं, पीछे बैठा करो, छोटी लड़कियों को ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं देता.’’

‘‘तो क्या पीछे बैठने वाली सारी लड़कियां फेल होती हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता. चलो, किताबें ले कर बैठो और मन लगा कर पढ़ो, समझी? कल मैं तुम्हारे स्कूल जा कर अध्यापिका से बात करूंगी?’’

झल्लाते हुए मैं कमरे से निकल गई. दिमाग की नसें झनझना कर टूटने को आतुर थीं. इतने वर्षों से अच्छीखासी पढ़ाई चल रही थी इस की. कक्षा की प्रथम 10-12 लड़कियों में आती थी. फिर अचानक नई कक्षा में आते ही इतना परिवर्तन क्यों? क्या सचमुच इस के भाग्य की रेखाएं…

नहींनहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा. रात को थकाटूटा तनमन ले कर बिस्तर पर पसरी, तो नींद जैसे आंखों से दूर जा चुकी थी. 11 वर्ष पूर्व से ले कर आज तक की एकएक घटना आंखों के सामने तैर रही थी.

‘‘बिटिया बहुत भाग्यशाली है, बहनजी.’’

‘‘जी पंडितजी. और?’’ अम्मां उत्सुकता से पंडितजी को निहार रही थीं.

‘‘और बहनजी, जहांजहां इस का पांव पड़ेगा, लक्ष्मी आगेपीछे घूमेगी. ननिहाल हो, ददिहाल हो और चाहे ससुराल.’’

2 महीने की अपनी फूल सी बिटिया को मेरी स्नेहसिक्त आंखों ने सहलाया, तो लगा, इस समय संसार की सब से बड़ी संपदा मेरे लिए वही है. मेरी पहलीपहली संतान, मेरे मातृत्व का गौरव, लक्ष्मी, धन, संपदा, सब उस के आगे महत्त्वहीन थे. पर अम्मां? वह तो पंडितजी की बातों से निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘लेकिन…’’ पंडितजी थोड़ा सा अचकचाए.

‘‘लेकिन क्या पंडितजी?’’ अम्मां का कुतूहल सीमारेखा के समस्त संबंधों को तोड़ कर आंखों में सिमट आया था.

‘‘लेकिन विद्या की रेखा जरा कच्ची है, अर्थात पढ़ाईलिखाई में कमजोर रहेगी. पर क्या हुआ बहनजी, लड़की जात है. पढ़े न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है. हां, भाग्य अच्छा होना चाहिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, पंडितजी, लड़की जात को तो चूल्हाचौका संभालना आना चाहिए और क्या.’’

किंतु मेरा समूचा अंतर जैसे हिल गया हो. मेरी बेटी अनपढ़ रहेगी? नहींनहीं. मैं ने इंटर पास किया है, तो मेरी बेटी को मुझ से ज्यादा पढ़ना चाहिए, बी.ए., एम.ए. तक, जमाना आगे बढ़ता है न कि पीछे.

‘‘बी.ए. पास तो कर लेगी न पंडितजी,’’ कांपते स्वर में मैं ने पंडितजी के आगे मन की शंका उड़ेल दी.

‘‘बी.ए., अरे. तोबा करो बिटिया, 10वीं पास कर ले तुम्हारी गुडि़या, तो अपना भाग्य सराहना. विद्या की रेखा तो है ही नहीं और तुम तो जानती ही हो, जहां लक्ष्मी का निवास होता है, वहां विद्या नहीं ठहरती. दोनों में बैर जो ठहरा,’’ वे दांत निपोर रहे थे और मैं सन्न सी बैठी थी.

यह कैसा भविष्य आंका है मेरी बिटिया का? क्या यह पत्थर की लकीर है, जो मिट नहीं सकती? क्या इसीलिए मैं इस नन्हीमुन्नी सी जान को संसार में लाई हूं कि यह बिना पढ़ेलिखे पशुपक्षियों की तरह जीवन काट दे.

दादी मां के 51 रुपए कुरते की जेब में ठूंस पंडितजी मेरी बिटिया का भविष्यफल एक कागज में समेट कर अम्मां के हाथ में पकड़ा गए.

पर उन के शब्दों को मैं ने ब्रह्मवाक्य मानने से इनकार कर दिया. मेरी बिटिया पढ़ेगी और मुझ से ज्यादा पढ़ेगी. बिना विद्या के कहीं सम्मान मिलता है भला? और बिना सम्मान के क्या जीवन जीने योग्य होता है कहीं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी. किसी मूल्य पर भी नहीं.

3 वर्ष की होतेहोते मैं ने नन्ही निशा का विद्यारंभ कर दिया था. सरस्वती पूजा के दिन देवी के सामने उसे बैठा कर, अक्षत फूल देवी को अर्पित कर झोली पसार कर उस के वरदहस्त का वरदान मांगा था मैं ने, धीरेधीरे लगा कि देवी का आशीष फलने लगा है. अपनी मीठीमीठी तोतली बोली में जब वह वर्णमाला के अक्षर दोहराती, तो मैं निहाल हो जाती.

5 वर्ष की होतेहोते जब उस ने स्कूल जाना आरंभ किया था, तो वह अपनी आयु के सभी बच्चों से कहीं ज्यादा पढ़ चुकी थी. साथसाथ एक नन्हीमुन्नी सी बहन की दीदी भी बन चुकी थी, लेकिन नन्ही ऋचा की देखभाल के कारण निशा की पढ़ाई में मैं ने कोई विघ्न नहीं आने दिया था. उस के प्रति मैं पूरी तरह सजग थी.

स्कूल का पाठ याद कराना, लिखाना, गणित का सवाल, सब पूरी निष्ठा के साथ करवाती थी और इस परिश्रम का परिणाम भी मेरे सामने सुखद रूप ले कर आता था, जब कक्षा की प्रथम 10-12 बच्चियों में एक उस का नाम भी होता था.

5वीं कक्षा में जाने के साथसाथ नन्ही ऋचा भी निशा के साथ स्कूल जाने लगी थी. एकाएक मुझे घर बेहद सूनासूना लगने लगा था. सुबह से शाम तक ऋचा इतना समय ले लेती थी कि अब दिन काटे नहीं कटता था.

एक दिन महल्ले की समाज सेविका विभा के आमंत्रण पर मैं ने उन के साथ समाज सेवा के कामों में हाथ बंटाना स्वीकार कर लिया. सप्ताह में 3 दिन उन्हें लेने महिला संघ की गाड़ी आती थी जिस में अन्य महिलाओं के साथसाथ मैं भी बस्तियों में जा कर निर्धन और अशिक्षित महिलाओं के बच्चों के पालनपोषण, सफाई तथा अन्य दैनिक घरेलू विषयों के बारे में शिक्षित करने जाने लगी.

घर के सीमित दायरों से निकल कर मैं ने पहली बार महसूस किया था कि हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है, महिलाओं में कितनी अज्ञानता है, कितनी अंधेरी है उन की दुनिया. काश, हमारे देश के तमाम शिक्षित लोग इस अंधेरे को दूर करने में जुट जाते, तो देश कहां से कहां पहुंच जाता. मन में एक अनोखाअनूठा उत्साह उमड़ आया था देश सेवा का, मानव प्रेम का, ज्ञान की ज्योति जलाने का.

पर आज एका- एक इस देश और मानव प्रेम की उफनतीउमड़ती नदी के तेज बहाव को एक झटका लगा. स्कूल से आ कर निशा किताबें पटक महल्ले के बच्चों के साथ खेलने भाग गई थी. उस की किताबें समेटते हुए उस की रिपोर्ट पर नजर पड़ी. 3 विषयों में फेल. एकएक कापी उठा कर खोली. सब में लाल पेंसिल के निशान, ‘बेहद लापरवाह,’ ‘ध्यान से लिखा करो,’  ‘…विषय में बहुत कमजोर’ की टिप्पणियां और कहीं कापी में पूरेपूरे पन्ने लाल स्याही से कटे हुए.

देखतेदेखते मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. यह क्या हो रहा है? बाहर ज्ञान का प्रकाश बिखेरने जा रही हूं और घर में दबे पांव अंधेरा घुस रहा है. यह कैसी समाज सेवा कर रही हूं मैं. यही हाल रहा तो लड़की फेल हो जाएगी. कहीं पंडितजी की भविष्यवाणी…

और निशा को अंदर खींचते हुए ला कर मैं उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी.

दूसरे दिन विभा बुलाने आईं, तो मैं निशा के स्कूल जाने की तैयारी में व्यस्त थी.

‘‘क्षमा कीजिए बहन, आज मैं आप के साथ नहीं जा सकूंगी. मुझे निशा के स्कूल जा कर उस की अध्यापिका से मिलना है. उस की रिपोर्ट काफी खराब आई है. अगर यही हाल रहा तो डर है, उस का साल न बरबाद हो जाए. बस, इस हफ्ते से आप के साथ नहीं जा सकूंगी. बच्चों की पढ़ाई का बड़ा नुकसान हो रहा है.’’

‘‘आप का मतलब है, आप नहीं पढ़ाएंगी, तो आप की बेटी पास ही नहीं होगी? क्या मातापिता न पढ़ाएं, तो बच्चे नहीं पढ़ते?’’

‘‘नहीं, नहीं बहन, यह बात नहीं है. मेरी छोटी बेटी ऋचा बिना पढ़ाए कक्षा में प्रथम आती है, पर निशा पढ़ाई में जरा कमजोर है. उस के साथ मुझे बैठना पड़ता है. हां, खेलकूद में कक्षा में सब से आगे है. इधर 3 वर्षों में ढेरों इनाम जीत लाई है. इसीलिए…’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी, पर समाज सेवा बड़े पुण्य का काम होता है. अपना घर, अपने बच्चों की सेवा तो सभी करते हैं…’’

वह पलट कर तेजतेज कदमों से गाड़ी की ओर बढ़ गई थी.

घर का काम निबटा कर मैं स्कूल पहुंची. निशा की अध्यापिका से मिलने पर पता चला कि वह पीछे बैठने के कारण नहीं, वरन 2 बेहद उद्दंड किस्म की लड़कियों की सोहबत में फंस कर पढ़ाई बरबाद कर रही थी.

‘‘ये लड़कियां किन्हीं बड़े धनी परिवारों से आई हैं, जिन्हें पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं है. पिछले वर्ष फेल होने के बावजूद उन्हें 5वीं कक्षा में रोका नहीं जा सका. इसीलिए वे सब अध्यापिकाओं के साथ बेहद उद््दंडता का बरताव करती हैं, जिस की वजह से उन्हें पीछे बैठाया जाता है ताकि अन्य लड़कियों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके,’’ निशा की अध्यापिका ने कहा. सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘यदि आप अपनी बेटी की तरफ ध्यान नहीं देंगी तो पढ़ाई के साथसाथ उस का जीवन भी बरबाद होने में देर नहीं लगेगी. यह बड़ी भावुक आयु होती है, जो बच्चे के भविष्य के साथसाथ उस का जीवन भी बनाती है. आप ही उसे इस भटकन से लौटा सकती हैं, क्योंकि आप उस की मां हैं. प्यार से थपथपा कर उसे धीरेधीरे सही राह पर लौटा लाइए. मैं आप की हर तरहसे मदद करूंगी.’’

‘‘आप से एक अनुरोध है, मिस कांता. कल से निशा को उन लड़कियों के साथ न बिठा कर कृपया आगे की सीट पर बिठाएं. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

घर लौट कर मैं बड़ी देर तक पंखे के नीचे आंखें बंद कर के पड़ी रही. समाज सेवा का भूत सिर पर से उतर गया था. समाज सेवा पीछे है, पहले मेरा कर्तव्य अपने बच्चों को संभालना है. ये भी तो इस समाज के अंग हैं. इन 4-5 महीने में जब से मैं ने इस की ओर ध्यान देना छोड़ा है, यह पढ़ाई में कितनी पिछड़ गई है.

अब मैं ने फिर पहले की तरह निशा के साथ नियमपूर्वक बैठना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उस की पढ़ाई सुधरने लगी. बीचबीच में मैं कमरे में जा कर झांकती, तो वह हंस देती, ‘‘आइए मम्मी, देख लीजिए, मैं अध्यापिका के कार्टून नहीं बना रही, नोट्स लिख रही हूं.’’

उस के शब्द मुझे अंदर तक पिघला देते, ‘‘नहीं बेटा, मैं चाहती हूं, तुम इतना मन लगा कर पढ़ो कि तुम्हारी अध्यापिका की बात झूठी हो जाए. वह तुम से बहुत नाराज हैं. कह रही थीं कि निशा इस वर्ष छठी कक्षा हरगिज पास नहीं कर पाएगी. तुम पास ही नहीं, खूब अच्छे अंकों में पास हो कर दिखाओ, ताकि हमारा सिर पहले की तरह ऊंचा रहे,’’ उस का मनोबल बढ़ा कर मैं मनोवैज्ञानिक ढंग से उस का ध्यान उन लड़कियों की ओर से हटाना चाहती थी.

धीरेधीरे मैं ने निशा में परिवर्तन देखा. 8वीं कक्षा में आ कर वह बिना कहे पढ़ाई में जुट जाती. उस की मेहनत, लगन व परिश्रम उस दिन रंग लाया, जब दौड़ते हुए आ कर वह मेरे गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘मां, मैं पास हो गई. प्रथम श्रेणी में. आप के पंडितजी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर दी मैं ने? अब तो आप खुश हैं न कि आप की बेटी ने 10वीं पास कर ली.’’

‘‘हां, निशा, आज मैं बेहद खुश हूं. जीवन की सब से बड़ी मनोकामना पूर्ण कर के आज तुम ने मेरा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया है. आज विश्वास हो गया है कि संसार में कोई ऐसा काम नहीं है, जो मेहनत और लगन से पूरा न किया जा सके. अब आगे…’’

‘‘मां, मैं डाक्टर बनूंगी. माधवी और नीला भी मेडिकल में जा रही हैं.’’

‘‘बाप रे, मेडिकल. उस में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हो सकेगी तुम से रातदिन पढ़ाई?’’

‘‘हां, मां, कृपया मुझे जाने दीजिए. मैं खूब मेहनत करूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे खेलकूद? बैडमिंटन, नैटबाल, दौड़ वगैरह?’’

‘‘वह सब भी चलेगा साथसाथ,’’ वह हंस दी. भोलेभाले चेहरे पर निश्छल प्यारी हंसी.

मन कैसाकैसा हो आया, ‘‘ठीक है, पापा से भी पूछ लेना.’’

‘‘पापा कुछ नहीं कहेंगे. मुझे मालूम है, उन का तो यही अरमान है कि मैं डाक्टर नहीं बन सका, तो मेरी बेटी ही बन जाए. उन से पूछ कर ही तो आप से अनुमति मांग रही हूं. अच्छा मां, आप नानीजी को लिख दीजिएगा कि उन की धेवती ने उन के बड़े भारी ज्योतिषी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर के 10वीं पास कर ली है और डाक्टरी पढ़ कर अपने हाथ की रेखाओं को बदलने जा रही है.’’

‘‘मैं क्यों लिखूं? तुम खुद चिट्ठी लिख कर उन का आशीर्वाद लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लिख दूंगी. जरा अंक तालिका आ जाने दीजिए और जब इलाहाबाद जाऊंगी तो आप के पंडितजी के दर्शन जरूर करूंगी, जिन्हें मेरे भाग्य में विद्या की रेखा ही नहीं दिखाई दी थी.’’

आज 6 वर्ष बाद मेरी निशा डाक्टर बन कर सामने खड़ी है. हर्ष से मेरी आंखें छलछलाई हुई हैं.

दुख है तो केवल इतना कि आज अम्मां नहीं हैं. होतीं तो उन्हें लिखती, ‘‘अम्मां, लड़कियां भी लड़कों की तरह इनसान होती हैं. उन्हें भी उतनी ही सुरक्षा, प्यार तथा मानसम्मान की आवश्यकता होती है, जितनी लड़कों को. लड़कियां कह कर उन्हें ढोरडंगरों की तरह उपेक्षित नहीं छोड़ देना चाहिए.

‘‘और ये पंडेपुजारी? आप के उन पंडितजी के कहने पर विश्वास कर के मैं अपनी बिटिया को उस के भाग्य के सहारे छोड़ देती, तो आज यह शुभ दिन कहां से आता? नहीं अम्मां, लड़कियों को भी ईश्वर ने शरीर के साथसाथ मन, मस्तिष्क और आत्मा सभी कुछ प्रदान किया है. उन्हें उपेक्षित छोड़ देना पाप है.’’

‘‘तुम भी तो एक लड़की हो, अम्मां, अपनी धेवती की सफलता पर गर्व से फूलीफूली नहीं समा रही हो? सचसच बताना.’’ पर कहां हैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास करने वाली मेरी वह अम्मां?

भ्रम : आखिर क्या थी इनकार की वजह

‘हां, मैं तुम से प्यार करता हूं, सुकेशी, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’ मैं अपने बंगले की वाटिका में एकांत में बैठी डा. प्रभाकर की इस बात के मर्म को समझने का प्रयास कर रही थी, ‘वे मुझ से प्यार भी करते हैं और विवाह के प्रस्ताव को इनकार भी करते हैं.’

उन्होंने जिस दृढ़ता से ये शब्द कहे थे, उस के बाद उन के कमरे में बैठे रहने का मेरा साहस समाप्त हो चुका था. मैं कितनी मूर्ख हूं, उन के सामने भावना में बह कर इतना बड़ा प्रस्ताव रख दिया. हालांकि, वे मेरे इतने निकट आ चुके थे कि यह प्रस्ताव बड़ा होते हुए भी उतना बड़ा नहीं रह गया था. गत वर्ष के सत्र में मैं उन की कक्षाओं में कई महीने तक सामान्य छात्रा की भांति ही रही थी, किंतु जब उन्होंने मेरी रुचियों को जाना तो…

कालेज के उद्यान में पहुंच कर जब वे विभिन्न फूलों को बीच से चीर कर उस की कायिक प्रक्रिया को बताते तो हम सब विस्मय से नर और मादा फूलों के अंतर को समझने का प्रयास करते. वह शायद मेरी धृष्टता थी कि एक दिन प्रभाकरजी से उद्यान में ही प्रश्न कर दिया था कि क्या गोभी के फूल में भी नर व मादा का अंतर आंका जा सकता है?

उन्होंने उस बात को उस समय अनसुना कर दिया था, किंतु उसी दिन जब कृषि विद्यालय बंद हुआ तो उन्होंने मुझे गेट पर रोक लिया. मैं उन के पीछेपीछे अध्यापक कक्ष में चली गई थी. उन्होंने मुझे कुरसी पर बिठाते हुए प्रश्न किया था, ‘क्या तुम्हारे यहां गोभी के फूल उगाए जाते हैं?’ ‘हां, हमारे बंगले के चारों ओर लंबीचौड़ी जमीन है. मेरे पिता उस के एक भाग में सब्जियां उगाते हैं. कुछ भाग में गोभी भी लगी है.’

‘तुम्हारे पिता क्या करते हैं?’ ‘अधिवक्ता हैं, एडवोकेट.’

‘क्या उन्हें फूल, पौधे लगाने का शौक है?’ ‘हमारे यहां फूलों के बहुत गमले हैं. एक माली है, जो सप्ताह में 2 दिन हमारी फुलवारी को देखने आता है.’

‘कहां है तुम्हारा बंगला?’ ‘जौर्ज टाउन में, पीली कोठी हमारी ही है.’

‘मैं तुम्हारी बगिया देखने कभी आऊंगा.’ ‘अवश्य आइए.’

उन्होंने स्वयं से मुझे रोका था. उन्होंने स्वयं ही मेरे घर आने की बात कही थी और दूसरे ही दिन आ भी गए थे. उन के आगमन के बाद ही तो मैं उन की विशिष्ट छात्रा बन गई थी. मैं गत दिनों के संपूर्ण घटनाक्रम के बारे में सोचती चली जा रही थी. गतवर्ष गरमी की छुट्टियों में जब वे अपने गांव जाने लगे थे तो बातबात में बताया था कि उन के घर में खेती होती है. बड़े भाई खेती का काम देखते हैं.

उस के बाद तो वे बिना बुलाए मेरे घर आने लगे. क्या यह मेरे प्रति उन का आकर्षण नहीं था? मैं ने अपनी दृष्टि वाटिका के चारों ओर फेरी तो हर फूल और पौधे के विन्यास के पीछे डा. प्रभाकर के योगदान की झलक नजर आई. लौन में जो मखमली घास उगाई गई थी, वह प्रभाकरजी की मंत्रणा का ही फल था. उन्होंने जंगली घास को उखाड़ कर, नए बीज और उर्वरक के प्रयोग से बेरमूडा लगवाई. उन्होंने ही बैडमिंटन कोर्ट के चारों ओर कंबरलैंड टर्फ लगवाई.

प्रभाकरजी ने जब से रुचि लेनी शुरू की थी, हमारी बगिया में गंधराज गमक उठा, हरसिंगार झरने लगा, रजनीगंधा महकने लगी. यह सब उन के प्यार को दर्शाने के लिए क्या पर्याप्त नहीं था? हम अंगरेजी फूलों के बारे में अधिक नहीं जानते थे, स्वीट पी और एलाईसम की गंध से परिचय उन के द्वारा ही हुआ. केवल 8 महीने में प्रभाकरजी ने हमारे इस रूखेसूखे मैदान का हुलिया बदल कर रख दिया था. मैं अपनी वाटिका के सौंदर्य के परिप्रेक्ष्य में डा. प्रभाकर को याद करते हुए उन के साथ बीते हुए उन क्षणों को भी याद करने लगी, जिन्होंने मेरे अंदर यह भाव जगा दिया था कि डा. प्रभाकर भी शायद अपने जीवन में मेरे साहचर्य की आकांक्षा रखते हैं. इधर, मैं तो उन के संपूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित हो गई थी.

मेरी टूटीफूटी कविताओं की प्रशंसा और कभीकभार रेखाचित्रों की अनुशंसा अथवा जलरंगों से निर्मित लैंडस्केप के प्रयास क्या सचमुच उन के हृदय को नहीं छू रहे थे. उन्होंने ही तो कहा था, ‘सुकेशी, तुम्हारी बहुआयामी प्रतिभा किसी न किसी रूप में यश के सोपानों को चढ़ते हुए शिखर पर पहुंचेगी.’

एक दिन बातोंबातों में मैं ने उन से यह भी बता दिया था कि मैं इस संपूर्ण बंगले की अकेली उत्तराधिकारी हूं, फिर भी मेरे प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया? क्या मैं कुरूप हूं? लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं. उन के एक कमरे के फ्लैट में मैं कई बार गई थी. उन्होंने अनेक फूलों की एक मिश्रित वाटिका की पेंटिंग अपने प्रवेशद्वार पर ही लगा रखी थी, जो कि उन्हीं की बनाई हुई थी. यह बात उन्होंने जानबूझ कर मुझे बताई थी. आखिर इस बात का क्या अभिप्राय था? मेरी वाहवाह पर मुसकराए थे और मेरी परख की प्रशंसा में उन्होंने मेरे मस्तक पर एक चुंबन दिया था. और मैं बाहर से अंदर तक झंकृत हो उठी थी.

उस दिन एकांत के क्षणों में जो प्रस्ताव मैं ने उन के सामने रख दिया था, शायद उस चुंबन द्वारा ही प्रेरित था. उन्हें मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत नहीं करना चाहिए था. किंतु उन्होंने तो मुझ से आंखें बचा कर कहा, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं, इसीलिए तुम से विवाह नहीं कर सकता.’ मुझे प्रभाकरजी की बात से एक झटका सा लगा था. मैं ने कृषि विद्यालय जाना छोड़ दिया था और अंदर ही अंदर मुरझाने लगी थी.

सप्ताह में एक बार अवश्य ही आने वाले प्रभाकरजी जब 16 दिनों तक नहीं आए तो मैं बीते दिनों की संपूर्ण घटनाओं का निरूपण करने के बाद सोचने लगी, ‘मुझ से कौन सी भूल हुई? प्रभाकरजी नाराज हो गए क्या… लेकिन क्यों?’

आज ठीक 16 दिनों बाद अचानक संध्या समय प्रभाकरजी पधारे. मैं बाहर के कमरे में अकेले ही बैठी थी. मैं ने तिरछी दृष्टि से उन्हें देखा और एक मुसकान बिखेर कर स्वागत किया. ‘‘क्या बिलकुल अकेली हो?’’ उन्होंने गंभीर स्वर में पूछा.

‘‘हां.’’ ‘‘बाबूजी?’’

‘‘वे अभी कोर्ट से नहीं आए, शायद किसी के यहां रुक गए हैं.’’ ‘‘और अम्माजी?’’

‘‘वे पड़ोस में गई हैं. आप कहां रहे इतने दिन?’’ ‘‘मैं तो मात्र एक सप्ताह के लिए अपने गांव गया था. तुम ने विद्यालय जाना क्यों छोड़ दिया? पिछले सोमवार से तुम मुझे अपनी क्लास में दिखाई नहीं दीं. तुम्हारी सहेली सुरभि से पूछने पर ज्ञात हुआ कि तुम कई दिनों से विद्यालय नहीं जा रही हो, शायद जब से मैं छुट्टी पर गया?’’

लेकिन मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. ‘‘बोलो, चुप क्यों हो?’’ वे हौले से बोले.

‘‘सच बताऊं? मैं तो अंदर से मुरझा गई हूं. कोई उल्लास ही नहीं रह गया. आप ने उस दिन इतना रूखा उत्तर दिया कि…’’ ‘‘रूखा उत्तर नहीं, गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध होने चाहिए, वही यदि रहें तो…’’

‘‘आप इतने दकियानूसी हैं. आज के युग में…’’ ‘‘दुनिया में जाने क्याक्या होता है, किंतु मैं जिसे जीवन की सफलता की ऊंचाइयों पर देखना चाहता हूं, उसे धोखा नहीं दे सकता.’’

‘‘धोखा, कैसा धोखा?’’ ‘‘तुम शायद अभी तक भ्रम में थीं कि मैं कुंआरा हूं, लेकिन मैं विवाहित हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. अभी दूसरे बच्चे के जन्म पर ही गांव गया था.’’

यह बात सुन कर मेरी गरदन झुक गई. किंतु साहस बटोर कर प्रश्न कर बैठी, ‘‘यह कोई गढ़ी हुई कहानी तो नहीं? आप इतना अच्छा वेतन पाते हैं. यदि विवाहित हैं तो परिवार को अपने साथ क्यों नहीं रखते?’’ प्रभाकरजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैं अपने गांव से उखड़ कर शहर में रहना नहीं चाहता. यहां छोटा सा फ्लैट है, जो मेरे लिए पर्याप्त है. पौधों के शौक मैं जिस विपुलता से अपने गांव में पूरा कर लेता हूं, यहां 5 हजार रुपए मासिक पर भी वैसी जमीन नहीं मिल सकती.’’

उन के इस उत्तर के बाद कुछ देर को सन्नाटा छा गया. मैं समझ ही न सकी कि अब क्या बोलूं. प्रभाकरजी कुछ समय तक मेरी मुखमुद्रा को पढ़ते रहे, फिर बोले, ‘‘मेरे गांव का विकास हो गया है-नहर आ गई है, अस्पताल है, समाज कल्याण कार्यालय है, बच्चों को इंटर तक पढ़ाने के लिए कालेज है. एक पक्की सड़क है. मैं अपने घरपरिवार को गांव से उखाड़ कर शहर में रोपना नहीं चाहता.’’

यह सब सुन कर मैं थोड़ी देर को चुप हो गई, किंतु फिर धीरे से बोली, ‘‘आप ने जिस अनौपचारिक रूप से मेरे घर आना शुरू कर दिया था, मैं ने उसे आप का आकर्षण मान लिया था.’’

मेरी बात सुन कर प्रभाकरजी ने कहा, ‘‘हां, मैं यह भूल गया था कि तुम ऐसा भी सोच सकती हो. दरअसल, तुम्हारे यहां निरंतर आने का कारण तो तुम्हारे बंगले से जुड़ा हुआ यह मैदान है, जो अब एक सुंदर वाटिका में बदल गया है. यहां मैं अपनी योजनाओं का प्रैक्टिकल प्रयोग कर सकता था. मैं ने तो सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम विवाह का प्रस्ताव भी…’’ मैं एक बार फिर चुप हो गई. पूर्व इस के कि मैं फिर कोई प्रश्न करती, प्रभाकरजी वहां से अचानक लौट पड़े.

प्रभाकर के मस्तिष्क में सुकेशी के प्रस्ताव की बात घुमड़ती रही और उन्हें अपने उस चुंबन की बात याद आई, जो उन्होंने सुकेशी के मस्तक पर दिया था. शायद उस चुंबन ने ही प्रेरित कर दिया था कि वह ऐसा प्रस्ताव रख गई थी. उसे पता नहीं, मस्तक के चुंबनों में और कपोलों अथवा होंठों के चुंबन में क्या अंतर होता है. काश, वह भारतीय परंपराओं से अवगत होती.

व्यवस्था : अपनी कमियों को जरूर देखें

एक रात को मैं अपनी सहकर्मी साक्षी के घर भोजन पर आमंत्रित थी. पतिपत्नी दोनों ने बहुत आग्रह किया था. तभी हम ने हां कर दी थी. साक्षी के घर पहुंची. उन का बड़ा सा ड्राइंगरूम रोशनी में नहाया हुआ था. साक्षी ने सोफे पर बैठे अपने पति के मित्र आनंदजी से हमारा परिचय कराया. साक्षी के पति सुमित भी आ गए. हम लोग सोफे पर बैठ गए थे. कुछ देर सिर्फ गपें मारीं. साक्षी के पति ने इतने बढि़या और मजेदार जोक सुनाए कि हम लोग टैलीविजन पर आने वाले घिसेपिटे जोक्स भूल गए थे. तय हुआ कि महीने में एक बार किसी न किसी के घर पर बैठक किया करेंगे.

हंसी का दौर थमा. भूख बहुत जोर से लग रही थी. रूम के एक हिस्से में ही डाइनिंग टेबल थी. टेबल खाना खाने से पहले ही तैयार थी और हौटकेस में खाना, टेबल पर लगा हुआ था. प्लेट्स सजी थीं. जैसे ही हम खाने के लिए उठने लगे, लाइट चली गई. एक चुटकुले के सहारे 5-10 मिनटों तक इंतजार किया. पर लाइट नहीं आई. आनंद ने पूछा, ‘‘अरे यार, तुम्हारे पास तो इनवर्टर था?’’ उन की जगह साक्षी ने जवाब दिया, ‘‘हां भाईसाहब है, पर खराब है. कब से कह रही हूं कि मरम्मत करने वाले के यहां दे दें. पर ये तो आजकलआजकल करते रहते हैं.’’

सुमित ने कहा, ‘‘बस भी करो. जाओ, माचिस तलाश करो. फिर मोमबत्ती ढूंढ़ो. कैंडललाइट डिनर ही सही.’’ साक्षी उठ कर किचन की तरफ गई. इधरउधर माचिस तलाशती रही, पर माचिस नहीं मिली. वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे भई, न तो माचिस मिल रही है, न ही गैसलाइटर जो गैस जला कर थोड़ी रोशनी कर लूं. अब क्या करूं?’’

‘‘करोगी क्या? यहां आ जाओ, मिल कर निकम्मी सरकार को ही कोस लें. इस का कौन काम सही है?’’ सुमित ने कहा. अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वे बोले, ‘‘बिजली का कोई भरोसा नहीं है कि कब आएगी, कब जाएगी. 4 घंटे का घोषित कट है, पर रहता है 8 घंटे. और बीचबीच में आंखमिचौली. कभी अगर ट्रांसफौर्मर खराब हो

जाए, तो समझ लो 2-3 दिनों तक बिजली गायब.’’ तभी आनंद ने कहा, ‘‘अरे भाईसाहब, रुकिए. मेरे पास माचिस है. यह मुझे ध्यान ही नहीं रहा. यह लीजिए.’’

उन्होंने एक तीली जला कर रोशनी की. सुमित तीली और माचिस लिए हुए चिल्लाए, ‘‘जल्दी मोमबत्ती ढूंढ़ कर लाओ.’’ ‘‘मोमबत्ती…यहीं तो साइड में रखी हुई थी,’’ साक्षी ने कहा. दोनों पतिपत्नी मेज के पास पहुंच कर दियासलाई जलाजला कर मोमबत्तियां ढूंढ़ते रहे. पर वह नहीं मिली. कई जगहों पर देखी, लेकिन बेकार. इतने में ही उन्हें एक मोमबत्ती ड्रैसिंग टेबल की दराज में मिल गई. वहीं से वह चिल्लाई, ‘‘मिल गई.’’

जब काफी देर तक मोमबत्ती नहीं जली तो आनंद ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, मोमबत्ती क्यों नहीं जलाते? क्या अंधेरे में रोमांस चल रहा है?’’ तब तक सुमित ड्राइंगरूम में आ चुके थे, बोले, ‘‘लानत है यार ऐसी जिंदगी पर. जब मोमबत्ती मिली, तो माचिस की तीलियां ही खत्म हो गईं.’’

आनंद कुछ कहते, उस से पहले ही बिजली आ गई. सुमित ने मोमबत्ती एक कोने में फेंक दी और बोले, ‘‘खैर, बत्ती आने से सब काम ठीक हो गया.’’

मौके की नजाकत पर आनंद ने एक जोक और मारा तो सब खिलखिला उठे. प्रसन्नचित्त सब ने भोजन किया. थोड़ी देर में साक्षी फ्रिज में से 4 बाउल्स निकाल कर लाई. सभी लोग खीर खाने लगे. तो मैं ने कहा, ‘‘अरे भाईसाहब, मीठी खीर के साथ एक बात कहूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’’

सुमित ने खीर मुंह में भरे हुए ही कहा, ‘‘नहीं. आप तो बस कहिए, क्या चाहती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी आप सरकार को उस की बदइंतजामी के लिए कोस रहे थे. मैं सरकार की पक्षधर नहीं हूं, फिर भी क्षमाप्रार्थना के साथ कहती हूं कि जब आप के इस छोटे से परिवार में इतनी अव्यवस्था है, आप को पता नहीं कि माचिस कहां रखी है? मोमबत्ती कहां पर है? तो इतने बड़े प्रदेश का भार उठाने वाली सरकार को क्यों कोसते हैं? ‘‘जिले के ट्रांसफौर्मर के शीघ्र न ठीक होने की शिकायत तो आप करते हैं पर घर पर रखे इनवर्टर की आप समय से मरम्मत नहीं करवाते. कभी सोचा है कि ट्रांसफौर्मर के फुंक जाने के कई कारणों में से एक प्रमुख कारण उस पर अधिक लोड होना है. आप के इस रूम में जरूरत से ज्यादा बल्ब लगे हैं. अच्छा हो पहले हम अपने घर की व्यवस्था ठीक कर लें, फिर किसी और को उस की अव्यवस्था के लिए कोसें. मेरी बात बुरी लगे, तो माफ कर दीजिएगा.’’

आनंद ने ताली बजाते हुए कहा, ‘‘दोस्तो, हास्य के बीच, आज का यह सब से गहरा व्यंग्य. चलो, अब मीटिंग बरखास्त होती है.’’

धक्का : मनीषा का दिल क्यों टूट गया

‘‘खैर, खुशी तो हमें तुम्हारी हर सफलता पर होती रही है और यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) द्वारा तुम्हारे चुने जाने पर अब हमें गर्व भी हो रहा है मगर एक बात रहरह कर खटक रही है,’’ उदयशंकर अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए बीच में थोड़ा रुक गए, ‘‘तुम्हारे इतने दूर जाने के बाद तुम्हारी मम्मी एकदम अकेली रह जाएंगी.’’

‘‘छोडि़ए भी, उदय भैया, अकेली रह जाऊंगी? आप सब जो हैं यहां,’’ मनीषा जल्दी से बोली. अपने मन की बात उदयशंकर की जबान पर आती देख कर वह विह्वल हो उठी थी.

‘‘हम तो खैर मरते दम तक यहीं रहेंगे. लेकिन हम में और जितेन में बहुत फर्क है.’’

‘‘वह फर्क तो आप की नजरों में होगा, चाचाजी. पापा के गुजरने के बाद मैं ने आप को ही उन की जगह समझा है. आप को अपना बुजुर्ग और मम्मी का संरक्षक समझता हूं,’’ जितेन बोला.

‘‘लीजिए, उदय भैया. अब आप केवल राजन के मित्र ही नहीं, जितेन द्वारा बनाए गए मेरे संरक्षक भी हो गए हैं,’’ मनीषा हंसी.

‘‘उस में मुझे कोई एतराज नहीं है, मनीषा. मुझ से जो भी हो सकेगा तुम्हारे लिए करूंगा. मगर, मनीषा, मैं या मेरे बच्चे हमेशा गैर रहेंगे. सोचता हूं अगर जितेन यूनेस्को की नौकरी का विचार छोड़ दे तो कैसा रहे?’’

‘‘क्या बात कर रहे हैं, चाचाजी? लोग तो ऐसी नौकरी का सपना देखते रहते हैं, इस के लिए नाक रगड़ने को तैयार रहते हैं और मुझे तो फिर इस नौकरी के लिए खास बुलाया गया है और आप कहते हैं कि मैं न जाऊं. कमाल है,’’ जितेन चिढ़ कर बोला.

‘‘लेकिन, तुम्हारी यह नौकरी भी क्या बुरी है? यहां भी तुम्हें खास बुलाया गया था और आगे तरक्की के मौके भी बहुत हैं. भविष्य तो तुम्हारा यहां भी उज्ज्वल है.’’

‘‘चाचाजी, आप ने अपने क्लब का स्विमिंग पूल भी देखा है और समुद्र भी. सो, दोनों का फर्क भी आप समझते ही होंगे,’’ जितेन मुसकराया.

‘‘मैं तो समझता हूं, बरखुरदार, लेकिन लगता है तुम नहीं समझते. क्लब के स्विमिंग पूल का पानी अकसर बदला जाता है, सो साफसुथरा रहता है. मगर समुद्र में तो दुनियाजहान का कचरा बह कर जाता है. फिर उस में तूफान भी हैं, चट्टानें भी और खतरनाक समुद्री जीव भी. यूनेस्को की नौकरी का मतलब है पिछड़े देशों में जा कर अविकसित चीजों का विकास करना, पिछड़ी जातियों का आधुनिकीकरण करना. काफी टेढ़ा काम होगा.’’

‘‘जिंदगी में तरक्की करने के लिए टेढ़े और मुश्किल काम तो करने ही पड़ते हैं, चाचाजी. और फिर जिन्हें समुद्र में तैरने का शौक पड़ जाए वे स्विमिंग पूल में नहीं तैर पाते.’’

‘‘यही सोच कर तो कह रहा हूं, बेटे, कि तुम समुद्र के शौक में मत पड़ो. उस में फंस कर तुम मनीषा से बहुत दूर हो जाओगे. माना कि अब संपर्क साधनों की कमी नहीं, लगता है मानो आमनेसामने बैठ कर बातें कर रहे हैं. फिर भी, दूरी तो दूरी ही है. राजन के गुजरने के बाद मनीषा सिर्फ तुम्हारे लिए ही जी रही है. तुम्हारा क्या खयाल है? सिर्फ आपसी बातचीत के सहारे वह जी सकेगी, टूट नहीं जाएगी?’’

‘‘जानता हूं, चाचाजी. तभी तो मम्मी को आप के सुपुर्द कर के जा रहा हूं. मैं कोशिश करूंगा कि जल्दी ही इन्हें वहां बुला लूं.’’

‘‘और भी ज्यादा परेशान होने को. यहां की इतने साल की प्रभुत्व की नौकरी, पुराने दोस्त और रिश्ते छोड़ कर नए माहौल को अपनाना मनीषा के लिए आसान होगा? अगर कोई अच्छी जगह होती तो भी ठीक था, लेकिन तुम तो अफ्रीकी या अरब इलाकों में ही जाओगे. वहां खुश रहना मनीषा के लिए मुमकिन न होगा.’’

‘‘फिर भी हालात से समझौता तो करना ही पड़ेगा, चाचाजी. महज इस वजह से कि मेरे जाने से मम्मी अकेली रह जाएंगी, इत्तफाक से मिला यह सुनहरा अवसर मैं छोड़ने वाला नहीं हूं.’’

‘‘बहुत अच्छा हुआ, यह बात तू ने मम्मी के जाने के बाद कही,’’ उदयशंकर ने एक गहरी सांस खींच कर कहा.

‘‘क्यों? मम्मी तो स्वयं ही यह नहीं चाहेंगी कि उन की वजह से मेरा कैरियर खराब हो या मैं जिंदगी में आगे न बढ़ सकूं.’’

‘‘बेशक, लेकिन जो बात तुम ने अभी कही थी न, वही तुम्हारे पापा ने उन्हें आज से 25 वर्षों पहले बताई थी.’’

उसे सुन कर उन्हें राजन की याद आ जाना स्वाभाविक ही था. दरवाजे के पीछे खड़ी मनीषा का दिल धक्क से हो गया.

‘‘क्या बताया था पापा ने मम्मी को?’’ जितेन आश्चर्य से पूछ रहा था.

मनीषा ने चाहा कि वह जा कर उदयशंकर को रोक दे. उस ने जो बात उदयशंकर को अपना घनिष्ठ मित्र समझ कर बताई थी उसे जितेन को बताने का उदय को कोई हक नहीं था. वह नहीं चाहती थी कि यह बात सुन कर जितेन उदारता अथवा एहसान के बोझ से दब जाए और मनीषा के प्रति उतना कृतज्ञ न हो पाने की वजह से उस के दिल में अपराधभावना आ जाए, मगर मनीषा के पैर जैसे जमीन से चिपक कर रह गए.

उदयशंकर बता रहे थे, ‘‘तुम्हारी मम्मी कितनी मेधावी थीं, शायद इस का तुम्हें अंदाजा भी नहीं होगा. उन जैसी प्रतिभाशाली लड़की को इतनी जल्दी प्यार और शादी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए था और अगर शादी कर भी ली थी तो कम से कम घर और बच्चों के मोह से तो बचे ही रहना चाहिए था. पर मनीषा ने घर और बच्चों के चक्कर में अपनी प्रतिभा आम घरेलू औरतों की तरह नष्ट कर दी.’’

‘‘खैर, यह तो आप ज्यादती कर रहे हैं, चाचाजी. मम्मी आम घरेलू औरत एकदम नहीं हैं,’’ जितेन ने प्रतिवाद किया, ‘‘मगर पापा ने क्या कहा था, वह बताइए न?’’

‘‘वही बता रहा हूं. तुम्हारी मम्मी ने कभी तुम से जिक्र भी नहीं किया होगा कि उन्हें एक बार हाइडलबर्ग के इंस्टिट्यूट औफ एडवांस्ड साइंसैज ऐंड टैक्नोलौजी में पीएचडी के लिए चुना गया था. तुम्हारी दादी और राजन ने तुम्हारी पूरी देखभाल करने का आश्वासन दिया था.  फिर भी मनीषा जाने को तैयार नहीं हुईं, महज तुम्हारी वजह से.’’

‘‘मैं उस समय कितना बड़ा था?’’

‘‘यही कोई 5-6 महीने के यानी जिस उम्र में मां ही होती है जो दूध पिला दे. और दूध तुम बोतल से पीते थे. सो, तुम्हारी दादी और पापा तुम्हारी देखभाल मजे से कर सकते थे. लेकिन तुम्हारी मम्मी को तसल्ली नहीं हो रही थी. उन के अपने शब्दों में कहूं तो ‘इतने छोटे बच्चे को छोड़ने को मन नहीं मानता. वह मुझे पहचानने लग गया है. मेरे जाने के बाद वह मुझे जरूर ढूंढ़ेगा. बोल तो सकता नहीं कि कुछ पूछ सके या बताए जाने पर समझ सके. उस के दिल पर न जाने इस का क्या असर पड़ेगा? हो सकता है इस से उस के दिल में कोई हीनभावना उत्पन्न हो जाए और मैं नहीं चाहती कि मेरा बेटा किसी हीनभावना के साथ बड़ा हो. मैं, डा. मनीषा, एक जानीमानी औयल टैक्नोलौजिस्ट की जगह एक स्वस्थ, होनहार बच्चे की मां कहलाना ज्यादा पसंद करूंगी.’’’

मनीषा और ज्यादा नहीं सुन सकी. उसे उस शाम की अपनी और राजन की बातचीत याद हो आई.

‘तुम्हारा बच्चा अभी तुम्हें ढूंढ़ने, कुछ सोचने और ग्रंथि बनाने की उम्र में नहीं है. पर जब वह कुछ सोचनेसमझने की उम्र में पहुंचेगा तब वह अपनी ही जिंदगी जीना चाहेगा और तुम्हारी खुशी के लिए अपनी किसी भी खुशी का गला नहीं घोंटेगा. यह समझ लो, मनीषा,’ राजन ने उसे समझाना चाहा था.

‘उस की नौबत ही नहीं आएगी, राजन. मेरी और मेरे बेटे की खुशियां अलगअलग नहीं होंगी. बेटे की खुशी ही मेरी खुशी होगी,’ उस ने बड़े दर्द से कहा था.

‘यानी तुम अपना अस्तित्व अपने बेटे के लिए ऐसे ही लुप्त कर दोगी. याद रखो, मनीषा, चंद सालों के बाद तुम पाओगी कि न तुम्हारे पास बेटा है और न अपना अस्तित्व, और फिर तुम अस्तित्वविहीन हो कर शून्य में भटकती फिरोगी, खुद को और अपने बेटे को कोसती जिस के लिए तुम ने स्वयं को नष्ट कर दिया.’

‘नहीं, मैं बेटे की ख्याति, सुख और समृद्धि के सागर में तैरूंगी. जब मेरा बेटा गर्व से यह कहेगा कि आज मैं जो कुछ भी हूं अपनी मम्मी की वजह से हूं तो उस समय मेरे गौरव की सीमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती.’

‘यह सब तुम्हारी खुशफहमी है, मनीषा. जब तक तुम्हारा बेटा बड़ा होगा उस समय तक अपनी सफलता का श्रेय दूसरों को देने का चलन ही नहीं रहेगा. तुम्हारा बेटा कहेगा कि मैं जो कुछ भी हूं अपनी मेहनत और अपनी बुद्धि के बल पर हूं. यदि मांबाप ने बुद्धि के विकास के लिए कुछ सुविधाएं जुटा दी थीं तो यह उन की जिम्मेदारी थी. उन्होंने अपनी मरजी से हमें पैदा किया है, हमारे कहने से नहीं.’

‘चलिए, आप की यह बात भी मान ली. लेकिन दूर से चुप रह कर भी तो अपने बेटे की सुखसमृद्धि का आनंद उठाया जा सकता है.’

‘हां, अगर दूर और तटस्थ रह कर उस की खुशी में खुश रह सकती हो, तो बात अलग है. लेकिन अगर तुम चाहो कि तुम ने उस के लिए जो त्याग किया है उस के प्रतिदानस्वरूप वह भी तुम्हारे लिए कुछ त्याग कर के दे, तो नामुमकिन है. जहां तक मेरा खयाल है, वह अधिक समय तक तुम्हारे पास भी नहीं रहेगा. आजकल पढ़ाई काफी विस्तृत हो रही है.’

‘चलिए, बेटा रहे न रहे, बेटे के पापा तो मेरे पास ही रहेंगे न?’ मनीषा ने कहा था और सफाई से बात बदल दी थी. ‘वैसे मूर्खताओं में साथ देने के पक्ष में मैं नहीं हूं लेकिन तुम्हारा साथ तो देना ही पड़ेगा,’ राजन हंस कर बोले थे.

लेकिन, कहां दे पाए थे राजन साथ. जितेन अभी कालेज के प्रथम वर्ष में ही था कि एक दिन सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो कर वे उस का साथ छोड़ गए थे.

‘‘मम्मी, कहां हो तुम?’’ जितेन के उत्तेजित स्वर से मनीषा चौंक पड़ी. कर दिया न उदयशंकर ने सर्वनाश. जितेन को बता दिया और अब वह कहने आ रहा है कि यूनेस्को की नौकरी से इनकार कर देगा. मनीषा ने मन ही मन फैसला किया कि वह उसे क्या कह कर और क्याक्या कसमें दे कर जाने को मजबूर करेगी.

‘‘हां, बेटे, क्या बात है?’’

‘‘उदय चाचा कह रहे थे कि तुम ने मेरे लिए जीवन में आया एक सुनहरा मौका खो दिया?’’

‘‘हां, मगर वह मैं ने तुम्हारे लिए नहीं, अपनी ममता के लिए किया था. उस का तुम पर कोई एहसान नहीं है.’’

‘‘तुम एहसान की बात कर रही हो, मम्मी, और मैं समझता हूं कि इस से बड़ा मेरा कोई और उपकार नहीं कर सकती थीं,’’ जितेन तड़प कर बोला, ‘‘मैं आप को काफी समझदार औरत समझता था, लेकिन आप भी बस प्यार में ही बच्चे का भला समझने वाली औरत निकलीं. उस समय आप ने शायद यह नहीं सोचा कि आप की ज्यादा लियाकत का असर आप के बेटे के भविष्य पर क्या पड़ेगा?’’

जितेन की बात सुन कर मनीषा चुप रही, तो वह फिर बोला, ‘‘आज अगर आप के पास डौक्टरेट की डिगरी होती तो शायद पापा के गुजरने के बाद आप की पुरानी यूनिवर्सिटी आप को बुला लेती. हम लोग वहीं जा कर रहने लगते और मैं बजाय अफ्रीकीएशियाई देशों में जा कर, एक पश्चिमी औद्योगिक देश में काम करने का मौका पाता. यही नहीं, मेरी पढ़ाई पर इस का काफी असर पड़ता. निश्चित ही आप की आय तब ज्यादा होती. घर में ही एक प्रयोगशाला बनाने की जो मेरी तमन्ना थी, वह अगर हमारे पास ज्यादा पैसा होता तो पूरी हो जाती और उस का असर मेरे रिजल्ट पर भी पड़ता.’’ जितेन के स्वर में भर्त्सना थी.

‘‘हमेशा ही विश्वविद्यालय में फर्स्ट आता है. अरे छोड़ भी. उस से ज्यादा अच्छा रिजल्ट और क्या लाता?’’ मनीषा ने हंस कर बात टालनी चाही.

‘‘वही तो आप समझने की कोशिश नहीं करतीं. 85 प्रतिशत अंकों की जगह 95 प्रतिशत अंक पाना क्या बेहतर नहीं है? खैर, आप जो भी कहिए, आप ने वह फैलोशिप अस्वीकार कर के मेरा जो अहित किया है उस के लिए मैं आप को कभी माफ नहीं कर सकता,’’ कह कर जितेन तेजी से बाहर चला गया.

मनीषा जैसे टूट कर कुरसी पर गिर पड़ी. जितेन की कृतघ्नता या उदासीनता के लिए वह अपने को बरसों से तैयार करती आ रही थी, पर उस के इस आरोप के धक्के को सह सकना जरा मुश्किल था.

सजा के बाद सजा

Story in Hindi

सीमा: सालों बाद मिले नवनीत से क्यों किनारा कर रही थी सीमा?

‘‘माया तुम पहले चढ़ो. नेहा आदिल को मुझे दो. अरे, संभाल कर…’’ ट्रेन के छूटने में केवल 5 मिनट शेष थे. सीमा ने अपनी सीट पर बैठ कर अभी पत्रिका खोली ही थी कि दरवाजे से आती आवाज ने सहसा उस की धड़कनें बढ़ा दीं. यह वही आवाज थी, जिसे सीमा कभी बेहद पसंद करती थी. इस आवाज में गंभीरता भी थी और दिल छूने की अदा भी. वक्त बदलता गया था पर सीमा इस आवाज के आकर्षण से कभी स्वयं को मुक्त नहीं कर सकी थी.

अकसर सोचती कि काश कहीं अचानक यह आवाज फिर से उसे पुकार कर वह सब कुछ कह दे, जिसे सुनने की चाह सदा से उस के दिल में रही.

आज वर्षों बाद वही आवाज सुनने को मिली थी. मगर सीमा को उस आवाज में पहले वाली कोमलता और सचाई नहीं वरन रूखापन महसूस हो रहा था. कभी कुली तो कभी अपने परिवार पर झल्लाती आवाज सुनते हुए सीमा बरबस सोचने लगी कि क्या जिंदगी की चोटों ने उस स्वर से कोमलता दूर कर दी या फिर हम दोनों के बीच आई दूरी का एहसास उसे भी हुआ था.

कई दफा 2 लोगों के बीच का रिश्ता अनकहा सा रह जाता है. फासले कभी सिमट नहीं पाते और दिल की कसक दिल में ही रह जाती है. कुछ ऐसा ही रिश्ता था उस आवाज के मालिक यानी नवनीत से सीमा का.

सीमा बहुत उत्सुक थी उसे एक नजर देखने को, 10 साल बीत चुके थे. वह सीट से उठी और दरवाजे की तरफ देखने लगी, जिधर से आवाज आ रही थी. सामने एक शख्स अपने बीवीबच्चों के साथ अपनी सीट की तरफ बढ़ता नजर आया.

सीमा गौर से उसे देखने लगी. केवल आंखें ही थीं जिन में 10 साल पहले वाले नवनीत की झलक नजर आ रही थी. अपनी उम्र से वह बहुत अधिक परिपक्व नजर आ रहा था. माथे पर दूर तक बाल गायब थे. आंखों में पहले वाली नादान शरारतों की जगह चालाकी और घमंड था. शरीर पर चरबी की मोटी परत, निकली हुई तोंद. लगा ही नहीं कि कालेज के दिनों का वही हैंडसम और स्मार्ट नवनीत सामने खड़ा है.

नवनीत ने भी शायद सीमा को पहचाना नहीं था. वह सीमा को देख तो रहा था, मगर पहचानी नजरों से नहीं, अपितु एक खूबसूरत लड़की को देख कर जैसे कुछ पुरुषों की नजरें कामुक हो उठती हैं वैसे और यह सीमा को कतई बरदाश्त नहीं था. वह चुपचाप आ कर सीट पर बैठ गई और पुरानी बातें सोचने लगी…

कालेज का वह समय जब दोनों एकसाथ पढ़ते थे. वैसे उन दिनों सीमा बहुत ही साधारण सी दिखती थी, पर नवनीत में ऐसी कई बातें थीं, जो उसे आकर्षित करतीं. कभी किसी लड़के से बात न करने वाली सीमा अकसर नवनीत से बातें करने के बहाने ढूंढ़ती.

पर अब वक्त बदल गया था. अच्छी सरकारी नौकरी और सुकून की जिंदगी ने सीमा के चेहरे पर आत्मविश्वास भरी रौनक ला दी थी. फिजिकली भी उस ने खुद को पूरी तरह मैंटेन कर रखा था. जो भी पहनती उस पर वह खूब जंचता.

सीमा चुपचाप पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. ऐसा नहीं है कि इस गुजरे वक्त में सीमा ने कभी नवनीत के बारे में सोचा नहीं था. 1-2 दफा फेसबुक पर उस की तलाश की थी और उस की गुजर रही जिंदगी को फेसबुक पर देखा भी था. उस का नया फोन नंबर भी नोट कर लिया था पर कभी फ्रैंड रिक्वैस्ट नहीं भेजी और न ही फोन किया.

आज सीमा फ्री बैठी थी तो सोचा क्यों न उस से चैटिंग ही कर ली जाए. कम से कम पता तो चले कि वह शख्स नवनीत ही है या कोई और. उसे कुछ याद है भी या नहीं. अत: उस ने व्हाट्सऐप पर नवनीत को ‘‘हाय,’’ लिख कर भेज दिया. तुरंत जवाब आया, ‘‘कैसी हो? कहां हो तुम?’’

वह चौंकी. एक पल भी नहीं लगा था उसे सीमा को पहचानने में. प्रोफाइल पिक सीमा ने ऐसी लगाई थी जिसे ऐडिट कर कलरफुल बनाया गया था और फेस क्लीयर नहीं था. शायद मैसेज के साथ जाने वाले नाम ने तुरंत नवनीत को उस की याद दिला दी थी.

सीमा ने मैसेज का जवाब दिया, ‘‘पहचान लिया मुझे? याद हूं मैं ?’’

‘‘100 प्रतिशत याद हो और सब कुछ…’’

‘‘सब कुछ क्या?’’ सीमा चौंकी.

‘‘वही जो तुम ने और मैं ने सोचा था.’’

सीमा सोच में पड़ गई.

नवनीत ने फिर सवाल किया, ‘‘आजकल कहां हो और क्या कर रही हो?’’

‘‘दिल्ली में हूं. जौब कर रही हूं,’’ सीमा ने जवाब दिया.

‘‘गुड,’’ उस ने स्माइली भेजी.

‘‘तुम बताओ, घर में सब कैसे हैं? 2 बेटे हैं न तुम्हारे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘हां, पर तुम्हें कैसे पता?’’ नवनीत ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘बस पता रखने की इच्छा होनी चाहिए,’’ सीमा ने नवनीत के जज्बातों को टटोलते हुए जवाब दिया.

वह तुरंत पूछ बैठा, ‘‘तुम ने शादी की?’’

‘‘नहीं, अभी तक नहीं की. काम में ही व्यस्त रहती हूं.’’

‘‘मैं तो सोच रहा था कि पता नहीं कभी तुम से कौंटैक्ट होगा भी या नहीं, पर तुम आज भी मेरे लिए फ्री हो.’’

नवनीत की फीलिंग्स बाहर आने लगी थीं. पर सीमा को उस के बोलने का तरीका अच्छा नहीं लगा.

‘‘गलत सोच रहे हो. मैं किसी के लिए फ्री नहीं होती. बस तुम्हारी बात अलग है, इसलिए बात कर ली,’’ सीमा ने मैसेज किया.

‘‘मैं भी वही कह रहा था.’’

‘‘वही क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हारे दिल में मैं ही हूं. सालों पहले जो बात थी वही आज भी है, नवनीत ने मैसेज भेजा.

जब सीमा ने काफी देर तक कोई मैसेज नहीं किया तो नवनीत ने फिर से मैसेज किया, ‘‘आज तुम से बातें कर के बहुत अच्छा लगा. हमेशा चैटिंग करती रहना.’’

‘‘ओके श्योर.’’

अजीब सी हलचल हुई थी सीमा के दिलोदिमाग में. अच्छा भी लगा और थोड़ा आश्चर्य भी हुआ. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिऐक्ट करे. उस ने मैसेज किया, ‘‘वैसे तुम हो कहां फिलहाल?’’

‘‘फिलहाल मैं ट्रेन में हूं और बनारस जा रहा हूं.’’

‘‘विद फैमिली?’’

‘‘हां.’’

‘‘ओके ऐंजौय,’’ कह सीमा ने फोन बंद कर दिया. यह तो पक्का हो गया था कि वह नवनीत ही था. वह सोचने लगी कि जिंदगी भी कैसेकैसे रुख बदलती है. फिर बहुत देर तक वह पुरानी बातें याद करती रही.

घर आ कर सीमा काम में व्यस्त हो गई. सफर और नवनीत की बातें भूल सी गई. मगर अगले दिन सुबहसुबह नवनीत का गुड मौर्निंग मैसेज आ गया. सीमा जवाब दे कर औफिस चली गई.

शाम को औफिस से घर आ कर टीवी देख रही थी, तो फिर नवनीत का मैसेज आया, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘टीवी देख रही हूं और आप?’’ सीमा ने सवाल किया.

‘‘आप का इंतजार कर रहा हूं.’’

मैसेज पढ़ कर सीमा मुसकरा दी और सोचने लगी कि इसे क्या हो गया है. फिर मुसकराते हुए उस ने मैसेज किया, ‘‘मगर कहां?’’

‘‘वहीं जहां तुम हो.’’

‘‘यह तुम ही हो या कोई और? अपना फोटो भेजो ताकि मुझे यकीन हो.’’

‘‘मैं कल भेजूंगा. तब तक तुम अपना फोटो भेजो, प्लीज.’’

सीमा ने एक फोटो भेज दिया.

तुरंत कमैंट आया, ‘‘मस्त लग रही हो.’’

‘‘मस्त नहीं, स्मार्ट लग रही हूं,’’ सीमा ने नवनीत के शब्दों को सुधारा.

नवनीत चुप रहा. इस के बाद 2 दिनों तक उस का मैसेज नहीं आया. तीसरे

दिन फिर से गुड मौर्निंग मैसेज देख कर सीमा ने पूछा, ‘‘और बताओ कैसे हो?’’

‘‘वैसा ही जैसा तुम ने छोड़ा था.’’

‘‘मुझे नहीं लगता… तुम्हारी जिंदगी में तो काफी बदलाव आए हैं. तुम पति परमेश्वर बने और पापा भी, सीमा ने कहा.’’

इस पर नवनीत ने बड़े ही बेपरवाह लहजे में कहा, ‘‘अरे यार, वह सब छोड़ो. तुम बताओ क्या बनाओगी मुझे?’’

‘‘दोस्त बनाऊंगी और क्या?’’ सीमा ने टका सा जवाब दिया.

‘‘वह तो हम हैं ही,’’ कह कर उस ने ‘दिल’ का निशान भेजा.

‘‘अच्छा, अब कुछ काम है. चलती हूं. बाय,’’ कह कर सीमा व्हाट्सऐप बंद करने ही लगी कि फिर नवनीत का मैसेज आया, ‘‘अरे सुनो? मैं कुछ दिनों में दिल्ली आऊंगा.’’

‘‘ओके, आओ तो बताना.’’

‘‘क्या खिलाओगी? कहांकहां घुमाओगी?’’

‘‘जो तुम्हें पसंद हो.’’

‘‘पसंद तो तुम हो.’’

उस के बोलने की टोन से एक बार फिर सीमा चकित रह गई. फिर बोली, ‘‘क्या सचमुच? मगर पहले कभी तो तुम ने कहा नहीं.’’

‘‘क्योंकि तुम औलरैडी समझ गई थीं.’’

‘‘हां वह तो 100% सच है. मैं समझ गई थी.’’

‘‘मगर तुम ने क्यों नहीं कहा?’’ नवनीत ने उलटा सवाल दागा, तो सीमा ने उसी टोन में जवाब दिया, ‘‘क्योंकि तुम भी समझ गए थे.’’

‘‘अब तुम कैसे रहती हो?’’

‘‘कैसे मतलब?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मतलब ठंड में,’’ नवनीत का जवाब था.

‘‘क्यों वहां ठंड नहीं पड़ती क्या?’’ नवनीत का यह सवाल सीमा को अजीब लगा था.

नवनीत ने फिर लिखा, ‘‘मेरे पास तो ठंड दूर करने का उपाय है. पर तुम्हारी ठंड कैसे दूर होती होगी?’’

‘‘कैसी बातें करने लगे हो?’’ सीमा ने झिड़का.

मगर नवनीत का टोन नहीं बदला. उसी अंदाज में बोला, ‘‘ये बातें पहले कर लेते तो आज का दिन कुछ और होता.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर अब यह मत भूलो कि तुम्हारी एक बीवी भी है.’’

‘‘वह अपनी जगह है, तुम अपनी जगह. तुम जब चाहो मैं तुम्हारे पास आ सकता हूं,’’ नवनीत ने सीधा जवाब दिया.

सीमा को नवनीत का शादीशुदा होने के बावजूद इस तरह खुला निमंत्रण देना पसंद नहीं आया था. पहले नवनीत से इस तरह की बातें कभी नहीं हुई थीं, मगर उस के लिए मन में फीलिंग्स थीं जरूर. अब बात तो हो गई थी, मगर फीलिंग्स खत्म हो चुकी थीं. उस के मन में नवनीत के लिए एक अजीब सी उदासीनता आ गई थी.

2 घंटे भी नहीं बीते थे कि नवनीत ने फिर मैसेज किया, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘अरे क्या हो गया है तुम्हें? ठीक हूं,’’ सीमा ने लिखा.

‘‘रातें कैसे बिताती हो? नवनीत ने अगला सवाल दागा.’’

सीमा के लिए यह अजीब सवाल था. सीमा ने उस से इस तरह की बातचीत की अपेक्षा नहीं की थी. अत: सीधा सा जवाब दिया, ‘‘सो कर.’’

‘‘नींद आती है?’’

यह सवाल सीमा को और भी बेचैन कर गया. पर लिखा, ‘‘हां पूरी नींद आती है.’’

‘‘और जब…’’

नवनीत ने कुछ ऐसा अश्लील सा सवाल किया था कि वह बिफर पड़ी, ‘‘आई डौंट लाइक दिस टाइप औफ गौसिप.’’

मैं सोच रहा था कि अपने दोस्त से बातें हो रही हैं. मगर सौरी, तुम तो दार्शनिक निकलीं.

नवनीत ने सीमा का मजाक उड़ाया तो सीमा ने कड़े शब्दों में जवाब दिया, ‘‘मैं ने चैटिंग करने से मना नहीं किया, मगर एक सीमा में रह कर ही बातें की जा सकती हैं.’’

‘‘दोस्ती में कोई सीमा नहीं होती.’’

‘‘पर मैं कभी ऐसी दोस्ती के लिए रजामंदी नहीं दूंगी, जिस में कोई सीमा न हो,’’ सीमा ने फिर से दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘यह मत भूलो कि तुम भी मुझे पसंद किया करती थीं सीमा.’’

‘‘पसंद करना अलग बात है, पर उसे अपनी जिंदगी की गलती बना लेना अलग. शायद मैं यह कतई नहीं चाहूंगी कि ऐसा कुछ भी हो. इस तरह की बातें करनी हैं तो प्लीज अब कभी मैसेज मत करना मुझे,’’ मैसेज भेज सीमा ने फोन बंद कर दिया.

अब सीमा का मन काफी हलका हो गया था. नवनीत से सदा के लिए दूरी बना कर उसे तनिक भी अफसोस नहीं हो रहा था. नवनीत, जिसे कभी उस ने मन ही मन चाहा था और पाने की ख्वाहिश भी की थी, अब वह बदल चुका या फिर उस की असली सूरत सीमा को रास नहीं आई.

सीख: जब बहुओं को एक साथ रखने के लिए सास ने निकाली तरकीब

हमारे घर की खुशियों और सुखशांति पर अचानक ही ग्रहण लग गया. पहले हमेशा चुस्तदुरुस्त रहने वाली मां को दिल का दौरा पड़ा. वे घर की मजबूत रीढ़ थीं. उन का आई.सी.यू. में भरती होना हम सब के पैरों तले से जमीन खिसका गया. वे करीब हफ्ते भर अस्पताल में रहीं. इतने समय में ही बड़ी और छोटी भाभी के बीच तनातनी पैदा हो गई.

छोटी भाभी शिखा की विकास भैया से करीब 7 महीने पहले शादी हुई थी. वे औफिस जाती हैं. मां अस्पताल में भरती हुईं तो उन्होंने छुट्टी ले ली.

मां को 48 घंटे के बाद डाक्टर ने खतरे से बाहर घोषित किया तो शिखा भाभी अगले दिन से औफिस जाने लगीं. औफिस में इन दिनों काम का बहुत जोर होने के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा था.

बड़ी भाभी नीरजा को छोटी भाभी का ऐसा करना कतई नहीं जंचा.

‘‘मैं अकेली घर का काम संभालूं या अस्पताल में मांजी के पास रहूं?’’ अपनी देवरानी शिखा को औफिस जाने को तैयार होते देख वे गुस्से से भर गईं, ‘‘किसी एक इनसान के दफ्तर न पहुंचने से वह बंद नहीं हो जाएगा. इस कठिन समय में शिखा का काम में हाथ न बंटाना ठीक नहीं है.’’

‘‘दीदी, मेरी मजबूरी है. मुझे 8-10 दिन औफिस जाना ही पड़ेगा. फिर मैं छुट्टी ले लूंगी और आप खूब आराम करना,’’ शिखा भाभी की सहजता से कही गई इस बात का नीरजा भाभी खामखां ही बुरा मान गईं.

यह सच है कि नीरजा भाभी मां के साथ बड़ी गहराई से जुड़ी हुई हैं. उन की मां उन्हें बचपन में ही छोड़ कर चल बसी थीं. सासबहू के बीच बड़ा मजबूत रिश्ता था और मां को पड़े दिल के दौरे ने नीरजा भाभी को दुख, तनाव व चिंता से भर दिया था.

शिखा भाभी की बात से बड़ी भाभी अचानक बहुत ज्यादा चिढ़ गई थीं.

‘‘बनठन कर औफिस में बस मटरगश्ती करने जाती हो तुम…मैं घर न संभालूं तो तुम्हें आटेदाल का भाव मालूम पड़ जाए…’’ ऐसी कड़वी बातें मुंह से निकाल कर बड़ी भाभी ने शिखा को रुला दिया था.

‘‘मुझे नहीं करनी नौकरी…मैं त्यागपत्र दे दूंगी,’’ उन की इस धमकी को सब ने सुना और घर का माहौल और ज्यादा तनावग्रस्त हो गया.

शिखा भाभी की पगार घर की आर्थिक स्थिति को ठीकठाक बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी. सब जानते थे कि वे जिद्दी स्वभाव की हैं और जिद पर अड़ कर कहीं सचमुच त्यागपत्र न दे दें, इस डर ने पापा को इस मामले में हस्तक्षेप करने को मजबूर कर दिया.

‘‘बहू, उसे दफ्तर जाने दो. हम सब हैं न यहां का काम संभालने के लिए. तुम अपनी सास के साथ अस्पताल में रहो. अंजलि रसोई संभालेगी,’’ पापा ने नीरजा भाभी को गंभीर लहजे में समझाया और उन की आंखों का इशारा समझ मैं रसोई में घुस गई.

राजीव भैया ने नीरजा भाभी को जोर से डांटा, ‘‘इस परेशानी के समय में तुम क्या काम का रोनाधोना ले कर बैठ गई हो. जरूरी न होता तो शिखा कभी औफिस जाने को तैयार न होती. जाओ, उसे मना कर औफिस भेजो.’’

राजीव भैया के सख्त लहजे ने भाभी की आंखों में आंसू ला दिए. उन्होंने नाराजगी भरी खामोशी अख्तियार कर ली. विशेषकर शिखा भाभी से उन की बोलचाल न के बराबर रह गई थी.

अस्पताल से घर लौटी मां को अपनी दोनों बहुओं के बीच चल रहे मनमुटाव का पता पहले दिन ही चल गया.

उन्होंने दोनों बहुओं को अलगअलग और एकसाथ बिठा कर समझाया, पर स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ. दोनों भाभियां आपस में खिंचीखिंची सी रहतीं. उन के ऐसे व्यवहार के चलते घर का माहौल तनावग्रस्त बना रहने लगा.

बड़े भैया से नीरजा भाभी को डांट पड़ती, ‘‘तुम बड़ी हो और इसलिए तुम्हें ज्यादा जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए. बच्चों की तरह मुंह फुला कर घूमना तुम्हें शोभा नहीं देता है.’’

छोटे भैया विकास भी शिखा भाभी के साथ सख्ती से पेश आते.

‘‘तुम्हारे गलत व्यवहार के कारण मां को दुख पहुंच रहा है, शिखा. डाक्टरों ने कहा है कि टैंशन उन के लिए घातक साबित हो सकता है. अगर उन्हें दूसरा अटैक पड़ गया तो मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगा,’’ ऐसी कठोर बातें कह कर विकास भैया शिखा भाभी को रुला डालते.

पापा का काम सब को समझाना था. कभीकभी वे बेचारे बड़े उदास नजर आते. जीवनसंगिनी की बीमारी व घर में घुस आई अशांति के कारण वे थके व टूटे से दिखने लगे थे.

मां ज्यादातर अपने कमरे में पलंग पर लेटी आराम करती रहतीं. बहुओं के मूड की जानकारी उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उन्होंने मुझ पर डाली हुई थी. मैं बहुत कुछ बातें उन से छिपा जाती, पर झूठ नहीं बोलती. घर की बिगड़ती जा रही स्थिति को ले कर मां की आंखों में चिंता के भावों को मैं निरंतर बढ़ते देख रही थी.

फिर एक खुशी का मौका आ गया. मेरे 3 साल के भतीजे मोहित का जन्मदिन रविवार को पड़ा. इस अवसर पर घर के बोझिल माहौल को दूर भगाने का प्रयास हम सभी ने दिल से किया था.

शिखा भाभी मोहित के लिए बैटरी से पटरियों पर चलने वाली ट्रेन लाईं. हम सभी बनसंवर कर तैयार हुए. बहुत करीबी रिश्तेदारों व मित्रों के लिए लजीज खाना हलवाई से तैयार कराया गया.

उस दिन खूब मौजमस्ती रही. केक कटा, जम कर खायापिया गया और कुछ देर डांस भी हुआ. यह देख कर हमारी खुशियां दोगुनी हो गईं कि नीरजा और शिखा भाभी खूब खुल कर आपस में हंसबोल रही थीं.

लेकिन रात को एक और घटना ने घर में तनाव और बढ़ा दिया था.

शिखा भाभी ने रात को अपने पहने हुए जेवर मां की अलमारी में रखे तो पाया कि उन का दूसरा सोने का सेट अपनी जगह से गायब था.

उन्होंने मां को बताया. जल्दी ही सैट के गायब होने की खबर घर भर में फैल गई.

दोनों बहुओं के जेवर मां अपनी अलमारी में रखती थीं. उन्होंने अपनी सारी अलमारी खंगाल मारी, पर सैट नहीं मिला.

‘‘मैं ने चाबी या तो नीरजा को दी थी या शिखा को. इन लोगों की लापरवाही के कारण ही किसी को सैट चुराने का मौका मिल गया. घर में आए मेहमानों में से अब किसे चोर समझें?’’ मां का चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.

मां किसी मेहमान को चोर बता रही थीं और शिखा भाभी ने अपने हावभाव से यह जाहिर किया जैसे चोरी करने का शक उन्हें नीरजा भाभी पर हो.

शिखा भाभी नाराज भी नजर आती थीं और रोंआसी भी. किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि उन से इस मामले में क्या कहें. सैट अपनेआप तो गायब हो नहीं सकता था. किसी ने तो उसे चुराया था और शक की सूई सब से ज्यादा बड़ी भाभी की तरफ घूम जाती क्योंकि मां ने अलमारी की चाबी उन्हें दिन में कई बार दी थी.

हम सभी ड्राइंगरूम में बैठे थे तभी नीरजा भाभी ने गंभीर लहजे में छोटी भाभी से कहा, ‘‘शिखा, मैं ने तुम्हारे सैट को छुआ भी नहीं है. मेरा विश्वास करो कि मैं चोर नहीं हूं.’’

‘‘मैं आप को चोर नहीं कह रही हूं,’’ शिखा भाभी ने जिस ढंग से यह बात कही उस में गुस्से व बड़ी भाभी को अपमानित करने वाले भाव मौजूद थे.

‘‘तुम मुंह से कुछ न भी कहो, पर मन ही मन तुम मुझे ही चोर समझ रही हो.’’

‘‘मेरा सैट चोरी गया है, इसलिए कोई तो चोर है ही.’’

‘‘नीरजा, तुम अपने बेटे के सिर पर हाथ रख कर कह दो कि तुम चोर नहीं हो,’’ तनावग्रस्त बड़े भैया ने अपनी पत्नी को सलाह दी.

‘‘मुझे बेटे की कसम खाने की जरूरत नहीं है…मैं झूठ नहीं बोल रही हूं…अब मेरे कहे का कोई विश्वास करे या न करे यह उस के ऊपर है,’’ ऐसा कह कर जब बड़ी भाभी अपने कमरे की तरफ जाने को मुड़ीं तब उन की आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे.

मोहित के जन्मदिन की खुशियां फिर से तनाव व चिंता में बदल गईं.

छोटी भाभी का मूड आगामी दिनों में उखड़ा ही रहा. इस मामले में बड़ी भाभी कहीं ज्यादा समझदारी दिखा रही थीं. उन्होंने शिखा भाभी के साथ बोलना बंद नहीं किया बल्कि दिन में 1-2 बार जरूर इस बात को दोहरा देतीं कि शिखा उन पर सैट की चोरी का गलत शक कर रही है.

मांने उन दोनों को ही समझाना छोड़ दिया. वे काफी गंभीर रहने लगी थीं. वैसे उन को टैंशन न देने के चक्कर में कोई भी इस विषय को उन के सामने उठाता ही नहीं था.

मोहित के जन्मदिन के करीब 10 दिन बाद मुझे कालेज के एक समारोह में शामिल होना था. उस दिन मैं ने शिखा भाभी का सुंदर नीला सूट पहनने की इजाजत उन से तब ली जब वे बाथरूम में नहा रही थीं.

उन की अलमारी से सूट निकालते हुए मुझे उन का खोया सैट मिल गया. वह तह किए कपड़ों के पीछे छिपा कर रखा गया था.

मैं ने डब्बा जब मां को दिया तब बड़ी भाभी उन के पास बैठी हुई थीं. जब मैं ने सैट मिलने की जगह उन दोनों को बताई तो मां आश्चर्य से और नीरजा भाभी गुस्से से भरती चली गईं.

‘‘मम्मी, आप ने शिखा की चालाकी और मक्कारी देख ली,’’ नीरजा भाभी का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा, ‘‘मुझे चोर कहलवा कर सब के सामने अपमानित करवा दिया और डब्बा खुद अपनी अलमारी में छिपा कर रखा था. उसे इस गंदी हरकत की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘तुम अपने गुस्से को काबू में रखो, नीरजा. उसे नहा कर आने दो. फिर मैं उस से पूछताछ करती हूं,’’ मां ने यों कई बार भाभी को समझाया पर वे छोटी भाभी का नाम ले कर लगातार कुछ न कुछ बोलती ही रहीं.

कुछ देर बाद छोटी भाभी सब के सामने पेश हुईं तो मैं ने सैट उन की अलमारी में कपड़ों के पीछे से मिलने की बात दोहरा दी.

सारी बात सुन कर वे जबरदस्त तनाव की शिकार बन गईं. फिर बड़ी भाभी को गुस्से से घूरते हुए उन्होंने मां से कहा, ‘‘मम्मी, चालाक और मक्कार मैं नहीं बल्कि ये हैं. मुझे आप सब की नजरों से गिराने के लिए इन्होंने बड़ी चालाकी से काम लिया है. मेरी अलमारी में सैट मैं ने नहीं बल्कि इन्होंने ही छिपा कर रखा है. ये मुझे इस घर से निकालने पर तुली हुई हैं.’’

नीरजा भाभी ने शिखा भाभी के इस आरोप का जबरदस्त विरोध किया. दोनों के बीच हमारे रोकतेरोकते भी कई कड़वे, तीखे शब्दों का आदानप्रदान हो ही गया.

‘‘खामोश,’’ अचानक मां ने दोनों को ऊंची आवाज में डपटा, तो दोनों सकपकाई सी चुप हो गईं.

‘‘मैं तुम दोनों से 1-1 सवाल पूछती हूं,’’ मां ने गंभीर लहजे में बोलना आरंभ किया, ‘‘शिखा, तुम्हारा सैट मेरी अलमारी से चोरी हुआ तो तुम ने किस सुबूत के आधार पर नीरजा को चोर माना था?’’

शिखा भाभी ने उत्तेजित लहजे में जवाब दिया, ‘‘मम्मी, आप ने चाबी मुझे या इन्हें ही तो दी थी. अपने सैट के गायब होने का शक इन के अलावा और किस पर जाता?’’

‘‘तुम ने मुझ पर शक क्यों नहीं किया?’’

‘‘आप पर चोरी करने का शक पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता, मम्मी. आप आदरणीय हैं. सबकुछ आप का ही तो है…अपनी हिफाजत में रखी चीज कोई भला खुद क्यों चुराएगा?’’ छोटी भाभी मां के सवाल का जवाब देतेदेते जबरदस्त उलझन की शिकार बन गई थीं.

अब मां नीरजा भाभी की तरफ घूमीं और उन से पूछा, ‘‘बड़ी बहू, अंजलि को सैट शिखा की अलमारी में मिला. तुम ने सब से पहले शिखा को ही चालाकी व मक्कारी करने का दोषी किस आधार पर कहा?’’

‘‘मम्मी, मैं जानती हूं कि सैट मैं ने नहीं चुराया था. आप की अलमारी से सैट कोई बाहर वाला चुराता तो वह शिखा की अलमारी से न बरामद होता. सैट को शिखा की अलमारी में उस के सिवा और कौन छिपा कर रखेगा?’’ किसी अच्छे जासूस की तरह नीरजा भाभी ने रहस्य खोलने का प्रयास किया.

‘‘अगर सैट पहले मैं ने ही अपनी अलमारी से गायब किया हो तो क्या उसे शिखा की अलमारी में नहीं रख सकती?’’

‘‘आप ने न चोरी की है, न सैट शिखा की अलमारी में रखा है. आप इसे बचाने के लिए ऐसा कह रही हैं.’’

‘‘बिलकुल यही बात मैं भी कहती हूं,’’ शिखा भाभी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मम्मी, आप समझ रही हैं कि सारी चालाकी बड़ी भाभी की है और सिर्फ इन्हें बचाने को…’’

‘‘यू शटअप.’’

दोनों भाभियां एकदूसरे को फाड़ खाने वाले अंदाज में घूर रही थीं. मां उन दोनों को कुछ पलों तक देखती रहीं. फिर उन्होंने एक गहरी सांस इस अंदाज में ली मानो बहुत दुखी हों.

दोनों भाभियां उन की इस हरकत से चौंकीं और गौर से उन का चेहरा ताकने लगीं.

मां ने दुखी लहजे में कहा, ‘‘तुम दोनों मेरी बात ध्यान से सुनो. सचाई यही है कि शिखा का सैट मैं ने ही अपनी अलमारी से पहले गायब किया और फिर अंजलि के हाथों उसे शिखा की अलमारी से बरामद कराया.’’

दोनों भाभियों ने चौंक कर मेरी तरफ देखा. मैं ने हलकी सी मुसकराहट अपने होंठों पर ला कर कहा, ‘‘मां, सच कह रही हैं. मैं सैट चुन्नी में छिपा कर शिखा भाभी के कमरे में ले गई थी और फिर हाथ में पकड़ कर वापस ले आई. ऐसा मैं ने मां के कहने पर किया था.’’

‘‘मम्मी, आप ने यह गोरखधंधा क्यों किया? अपनी दोनों बहुओं के बीच मनमुटाव कराने के पीछे आप का क्या मकसद रहा?’’ नीरजा भाभी ने यह सवाल शिखा भाभी की तरफ से भी पूछा.

मां एकाएक बड़ी गंभीर व भावुक हो कर बोलीं, ‘‘मैं ने जो किया उस की गहराई में एक सीख तुम दोनों के लिए छिपी है. उसे तुम दोनों जिंदगी भर के लिए गांठ बांध लो.

‘‘देखो, मेरी जिंदगी का अब कोई भरोसा नहीं. मेरे बाद तुम दोनों को ही यह घर चलाना है. राजीव और विकास सदा मिल कर एकसाथ रहें, इस के लिए यह जरूरी है कि तुम दोनों के दिलों में एकदूसरे के लिए प्यार व सम्मान हो.

‘‘सैट से जुड़ी समस्या पैदा करने की जिम्मेदार मैं हूं, पर तुम दोनों में से किसी ने मुझ पर शक क्यों नहीं किया?

‘‘इस का जवाब तुम दोनों ने यही दिया कि मैं तुम्हारे लिए आदरणीय हूं…मेरी छवि ऐसी अच्छी है कि मुझे चोर मानने का खयाल तक तुम दोनों के दिलों में नहीं आया.

‘‘तुम दोनों को आजीवन एकदूसरे का साथ निभाना है. अभी तुम दोनों के दिलों में एकदूसरे पर विश्वास करने की नींव कमजोर है तभी बिना सुबूत तुम दोनों ने एकदूसरे को चोर, चालाक व मक्कार मान लिया.

‘‘आज मैं अपनी दिली इच्छा तुम दोनों को बताती हूं. एकदूसरे पर उतना ही मजबूत विश्वास रखो जितना तुम दोनों मुझ पर रखती हो. कैसी भी परिस्थितियां, घटनाएं या लोगों की बातें कभी इस विश्वास को न डगमगा पाएं ऐसा वचन तुम दोनों से पा कर ही मैं चैन से मर सकूंगी.’’

‘‘मम्मी, ऐसी बात मुंह से मत निकालिए,’’ मां की आंखों से बहते आंसुओं को पोंछने के बाद नीरजा भाभी उन की छाती से लग गईं.

‘‘आप की इस सीख को मैं हमेशा याद रखूंगी…हमें माफ कर दीजिए,’’ शिखा भाभी भी आंसू बहाती मां की बांहों में समा गईं.

‘‘मैं आज बेहद खुश हूं कि मेरी दोनों बहुएं बेहद समझदार हैं,’’ मां का चेहरा खुशी से दमक उठा और मैं भी भावुक हो उन की छाती से लग गई.

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