प्यार में कंजूसी- भाग 1: क्या थी शुभा की कहानी

कुछ दिन से मन में बड़ी उथल- पुथल है. मन में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है जिसे मैं कोई नाम नहीं दे पा रहा हूं. उदासी और खुशी के बीच की अवस्था को क्या कहा जाता है समझ नहीं पा रहा हूं. शायद, स्तब्ध सा हूं, कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूं. चाहूं तो खुश हो सकता हूं क्योंकि उदास होने की भी कोई खास वजह मेरे पास नहीं है.

‘‘क्या बात है पापा, आप चुपचाप से हैं?’’

‘‘नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं…बस, यही सोच रहा हूं कि पानीपत जाऊं या नहीं.’’

‘‘सवाल ही पैदा नहीं होता. चाचीचाचा ने एक बार भी ढंग से नहीं बुलाया. हम क्या बेकार बैठे हैं जो सारे काम छोड़ कर वहां जा बैठें…इज्जत करना तो उन्हें आता ही नहीं है और बेइज्जती कराने का हमें कोई शौक नहीं है.’’

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

यक्ष प्रश्न- भाग 4: निमी को क्यों बचाना चाहती थी अनुभा

वरुण अपने दोस्तों की तरह कठोर नहीं था. उस के अंदर सहज मानवीय भाव थे. वह काफी संवेदनशील था और निमी के प्रति दयाभाव भी रखता था, परंतु उस के लिए वह अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकता था. अत. कुछ सोच कर बोला, ‘‘तुम प्राइवेट नौकरी कर सकती हो?’’

‘‘हां, मेरे पास और चारा भी क्या है?’’

‘‘तो फिर ठीक है, तुम इसी फ्लैट में रहो. इस का किराया मैं दे दिया करूंगा. मैं अपने पिता से बात कर के तुम्हें किसी कंपनी में काम दिलवा दूंगा, जिस से तुम्हारा गुजारा चल सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी.’’

वरुण ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘या तुम अपने घर चली जाओ.’’

निमी ने आश्चर्य से उसे देखा. फिर बोली, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? क्या बताऊंगी उन्हें कि मैं ने इतने दिन क्या किया है? नहीं वरुण, मैं उन के पास जा कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहती.’’

वरुण के पिता सरकारी विभाग में अच्छे पद थे. उस ने पिता से कह कर निमी को एक प्राइवेट कंपनी में लगवा दिया. क्व20 हजार महीने पर. निमी का जो लाइफस्टाइल था, उस के हिसाब से उस की यह सैलरी ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर थी, परंतु मुसीबत की घड़ी में मनुष्य को तिनके का सहारा भी बहुत होता है.

निमी ने उन्मुक्त यौन संबंधों से तो छुटकारा पा लिया, परंतु वह शराब और सिगरेट से छुटकारा नहीं पा सकी. एकांत उसे परेशान करता, पुरानी यादें उसे कचोटतीं, मांबाप की याद आती, तो वह पीने बैठ जाती.

वरुण जब भी उस से मिलने आता, वह उस की बांहों में गिर कर रोने लगती. वह समझाता, ‘‘मत पीया करो इतना, बीमार हो जाओगी.’’

‘‘वरुण, एकाकी जीवन मुझे बहुत डराता है,’’ वह उस से चिपक जाती.

‘‘मातापिता के पास वापस चली जाओ. वे तुम्हें माफ कर देंगे,’’

वह कई बार निमी से यह बात कह चुका था, पर हर बार निमी का यही जवाब होता, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? वे मुझे क्या बनाना चाहते थे और मैं क्या बन बैठी… माफ तो कर देंगे, परंतु समाज को क्या जवाब देंगे.’’

‘‘वही, जो अभी दे रहे होंगे.’’

‘‘अभी वे मुझे मरा समझ कर माफ कर देंगे, परंतु उन के पास रह कर मैं उन्हें बहुत दुख दूंगी.’’

‘‘एक बार जा कर तो देखो.’’

‘‘नहीं वरुण, तुम मेरे मांबाप को नहीं जानते. वे मुझे माफ नहीं करेंगे. अगर उन्हें माफ करना होता, तो अब तक मुझे ढूंढ़ लिया होता. यह बहुत मुश्किल नहीं था. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं की होगी,’’ वरुण के समझाने का उस पर कोई प्रभाव न पड़ता.

यथास्थिति बनी रही. बस वरुण सिविल सर्विसेज की तैयारी में निरंतर जुटा रहा. इस का परिणाम यह रहा कि वह यूपीएससी परीक्षा पास कर गया.

जब वरुण ट्रेनिंग के लिए जाने लगा तो निमी ने कहा, ‘‘अब तुम पूरी तरह से मुझ से दूर चले जाओगे.’’

‘‘वह तो जाना ही था,’’ वरुण ने उसे समझाते हुए कहा. निमी के मन में बहुत कुछ टूट गया. वह जानती थी, वरुण उस का नहीं हो सकता है,

फिर भी उस के दिल में कसक सी उठी. वह खोईखोई आंखों से वरुण को देख रही थी. वरुण ने उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘देखो, निमी, मेरा कहना मानो, अब भटकने से कोई फायदा नहीं. तुम ने अपने जीवन को जितना गिराना था, गिरा लिया. अब सावधानी से उठने की कोशिश करो. तुम्हारी तनख्वाह बढ़ गई है. कुछ बचा कर पैसे जोड़ लो और किसी लड़के से शादी कर के घर बसा लो. मेरी तरफ से जो हो सकेगा मैं मदद करूंगा.’’

निमी ने जवाब नहीं दिया. अगले कुछ दिनों में वरुण मसूरी चला गया. निमी पूरी तरह टूट गई. उस ने अपनी सोच पर ताले लगा लिए. जैसे वह सुधरना ही नहीं चाहती थी.

1 साल की ट्रेनिंग के दौरान वरुण उस से मिलने केवल एक बार आया और रातभर उस के साथ रुका. तब भी उस ने निमी को घर बसाने की सलाह दी. परंतु वह चुप ही रही.

कई साल बीत गए. वरुण की पोस्टिंग हो गई थी. वह एक जिले का कलैक्टर बन गया था. उसे छुट्टी नहीं मिलती थी या दिल्ली आ कर भी वह उस से मिलना नहीं चाहता था, परंतु हर माह वह एक अच्छी राशि निमी के खाते में जमा करा देता था.

निमी ने तय कर लिया था कि वह शादी नहीं करेगी. वरुण उस का नहीं है, फिर भी उस का इंतजार करती थी. इंतजार जितना लंबा हो रहा था, उस के शराब पीने की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जा रही थी. फिर पता चला कि वरुण की शादी किसी चीफ सैक्रेटरी की आईएएस बेटी से हो गई है. निमी के अंदर जो थोड़ी सी आस बची थी, वह पूर्णरूप से टूट गई. उस की शराब की मात्रा इतनी ज्यादा हो गई कि अब वह दफ्तर भी नहीं जा पाती थी.

वरुण से उस का कोई सीधा संपर्क नहीं था. कभीकभी वरुण के पिता का नौकर उस के हालचाल पूछ जाता था. वही वरुण के बारे में बताता था और उस के बारे में वही वरुण को खबर करता होगा.

अत्यधिक शराब के सेवन से उस की तबीयत खराब रहने लगी. वरुण के पिता का नौकर लगभग रोज उस के पास आने लगा था. एक दिन उसी के सामने निमी को खून की उलटी हुई. उसे आननफानन में अस्पताल में भरती करवाया गया.

मैडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो गया था कि अत्यधिक शराब के सेवन से उस के सारे अंदरूनी अंग खराब हो गए हैं. वरुण ने अपने नौकर के माध्यम से उसे सेमी प्राइवेट वार्ड में भरती करवा दिया था. इलाज का सारा खर्च वह भेज रहा था, परंतु कभी मिलने नहीं आया.

उस के इलाज में कोई कमी नहीं थी, परंतु उस का दुख उसे खाए जा रहा था जैसे वह किसी बीमारी से नहीं, अपने दुख से ही मरेगी, परंतु इसी बीच संयोग से अस्पताल में अनुभा प्रकट हुई और उस के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया. अब वह ठीक हो कर घर आ गई थी. घर तो आ गई थी, परंतु किस के  घर? उस का अपना घर, संसार कहां था?

यक्ष प्रश्न अभी भी उस के सामने खड़ा था. अब आगे क्या? 35 वर्ष की अवस्था में अब वह कोई युवती नहीं थी. बीमारी ने उस की सुंदरता को काफी हद तक क्षीण कर दिया था. नौकरी हाथ से जा चुकी थी, वरुण से भी व्यक्तिगत संपर्क टूट चुका था.

हिमांशु केंद्र सरकार में उच्च अधिकारी थे. उन्होंने अपने प्रयासों से निमी को एक संस्था से जोड़ दिया. यह संस्था अनाथ बच्चों की देखभाल और उन्हें शिक्षा प्रदान करती थी. कुछ दिन तक निमी अनुभा के घर पर रही. फिर उस की संस्था ने उसे एक घर लीज पर दिलवा दिया. साफसफाई के बाद जिस दिन निमी ने अपने घर में प्रवेश किया, तब अनुभा और उस के पति के कुछ दोस्त मौजूद थे. छोटी सी पार्टी रखी गई थी.

शाम को पार्टी के बाद जब अनुभा निमी को छोड़ कर जाने लगी, तो निमी ने कहा, ‘‘मैं फिर अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं हो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. पहले जो लोग तुम से जुड़े थे, वे स्वार्थवश जुड़े थे. इसीलिए तुम पतन की राह पर चल पड़ी थी. अब तुम्हारे सामने एक लक्ष्य है, बच्चों का भविष्य सुधारने का. इस लक्ष्य को ध्यान में रखोगी और अपनी पिछली जिंदगी के बारे में विचार करोगी, तो तुम एकाकी जीवन जीते हुए भी कभी गलत रास्ते पर नहीं चलोगी.’’

निमी ने शरमा कर सिर झुका लिया. अनुभा ने उस का चेहरा ऊपर उठाया. उस की आंखों में आंसू थे. कई वर्षों बाद उस की आंखों में खुशी के आंसू आए थे.

क्षमादान: वर्षों बाद जब मिली मोहिनी और शर्वरी

‘‘हाय शर्वरी, पहचाना मुझे?’’ शर्वरी को दूर से देख कर अमोल उस की ओर खिंचा चला आया.

‘‘अमोल, तुम्हें नहीं पहचानूंगी तो और किसे पहचानूंगी?’’

शर्वरी के स्वर के व्यंग्य को अमोल ने भांप लिया. फिर भी बोला, ‘‘इतने वर्षों बाद तुम से मिल कर बड़ी खुशी हुई. कहो, कैसी कट रही है? तुम ने तो कभी किसी को अपने बारे में बताया ही नहीं. कहां रहीं इतने दिन?’’

‘‘ऐसे कुछ बताने लायक था ही नहीं. वैसे भी 7-8 वर्ष आस्ट्रेलिया में रहने के बाद पिछले वर्ष ही लौटे हम लोग.’’

‘‘अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न. हमारे बैच के सभी छात्र नैट पर अपने बारे में एकदूसरे को सूचित करते रहे. पर तुम न जाने कहां खोई रहीं कि हमारी याद तक नहीं आई,’’ अमोल मुसकराया.

‘‘अमोल कालेज जीवन की याद न आए, ऐसा भला हो सकता है क्या? वह समय तो जीवन का सब से सुखद अनुभव होता है… बताऊंगी अपने बारे में भी बताऊंगी. पर तुम भी तो कुछ कहो…इतने समय की क्या उपलब्धियां रहीं? क्या खोया, क्या पाया?’’

‘‘2 विवाह, 1 तलाक और 1 ठीकठाक सी नौकरी. इस से अधिक बताने को कुछ नहीं है मेरे पास,’’ अमोल उदास स्वर में बोला.

‘‘लगता है जीवन ने तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया. ऐसी निराशापूर्ण बातें तो वही करता है जिस की अपेक्षाएं पूरी न हुई हों.’’

‘‘हां भी और नहीं भी. पर जो मेरे जीवन में घटा है कहीं न कहीं उस के लिए मैं भी दोषी हूं. है न?’’

अमोल शर्वरी से अपने प्रश्न का उत्तर चाहता था, पर शर्वरी उत्तर देने के मूड में नहीं थी. वह उसे टालने के लिए अपने दूसरे मित्रों की ओर मुड़ गई. पुराने विद्यार्थियों के पुनर्मिलन का आयोजन पूरे 10 वर्षों बाद किया गया था. एकत्रित जनसमूह में शर्वरी को कई परिचित चेहरे मिल गए थे. आयोजकों ने पहले अपने अतिथियों के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया था. उस के बाद डिनर का प्रबंध था. आयोजकों ने मेहमानों से अपनीअपनी जगह बैठने का आग्रह किया तो शर्वरी साथियों के साथ अपने लिए नियत स्थान पर जा बैठी. तभी उस बड़े से हौल के मुख्यद्वार पर मोहिनी दाखिल हुई. लगभग 10 वर्षों के बाद मोहिनी को देख कर शर्वरी को लगा मानो कल की ही बात हो. आयु के साथ चेहरा भर गया था पर मोहिनी तनिक भी नहीं बदली थी. सितारों से जड़ी जरी के काम वाली सुनहरे रंग की नाभिदर्शना साड़ी में सजीसंवरी मोहिनी किसी फिल्मी तारिका की भांति चकाचौंध पैदा कर रही थी. शर्वरी चाह कर भी अपनी कुरसी से हिल नहीं पाई. कभी मोहिनी से शर्वरी की इतनी गाढ़ी छनती थी कि दोनों दो तन एक जान कहलाती थीं पर अब केवल वर्षों की दूरी ने ही नहीं मन की दूरी ने भी शर्वरी को जड़वत कर दिया था.

मोहिनी अपने अन्य मित्रों से मिलजुल रही थी. पुरानी यादें ताजा करते हुए वह किसी से हाथ मिला रही थी, किसी को गले लगा रही थी तो किसी को पप्पी दे कर कृतार्थ कर रही थी, शर्वरी का कुतूहल पल दर पल बढ़ता जा रहा था. मोहिनी के स्लीवलेस, बैकलेस ब्लाउज और भड़कीले शृंगार को ध्यान से देखा और फिर गहरी सोच में डूब गई. शून्य में बनतेबिगड़ते आकारों में डूबतीउतराती शर्वरी 12 वर्ष पूर्व के अपने कालेज जीवन में जा पहुंची… शर्वरी, मोहिनी और अमोल भौतिकी के स्नातकोत्तर छात्र थे. शर्वरी व मोहिनी ने एकसाथ बी.एससी. में प्रवेश लिया था और शीघ्र ही एकदूसरे की हमराज बन गई थीं. वहीं अमोल को वह स्कूल के दिनों से जानती थी. दोनों के पिता एक ही कार्यालय में कार्यरत थे. अत: परिवारों में अच्छी घनिष्ठता थी. कब यह मित्रता, प्रेम में बदल गई, शर्वरी को पता ही न चला था.

कालेज में अमोल अकसर शर्वरी से मिलने आता, पर महिला कालेज होने के कारण अमोल को कालेज के प्रांगण में जाने की अनुमति नहीं मिलती थी. अत: वह कालेज के गेट के पास खड़ा हो कर शर्वरी की प्रतीक्षा करता. शर्वरी और मोहिनी एकसाथ ही कालेज से बाहर आती थीं. औपचारिकतावश अमोल मोहिनी से भी हंस बोल लेता तो शर्वरी आगबबूला हो उठती.

‘‘बड़े हंस कर बतिया रहे थे मोहिनी से?’’ शर्वरी मोहिनी के जाते ही प्रश्नों की झड़ी लगा देती.

‘‘कहीं जलने की गंध आ रही है. क्यों ऐसी बातें करती हो शर्वरी? अपने अमोल पर विश्वास नहीं है क्या?’’ अमोल उलटा पूछ बैठता.

समय मानो पंख लगा कर उड़ रहा था. शर्वरी और मोहिनी महिला कालेज से निकल कर विश्वविद्यालय आ पहुंची थीं. यह जान कर शर्वरी के हर्ष की सीमा नहीं रही कि अमोल भी उन के साथ ही एम.एससी. की पढ़ाई करेगा. पर यह प्रसन्नता चार दिन की चांदनी ही साबित हुई. मिलनेजुलने की खुली छूट मिलते ही मोहिनी और अमोल करीब आने लगे थे. शर्वरी सब देखसमझ कर भी चुप रह जाती. शुरू में उस ने अमोल को रोकने का प्रयास किया, रोई, झगड़ा किया. अमोल ने भी उसे बहलाफुसला कर यह जताने का यत्न किया कि सब कुछ ठीकठाक है. पर शर्वरी ने शीघ्र ही नियति से समझौता कर लिया. मोहिनी और अमोल के चर्चे सारे विभाग में फैलने लगे थे. पर शर्वरी ने स्वयं को सब ओर से सिकोड़ कर अपनी पढ़ाई की ओर मोड़ लिया था. इस का लाभ भी उसे मिला अब वह अपनी कक्षा में सब से आगे थी. इस सफलता का अपना ही नशा था. पर मोहिनी उस की सब से घनिष्ठ सहेली थी. उस का विश्वासघात उसे छलनी कर गया. अमोल जिसे उस ने कभी अपना सर्वस्व माना था उस की ही सहेली पर डोरे डालेगा, यह विचारमात्र ही कुंठित कर देता था.

घर पर सभी उस की और अमोल की घनिष्ठता से परिचित थे. अमोल संपन्न और सुसंस्कृत परिवार का एकमात्र दीपक था. अत: उन्होंने शर्वरी के मिलनेजुलने, घूमनेफिरने पर कहीं कोई रोकटोक नहीं लगाई थी. शर्वरी और अमोल के बीच आती दूरी भी उन से छिपी नहीं थी. शर्वरी की मां नीला देवी ने बिना कहे ही सब कुछ भांप लिया था. अमोल के उच्छृंखल व्यवहार ने उन्हें भी आहत किया था. पर वे शर्वरी को सहारा देने के लिए मजबूत चट्टान बन गई थीं.

‘‘चिंता क्यों करती है बेटी. अच्छा ही हुआ कि अमोल का असली रंग जल्दी सामने आ गया. वह मनचला तुम्हारे योग्य था ही नहीं. वह भला संबंधों की गरिमा को क्या समझेगा.’’ अब तक स्वयं पर पूर्ण संयम रखा था  शर्वरी ने. पर मां की बातें सुन कर वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. नीला देवी ने भी उसे रोने दिया था. अच्छा ही है कि मन का गुबार आंखों की राह बह जाए तभी चैन मिलगा.

‘‘मां, आप मुझ से एक वादा कीजिए,’’ शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर शर्वरी नीला देवी से बोली.

‘‘हां, कहो बेटी.’’

‘‘आज के बाद इस घर में कोई अमोल का नाम नहीं लेगा. मैं ने उसे अपने जीवन से पूरी तरह निकाल फेंका. किसी सड़ेगले अंग की तरह.’’ नीला देवी ने उत्तर में शर्वरी का हाथ थपथपा कर आश्वासन दिया था. उन के वार्त्तालाप ने शर्वरी को पूर्णतया आश्वस्त कर दिया था. उस दिन शर्वरी पुस्तकालय में बैठी अध्ययन में जुटी थी कि अचानक मोहिनी आ धमकी. शर्वरी को देखते ही चहकी, ‘‘हाय, शर्वरी, तुम यहां छिपी बैठी हो? मैं तो तुम्हें पूरे भौतिकी विभाग में ढूंढ़ आई.’’

‘‘अच्छा? पर यों अचानक क्यों?’’

‘‘क्या कह रही हो? मैं तो तुम्हारे लिए खुशखबरी लाई हूं,’’ मोहिनी इतने ऊंचे स्वर में बोली कि वहां उपस्थित सभी विद्यार्थी उस से चुप रहने का इशारा करने लगे.

‘‘चलो, बाहर चलते हैं. वहीं तुम्हारी खुशखबरी सुनेंगे,’’ शर्वरी मोहिनी को हाथ से पकड़ कर बाहर खींच ले गई. वह जानती थी कि मोहिनी स्वर नीचा नहीं रख पाएगी.

‘‘ये लोग समझते क्या हैं अपनेआप को? पुस्तकालय में क्या कर्फ्यू लगा है कि हम किसी से आवश्यक बात भी नहीं कर सकते?’’ मोहिनी क्रोध में पैर पटकते हुए बोली.

‘‘हर पुस्तकालय में यह प्रतिबंध लागू होता है. अब छोड़ो यह बहस और बताओ क्या खुशखबरी ले कर आई होे?’’

‘‘हां, मैं तुम्हें यह बताने आई थी कि मैं तुम्हारे अमोल को सदा के लिए छोड़ आई हूं, केवल तुम्हारे लिए.’’

‘‘क्या कहा? मेरे अमोल को? अमोल मेरा कब से हो गया? शर्वरी खिलखिला कर हंसी.

‘‘लो अब क्या यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि तुम और अमोल कभी गहरे मित्र थे?’’

‘‘मुझे कुछ भी याद दिलाने की जरूरत नहीं है. और तुम अमोल से मित्रता करो या शत्रुता मुझे कुछ लेनादेना नहीं है.’’ शर्वरी का रूखा स्वर सुन कर एक क्षण को तो चौंक ही उठी थी मोहिनी, फिर बोली, ‘‘घनिष्ठ सहेली हूं तुम्हारी, तुम्हारी चिंता मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा? वैसे भी मैं विवाह कर रही हूं. अमोल को मैं ने तुम्हारे लिए छोड़ दिया है.’’

‘‘अच्छा तो विवाह कर रही हो तुम? तो जा कर अमोल को बताओ. यहां क्या लेने आई हो?’’

‘‘बताया था, पर वह तो बच्चों की तरह रोने लगा, कहने लगा मेरे बिना वह जीवित नहीं रह सकेगा. वह मूर्ख सोचता था मैं उस से विवाह करूंगी. तुम जानती हो, मैं किस से विवाह कर रही हूं?’’

‘‘बताओगी नहीं तो कैसे जानूंगी?’’

‘‘बहुत बड़ा करोड़पति व्यापारी है दीपेन. तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही मुझ से?’’ और फिर अचानक मोहिनी ने स्वर नीचा कर लिया. शर्वरी का मन हुआ कि इस बचकाने प्रश्न पर खिलखिला कर हंसे पर मोहिनी का गंभीर चेहरा देख कर चुप रही.

‘‘मेरी बात मान शर्वरी अमोल को हाथ से मत जाने दे. वैसे भी दिल टूट गया है बेचारे का. तुम प्रेम का मरहम लगाओगी तो शीघ्र संभल जाएगा.’’

‘‘तुम्हें मेरी कितनी चिंता है मोहिनी…पर आशा है तुम मुझे क्षमा कर दोगी. मेरा तो मित्रता, प्रेम जैसे शब्दों से विश्वास ही उठ गया है. मेरे मातापिता ने मेरा विवाह तय कर दिया है. फाइनल परीक्षा होते ही मेरा विवाह हो जाएगा.’’

‘‘क्या? तुम भी विवाह कर रही हो और वह भी मातापिता द्वारा चुने वर से? होश में आओ शर्वरी बिना रोमांस के विवाह का कोई अर्थ नहीं. अमोल अब भी तुम्हें जीजान से चाहता है.’’ शर्वरी चुपचाप उठ कर चली गई. अगले दिन प्रयोगशाला में फिर मोहिनी ने शर्वरी को घेर लिया. बोली, ‘‘चलो कैंटीन में बैठते हैं.

‘‘मैं जरा जल्दी में हूं मोहिनी…घर पर बहुत काम है.’’

‘‘ऐसा भी क्या काम है कि तुम्हें अपनी सहेली से कुछ देर बात करने का भी समय नहीं है?’’ मोहिनी भीगे स्वर में बोली तो शर्वरी मना नहीं कह सकी.

‘‘अब बता किस से हो रहा है तेरा विवाह?’’ चायसमोसे का और्डर देने के बाद मोहिनी ने पुन: प्रश्न किया.

‘‘कोई करोड़पति नहीं है. हमारे जैसे मध्यवर्गीय परिवार का पढ़ालिखा युवक है वह. अच्छी नौकरी है. मैं ने मातापिता के निर्णय को मानने में ही भलाई समझी. मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि इंसान किस पर विश्वास करे किस पर नहीं? प्रेम के नाम पर कैसेकैसे धोखे दिए जाते हैं भोलीभाली लड़कियों को,’’ शर्वरी गंभीर स्वर में बोली.

‘‘धोखा तो मातापिता द्वारा तय किए विवाह में भी होता है…प्रेम विवाह में कम से कम यह तो संतोष रहता है कि अपनी गलती की सजा भुगत रहे हैं.’’

‘‘ऐसा कोई नियमकायदा नहीं है और कैसे भी विवाह में सफलता की गारंटी कोई नहीं दे सकता,’’ शर्वरी ने बात समाप्त करने की गरज से कहा. अब तक चाय और समोसे आ गए थे. और बात का रुख भी पढ़ाईलिखाई की ओर मुड़ गया था. परीक्षा, प्रयोगशाला, विवाह की तैयारी के बीच समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला. इस बीच अमोल कई बार सामने पड़ा. आंखें मिलीं पर अब दोनों के बीच औपचारिकता के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा था. अपने परिवार के साथ अमोल विवाह में आया अवश्य, पर बधाई दे कर तुरंत चला गया. उधर मोहिनी के करोड़पति परिवार में विवाह के किस्से अकसर सुनने को मिल जाते थे. शर्वरी के पति गौतम की कंपनी ने उन्हें आस्ट्रेलिया भेजा तो सारे संपर्क सूत्र टूट से गए. परिवार, बच्चों और अपनी नौकरी के बीच 8 वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.

इतने वर्षों बाद अपने शहर लौट कर शर्वरी को ऐसा लगा मानो मां की गोद में आ गई हो. ऐसे समय जब अपने विश्वविद्यालय से पुराने छात्रों के पुनर्मिलन सम्मेलन का निमंत्रण मिला तो शर्वरी ठगी सी रह गई. इतने वर्षों बाद किस ने उस का पताठिकाना ढूंढ़ लिया, वह समझ नहीं पाई. आज इस सम्मेलन में अनेक पूर्व परिचितों से भी भेंट हुई. पर अमोल और मोहिनी से भेंट होगी, इस की आशा शर्वरी को कम ही थी. सामने ग्लैमरस मोहिनी को मित्रों और परिचितों से मिलते देख कर भी शर्वरी अपने ही स्थान पर जमी रही. तभी मोहिनी की नजर शर्वरी पर पड़ी तो बोली, ‘‘हाय शर्वरी, तुम यहां? मुझे तो जरा भी आशा नहीं थी कि तुम यहां आओगी… यहां बैठी क्या कर रही हो चलो मेरे साथ. ढेर सी बातें करनी हैं,’’ और मोहिनी उसे खींच ले गई.

‘‘सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने वाला है मोहिनी,’’ शर्वरी ने कहा.

‘‘देखेंगे कार्यक्रम भी देखेंगे. पर पहले ढेर सारी बातें करेंगे. न जाने कितनी अनकही बातें करने को मन छटपटा रहा है.’’

‘‘ठीक है चलो,’’ शर्वरी ने हथियार डाल दिए.

कैंटीन में चाय और सैंडविच मंगाए मोहिनी ने और फिर शर्वरी का हाथ अपने हाथों में ले कर सिसकने लगी.

‘‘क्या हुआ मोहिनी?’’ शर्वरी सकते में आ गई.

‘‘शर्वरी कह दो कि तुम ने मुझे क्षमा कर दिया. मैं सच कहती हूं कि मैं ने कभी जानबूझ कर तुम्हें कष्ट नहीं पहुंचाया…जो हुआ अनजाने में हुआ.’’

‘‘क्या कह रही हो मोहिनी? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?’’

‘‘तुम ने मुझे और अमोल को क्षमा नहीं किया तो हमें कभी चैन मिलेगा, मोहिनी अब भी सुबक रही थी.’’

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो मोहिनी. मैं ने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं.’’

‘‘पर अमोल सदा यही कहता है कि उसे तुम्हारे साथ किए व्यवहार का फल मिल रहा है और अब तो मुझे भी ऐसा ही लगता है.’’

‘‘क्या हुआ तुम्हारे साथ?’

‘‘याद है वह करोड़पति जिस से मैं ने विवाह किया था, वह पहले से विवाहित था. बड़ी कठिनाई से उस के चंगुल से छूटी मैं… उस ने मुझे तरहतरह से प्रताडि़त किया.’’

‘‘उफ, और अमोल?’’

‘‘अमोल को सदा अपनी पत्नी पर शक होता कि वह किसी और के चक्कर में है जबकि ऐसा कुछ नहीं था. थकहार कर वह अमोल से अलग हो गई. अब मैं और अमोल पतिपत्नी हैं. यों घर में सब कुछ है पर शक का कीड़ा अमोल के दिमाग से जाता ही नहीं. उसे अब मुझ पर शक होने लगा है. अमोल को लगता है कि यह सब तुम्हारे से बेवफाई करने का फल है. हमें क्षमा कर दो शर्वरी,’’ और मोहिनी फूटफूट कर रो पड़ी.

तभी शर्वरी किसी की आहट पा कर पलटी. पीछे अमोल खड़ा था.

‘‘कैसा सुखद आश्चर्य है अमोल, मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम दोनों पतिपत्नी हो,’’ शर्वरी आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘बात को टालो मत शर्वरी, हमें क्षमा कर दो. हम तुम्हारे अपराधी हैं. पर तुम्हें नहीं लगता कि हम काफी सजा भुगत चुके हैं?’’ अमोल ने अनुनय की.

‘‘समझ में नहीं आ रहा तुम क्या कह रहे हो? मैं तो उस बुरे स्वप्न को कब का भूल चुकी हूं. फिर भी मेरे कहने से कोई फर्क पड़ता है तो चलो मैं ने तुम्हें क्षमा किया,’’ शर्वरी बोली. उस के बाद शर्वरी वहां रुक नहीं सकी, न कार्यक्रम के लिए और न ही डिनर के लिए. लौटते हुए केवल एक ही बात उसे उद्वेलित कर रही थी कि क्या यह अमोल और मोहिनी का अपराधबोध था, जिस ने उन के जीवन में जहर घोल दिया था या फिर कुछ और?

यक्ष प्रश्न- भाग 3: निमी को क्यों बचाना चाहती थी अनुभा

लड़के उस के सामीप्य के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देते. दिन, महीनों में नहीं बदले, उस के पहले ही निमी कई लड़कों के गले का हार बन गई. उस के बदन के फूल लड़कों के बिस्तर पर महकने लगे.

बहुत जल्दी उस के मम्मीपापा को उस की हरकतों के बारे में पता चल गया. मम्मी ने समझाया, ‘‘बेटा, यह क्या है? इस तरह का जीवन तुम्हें कहां ले जा कर छोड़ेगा, कुछ सोचा है? हम ने तुम्हें कुछ ज्यादा ही छूट दे दी थी. इतनी छूट तो विदेशों में भी मांबाप अपने बच्चों को नहीं देते. चलो, अब तुम पीजी में नहीं रहोगी… जो कुछ करना है हमारी निगाहों के सामने घर पर रह कर करोगी.’’

‘‘मम्मी, मेरी कोचिंग तो पूरी हो जाने दो,’’  निमी ने प्रतिरोध किया.

‘‘जो तुम्हारे आचरण हैं, उन से क्या तुम्हें लगता है कि तुम कोचिंग की पढ़ाई कर पाओगी… कोचिंग पूरी भी कर ली, तो कंपीटिशन की तैयारी कर पाओगी? पढ़ाई करने के लिए किताबें ले कर बैठना पड़ता है, लड़कों के हाथ में हाथ डाल कर पढ़ाई नहीं होती,’’ मां ने कड़ाई से कहा.

‘‘मम्मी, प्लीज. आप पापा को एक बार समझाओ न,’’ निमी ने फिर प्रतिरोध किया.

‘‘नहीं, निमी. तुम्हारे पापा बहुत दुखी और आहत हैं. मैं उन से कुछ नहीं कह सकती. तुम अपने मन की करोगी, तो हम तुम्हें रुपयापैसा देना बंद कर देंगे. फिर तुम्हें जो अच्छा लगे करना.’’

निमी अपने घर आ तो गई, परंतु अंदर से बहुत अशांत थी. घर पर ढेर सारे प्रतिबंध थे. अब हर क्षण मां की उस पर नजर रहती.

शराब, सिगरेट और लड़कों से वह भले ही दूर हो गई थी, परंतु मोबाइल फोन के माध्यम से उस के दोस्तों से उस का संपर्क बना हुआ था.

जब फोन करना संभव न होता, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप के माध्यम से संपर्क हो जाता. लड़के इतनी आसानी से सुंदर मछली को फिसल कर पानी में जाने देना नहीं चाहते.

लड़कों ने उसे तरहतरह से समझाया. वे सभी उस का खर्चा उठाने के लिए तैयार थे. रहनेखाने से ले कर कपड़ेलत्ते और शौक तक… सब कुछ… बस वह वापस आ जाए. प्रलोभन इतने सुंदर थे कि वह लोभ संवरण न कर सकी. मांबाप के प्यार, संरक्षण और सलाहों के बंधन टूटने लगे.

निमी ने बुद्धि के सारे द्वार बंद कर दिए. विवेक को तिलांजलि दे दी और एक दिन घर से कुछ रुपएपैसे और कपड़े ले कर फरार हो गई. दोस्तों ने उस के खाने व रहने के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर रखा था. काफी दिनों तक वह बाहरी दुनिया से दूर अपने घर में बंद रही.

पता नहीं उस के मांबाप ने उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न किया था या नहीं. उस ने अपना फोन नंबर ही नहीं, फोन सैट भी बदल लिया था. मांबाप अगर पुलिस में रिपोर्ट लिखाते तो उस का पता चलना मुश्किल नहीं था. उस के पुराने फोन की काल डिटेल्स से उस के दोस्तों और फिर उस तक पुलिस पहुंच सकती थी, परंतु संभवतया उस के मांबाप ने पुलिस में उस के गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखाई थी.

निमी का जीवन एक दायरे में बंध कर रह गया था. खानापीना और ऐयाशी, जब तक वह नशे में रहती, उसे कुछ महसूस न होता, परंतु जबजब एकांत के साए घेरते उस के दिमाग में तमाम तरह के विचार उमड़ते, मांबाप की याद आती.

न तो समय एकजैसा रहता है, न कोई वस्तु अक्षुण्ण रहती है. निमी ने धीरेधीरे महसूस किया, उस के जो मित्र पहले रोज उस के पास आते थे, अब हफ्ते में 2-3 बार ही आते थे. पूछने पर बताते व्यस्तता बढ़ रही है. दूसरे काम आ गए हैं. मगर सत्य तो यह था उन के जीवन में एकरसता आ गई थी. अनापशनाप पैसा खर्च हो रहा था. मांबाप सवाल उठाने लगे थे. निमी की तरह बेवकूफ तो थे नहीं, उन्हें अपना कैरियर बनाना था. कुछ की कोचिंग समाप्त हो गई, तो वे अपने घर चल गए. जो दिल्ली के थे, वे कभीकभार आते थे, परंतु अब उन के लिए भी निमी का खर्चा उठाना भारी पड़ने लगा था.

निमी वरुण को अपना सर्वश्रेष्ठ हितैषी समझती थी. एक दिन उसी से पूछा, ‘‘वरुण, एक बात बताओ, मैं ने तुम लोगों की दोस्ती के लिए अपना घरपरिवार और मांबाप छोड़ दिए, अब तुम लोग मुझे 1-1 कर छोड़ कर जाने लगे हो. मैं तो कहीं की न रही… मेरा क्या होगा?’’

वरुण कुछ पल सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘निमी, मेरी बात तुम्हें कड़वी लगेगी, परंतु सचाई यही है कि तुम ने हमारी दोस्ती नहीं अपने स्वार्थ और सुख के लिए घर छोड़ा था. यहां कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता, सब अपने लिए करते हैं. अपनी स्वार्थ सिद्धि के बाद सब अलग हो जाते हैं, जैसा अब तुम्हारे साथ हो रहा है.

यह कड़वी सचाई तुम्हें बहुत पहले समझ जानी चाहिए थी. हम सभी अभी बेरोजगार हैं, मांबाप के ऊपर निर्भर हैं, कैरियर बनाना है. ऐसे में रातदिन हम  भोगविलास में लिप्त रहेंगे, तो हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा.’’

अपनी स्थिति पर उसे रोना आ रहा था, परंतु वह रो नहीं सकती थी. आगे आने वाले दिनों के बारे में सोच कर उस का मन बैठा जा रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे?

‘‘मैं क्या करूं, वरुण?’’ वह लगभग रोंआसी हो गई थी, ‘‘नासमझी में मैं ने क्या कर डाला?’’

‘‘बहुत सारी लड़कियां जवानी में ऐसा कर गुजरती हैं और बाद में पछताती हैं.’’

‘‘तुम ने भी मुझे कभी नहीं समझाया, मैं तो तुम्हें सब से अच्छा दोस्त समझती थी.’’

वरुण हंसा, ‘‘कैसी बेवकूफी वाली बातें कर रही हो. तुम कभी एक लड़के के प्रति वफादार नहीं रही. तुम्हारी नशे की आदत और तुम्हारी सैक्स की भूख ने तुम्हारी अक्ल पर परदा डाल दिया था. तुम एक ही समय में कई लड़कों के साथ प्रेमव्यवहार करोगी, तो कौन तुम्हारे साथ निष्ठा से प्रेमसंबंध निभाएगा… सभी लड़के तुम्हारे तन के भूखे थे और तुम उन्हें बहुत आसान शिकार नजर आई. बिना किसी प्रतिरोध के तुम किसी के भी साथ सोने के लिए तैयार हो जाती थी. ऐसे में तुम किसी एक लड़के से सच्चे और अटूट प्रेम की कामना कैसे कर सकती हो?’’

वरुण की बातों में कड़वी सचाई थी. निमी ने कहा, ‘‘मैं ने जोश में आ कर

अपना सब कुछ गवां दिया. दोस्त भी 1-1 कर चले गए. तुम तो मेरा साथ दे सकते हो.’’

वरुण ने हैरान भरी निगाहों से उसे देखा, ‘‘तुम्हारा साथ कैसे दे सकता हूं? मैं तो स्वयं तुम से दूर जाने वाला था. 1 साल मेरा बरबाद हो गया. इस बार प्री ऐग्जाम भी क्वालिफाई नहीं कर पाया. तुम्हारे चक्कर में पढ़ाईलिखाई हो ही नहीं पाई. घर में मम्मीपापा सभी नाराज हैं. ऐयाशी और मौजमस्ती छोड़ कर मैं ईमानदारी से तैयारी करना चाहता हूं. मैं तुम से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता. वरना मेरा जीवन चौपट हो जाएगा.’’

निमी ने उस के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सीने पर रख लिया, ‘‘वरुण, मैं जानती हूं मैं ने गलती की है. मछली की तरह एक से दूसरे हाथ में फिसलती रही, परंतु सच मानो मैं ने तुम्हें सच्चे मन से प्यार किया है. जब कभी मन में अवसाद के बादल उमड़े मैं ने केवल तुम्हें याद किया. मुझे इस तरह छोड़ कर न जाओ.’’

‘‘निमी, तुम समझने का प्रयास करो, मैं ने अगर तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा, तो मेरा भविष्य मेरे रास्ते से गायब हो जाएगा. मुझे कुछ बन जाने दो.’’

‘‘मैं तुम से प्यार की भीख नहीं मांगती. प्यार और सैक्स को पूरी तरह से भोग लिया है मैं ने परंतु पेट की भूख के आगे मनुष्य सदा लाचार रहता है. मेरे पास जीविका का कोई साधन नहीं है. जहां इतना सब कुछ किया, मेरे प्यार के बदले इतना सा उपकार और कर दो. रहने के लिए 1 कमरा और पेट की रोटी के लिए दो पैसे का इंतजाम कर दो. मैं वेश्यावृत्ति नहीं अपनाना चाहती,’’ निमी की आवाज दुनियाभर की बेचारगी और दीनता से भर गयी थी.

मौत का कारण: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

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यक्ष प्रश्न- भाग 2: निमी को क्यों बचाना चाहती थी अनुभा

अनुभा के पास तर्क थे, परंतु निमी के ऊपर उन का कोई असर न होता. कालेज के बाद दोनों सहेलियां अलग हो गईं. अनुभा के पिता केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति से वापस लखनऊ चले गए. अनुभा ने वहां से सिविल सर्विसेज की तैयारी की और यूपीएससी की गु्रप बी सेवा में चुन ली गई. कई साल लखनऊ, इलाहाबाद और बनारस में पोस्टिंग के बाद अब उस का दिल्ली आना हुआ था. इस बीच उस की शादी भी हो गई. पति केंद्र सरकार में ग्रुप ए अफसर थे. दोनों ही दिल्ली में तैनात थे. उस की 10 वर्ष की 1 बेटी थी.

अनुभा को निमी के जीवन के पिछले 15 वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं था. उसे उत्सुकता थी, जल्दी से जल्दी उस के बारे में जानने की. आखिर उस के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उस ने अपने शरीर का सत्यानाश कर लिया… तमाम रोगों ने उस के शरीर को जकड़ लिया. वह शाम होने का इंतजार कर रही थी. प्रतीक्षा में समय भी लंबा लगने लगता है. वह बारबार घड़ी देखती, परंतु घड़ी की सूइयां जैसे आगे बढ़ ही नहीं रही थीं.

किसी तरह शाम के 5 बजे. अभी भी 1 घंटा बाकी था, परंतु वह अपने सीनियर को अस्पताल जाने की बात कह कर बाहर निकल आई. गाड़ी में बैठने से पहले उस ने अपने पति को फोन कर के बता दिया कि वह अस्पताल जा रही है. घर देर से लौटेगी.

अनुभा को देखते ही निमी के चेहरे पर खुशी फैल गई जैसे उस के अंदर असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार होने लगा हो.

अनुभा उस के लिए फल लाई थी. उन्हें सिरहाने के पास रखी मेज पर रख कर वह निमी के पलंग पर बैठ गई. फिर उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’’

निमी के होंठों पर खुशी की मुसकान थी, तो आंखों में एक आत्मीय चमक… चेहरा थोड़ा सा खिल गया था. बोली, ‘‘लगता है अब मैं बच जाऊंगी.’’

रात में अनुभा ने अपने पति हिमांशु को निमी के बारे में सबकुछ बता दिया. सुन कर उन्हें भी दुख हुआ. अगले दिन सुबह औफिस जाते हुए वे दोनों ही निमी से मिलने गए. हिमांशु ने डाक्टर से मिल कर निमी की बीमारियों की जानकारी ली. डाक्टर ने जो कुछ बताया, वह बहुत दर्दनाक था. निमी के फेफड़े ही नहीं, लिवर और किडनियां भी खराब थीं. वह शराब और सिगरेट के अति सेवन से हुआ था. अनुभा को पता नहीं था कि वह इन सब का सेवन करती थी. हिमांशु ने जब उसे बताया, तो वह हैरान रह गई. पता नहीं किस दुष्चक्र में फंस गई थी वह?

खैर, हिमांशु और अनुभा ने यह किया कि रात में निमी के पास अपनी नौकरानी को देखभाल के लिए रख दिया. हिमांशु नियमित रूप से उस के इलाज की जानकारी लेते. उन के कारण ही अब डाक्टर विशेषरूप से निमी का ध्यान रखने लगे थे. वह बेहतर से बेहतर इलाज उसे मुहैया करा रहे थे.

इस सब का परिणाम यह हुआ कि निमी 1 महीने के अंदर ही इतनी ठीक हो गई कि अपने घर जा सकती थी. हालांकि दवा नियमित लेनी थी.

जिस दिन उसे अस्पताल से डिस्चार्ज होना था वह कुछ उदास थी. उस का सौंदर्य पूर्णरूप से तो नहीं, परंतु इतना अवश्य लौट आया था कि वह बीमार नहीं लगती थी.

अनुभा ने पूछा, ‘‘तुम खुश नहीं लग रही हो… क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि ठीक हो कर घर जा रही हो?’’

निमी ने खाली आंखों से अनुभा को देखा और फिर फीकी आवाज में कहा, ‘‘कौन सा घर? मेरा कोई घर नहीं है.’’

‘‘अपने दोस्त के यहां, जो तुम्हारा इलाज करवा रहा था…’’

एक फीकी उदास हंसी निमी के होंठों पर तैर गई, ‘‘जो व्यक्ति मुझ से मिलने अस्पताल में कभी नहीं आया, जिसे पता है कि मेरे शरीर के महत्त्वपूर्ण अंग बेकार हो चुके हैं. वह मुझे अपने घर रखेगा?’’

‘‘फिर वह तुम्हारा इलाज क्यों करवा रहा था?’’

‘‘बस एक यही एहसान उस ने मेरे ऊपर किया है. मेरे प्यार का कुछ कर्ज उसे अदा करना ही था. वह बहुत पैसे वाला है, परंतु एक बीमार औरत को घर में रखने का फैसला उस के पास नहीं है. उसे रोज अनगिनत सुंदर और कुंआरी लड़कियां मिल सकती हैं, तो वह मेरी परवाह क्यों करेगा. वैसे मैं स्वयं उस के पास नहीं जाना चाहती हूं. मैं किसी भी मर्द के पास नहीं जाना चाहती. मर्दों ने ही मुझे प्यार की इंद्रधनुषी दुनिया में भरमा कर मेरी यह दुर्गति की है… मैं किसी महिला आश्रम में जाना चाहूंगी,’’ उस के स्वर में आत्मविश्वास सा आ गया था.

अनुभा सोच में पड़ गई. उस ने हिमांशु से सलाह ली. फिर निमी से बोली, ‘‘तुम कहीं और नहीं जाओगी, मेरे घर चलोगी.’’

‘‘तुम्हारे घर?’’ निमी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां, और अब इस के बाद कोई सवाल नहीं, चलो.’’

अनुभा और हिमांशु को मोतीबाग में टाइप-5 का फ्लैट मिला था. उस में पर्याप्त कमरे थे. 1 कमरा उन्होंने निमी को दे दिया. निमी अनुभा और हिमांशु की दरियादिली, प्रेम और स्नेह से अभिभूत थी. उस के पास धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं थे.

निमी के पिता आर्मी औफिसर थे. मां भी उच्च शिक्षित थीं. आर्मी में रहने के कारण उन्हें तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं. पिता रोज क्लब जाते थे और शराब पी कर लौटते थे. मां भी कभीकभार क्लब जातीं और शराब का सेवन करतीं. उन के घर में शराब की बोतलें रखी ही रहतीं. कभीकभार घर में भी महफिल जम जाती. निमी के पिता के यारदोस्त अपनी बीवियों के साथ आते या कोई रिश्तेदार आ जाता, तो महफिल कुछ ज्यादा ही रंगीन हो जाती.

निमी बचपन से ही ये सब देखती आ रही थी. उस के कच्चे मन में वैसी ही संस्कृति और संस्कार घर कर गए. उसे यही वास्तविक जीवन लगता. 15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते उस ने शराब का स्वाद चोरीछिपे चख लिया था और सिगरेट के सूट्टे भी लगा लिए थे.

ग्रैजुएशन करने के बाद निमी ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘मैं यूपीएसी का ऐग्जाम देना चाहती हूं.’’

‘‘तो तैयारी करो.’’

‘‘कोचिंग करनी पड़ेगी. अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट डीयू के आसपास मुखर्जी नगर में हैं.’’

‘‘क्या दिक्कत है? जौइन कर लो.’’

‘‘परंतु इतनी दूर आनेजाने में बहुत समय बरबाद हो जाएगा. मैं चाहती हूं कि यहीं आसपास बतौर पीजी रह लूं और सीरियसली कंपीटिशन की तैयारी करूं… तभी कुछ हो पाएगा,’’ निमी ने कहा.

मम्मीपापा ने एकदूसरे की आंखों में एक पल के लिए देखा, फिर पापा ने उत्साह से कहा,  ‘‘ओके माई गर्ल. डू व्हाटएवर यू वांट.’’

‘‘किंतु यह अकेले कैसे रहेगी?’’ मम्मी ने शंका व्यक्त की.

‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. शी इज ए बोल्ड गर्ल. आजकल लड़कियां विदेश जा रही हैं पढ़ने के लिए. यह तो दिल्ली शहर में ही रहेगी. जब मरजी हो जा कर मिल आया करना. यह भी आतीजाती रहेगी.’’

‘‘यस मौम,’’ निमी ने दुलार से कहा. जब बापबेटी राजी हों, तो मां की कहां चलती है. उसे परमीशन मिल गई. उस ने 1 साल का कन्सौलिडेटेड कोर्स जौइन कर लिया और मुखर्जी नगर में ही रहने लगी.

जैसाकि निमी का स्वभाव था, वह जल्दी लड़कों में लोकप्रिय हो गई. कोचिंग में पढ़ने वाले कई लड़के उस के दोस्त बन गए. सभी धनाढ्य घरों के थे. उन के पास अनापशनाप पैसे आते थे. आएदिन पार्टियां होतीं. निमी उन पार्टियों की शान समझी जाती थी.

मौत का कारण- भाग 3: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

हंसतेखिलखिलाते बच्चे का एकाएक गुमसुम हो जाना उस के मानसिक रोगी बनने की निशानी है. अतएव उस पर गंभीरता से ध्यान दें.’’ उस की कक्षा अध्यापिका ने ठीक ही कहा था. उन्होंने वरुण का कितने अपनत्व से निरीक्षण किया और मेरे क्रोध की परवा किए बिना मुझे समझाया, सुझाव दिया. मेरा मन आदर से झुक गया.

‘ओह, मांजी आप इतनी जल्दी क्यों चली गईं. आप के न रहने के दुख के अलावा हमें और न जाने कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा,’ मैं मन ही मन बुदबुदाई. घर लौटने पर वरुण को नौकरानी सुशीला से गपशप करते देख कर जान में जान आई. मैं ने कपड़े बदले और सुशीला को छुट्टी दे दी. फिर वरुण को ममता से अंक में भर लिया. पर उस के मुखड़े पर मुसकान की एक क्षीण रेखा भी नहीं उभरी.

‘‘वरुण, सब को एक न एक दिन मरना पड़ता है,’’ मैं ने स्वयं ही अप्रिय विषय छेड़ दिया.

‘‘जानता हूं,’’ वरुण की आंखों में उदासी झलकने लगी.

‘‘सब लोग छोटे से बड़े होते हैं और बड़े से बूढे़, बूढ़े हो कर सब अपनेआप मर जाते हैं. कोई किसी को नहीं मारता.’’

‘‘पर गांधीजी तो बूढ़े थे, फिर भी गोली से…’’

‘‘ऐसी एकाध घटना होती है. अधिकतर सभी की मौत अपनेआप होती है.’’

‘‘आप और पिताजी की मौत भी बूढ़े हो कर होगी. फिर मैं अकेला कैसे रहूंगा? दादी भी चली गईं.’’

उस का नन्हा मस्तिष्क हमारे बूढ़े होने के साथसाथ स्वयं के बड़े होने की कल्पना नहीं कर पा रहा था.

‘‘हम बूढ़े होंगे तब तुम भी तो बहुत बड़े हो चुके होगे.’’

‘‘पिताजी के बराबर?’’ उस ने पूछा और शायद आश्वस्त भी हो गया क्योंकि पिताजी को दादी की मृत्यु का सदमा शांति से झेलते हुए उस ने देखा था. उस को मेरी बात पर कुछकुछ विश्वास हो चला था. उस की कक्षा अध्यापिका ने कहा कि उसे किसी न किसी हौबी में उलझा कर रखना बेहद जरूरी है. मगर ऐसा कौन सा काम हो सकता है. पेंटिंग? उसे अच्छी तो लगती है पर ज्यादा देर बैठ कर नहीं कर पाएगा. कहानियां सुनना? पर मेरे पास कहानियों का इतना स्टौक कहां? फिर अचानक दिमाग में खयाल कौंधा, ‘बागबानी.’ सुबहशाम सुशीला ही हमारी छोटी सी बगिया में पानी देती थी. मैं ने सोचा अब से बागबानी की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लूं और वरुण को भी अपने साथ  व्यस्त रखूं. मैं जितना अधिक समय बगीचे  में लगाऊंगी, वह उतना ही दर्शनीय  होता जाएगा. हां, इस के लिए मुझे अपने कढ़ाईबुनाई के शौक को थोड़ा कम करना होगा, पर वरुण की समस्या शायद सुलझ जाए. शायद नित्य उगती, बढ़ती हरियाली ही वरुण की सोच को आशावादी और सकारात्मक बना सके.

मेरा योजना सचमुच सफल होती दिखाई दे रही थी. वरुण भी बगीचे में कूदताफांदता छोटेमोटे काम करता. नए बीज बोने और नन्हे पौधे सींचने में भी वह मेरी मदद करता. उस का बचपन लौटता जा रहा था, लाल गुलाब को वह लालू कहता और हरीहरी घास को हरिया. लगता था पौधों, फूलों से उस की गहरी दोस्ती हो गई, यह भी तो एक समस्या ही थी कि पासपड़ोस में उस का हमउम्र कोई नहीं था वरना शायद बात इतनी बढ़ती भी नहीं. बाग की गंदगी साफ करतेकरते मैं उस के मन में भी जानेअनजाने पनपी अवांछित समस्याओं का निराकरण करने लगी. सचमुच, अच्छे संस्कार डालना कितना मुश्किल है. ठीक इस लौन की घास की तरह. एक भी जंगली घास गलती से उग जाए तो वह आननफानन फैल कर पूरे लौन की कोमल घास को ढक देती है, यदि उसे समय पर उखाड़ा न जाए. वरुण की दिनचर्या में अब ठहराव आता गया. स्कूल से लौट कर खाना खाना, फिर कुछ देर सोना, उठ कर होमवर्क करना, शाम को मेरे साथ बागबानी, फिर हम दोनों कुछ दूर तक टहलने निकल जाते.

इधर बगीचा भी फलताफूलता जा रहा था, उधर वरुण भी अपनी दादी की मौत की बात कुछकुछ भूलता जा रहा था. इन्होंने वरुण के बदलाव को लक्ष्य किया और मेरी सफलता पर मेरी पीठ ठोंकी. बागबानी धीरेधीरे मेरा पहला शौक बनता जा रहा था. एक दिन यों ही जब बगीचे में पानी दे रही थी, वरुण ने पूछा, ‘‘मां, पेड़पौधों में भी  जान होती है न?’’

‘‘हां, तभी तो हम उन्हें पानी पिलाते हैं और वे बढ़ते भी हैं.’’

‘‘वे बूढ़े भी होते हैं?’’ उस का अगला सवाल था.

मैं उस के इस सवाल पर कुछ चौकन्नी हो गई. उस के बाद बम की तरह उस का हमेशा का सवाल भी आ धमका, ‘‘क्या वे मर भी जाते हैं?’’

‘‘हां, बूढ़े होने के बाद मर जाते हैं,’’ मैं ने संयत स्वर में कहा.

‘‘मैं ने तो कभी पेड़ों को अपनेआप मरते हुए नहीं देखा.’’

‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो न, तुम ने अभी बहुतकुछ नहीं देखा.’’

‘‘नहीं, मैं ने बहुतकुछ देखा है,’’ वरुण दृढ़ स्वर में बोला, ‘‘हमारी कालोनी में लगे हुए पेड़ों को लोग कुल्हाड़ी से काट रहे थे, काटने से वे मर गए. कल उन्हें होली में जलाया जाएगा जिस तरह दादी को…’’

उस के शब्द मेरे मस्तिष्क में हथौड़े की भांति पड़ रहे थे. वरुण का बचपन भी शायद असमय घटी घटनाएं देखसुन कर दम तोड़ देना चाहता था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया और हाथ से पानी का पाइप फिसल कर गिर गया. मैं ने देखा, वह पानी कच्ची मिट्टी के बजाय पक्के आंगन की ओर निष्फल, निरुद्देश्य बह रहा था, मेरे प्रयत्नों की तरह.

मौत का कारण- भाग 2: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

वह फिर कुछ सोचता हुआ बोला, ‘‘हमारे घर पुलिस क्यों नहीं आई? दादी के कहीं खून भी नहीं बहा, ऐसा क्यों?’’

‘‘दादी की मौत अपनेआप हुई,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘हमारी छाती में बाईं ओर दिल होता है. वह घड़ी की तरह लगातार चलता रहता है. जब वह रुक जाता है तब मौत हो जाती है.’’

‘‘नहीं, आप गलत कह रही हैं. मौत चाकू, पिस्तौल, तलवार से होती है या फिर जल जाने से और जहर खाने से होती है,’’ वह फौरन बोल पड़ा. मैं अब समझी कि वह क्या कहना चाहता था. मौत का उस का ज्ञान और अनुभव टीवी पर दिखाई जाने वाली फिल्मों तक सीमित था. अतएव उसे फिल्मों में अकसर दिखाए जाने वाले मौत के कारणों  में से एक भी कारण नहीं मिल रहा था जो उस की दादी की मौत के लिए जिम्मेदार हो. ‘‘मेरी दादी सो रही थीं. आप लोगों ने जबरदस्ती उन्हें ले जा कर जला दिया,’’ उस ने अपने अनुभवों के तरकश से एक और तीर चलाया. यह जानते हुए भी कि उस की बातें उस की नादानी के फलस्वरूप उपजी हैं, मेरी रुलाई फूट पड़ी, ‘‘नहीं बेटे, हम ऐसा क्यों करने लगे?’’

‘‘क्योंकि आप उन की बहू हैं और सासबहू एकदूसरे की दुश्मन होती हैं.’’

‘‘यह भी सच नहीं है,’’ मैं ने सिसकियां भरते हुए कहा, पर वरुण मेरे रोने से भी नहीं पिघला. अपने दिल का गुबार निकाल कर वह आराम से पलंग पर लेट गया और थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई. पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. इस छोटे से मस्तिष्क में न जाने कितनी बातें समाई थीं, ‘उफ, ये सीरियल और फिल्में बनाने वाले कोई ढंग की चीज नहीं दिखा सकते.’ मैं मन ही मन उन्हें बुरी तरह कोसने लगी, उस के बाद मैं खुद को कोसने लगी कि हम लोगों ने ही उसे टीवी पर फालतू सीरियल देखने से रोका होता. पर छोटे बच्चों को ज्यादा रोकाटोेका भी तो नहीं जा सकता. मेरी विचारशृंखला तब तक चलती रही, जब तक ये घर नहीं आ गए.

‘‘जब देखो तब इतनी देर लगा कर आते हो? थोड़ा जल्दी नहीं आ सकते?’’ मेरी चिंता क्रोध बन कर इन पर बरस पड़ी.

‘‘बात क्या है, दफ्तर से लौटने में तो मुझे रोज ही इतनी देर हो जाती है,’’ ये नरमी से बोले तो मुझे अपनी तल्खी पर सचमुच शरम हो आई कि थोड़ी देर तो मुझे सब्र करना ही चाहिए था. दिनभर के थकेहारे इन के सामने आते ही शिकायतों का अध्याय थोड़े ही खोलना चाहिए था.

मैं ने वरुण से हुए संवाद के बारे में उन्हें बताया. ‘‘तो ये वजह है तुम्हारी चिंता की,’’ मेरी बात सुन कर ये हंसतेहंसते बोले, ‘‘बच्चा है, उस की बात का क्या बुरा मानना.’’ ‘‘बुरा मानने की बात नहीं है. मगर जरा सोचो, उस के विचार कितने दिग्भ्रमित हैं, उस का दृष्टिकोण कितना नकारात्मक है. जो बच्चा मृत्यु को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहा है वह जीवन को भी न जाने किस विकृत रूप में ग्रहण करे.’’ ‘‘इतना ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, कुछ दिनों में वह सबकुछ भूल जाएगा. मां के सब से करीब वही था. और यह उस के छोटे से जीवन का पहला हादसा है. इसलिए ऊलजलूल बातें उस के दिमाग में आ रही हैं. इसे अधिक तूल मत दो.’’

‘‘यही सच हो,’’ मैं ने भी आंखें मूंद लीं और सोने की कोशिश करने लगी. 10-15 दिन शांति से गुजरे. वरुण ने उस के बाद फिर इस तरह की कोई बात नहीं की थी. पहले जैसा ही था, पर मांजी की तसवीर के सामने खड़े होना, उसे एकटक घूरते रहना कुछ कम हो गया था. मैं भी कुछकुछ निश्ंिचत होती जा रही थी, वरुण पहले जितना बातूनी तो अभी भी नहीं था परंतु बेसिरपैर की बातें बोलने से तो न बोलना अच्छा. यह सोच कर मैं ने इस बात को अधिक महत्त्व नहीं दिया था. एक दिन सब्जी खरीद कर लौटते वक्त मेरी मुलाकात वरुण की कक्षा अध्यापिका नेहा से हुई.

‘‘अच्छा हुआ, आप से यहीं मुलाकात हो गई वरना मैं आप को स्कूल में बुलाने वाली थी.’’

‘‘क्यों, क्या वरुण ने कुछ…’’ मेरा कलेजा जोरजोर से धड़कने लगा.

‘‘क्या आप ने महसूस नहीं किया कि वह आजकल बेहद गुमसुम और गंभीर होता जा रहा है?’’

‘‘दरअसल, जब से उस की दादी की मृत्यु हुई है…’’

‘‘उस की दादी की मृत्यु कैसे हुई?’’ उन्होंने बिना लागलपेट के सीधे पूछा.

वरुण से यह सवाल सुनसुन कर मैं तंग आ चुकी थी. अब यही सवाल उन से सुन कर मैं गुस्से से भरभरा कर बोली, ‘‘भला और कैसे होगी. बुढ़ापा था, हार्टअटैक से मृत्यु हो गई, इस में इतना पूछने की क्या बात है?’’ मेरी तल्खी से शायद उन्हें कुछकुछ मेरी बेचैनी का एहसास हुआ. अतएव वे मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर बोलीं, ‘‘आप कृपया अन्यथा न लें. दरअसल 2-3 दिन पहले मैं ने कक्षा में महात्मा गांधी की कहानी सुनाई थी. सुन कर वरुण दोनों हाथों में मुंह छिपा कर रोने लगा. मेरे द्वारा रोने का कारण पूछे जाने पर वह बोला कि गांधीजी की मृत्यु गोली मारने से हुई और उस की दादी की मृत्यु जलाए जाने से हुई.’’

‘‘नहीं, यह सच नहीं है…’’ मैं लगभग चीखती हुई बोली, ‘‘वरुण की ऐसी बातें सुन कर लोग न जाने हमारे बारे में क्याक्या धारणा बनाएंगे.’’

‘‘मैं भी जानती हूं कि यह सच नहीं है, पर वरुण को फिल्में देखदेख कर यही पता चला है कि मौत किसी अस्वाभाविक कारण से ही होती है. उसे सुनीसुनाई बातों से अधिक देखी हुई चीजों पर विश्वास है. यह ठीक भी है. वरुण अपनी दादी से बहुत प्यार करता था, इसलिए उन की मृत्यु उस के लिए एक भयंकर हादसा है. उस का बालमन उन की मृत्यु को स्वाभाविक रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा है, इसीलिए मृत्यु के कारणों की तलाश में है,’’ वे कुछ क्षण रुक कर बोलीं, ‘‘उसे उस की रुचि के किसी काम में व्यस्त कर दें जिस से वह इस बारे में ज्यादा न सोच सके. साथ ही उसे टीवी पर भी सिर्फ मनोरंजन और बच्चों के लिए उपयुक्त कार्यक्रम ही देखने दें.

सबको साथ चाहिए- भाग 1: क्या सही था माधुरी का फैसला

सुधीर के औफिस के एक सहकर्मी   रवि के विवाह की 25वीं वर्षगांठ थी. उस ने एक होटल में भव्य पार्टी का आयोजन किया था तथा बड़े आग्रह से सभी को सपरिवार आमंत्रित किया था. सुधीर भी अपनी पत्नी माधुरी और बच्चों के साथ ठीक समय पर पार्टी में पहुंच गए. सुधीर और माधुरी ने मेजबान दंपती को बधाई और उपहार दिया. रविजी ने अपनी पत्नी विमला से माधुरी का और उन के चारों बच्चों का परिचय करवाया, ‘‘विमला, इन से मिलो. ये हैं सुधीरजी, इन की पत्नी माधुरी और चारों बच्चे सुकेश, मधुर, प्रिया और स्नेहा.’’  ‘‘नमस्ते,’’ कह कर विमला आश्चर्य से चारों को देखने लगी. आजकल तो हम दो हमारे दो का जमाना है. भला, आज के दौर में 4-4 बच्चे कौन करता है? माधुरी विमला के चेहरे से उन के मन के भावों को समझ गई पर क्या कहती.

तभी प्रिया ने सुकेश की बांह पकड़ी और मचल कर बोली, ‘‘भैया, मुझे पानीपूरी खानी है. भूख लगी है. चलो न.’’

‘‘नहीं भैया, कुछ और खाते हैं, यह चटोरी तो हमेशा पहले पानीपूरी खिलाने ही ले जाती है. वहां दहीबड़े का स्टौल है. पहले उधर चलो,’’ स्नेहा और मधुर ने जिद की.

‘‘भई, पहले तो वहीं चला जाएगा जहां हमारी गुडि़या रानी कह रही है. उस के बाद ही किसी दूसरे स्टौल पर चलेंगे,’’ कह कर सुकेश प्रिया का हाथ थाम कर पानीपूरी के स्टौल की तरफ बढ़ गया. मधुर और स्नेहा भी पीछेपीछे बढ़ गए.

‘‘यह अच्छा है, छोटी होने के कारण हमेशा इसी के हिसाब से चलते हैं भैया,’’ मधुर ने कहा तो स्नेहा मुसकरा दी. चाहे ऊपर से कुछ भी कह लें पर अंदर से सभी प्रिया को बेहद प्यार करते थे और सुकेश की बहुत इज्जत करते थे. क्यों न हो वह चारों में सब से बड़ा जो था. चारों जहां भी जाते एकसाथ जाते. मजाल है कि स्नेहा या मधुर अपनी मरजी से अलग कहीं चले जाएं. थोड़ी ही देर में चारों अलगअलग स्टौल पर जा कर खानेपीने की चीजों का आनंद लेने लगे और मस्ती करने लगे.

सुधीर और माधुरी भी अपनेअपने परिचितों से बात करने लगे. किसी काम से माधुरी महिलाओं के एक समूह के पास से गुजरी तो उस के कानों में विमला की आवाज सुनाई दी. वह किसी से कह रही थी, ‘‘पता है, सुधीरजी और माधुरीजी के 4 बच्चे हैं. मुझे तो जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ. आजकल के जमाने में तो लोग 2 बच्चे बड़ी मुश्किल से पाल सकते हैं तो इन्होंने 4 कैसे कर लिए.’’

‘‘और नहीं तो क्या, मैं भी आज ही उन लोगों से मिली तो मुझे भी आश्चर्य हुआ. भई, मैं तो 2 बच्चे पालने में ही पस्त हो गई. उन की जरूरतें, पढ़ाई- लिखाई सबकुछ. पता नहीं माधुरीजी 4 बच्चों की परवरिश किस तरह से मैनेज कर पाती होंगी?’’ दूसरी महिला ने जवाब दिया.

माधुरी चुपचाप वहां से आगे बढ़ गई. यह तो उन्हें हर जगह सुनने को मिलता कि उन के 4 बच्चे हैं. यह जान कर हर कोई आश्चर्य प्रकट करता है. अब वह उन्हें क्या बताए? घर आ कर चारों बच्चे सोने चले गए. सुधीर भी जल्दी ही नींद के आगोश में समा गए. मगर माधुरी की आंखों में नींद नहीं थी. वह तो 6 साल पहले के उस दिन को याद कर रही थी जब माधुरी के लिए सुधीर का रिश्ता आया था. हां, 6 साल ही तो हुए हैं माधुरी और सुधीर की शादी को. 6 साल पहले वह दौर कितना कठिन था. माधुरी को बड़ी घबराहट हो रही थी. पिछले कई दिनों से वह अपने निर्णय को ले कर असमंजस की स्थिति में जी रही थी.

माधुरी का निर्णय अर्थात विवाह का निर्णय. अपने विवाह को ले कर ही वह ऊहापोह में पड़ी हुई थी. घबरा रही थी. क्या होगा? नए घर में सब उसे स्वीकारेंगे या नहीं.

विवाह को ले कर हर लड़की के मन में न जाने कितनी तरह की चिंताएं और घबराहट होती है. स्वाभाविक भी है, जन्म के चिरपरिचित परिवेश और लोगों के बीच से अचानक ही वह सर्वथा अपरिचित परिवेश और लोगों के बीच एक नई ही जमीन पर रोप दी जाती है. अब इस नई जमीन की मिट्टी से परिचय बढ़ा कर इस से अपने रिश्ते को प्रगाढ़ कर यहां अपनी जड़ें जमा कर फलनाफूलना मानो नाजुक सी बेल को अचानक ही रेतीली कठोर भूमि पर उगा दिया जाए.

लेकिन माधुरी की घबराहट अन्य लड़कियों से अलग थी. नई जमीन पर रोपे जाने का अनुभव वह पहले भी देख चुकी थी. उस जमीन पर अपनी जड़ें जमा कर खूब पल्लवित हो कर नाजुक बेल से एक परिपक्व लताकुंज में परिवर्तित भी हो चुकी थी, लेकिन अचानक ही एक आंधी ने उसे वहां से उखाड़ दिया और उस की जड़ों को क्षतविक्षत कर के उस की जमीन ही उस से छीन ली.

2 वर्ष पहले मात्र 43 वर्ष की आयु में ही माधुरी के पति की हृदयगति रुक जाने से आकस्मिक मृत्यु हो गई. कौन सोच सकता था कि रात में पत्नी और बच्चों के साथ खुल कर हंसीमजाक कर के सोने वाला व्यक्ति फिर कभी उठ ही नहीं पाएगा. इतना खुशमिजाज, जिंदादिल इंसान था प्रशांत कि सब के दिलों को मोह लेता था, लेकिन क्या पता था कि उस का खुद का ही दिल इतनी कम उम्र में उस का साथ छोड़ देगा.

माधुरी तो बुरी तरह टूट गई थी. 18 सालों का साथ था उन का. 2 प्यारे बच्चे हैं, प्रशांत की निशानी, प्रिया और मधुर. मधुर तो तब मात्र 16 साल का हुआ ही था और प्रिया अपने पिता की अत्यंत लाडली बस 12 साल की ही थी. सब से बुरा हाल तो प्रिया का ही हुआ था.

एक खुशहाल परिवार एक ही झटके में तहसनहस हो गया. महीनों लगे थे माधुरी को इस सदमे से बाहर आ कर संभलने में. उम्र ही क्या थी उस की. मात्र 37 साल. वह तो उस के मातापिता ने अपना कलेजा मजबूत कर के उसे सांत्वना दे कर इतने बड़े दुख से उबरने में उस की मदद की. प्रिया और मधुर के कुम्हलाए चेहरे देख कर माधुरी ने सोचा था कि अब ये दोनों ही उस का जीवन हैं. अब इन के लिए उसे मजबूत छत बनानी है.

मौत का कारण- भाग 1: क्यों दम तोड़ रहा था वरुण का बचपन

मेरा 5 वर्षीय बेटा वरुण उन दिनों बहुत गुमसुम रहने लगा था. जब से उस की दादी की मृत्यु हुई तभी से उस का यह हाल था. मांजी की अचानक मृत्यु ने हमें भी हतप्रभ कर दिया था, पर वरुण पर तो यह दुख मानो पहाड़ बन कर टूट पड़ा था. मुझे आज भी याद है, हमें रोते देख कर किस तरह वरुण भी अपनी दादी की मृतदेह पर गिर कर पछाड़ें खाखा कर रो रहा था. उस की हालत देख कर मैं ने अपनेआप को संभाला और उसे वहां से उठा कर भीतर वाले कमरे में ले गई थी. मेरे साथ मेरा देवर प्रवीर भी भीतर आ गया था.

‘दादी हिलडुल क्यों नहीं रहीं?’ उस ने सिसकियों के बीच पूछा.

‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं,’ प्रवीर बोला.

‘पर वे तो यहीं हैं. बाहर लेटी हैं. आप लोगों ने उन्हें जमीन पर क्यों लिटा रखा है?’

‘उन की मृत्यु हो चुकी है,’ प्रवीर दुखी स्वर में बोला.

‘मृत्यु, क्या मतलब?’

उस ने पूछा तो मैं एक क्षण के लिए चुप हो गई फिर उसे डांटते हुए कहा, ‘बेकार सवाल नहीं पूछते.’ मगर वह मेरी डांट से अप्रभावित फिर अपना सवाल दोहराने लगा. इस बार प्रवीर ने शांत स्वर में उसे समझाया कि उस की दादी अब उसे कभी नजर नहीं आएंगी. न वे उसे कहानियां सुनाएंगी, न उस से स्कूल की बातें सुनेंगी.

‘ये सब तुम क्यों बता रहे हो उस नन्ही जान को?’ मैं ने भर्राए कंठ से पूछा.

‘बताना जरूरी है भाभी, आजकल के बच्चों को बहलाया नहीं जा सकता. सचसच बता देना ही ठीक रहता है,’ प्रवीर की आवाज नम हो आई थी.

इधर वरुण यह सुन कर जोर से रो पड़ा. उस का करुण रुदन सन्नाटे को चीर कर हर एक के हृदय में उतर गया. वरुण अपनी दादी से बेहद प्यार करता था और वे भी अपने इस इकलौते पोते पर अपना सर्वस्व लुटाती थीं. सुबह जैसे ही वरुण की नींद खुलती, वे उस समय बिस्तर पर बैठी माला फेर रही होती थीं. वरुण धम से उन की गोद में बैठ जाता और दादीपोत का वार्त्तालाप शुरू हो जाता.

‘दादी, आप कितने साल की हैं?’

‘65 साल की.’

‘यानी मेरे पिताजी से भी बड़ीं,’ वरुण अपनी दोनों बांहें फैला कर आश्चर्य प्रकट करता.

‘हां, तेरे पिताजी से भी बड़ी,’ मांजी उस के भोलेपन पर हंस पड़तीं.

‘पर आप तो पिताजी से छोटी हैं?’ वरुण का इशारा उन के लंबे कद की ओर होता.

कद से छोटे होने पर भी उम्र में बड़ा हुआ जा सकता है, यह बात मांजी उसे उदाहरण सहित समझातीं कि उस की बूआ उस के पिताजी से उम्र में बड़ी हैं इसलिए उस के पिताजी उन्हें दीदी कहते हैं लेकिन कद में वे उन से छोटी हैं. इस बात को सुन कर वरुण कुछ क्षण सोच में डूब जाता, फिर कुछ समझने की मुद्रा में आंखें झपका कर कहता, ‘इस का मतलब यह हुआ कि मां भी पिताजी से बड़ी हैं.’ उस की नादानी पर मांजी हंसतेहंसते दोहरी हो जातीं. हर 2-3 दिन बाद इस तरह के संवाद दोनों दादीपोते के बीच अवश्य होते. फिर उस की अविराम चलती बातों पर रोक लगाती हुई वे कहतीं, ‘अब बस भी कर. मैं तुझे गरमागरम हलवा बना कर खिलाती हूं.’ ‘सुबह का नाश्ता ताकत देने वाला होना चाहिए, हलवा या मक्खन व परांठा, फुसफुसी डबलरोटी नहीं,’ वे कहतीं. लेकिन अपने मतों को वे हम पर कभी थोपती नहीं थीं. मेरी समझ से यही गुण उन्हें उन की उम्र के अन्य बुजुर्गों से अलग करता था. मनुष्य की दूसरों पर शासन करने की इच्छा सदा से रही है. रिश्तों के दायरे में बड़ों द्वारा छोटों पर शासन करने की छूट ने ही हमारे पारिवारिक संबंधों में कड़वाहट घोल दी है. वरुण की दादी में यह बात नहीं थी. सास होने के नाते वे मुझ पर अधिकार जताने के बजाय स्नेह लुटाती थीं. यह उन्हीं के व्यवहार की विशेषता थी कि वे मुझे सदा मां से भी अधिक अपनी लगीं.

उन की मृत्यु को 15 दिन हो गए थे. एकएक कर के सभी रिश्तेदार विदा हो गए. प्रवीर भी कलकत्ता लौट गया. उस की नईनई नौकरी थी, ज्यादा छुट्टी लेना संभव नहीं था. जब व्यस्तता से उबरने का मौका मिला तब मेरा ध्यान अचानक वरुण की

अस्वाभाविक गंभीरता पर गया. निरंतर बोलते रहने वाला वरुण एकदम गुमसुम  हो गया था. उस का जबतब मांजी की तसवीर को एकटक देखते रहना, उन की अलमारी खोल कर  उन की साडि़यों पर हाथ फेरना, सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा था. ‘‘कल से तुम्हें स्कूल जाना है, पुस्तकें बैग में ठीक से रख लो,’’ मैं ने वरुण को  याद दिलाते हुए कहा मगर वह वैसे ही भावमुद्रा लिए बैठा रहा, जैसे मैं ने  उस से नहीं, किसी और से कहा हो.

‘‘कल स्केचपैन भी ले जाना बैग में रख कर,’’ मुझे उम्मीद थी कि स्केचपैन  स्कूल में ले जाने के मेरे प्रस्ताव से वह अवश्य खुश होगा, मगर इस बार भी वह उसी तरह निर्लिप्त बैठा रहा. मुझे उस की चुप्पी से अब भय लगने लगा. मगर कुछ क्षण बाद वह स्वयं ही अपनी चुप्पी तोड़ कर बोला, ‘‘मां, दादी की मौत कैसे हुई? उन्हें किस ने मारा?’’ उस का यह सवाल मुझे उस की चुप्पी से भी डरावना लगा. मैं अवाक् रह गई.

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