हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 3

अमन ने बी.टैक कर के अपने पसंद  की लड़की से शादी कर ली, जान कर विनय ने उस से बात करना छोड़ दिया. वहीं अमन का कहना था, ‘‘जब उन्हें हमारी परवाह नहीं तो हम क्यों उन की परवाह करें. क्या दूसरी शादी उन्होंने हम से पूछ कर की थी? कौन संतान चाहेगी कि उस के हिस्से का प्रेम कोई और बांटे?’’ ‘‘ऐसा नहीं कहते. उन्होंने तुम्हें पढ़ायालिखाया,’’ मैं बोला. ‘‘पढ़ाना तो उन्हें था ही. पढ़ा कर उन्होंने हमारे ऊपर कौन सा एहसान किया है? नानी हमारे नाम काफी रुपयापैसा छोड़ गई थीं. आज भी पापा जिस मकान में रहते हैं वह मेरी नानी का है और मेरे नाम है.’’ ‘आज के लड़के काफी समझदार हो गए हैं. उन्हें बरगलाया नहीं जा सकता,’ यही सोच कर मैं ने ज्यादा तूल नहीं दिया. मोनिका की शादी कर के विनय पूरी तरह सुनंदा का हो कर रह गया. न कभी अमन के बारे में हाल पूछता न ही मोनिका का. समय बीतता रहा. विनय ने सुनंदा के लिए एक फ्लैट खरीदा. फिर वहीं जा कर रहने लगा. अमन को पता चला तो बनारस आया और अपने मकान की चाबी ले कर दिल्ली लौट गया. विनय ने उसे काफी भलाबुरा कहा. खिसिया कर यह भी कहा कि पुश्तैनी मकान में उसे फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा. अमन ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि वह जानता था कि यह उतना आसान नहीं जितना पापा सोचते हैं.

सुनंदा की लड़की भी शादी योग्य हो गई थी. सुनंदा उस की शादी किसी अधिकारी लड़के से करना चाहती थी, जबकि विनय उतना दहेज दे पाने में समर्थ नहीं था. बस यहीं से दोनों में मनमुटाव शुरू हो गया. सुनंदा उसे आए दिन ताने मारने लगी. कहती, ‘‘अमन को पढ़ाने के लिए 10 लाख खर्च कर दिए वहीं मेरी बेटी की शादी के लिए रुपए नहीं हैं?’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है. फ्लैट खरीदने के बाद मेरे पास 10 लाख ही बचे हैं. 35 लाख कहां से लाऊं?’’

‘‘अमन से मांगो,’’ सुनंदा बोली.

‘‘बेमलतब की बात न करो. मैं ने तुम्हारे लिए उस से अपना रिश्ता हमेशा के लिए खत्म कर लिया है.’’

‘‘मेरे लिए?’’ सुनंदा ने त्योरियां चढ़ाईं, ‘‘यह क्यों नहीं कहते दो पैसे आने लगे तो तुम्हारे बेटे के पर निकल आए?’’

‘‘कुछ भी कह लो. मैं उस से फूटी कौड़ी भी मांगने वाला नहीं.’’

‘‘ठीक है न मांगो. पुश्तैनी मकान बेच दो.’’

‘‘विनय को सुनंदा की यह मांग जायज लगी. वैसे भी संयुक्त परिवार के उस मकान में अब रहने को रह नहीं गया था. अमन को भनक लगी तो भागाभागा आया.’’ ‘‘मकान बिकेगा तो सब को बराबरबराबर हिस्सा मिलेगा,’’ अमन विनय से बोला.

‘‘सब का मतलब?’’

‘‘मोनिका को भी हिस्सा मिलेगा.’’

‘‘मोनिका की शादी में मैं ने जो रुपए खर्च किए उस में सब बराबर हो गया.’’ ‘‘आप को कहते शर्म नहीं आती पापा? मोनिका क्या आप की बेटी नहीं थी, जो उस की शादी का हिसाब बता रहे हैं?’’‘‘तुम दोनों के पास मकान है.’’ ‘‘वह मकान मेरी नानी का दिया है. यह मकान मेरे दादा का है. कानूनन इस पर मेरा हक भी है. बिकेगा तो मेरे सामने. हिसाब होगा तो मेरे सामने,’’ अमन का हठ देख कर सामने तो सुनंदा कुछ नहीं बोली, मगर जब विनय को अकेले में पाया तो खूब लताड़ा, ‘‘बहुत पुत्रमोह था. मिल गया उस का इनाम. मेरे बेटेबेटी के मुंह का निवाला छीन कर उसे पढ़ायालिखाया, बड़ा आदमी बनाया. अब वही आंखें दिखा रहा है.’’ ‘‘मैं ने किसी का निवाला नहीं छीना. वह भी मेरा ही खून है.’’

‘‘खून का अच्छा फर्ज निभाया,’’ सुनंदा ने तंज कसा.

‘‘बेटी तुम्हारी है मेरी नहीं,’’ विनय की सब्र का बांध टूट गया.

सुन कर सुनंदा आगबबूला हो गई, ‘‘तुम्हारे जैसा बेशर्म नहीं देखा. शादी के समय तुम्हीं ने कहा था कि मैं इस को पिता का नाम दूंगा. अब क्या हुआ, आ गए न अपनी औकात पर. मैं तुम्हें छोड़ने वाली नहीं.’’ ‘‘हां, आ गया अपनी औकात पर,’’ विनय भी ढिठाई पर उतर आया, ‘‘मेरे पास इस के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है. भेज दो इसे इस के पिता के पास. वही इस की शादी करेगा. मैं इस का बाप नहीं हूं.’’ सुन कर सुंनदा आंसू बहाने लगी. फिर सुबकते हुए बोली, ‘‘क्या यह भी तुम्हारा तुम्हारा बेटा नहीं है? क्या इस से भी इनकार करोगे?’’ सुनंदा ने अपने बेटे की तरफ इशारा किया. उसे देखते ही विनय का क्रोध पिघल गया. सुनंदा की चाल कामयाब हुई. आखिरकार अमन की ही शर्तों पर मकान बिका. मोनिका रुपए लेने में संकोच कर रही थी. अमन ने जोर दिया तो रख लिए. उस रोज के बाद विनय का मन हमेशा के लिए अमन से फट गया.  रिटायर होने के बाद विनय अकेला पड़ गया. सुनंदा का बेटा अभी 15 साल का था. उस का ज्यादातर लगाव अपनी मां से था. सुनंदा की बेटी भी मां से ही बातचीत करती. वह सिर्फ उन दोनों का नाम का ही पिता था. ऐसे समय विनय को आत्ममंथन का अवसर मिला तो पाया कि उस ने अमन और मोनिका के साथ किए गए वादे ठीक से नहीं निभाए. उसे तालमेल बैठा कर चलना चाहिए था. अपनी गलती सुधारने के मकसद से विनय ने मुझे याद किया. मैं ने उस से कोई वादा तो नहीं किया, हां विश्वास जरूर दिलाया कि अमन को उस से मिलवाने का भरसक कोशिश करूंगा. इसी बीच विनय को हार्टअटैक का दौरा पड़ा. मुझे खबर लगी तो मैं भागते हुए अस्पताल पहुंचा. सुनंदा नाकभौं सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘इस संकट की घड़ी में कोई साथ नहीं है. बड़ी मुश्किल से महल्ले वालों ने विनय को  पहुंचाया.’’

मैं ने मन ही मन सोचा कि आदमी जो बोता है वही काटता है. चाहे विनय हो या सुनंदा दोनों की आंख पर स्वार्थ की पट्टी पड़ी रही. विनय कुछ संभला तो अमन को ले कर भावुक हो गया. मोनिका विनय को देखने आई, मगर अमन ने जान कर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई. रात को मैं ने अमन को फोन किया. विनय की इच्छा दुहराई तो कहने लगा,‘‘अंकल, कोई भी संतान नहीं चाहेगी कि उस की मां की जगह कोई दूसरी औरत ले. इस के बावजूद अगर पापा ने शादी की तो इस आश्वासन के साथ कि हमारे साथ नाइंसाफी नहीं होगी. बल्कि नई मां आएगी तो वह हमारा बेहतर खयाल रखेगी. हमें भी लगा कि पापा नौकरी करें कि हमें संभालें. लिहाजा इस रिश्ते को हम ने खुशीखुशी स्वीकार कर लिया. हमें सुनंदा मां से कोई शिकायत नहीं. शिकायत है अपने पापा से जिन्होंने हमें अकेला छोड़ दिया और सुनंदा मां के हो कर रह गए. मोनिका की शादी जैसेतैसे की, वहीं सुनंदा मां की बेटी के लिए पुश्तैनी मकान तक बेच डाला. मुझे संपत्ति का जरा सा भी लोभ नहीं है. मैं तो इसी बहाने पापा की नीयत को और भी अच्छी तरह जानसमझ लेना चाहता था कि वे सुनंदा मां के लिए कहां तक जा सकते हैं. देखा जाए तो उस संपत्ति पर सिर्फ मेरा हक है. पापा ने सुनंदा मां के लिए फ्लैट खरीदा. अपनी सारी तनख्वाह उन्हें दी. तनख्वाह ही क्यों पी.एफ., बीमा और पैंशन सभी के सुख वे भोग रही हैं. बदले में हमें क्या मिला?’’

‘‘क्या तुम्हें रुपयों की जरूरत है?’’

‘‘हमें सिर्फ पापा से भावनात्मक लगाव की जरूरत थी, जो उन्होंने नहीं दिया. वे मां की कमी तो पूरी नहीं कर सकते थे, मगर रात एक बार हमारे कमरे में आ कर हमें प्यार से दुलार तो सकते थे. इतना ही संबल हमारे लिए काफी था,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो गया. ‘‘उन्हें अपने किए पर अफसोस है.’’ ‘‘वह तो होगा ही. उम्र के इस पड़ाव पर जब सुनंदा मां ने भी उपेक्षात्मक रुख अपनाया होगा तो जाहिर है हमें याद करेंगे ही.’’ ‘‘तुम भी क्या उसी लहजे में जवाब देना चाहते हो? उस ने प्रतिशोध लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं क्या लूंगा, वे अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं.’’

‘जो भी हो वे तुम्हारे पिता हैं. उन्होंने जो किया उस का दंड भुगत रहे हैं. तुम तो अपने फर्ज से विमुख न होओ, वे तुम से कुछ मांग नहीं रहे हैं. वे तो जिंदगी की सांध्यबेला में सिर्फ अपने किए पर शर्मिंदा हैं. चाहते हैं कि एक बार तुम बनारस आ जाओ ताकि तुम से माफी मांग कर अपने दिल पर पड़े नाइंसाफी के बोझ को हलका का सकें. मेरे कथन का उस पर असर पड़ा. 2 दिन बाद वह बनारस आया. हम दोनों विनय के पास गए, सुनंदा ने देखा तो मुंह बना लिया. विनय अमन को देख कर भावविह्वल हो गया. भर्राए गले से बोला, ‘‘तेरी मां से किया वादा मैं नहीं निभा पाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना,’’ फिर थोड़ी देर में भावुकता से जब वह उबरा तो आगे बोला, ‘‘मां की कमी पूरी करने के लिए मैं ने सुनंदा से शादी की, मगर मैं उस पर इस कदर लट्टू हो गया कि तुम लोगों के प्रति अपने दायित्वों को भूल गया. मुझे सिर्फ अपने निजी स्वार्थ ही याद रहे.’’

‘‘सुनंदा मां को सोचना चाहिए था कि आप ने शादी कर के उन्हें सहारा दिया. बदले में उन्होंने हमें क्या दिया? आदमी को इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए,’’ अमन बोला. सुनंदा बीच में बोलना चाहती थी पर विनय ने रोक दिया. मुझे लगा यही वक्त है वर्षों बाद मन की भड़ास निकालने का सो किचिंत रोष में बोला, ‘‘भाभी, जरूरत इस बात की थी कि आप सब मिल कर एक अच्छी मिसाल बनते. न अमन आप की बेटी में फर्क करता न ही आप की बेटी अमन में. दोनों ऐसे व्यवहार करते मानों सगे भाईबहन हों. मगर हुआ इस का उलटा. आप ने आते ही अपनेपराए में भेद करना शुरू कर दिया. विनय की कमजोरियों का फायदा उठाने लगीं. जरा सोचिए, अगर विनय आप से शादी नहीं करता तब आप का क्या होता? क्या आप विधवा होने के सामाजिक कलंक के साथ जीना पसंद करतीं? साथ में असुरक्षा की भावना होती सो अलग.’’

विधवा कहने पर मुझे अफसोस हुआ. बाद में मैं ने माफी मांगी. फिर मैं आगे बोला,‘‘कौन आदमी दूसरे के जन्मे बच्चे की जिम्मेदारी उठाना चाहता है? विधुर हो या तलाकशुदा पुरुष हमेशा बेऔलाद महिला को ही प्राथमिकता देता है. इस के बावजूद विनय ने न केवल आप की बेटी को ही अपना नाम दिया, बल्कि उस की शादी के लिए अपना पुश्तैनी मकान तक बेच डाला.’’ अपनी बात कह कर हम दोनों अपनेअपने घर लौट आए, एक रोज खबर मिली कि सुनंदा और विनय दोनों दिल्ली अमन से मिलने जा रहे हैं. निश्चय ही अपनी गलती सुधारने जा रहे थे. मुझे खुशी हुई. देर से सही सुनंदा भाभी का हृदयपरिवर्तन तो हुआ.

हृदय परिवर्तन : क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई- भाग 1

विनय का फोन आया. सहसा विश्वास नहीं हुआ. अरसा बीत गया था मुझे विनय से नाता तोड़े हुए. तोड़ने का कारण था विनय की आंखों पर पड़ी अहंकार की पट्टी. अहं ने उस के विवेक को नष्ट कर दिया था. तभी तो मेरा मन उस से जो एक बार तिक्त हुआ तो आज तक कायम रहा. न उस ने कभी मेरा हाल पूछा न ही मैं ने उस का पूछना चाहा. दोस्ती का मतलब यह नहीं कि उस के हर फैसले पर मैं अपनी सहमति की मुहर लगाता जाऊं. अगर मुझे कहीं कुछ गलत लगा तो उस का विरोध करने से नहीं चूका. भले ही किसी को बुरा लगे. परंतु विनय को इस कदर भी मुखर नहीं हो जाना चाहिए था कि मुझे अपने घर से चले जाने को कह दे. सचमुच उस रोज उस ने अपने घर से बड़े ही खराब ढंग से चले जाने के लिए मुझ से कहा. वर्षों की दोस्ती के बीच एक औरत आ कर उस पर इस कदर हावी हो गई कि मैं तुच्छ हो गया. मेरा मन व्यथित हो गया. उस रोज तय किया कि अब कभी विनय के पास नहीं आऊंगा. आज तक अपने निर्णय पर कायम रहा.

विनय और मैं एक ही महल्ले के थे. साथसाथ पढ़े, सुखदुख के साथी बने. विनय का पहला विवाह प्रेम विवाह था. उस की पत्नी शारदा को उस की मौसी ने गोद लिया था. देखने में वह सुंदर और सुशील थी. मौसी का खुद का बड़ा मकान था, जिस की वह अकेली वारिस थी. इस के अलावा मौसी के पास अच्छाखासा बैंक बैलेंस भी था जो उन्होंने शारदा के नाम कर रखा था. विनय के मांबाप को भी वह अच्छी लगी. भली लगने का एक बहुत बड़ा कारण था उस की लाखों की संपत्ति, जो अंतत: विनय को मिलने वाली थी. दोनों की शादी हो गई. शारदा बड़ी नेकखयाल की थी. हम दोनों की दोस्ती के बीच कभी वह बाधक नहीं बनी. मैं जब भी उस के घर जाता मेरी आवभगत में कोई कसर न छोड़ती. एक तरह से वह मुझ से अपने भाई समान व्यवहार करती. मैं ने भी उसे कभी शिकायत का मौका नहीं दिया और न ही मर्यादा की लक्ष्मणरेखा पार की.

इसी बीच वह 2 बच्चों की मां बनी. विनय की सरकारी नौकरी ऐसी जगह थी जहां ऊपरी आमदनी की सीमा न थी. उस ने खूब रुपए कमाए. पर कहते हैं न कि बेईमानी की कमाई कभी नहीं फलती. जब उस का बड़ा लड़का अमन 10 साल का था तो उस समय शारदा को एक लाइलाज बीमारी ने घेर लिया. उस के भीतर का सारा खून सूख गया. विनय ने उस का कई साल इलाज करवाया. लाखों रुपए पानी की तरह बहाए. एक बार तो वह ठीक हो कर घर भी आ गई, मगर कुछ महीनों के बाद फिर बीमार पड़ गई. इस बार वह बचाई न जा सकी. मुझे उस के जाने का बेहद दुख था. उस से भी ज्यादा दुख उस के 2 बच्चों का असमय मां से वंचित हो जाने का था. पर कहते हैं न समय हर जख्म भर देता है. दोनों बच्चे संभल गए. विनय की एक तलाकशुदा बेऔलाद बहन राधिका ने उस के दोनों बच्चों को संभाल लिया. इस से विनय को काफी राहत मिली.

शारदा के गुजर जाने के बाद राधिका और दूसरे रिश्तेदार विनय पर दूसरी शादी का दबाव बनाने लगे. विनय तब 42 के करीब था. मैं ने भी उसे दूसरी शादी की राय दी. अभी उस के बच्चे छोटे थे. वह अपनी नौकरी देखे कि बच्चों की परवरिश करे. घर का अकेलापल अलग काट खाने को दौड़ता. विनय में थोड़ी हिचक थी कि पता नहीं सौतली मां उस के बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करे? मेरे समझाने पर उस की आंखों में गम के आंसू आ गए. निश्चय ही शारदा के लिए थे. भरे गले से बोला, ‘‘क्यों बीच रास्ते में छोड़ कर चली गई? मैं क्या मां की जगह ले सकता हूं? मेरे बच्चे मां के लिए रात में रोते हैं. रात में मैं उन्हें अपने पास ही सुलाता हूं. भरसक कोशिश करता हूं उस की कमी पूरी करूं. औफिस जाता हूं तो सोचता हूं कि जल्द घर पहुंच कर उन्हें कंपनी दूं. वे मां की कमी महसूस न करें.’’ सुन कर मैं भी गमगीन हो गया. क्षणांश भावुकता से उबरने के बाद मैं बोला, ‘‘जो हो गया सो हो गया. अब आगे की सोच.’’

‘‘क्या सोचूं? मेरा तो दिमाग ही काम नहीं करता. अमन 17 साल का है तो मोनिका 14 साल की. वे कब बड़े होंगे कब उन के जेहन से मां का अक्स उतरेगा, सोचसोच कर मेरा दिल भर आता है.’’ ‘‘देखो, मां की कसक तो हमें भी रहेगी. हां, दूसरी पत्नी आएगी तो हो सकता है इन्हें कुछ राहत मिले.’’ ‘‘हो सकता है लेकिन गारंटेड तो नहीं. कहीं मेरा विवाह का फैसला गलत साबित हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा. बच्चों की नजरों में अपराधी बनूंगा वह अलग.’’

विनय की शंका निराधार नहीं थी. पर शंका के आधार पर आगे बढ़ने के लिए अपने कदम रोकना भी तो उचित नहीं. भविष्य में क्या होगा क्या नहीं, कौन जानता है? हो सकता है कि विनय ही बदल जाए? बहरहाल, कुछ रिश्ते आए तो राधिका ने इनकार कर दिया. कहने लगी कि सुंदर लड़की चाहिए. बड़ी बहन होने के नाते विनय ने शादी की जिम्मेदारी उसी को सौंप दी थी. लेकिन इस बात को जिस ने भी सुना उसे बुरा लगा. अब इस उम्र में भी सुंदर लड़की चाहिए. विनय के जेहन से धीरेधीरे शारदा की तसवीर उतरने लगी थी. अब उस के तसव्वुर में एक सुंदर महिला की तसवीर थी. ऐसा होने के पीछे राधिका व कुछ और शुभचिंतकों का शादी का वह प्रस्ताव था जिस में उसे यह आश्वासन दिया गया था कि उन की जानकारी में एक विधवा गोरीचिट्टी, खूबसूरत व 1 बच्ची की मां है. अगर वह तैयार हो तो शादी की बात छेड़ी जाए. भला विनय को क्या ऐतराज हो सकता था? अमूमन पुरुष का विवेक यहीं दफन हो जाता है. फिर विनय तो एक साधारण सा प्राणी था. उस विधवा स्त्री का नाम सुनंदा था. सुनने में आया कि उस का पति किसी निजी संस्थान में सेल्स अधिकारी था और दुर्घटना में मारा गया था.

राधिका को इस रिश्ते में कोई खामी नजर नहीं आई. वजह सुनंदा का खूबसूरत होना था. रही 8 वर्षीय बच्ची की मां होने की बात, तो थोड़ी हिचक के साथ विनय ने इसे भी स्वीकार कर लिया. सुनंदा वास्तव में खूबसूरत थी. मगर पता नहीं क्यों मैं इस रिश्ते से खुश नहीं था. मेरा मानना था कि विनय को एक घर संभालने वाली साधारण महिला से शादी करनी चाहिए थी. मजबूरी न होती तो शायद ही सुनंदा इस रिश्ते के लिए तैयार होती क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व में जमीनआसमान का अंतर था. जुगाड़ से क्लर्की की नौकरी पाने वाला विनय कहीं से भी सुनंदा के लायक नहीं था. मुझे सुनंदा पर तरस भी आया कि काश उस का पति असमय न चल बसा होता तो उस का एक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन होता.  विनय मेरा दोस्त था. पर जब मैं मानवता की दृष्टि से देखता था तो लगता था कि कुदरत ने सुनंदा के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की बेटी भी निहायत स्मार्ट व सुंदर थी, जबकि विनय की पहली पत्नी से पैदा दोनों संतानों में वह आकर्षण न था. अकेली स्त्री के लिए जीवन काटना आसान नहीं होता सो सुनंदा के मांबाप ने सामाजिक सुरक्षा के लिए सुनंदा को विनय के साथ बांधना मुनासिब समझा.

चाहत की शिकार : कैसे बरबाद हुई आनंद की जिंदगी

कुलमिला कर उस की जिंदगी की गाड़ी ठीकठाक चल रही थी. श्वेता से उस का परिचय होने के बाद तो जिंदगी में कोई कमी ही नहीं रह गई थी. बीचबीच में श्वेता उस के पास आती थी और उस की रातों को गुलजार कर जाया करती थी. वह अपनी जिंदगी से काफी संतुष्ट था खासकर श्वेता के आने के बाद से.

श्वेता समयसमय पर उस से थोड़ेबहुत पैसे लेती रहती थी, पर उसे इस का जरा भी अफसोस नहीं था, क्योंकि बदले में उसे श्वेता से काफीकुछ मिलता भी था.

परेशानी तब हुई, जब श्वेता की मांग दिनबदिन बढ़ने लगी. एक दिन तो उस ने उस से बड़ी मांग कर दी, ‘‘आनंद, मुझे 50,000 रुपए की सख्त जरूरत है,’’ यह उस ने आनंद के बालों में प्यार से हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘क्या… 50,000 रुपए? तुम पागल तो नहीं हो गई हो क्या श्वेता?’’ आनंद ने चौंक कर उठते हुए कहा था.

‘‘क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते? पहली बार तुम मुझे मना कर रहे हो. क्या इतना ही प्यार है तुम्हारे दिल में मेरे लिए या फिर मुझ से मन भर गया है?’’ श्वेता ने प्यार से कहा.

‘‘देखो, जो रकम मेरे बस में है, वह मैं तुम्हें दे सकता हूं, पर 50,000 रुपए… इतने रुपए तो मेरी सालभर की तनख्वाह के बराबर हैं,’’ आनंद ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘7 साल की तनख्वाह के बराबर तो नहीं हैं न?’’ एकाएक श्वेता का रुख बदल गया.

‘‘अगर मैं पुलिस में शिकायत कर दूं तो 7 साल के लिए हवालात में चले जाओगे. सीसीटीवी कैमरे में सुबूत हैं कि तुम मुझे अपने साथ लाते रहे हो. यहां की हर गलीनुक्कड़ में सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. मेरे कपड़ों पर तुम्हारी करतूत के सुबूत भी हैं. वैसे भी आजकल ‘मी टू’ के चलते बड़ेबड़ों की हालत खराब है, फिर तुम्हारी क्या बिसात है?’’

‘‘यह क्या कह रही हो श्वेता… मैं ने तो कभी तुम्हारे साथ जबरदस्ती नहीं की. तुम पैसे के बदले मेरे पास आती रही हो,’’ आनंद ने दलील दी.

‘‘देखो, 50,000 रुपए तो मुझे हर हाल में चाहिए ही चाहिए. तुम कैसे इंतजाम करोगे, यह तुम जानो. एक हफ्ते का समय है तुम्हारे पास,’’ कहते हुए श्वेता चली गई और आनंद हैरान सा उसे जाते हुए देखता रहा.

इस के बाद से आनंद काफी चिंतित रहने लगा था. उस की कुल तनख्वाह 6,000 रुपए महीने थी जिस में से 2-3 हजार रुपए तो वह श्वेता पर ही लुटा देता था. 1,000 रुपए घर भेज दिया करता था. बाकी उस के खानेपीने पर खर्च हो जाया करते थे. पैसों के लिए एकमात्र सहारा उस का मालिक था जो 1-2 महीने से ज्यादा की एडवांस तनख्वाह नहीं दे सकता था.

तो फिर क्या किया जाए? अगर श्वेता ने पुलिस में शिकायत कर दी तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे. एक साल पहले ही वह मुंबई आया था. कोई ऐसा जानकार भी नहीं था जिस से उसे पैसों की मदद मिल सके.

आनंद मुंबई के दादर इलाके में एक प्लाट पर बने छोटे से झोंपड़ीनुमा मकान में रहता था. प्लाट के मालिक ने प्लाट की देखभाल के लिए उसे वहां टिका दिया था. प्लाट के मालिक की उस प्लाट पर एक बहुमंजिला अपार्टमैंट्स बनाने की योजना थी जिस के लिए बिल्डरों से बात चल रही थी.

आनंद को महज 6,000 रुपए तनख्वाह मिलती थी. घर पर बेकार बैठे रहने के बजाय यह भी बुरा न था. न जाने कितने लोग मुंबई जैसे बड़े शहरों में मामूली तनख्वाह पर काम करने आते हैं क्योंकि उन के पास और कोई काम नहीं होता. कइयों को तो काफी खराब हालात में रहना पड़ता है, पर वह संतुष्ट था. रहने को झोंपड़ी थी ही. वहीं कुछ कच्चापक्का बना कर खा लेता था. बिजलीपानी की सुविधा चौबीसों घंटे थी जिस का बिल मालिक अदा करता था.

काफी सोचविचार के बाद आनंद के दिमाग में एक ही उपाय आया श्वेता को रास्ते से हटाने का. उस की हत्या कर देना, पर लाश को कहां और कैसे ठिकाने लगाएगा, यह बहुत बड़ी समस्या थी.

काफी सोचविचार के बाद आनंद ने लाश को प्लाट के एक कोने में फेंक कर खुद पुलिस को सूचित करने की योजना सोची. वह खुद शिकायत करेगा तो पुलिस को शक भी नहीं होगा.

अगली बार जब श्वेता आई तो आनंद ने उस का दिल खोल कर स्वागत किया.

‘‘जैसेतैसे मैं ने रुपयों का इंतजाम किया है. आगे से इतनी बड़ी रकम मत मांगना. मैं गरीब आदमी कहां से इतनी बड़ी रकम लाऊंगा?’’ आनंद ने श्वेता को बांहों में भरते हुए कहा.

श्वेता को इस बात से मतलब नहीं था कि आनंद ने रुपयों का इंतजाम कहां से किया है. मन ही मन उस ने सोचा, ‘रुपए तो मैं तुम से हमेशा मांगूंगी. आखिर मजबूरी में तुम्हें अपना जिस्म देती हूं तो उस का भुगतान तो देना ही होगा.’

श्वेता बोली, ‘‘अगर जरूरत नहीं होती तो तुम्हें क्यों तकलीफ देती…’’

फिर वे दोनों एकदूसरे के आगोश में समा गए. आनंद सोच रहा था कि वह आखिरी बार श्वेता के जिस्म को भोग रहा है, इस के बाद तो इसे खत्म कर देना है इसलिए वह जम कर उस के बदन का मजा ले रहा था.

श्वेता सोच रही थी कि आज 50,000 रुपए लेने के बाद फिर कब उस से रकम मांगनी है.

मौका पा कर आनंद ने श्वेता का गला दबा दिया, फिर चाकू से गले को रेत दिया और लाश को एक कोने में जा कर फेंक दिया.

आनंद को अपने प्लान पर पूरा भरोसा था, इसलिए वह आराम से सो गया. अगले दिन सुबह उस ने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन कर जानकारी दी कि एक औरत की लाश प्लाट के एक कोने में पड़ी हुई है.

आनंद को यह गुमान था कि पुलिस को आसानी से चकमा दिया जा सकता है और इस के लिए उस ने खुद पुलिस से शिकायत करने की तरकीब अपनाई थी. शिकायत करने वाले पर पुलिस भला क्यों शक करेगी, उस ने यही सोचा था.

पुलिस ने आ कर सब से पहले श्वेता को अस्पताल पहुंचाया, जहां उसे ‘मृत लाया गया’ घोषित कर दिया. पुलिस ने अनजान शख्स के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

आनंद बहुत खुश हुआ. उसे अपनी योजना कामयाब होती दिखाई दी, पर उसे पता नहीं था कि पुलिस शक के आधार पर उस से पूछताछ शुरू कर देगी. विरोधाभाषी बयानों के चलते वह पकड़ में आ गया और फिर मामला सुलझ गया.

आनंद ज्यादा देर तक पुलिस के सामने टिक नहीं पाया और उस ने अपना जुर्म कबूल कर लिया. वही पुलिस को उस जगह पर भी ले गया जहां उस ने हत्या में इस्तेमाल किया गया चाकू छिपा कर रखा था.

इस तरह श्वेता के लालच ने उस की जिंदगी खत्म करवा दी और जिस्मानी आकर्षण ने आनंद की जिंदगी बरबाद कर दी.

सूनी मांग का दर्द: सालों बाद चंपा के घर कौन आया था

थोड़ी ही देर में चंपा उस के पास आ कर बोली, ‘‘बाईजी, कोई तरुण आए हैं.’’

‘‘तरुण….’’ वह हतप्रभ रह गई. शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई. उस ने फिर पूछा, ‘‘तरुण कि अरुण…’’

‘‘कुछ ऐसा ही नाम बताया बाईजी.’’

वह ‘उफ’ कर रह गई. लंबी आह भर कर उस ने सोचा, बड़ा अंतर है तरुण व अरुण में. एक वह जो उस के रोमरोम में समाया हुआ है और दूसरा वह जो बिलकुल अनजान है….फिर सोचा, अरुण ही होगा. तरुण नाम का कोई व्यक्ति तो उसे जानता ही नहीं. यह खयाल आते ही उस का रोमरोम पुलकित हो उठा. तुरंत हाथ धो कर वह दौड़ती हुई बाहर पहुंची, देखा तो अरुण नहीं था.

‘‘आप अर्पणा हैं न?’’ आने वाले पुरुष के शब्द उस के कानों में पडे़.

‘‘जी…’’

‘‘मैं अरुण का दोस्त हूं तरुण.’’

मन में तो उस के आया, कह दे कि तुम ने ऐसा नाम क्यों रखा, जिस से अरुण का भ्रम हो लेकिन प्रत्यक्ष में होंठों पर मुसकराहट बिखेरते हुए बोली, ‘‘आइए, अंदर बैठिए…चाय तो लेंगे,’’ और बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए अंदर चली गई.

चाय की केतली गैस पर रखी तो यादों का उफान फिर उफन गया. कैसा होगा अरुण….उसे याद करता भी है…जरूर करता होगा, तभी तो उस ने अपने दोस्त को भेजा है. कोई खबर तो लाया ही होगा…तभी चाय उफन गई. उस ने जल्दी गैस बंद की और चाय ले कर बैठक में आ गई.

‘‘आप ने व्यर्थ कष्ट किया. मैं तो चाय पी कर आया था.’’

‘‘कष्ट कैसा, आप पहली बार तो मेरे घर आए हैं.’’

तरुण चुपचाप चाय की चुस्कियां भरने लगा. उस की खामोशी अपर्णा को अंदर से बेचैन कर रही थी कि  कुछ बताए भी…कैसा है अरुण? कहां है? कैसे आना हुआ?

यही हाल तरुण का था, बोलने को बहुत कुछ था लेकिन बात कहां से शुरू की जाए, तरुण कुछ सोच नहीं पा रहा था. आखिर अपर्णा ने ही खामेशी तोड़ी, ‘‘अरुण कैसे हैं? ’’

‘‘उस का एक्सीडेंट हो गया है….’’

‘‘क्या?’’ अपर्णा की चीख ही निकल गई.

‘‘अभी 2 हफ्ते पहले वह फैक्टरी से घर जा रहा था कि अचानक उस की कार के सामने एक बच्चा आ गया. बच्चे को बचाने के लिए उस ने जैसे ही कार दाईं ओर मोड़ी कि उधर से आते ट्रक से एक्सीडेंट हो गया.’’

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’

‘‘बड़ा भयंकर एक्सीडेंट था. उसे देख कर रोंगटे खडे़ हो गए थे. ट्रक से टकरा कर कार नीचे खड्डे में जा गिरी थी. पेट में गहरा घाव है. सिर किसी तरह बच गया पर अभी भी बेहोशी छाई रहती है.’’

‘‘मुझे खबर नहीं दी?’’

‘‘खबर कौन देता? अरुण के डैडी को आप के नाम से चिढ़ है. अरुण पर उन्होंने कितनी बंदिशें नहीं लगाईं, कितनी डांट उसे नहीं पिलाई, फिर भी वह आप को नहीं भुला सका. रातरात भर आप की याद में तड़पता रहा. आप को तो पता ही होगा कि ठाकुर साहब अरुण की शादी टीकमगढ़ के राजघराने में करना चाहते थे. बात भी तय हो गई थी लेकिन अरुण ने साफ मना कर दिया. ठाकुर साहब का पारा चढ़ गया. उन्होंने छड़ी उठा ली और उसे भयंकर ढंग से पीटा लेकिन उस ने ‘उफ’ तक न की.

‘‘यह देख कर भी ठाकुर साहब अपनी जिद पर अटल रहे. लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि बेटे की शादी उस की मरजी से कर दें लेकिन वे सहमत नहीं हुए और एक दिन उन्होंने यहां तक कह दिया कि अरुण ने उन की मरजी के बगैर शादी की तो वे अपने आप को गोली मार लेंगे.

‘‘अरुण इस बात से डर गया. वह आप को खत भी न लिख सका क्योंकि वह जानता था कि डैडी अपने वचन के पक्के हैं. यदि ऐसा हो गया तो वह किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा. दिन ब दिन उस की हालत पतली होती गई. वह आप के गम में आंसू बहाता रहा. उस दिन अस्पताल में अचेतावस्था में उस के होंठों पर जब मैं ने आप का नाम सुना तो मुझे लगा कि आप ही उसे मौत के मुंह से बचा सकती हैं. मेरे दोस्त को बचा लीजिए,’’ इतना कहते ही उस का गला रुंध गया. आंखें छलछला आईं.

इस दुखद वृत्तांत ने अपर्णा का अंतस बेध दिया. वह गहरीगहरी सांसें भरने लगी. मन में धुंधली यादें ताजा हो आईं, अतीत कचोट गया. किन कठिन परिस्थितियों में उसे घर छोड़ना पड़ा, रिश्तेदारों से नाता तोड़ना पड़ा और परिचितों, सहेलियों से मुख मोड़ना पड़ा. कहांकहां नहीं भटकी वह, लेकिन अरुण की याद भुला न सकी. प्रेम का दीपक उस के अंदर सदैव जलता रहा और आज वह उस से अलग होना चाहता है, नहीं वह ऐसा कभी भी नहीं होने देगी. यदि उसे अपने जीवन की कुरबानी भी देनी पडे़ तो वह देगी.

बेशक, उस की शादी अरुण से नहीं हो सकी, लेकिन उस के नाम के साथ उस का नाम जुड़ा तो है. यह सोचते ही उस की आंखें छलछला आईं.

तभी खामोशी को तोड़ता हुआ तरुण बोला, ‘‘अच्छा अपर्णाजी, चलता हूं. आज ही शाम को छतरपुर जाना है, आप तैयार रहिएगा.’’

वह चुप ही रही…‘हां’, ‘न’ उस के मुख से कुछ नहीं निकल सका और तरुण हवा के तेज झोंके सा बाहर निकल गया. अतीत की परछाइयों ने फिर उसे समेट लिया. एकएक लम्हा उसे कुरेदता गया.

कालिज के दिनों में उस का साथ अरुण से हुआ था. अरुण उस की कक्षा का मेधावी छात्र था. दोनों की सीट पासपास थीं इसलिए उन में अकसर किसी विषय पर बहस हो जाया करती थी. अरुण के तर्क इतने सटीक होते थे कि वह परास्त हो जाती. हार की पीड़ा उस के अंदर छटपटाती रहती. वह पूरी कोशिश कर मंजे तर्क उस के सामने रखती, लेकिन वह उतनी ही कुशलता से उस के तर्क काट देता. तर्कवितर्क का यह सिलसिला प्रेम में परिणीत हो गया. दोनों घंटों बातों में मशगूल रहते और अपने प्रेम के इंद्रधनुषी पुल बनाते. कालिज के कैंपस से ले कर चौकचौराहों तक यह प्रेमजोड़ी चर्चित हो गई.

अपर्णा के पिता हरिशंकर उपाध्याय धार्मिक विचारों के थे, वे अध्यापक थे. उन के एक ही संतान थी अपर्णा और उसे वह उच्च से उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे, लेकिन बेटी के जमाने के साथ बदलते रंगों ने उन्हें तोड़ कर रख दिया.

उन्होंने अपर्णा को समझाते हुए कहा, ‘बेटी अपनी सीमा में रहो, जैसे इस परिवार की लड़कियां रही हैं. तुम्हारा इस तरह ठाकुर के लड़के के साथ घूमना मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’

‘पिताजी, मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’ अपर्णा ने जवाब दिया.

‘चुप नादान, तेरा रिश्ता उस से कैसे हो सकता है? वह क्षत्रिय है, हम ब्राह्मण हैं.’

‘लेकिन पिताजी, वह मुझ से शादी करने को तैयार है.’

‘उस के मानने से क्या होगा? जब तक कि उस के परिवार वाले न मानें. वह बहुत बडे़ आदमी हैं बेटी, उन्हें यह रिश्ता कभी मंजूर नहीं होगा.’

‘तब हम कोर्ट में शादी कर लेंगे.’

‘चुप बेशर्म,’ वह गुस्से से आगबबूला हो गए, ‘जा, चली जा मेरी आंखों के सामने से, वरना…. ’

यही हाल अरुण का था. जब उस के डैडी सूर्यभान सिंह को इस बात का पता चला तो वे क्रोध से पागल हो गए. यह उन के लिए बरदाश्त से बाहर था कि उन का लड़का एक मामूली पंडित की लड़की से प्यार करे. उन्होंने पहले अरुण को बहुत समझाया लेकिन जब उन की बात का उस पर कुछ असर नहीं हुआ तो उन्होंने दूसरा गंभीर उपाय सोचा.

वह सीधे हरिशंकर उपाध्याय के पास पहुंचे जो उस समय बरामदे में बैठे स्कूल का कुछ काम कर रहे थे. ठाकुर साहब को देखते ही वह हाथ जोड़ कर खडे़ हो गए.

‘हां, तो पंडित हरिशंकर, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’ अपनी जोरदार आवाज में ठाकुर साहब ने कहा.

‘बहुत ख्वाब देखने लगे हो तुम.’

‘जी ठाकुर साहब, मैं समझा नहीं.’

‘अच्छा, तो तुम्हें यह भी बताना पडे़गा. जिस बात को पूरा कसबा जानता है उस से तू कैसे अनजान है. देखो पंडित, अपनी लड़की को समझाओ कि वह मेरे बेटे से मिलना छोड़ दे वरना मैं तुम बापबेटी का वह हाल करूंगा जिस की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो.’

‘ठाकुर साहब, यह क्या कह रहे हैं आप….मैं आज ही उस की खबर लेता हूं. माफ करें….माफ करें.’

ठाकुर साहब के कडे़ प्रतिबंध के बाद भी अरुण अपर्णा से छुटपुट मुलाकात करने में सफल हो जाता जिस की भनक किसी न किसी तरह ठाकुर सूर्यभान को लग ही जाती और वे गुस्से से भिनभिना उठते.

उन्होंने दूसरा उपाय सोचा, क्यों न हरिशंकर का तबादला छतरपुर से कहीं और करा दिया जाए. और यह कार्य वहां के विधायक से कह कर करवा दिया. इधर पंडित हरिशंकर घबरा गए थे. तबादले का जैसे ही उन्हें आदेश मिला फौरन छतरपुर छोड़ दतिया आ गए. अपर्णा को भी पिताजी के साथ आना पड़ा.

वह दिन अपर्णा के जीवन का सब से बोझिल दिन था, जब बिना अरुण से मिले उसे दतिया आना पड़ा. जुदाई के सौसौ तीर उस के दिल में चुभ गए थे. अरुण का घर से निकलना बंद था. वह जातेजाते एक बार मिल लेना चाहती थी. लेकिन उस की हर कोशिश नाकाम हुई. एक यही दुख उसे लगातार पूरी यात्रा सालता रहा.

पिताजी के साथ अपर्णा चली तो आई लेकिन अरुण को भुला न सकी. दतिया आए अब 1 साल हो गया था. उस दौरान अरुण की उसे कोई खबर नहीं मिली. पढ़ाई भी उस की बंद हो गई. पिताजी को उस की शादी करने की जल्दी थी. मास्टर हरिशंकर ने एक अच्छा घर देख कर अपर्णा की सगाई बिना उस से पूछे ही कर दी. यह पता चलते ही उस ने शादी करने से इनकार कर दिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ अरुण से.

यह सुन कर पिताजी उस पर बरस पडे़, ‘‘तेरी ही वजह से मुझे छतरपुर छोड़ कर दतिया आना पड़ा है फिर भी तू अरुण के नाम की माला जप रही है. कितना सताएगी मुझे. भला इसी में है कि तू घर छोड़ कर कहीं निकल जा.’’

‘ऐसा मत कहिए पिताजी, अपर्णा गिड़गिड़ा पड़ी, समझने की कोशिश कीजिए.’

‘मुझे कुछ नहीं समझना. अगर तू यहां से नहीं जाएगी तो मैं ही चला जाता हूं, ले रह तू यहां….’

आखिर दिल के हाथों मजबूर हो कर अपर्णा ने वह घर त्याग दिया और अपनी सहेली नीता के पास भिंड चली आई. नीता की मदद से उसे भिंड में नौकरी मिल गई. खानेपीने का जरिया हो गया. किराए पर मकान ले लिया. इसी बीच उस के पास शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन उस ने सब को ठुकरा दिया.

वह दिन याद आते ही उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘समाज की यह कैसी रूढ़ियां हैं कि आदमी अपना मनपसंद साथी भी नहीं ढूंढ़ सकता? वंश परिवार की परंपराएं उस पर थोप दी जाती हैं. वहां आदमी टूटेगा नहीं तो क्या जुडे़गा?’’

आज अरुण की दुर्घटना की खबर ने उसे बेचैन ही कर दिया. वह नदी के किनारे पड़ी मछली सी फड़फड़ा गई. शाम को जब तरुण आया तो वह जाने को पूरी तरह तैयार बैठी थी, इस समय तक उस ने अपनी मानसिक स्थिति संभाल ली थी.

छतरपुर पहुंचते ही अपर्णा सीधे अस्पताल पहुंची. एक वार्ड में अरुण बेड पर मूर्छित पड़ा था. खून की बोतल लगी थी. हाथपैरों में प्लास्टर बंधा था. दोस्त, परिजन, रिश्तेदार उसे घेर कर खडे़ थे. डाक्टर उपचार में लगा था. उसे समझते देर न लगी कि अभी जरूर कोई गंभीर दौर गुजरा है क्योंकि सभी के चेहरे उदास थे.

ठाकुर सूर्यभान सिंह सिर नीचे झुकाए खडे़ थे. यद्यपि वह एक नजर उस पर डाल चुके थे. आज उसे उन से डर नहीं लगा था. डाक्टर के चेहरे से मायूसी साफ झलक रही थी. सभी की निगाहें उन पर टिक गईं.

‘‘इंजेक्शन दे दिया है. 10 मिनट में होश आ जाना चाहिए,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘लेकिन डाक्टर साहब, कुछ मिनट होश में रहता है फिर बेहोश हो जाता है,’’ ठाकुर साहब व्यग्रता से बोले.

‘‘देखिए, मैं तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं. आप मरीज को खुश रखने की कोशिश कीजिए….कोई गहरा आघात पहुंचा है, जिस की याद आते ही उसे बेहोशी छा जाती है. वैसे ंिचंता की बात नहीं. इस रोग पर काबू पाया जा सकता है,’’ इतना कह कर डाक्टर नर्स के साथ चले गए.

मौत सा सन्नाटा छा गया. किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था. तभी तरुण अपर्णा की ओर देख कर बोला, ‘‘आप कोशिश कीजिए, शायद होश आए. एक हफ्ते से यह इसी तरह पड़ा है. होश में आने पर भी किसी से एक शब्द नहीं बोलता.’’

यह सुनते ही अपर्णा निडर हो कर अंदर गई और अरुण के पास पहुंच कर बोली, ‘‘अरुण, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी, यहीं रहूंगी तुम्हारे पास.’’

‘‘लेकिन तुम ने तो….कोई दूसरा घर बसा लिया….शादी कर ली?’’

‘‘अरुण क्या कहते हो? किस ने कहा तुम से यह….मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘विश्वास तो था लेकिन….’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम्हारे नाम के अलावा कोई दूसरा नाम मेरे होंठों पर कभी नहीं आया. मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखो, सच क्या है तुम्हें पता चल जाएगा,’’ इतना कह कर अपर्णा फूटफूट कर रो पड़ी.

अरुण कुछ क्षण उसे देखता रहा, फिर आह कर उठा. उसे लगा जैसे उस के अंदर हजारों शूल एकसाथ चुभ गए हों.

‘‘अपर्णा….’’ वह गहरी निश्वास भरता हुआ बोला, ‘‘धोखा…विश्वासघात हुआ मेरे साथ…क्या समझ बैठा मैं तुम्हें…सोच भी नहीं सकता, तुम्हारे पिताजी ने यह झूठ मुझ से क्यों बोला?’’

कुछ क्षण अंदर ही अंदर वह सुलगती रही, फिर सोचा इस से तो काम नहीं चलेगा, उसे अगर अरुण को पाना है तो डट कर आगे आना होगा,’’

इस विचार के आते ही वह दृढ़ता से बोली, ‘‘अब मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी अरुण, तुम्हारे पास रहूंगी. देखती हूं कौन मुझे हटाता है.’’

तभी अरुण के सीने में भयंकर दर्द उठा और वह कराह उठा, उस के हाथपैर मछली से फड़फड़ा गए. लोग डाक्टर को बुलाने दौडे़…अरुण हांफता हुआ बोला, ‘‘बहुत देर हो गई अपर्णा, अब मैं नहीं बचूंगा….मुझे माफ…’’ और यहीं उस के शब्द अटक गए. आंखें खुली रह गईं… चेहरा एक तरफ लुढ़क गया. यह देख अपर्णा की चीख ही निकल गई.

उसे जब होश आया तो देखा ठाकुर साहब और 2-3 लोग उस के पास खडे़ थे. अरुण के शरीर को स्ट्रेचर पर रखा जा रहा था. वह तेजी से स्ट्रेचर की तरफ लपक कर बोली, ‘‘इन्हें मत ले जाओ. मैं भी इन के साथ जाऊंगी.’’

ठाकुर साहब अपर्णा को पकड़ते हुए बोले, ‘‘यह क्या कह रही हो अपर्णा? पागल हो गई हो…’’

वह शेरनी सी दहाड़ उठी, ‘‘पागल तो आप हैं, इन्हें पागल बना कर मार दिया, अब मुझे पागल बना रहे हैं. मुझे आप की कृपा की जरूरत नहीं ठाकुर सूर्यभान सिंह. आप ने भले ही मुझे अपने घर की बहू नहीं बनने दिया, लेकिन विधवा बनने से आप मुझे नहीं रोक सकते.’’

वह और जोर से सिसक पड़ी, ‘‘काश, मौत कुछ क्षण ठहर जाती तो वह मांग में सिंदूर तो लगा लेती?’’ आज इस स्थिति में, कुछ पोंछने को भी उस के पास नहीं था. सबकुछ पहले से ही सूनासूना था….

वजह: प्रिया का कौन-सा राज लड़के वाले जान गए?

‘‘अरे, संभल कर बेटा,’’ मैट्रो में तेजी से चढ़ती प्रिया के धक्के से आहत बुजुर्ग महिला बोलीं. प्रिया जल्दी में आगे बढ़ गई. बुजुर्ग महिला को यह बात अखर गई. वे उस के करीब जा कर बोलीं, ‘‘बेटा, चाहे कितनी भी जल्दी हो पर कभी शिष्टाचार नहीं भूलने चाहिए. तुम ने एक तो मुझे धक्का मार कर मेरा चश्मा गिरा दिया उस पर मेरे कहने के बावजूद मुझ से माफी मांगने के बजाय आंखें दिखा रही हो.’’

अब तो प्रिया ने उन्हें और भी ज्यादा गुस्से से देखा. मैं जानती हूं, प्रिया को गुस्सा बहुत जल्दी आता है. इस में उस की कोई गलती नहीं. वह घर की इकलौती लाडली बेटी है.

गजब की खूबसूरत और होशियार भी. वह जल्दी नाराज होती है तो सामान्य भी तुरंत हो जाती है. उसे किसी की टोकाटाकी या जोर से बोलना पसंद नहीं. इस के अलावा उसे किसी से हारना या पीछे रहना भी नहीं भाता.

जो चाहती उसे पा कर रहती. मैं उसे अच्छी तरह समझती हूं. इसीलिए सदैव उस के पीछे रहती हूं. आगे चलने या रास्ते में आने का प्रयास नहीं करती.

मुझे जिंदगी ने भी कुछ ऐसा ही बनाया है. बचपन में अपनी मां को खो दिया था. पिता ने दूसरी शादी कर ली. सौतेली मां को मैं बिलकुल नहीं भाती थी. मैं दिखने में भी खूबसूरत नहीं. एक ही उम्र की होने के बावजूद मुझ में और प्रिया में दिनरात का अंतर है. वह दूध सी सफेद, खूबसूरत, नाजुक, बड़ीबड़ी आंखों वाली और मैं साधारण सी हर चीज में औसत हूं. जाहिर है, पापा की लाडली भी प्रिया ही थी. मेरे प्रति तो वे केवल अपनी जिम्मेदारी ही निभा रहे थे. पर मैं ने बचपन से ही अपनी परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया था. मुझे किसी की कोई बात बुरी नहीं लगती. सब की परवाह करती पर इस बात की परवाह कभी नहीं करती कि मेरे साथ कौन कैसा व्यवहार कर रहा है. जिंदगी जीने का एक अलग ही तरीका था मेरा. शायद यही वजह थी कि प्रिया मुझ से बहुत खुश रहती. मैं अकसर उस की सुरक्षाकवच बन कर खड़ी रहती.

आज भी ऐसा ही हुआ. प्रिया को बचाने के लिए मैं सामने आ गई, ‘‘नहींनहीं आंटीजी, आप प्लीज उसे कुछ मत कहिए. प्रिया ने आप को देखा नहीं था. वह जल्दी में थी. उस की तरफ से मैं आप से माफी मांगती हूं, प्लीज, माफ कर दीजिए.’’ ‘‘बेटा जब गलती तूने की ही नहीं तो माफी क्यों मांग रही है? तूने तो उलटा मुझे मेरा गिरा चश्मा उठा कर दिया. तेरे जैसी बच्चियों की वजह से ही दुनिया में बुजुर्गों के प्रति सम्मान बाकी है वरना इस के जैसी लड़कियां तो…’’

‘‘मेरे जैसी से क्या मतलब है आप का? ओल्ड लेडी, गले ही पड़ गई हो,’’ बुजुर्ग महिला को झिड़कती हुई प्रिया आगे बढ़ गई. मुझे प्रिया की यह बात बहुत बुरी लगी. मैं ने बुजुर्ग महिला को सहारा देते हुए खाली पड़ी सीट पर बैठाया और उन्हें चश्मा पहना कर प्रिया के पास लौट आई.

हम दोनों जल्दीजल्दी घर पहुंचे. प्रिया का मूड औफ हो गया था. पर मैं उसे लगातार चियरअप करने का प्रयास करती रही. मैं सिर्फ प्रिया की रक्षक या पीछे चलने वाली सहायिका ही नहीं थी वरन उस की सहेली और सब से बड़ी राजदार भी थी. वह अपने दिल की हर बात सब से पहले मुझ से ही शेयर करती. मैं उस के प्रेम संबंधों की एकमात्र गवाह थी. उसे बौयफ्रैंड से मिलने कब जाना है, कैसे इस बात को घर में सब से छिपाना है और आनेजाने का कैसे प्रबंध करना है, इन सब बातों का खयाल मुझे ही रखना होता था.

प्रिया का पहला बौयफ्रैंड 8वीं क्लास में उस के साथ पढ़ने वाला प्रिंस था. उसी ने पीछे पड़ कर प्रिया को प्रोपोज किया था. उस की कहानी करीब 4 सालों तक चली. फिर प्रिया ने उसे डिच कर दिया. दूसरा बौयफ्रैंड वर्तमान में भी प्रिया के साथ था. अमीर घर का इकलौता चिराग वैभव नाम के अनुरूप ही वैभवशाली था. प्रिया की खूबसूरती से आकर्षित वैभव ने जब प्रोपोज किया तो प्रिया मना नहीं कर सकी. आज भी प्रिया उस के साथ रिश्ता निभा रही है पर दिल से उस से जुड़ नहीं सकी है. बस दोनों के बीच टाइमपास रिलेशनशिप ही है. प्रिया की नजरें किसी और को ही तलाशती रहती हैं.

उस दिन हमें अपनी कजिन की शादी में नोएडा जाना था. मम्मी ने पहले ही ताकीद कर दी थी कि दोनों बहनें समय पर तैयार हो जाएं. प्रिया के लिए पापा बेहद खूबसूरत नीले रंग का गाउन ले आए थे जबकि मैं ने अपनी पुरानी मैरून ड्रैस निकाल ली. नई ड्रैस प्रिया की कमजोरी है. इसी वजह से जब भी पापा प्रिया को पार्टी में ले जाना चाहते तो इसी तरह एक नई ड्रैस उस के बैड पर चुपके से रख आते.

आज भी प्रिया ने नई डै्रस देखी तो खुशी से उछल पड़ी. जल्दी से तैयार हो कर निकली तो सब दंग रह गए. बहुत खूबसूरत लग रही थी. ‘‘आज तो तू बहुतों का कत्ल कर के आएगी,’’ मैं ने प्यार से उसे छेड़ा तो वह मुझे बांहों में भर कर बोली, ‘‘बहुतों का कत्ल कर के क्या करना है, मुझे तो बस अपने उसी सपनों के राजकुमार की ख्वाहिश है जिसे देखते ही मेरी नजरें झपकना भूल जाएं.’’

‘‘जरूर मिलेगा मैडम, मगर अभी सपनों की दुनिया से जरा बाहर निकलिए और पार्टी में चलिए. क्या पता वहीं कोई आप का इंतजार कर रहा हो,’’ मैं ने उसे छेड़ते हुए कहा तो वह हंस पड़ी. पार्टी में पहुंच कर हम मस्ती करने लगे. करीब 1 घंटा बीत चुका था. अचानक प्रिया मेरी बांह पकड़ कर खींचती हुई मुझे अलग ले गई और कानों में फुसफुसा कर बोली, ‘‘प्रज्ञा वह देखो सामने. ब्लू सूट पहने मेरे सपनों का राजकुमार खड़ा है. मुझे तो बस इसी से शादी करनी है.’’

मैं खुशी से उछल पड़ी, ‘‘सच प्रिया? तो क्या तेरी तलाश पूरी हुई?’’ ‘‘हां,’’ प्रिया ने शरमाते हुए कहा.

सामने खड़ा नौजवान वाकई बहुत हैंडसम और खुशमिजाज लग रहा था. मैं ने कहा, ‘‘मुझे तेरी पसंद पर नाज है प्रिया, मैं पता लगाती हूं कि यह है कौन? वैसे तब तक तुझे उस से दोस्ती करने का प्रयास करना चाहिए.’’ वह रोंआसी हो कर बोली, ‘‘यार यही तो समस्या है. वह पहला लड़का है जो मुझे भाव नहीं दे रहा. मैं ने 1-2 बार प्रयास किया पर वह अपने घर वालों में ही व्यस्त है.’’

‘‘यार कुछ लड़के शर्मीले होते हैं. हो सकता है वह दूसरे लड़कों की तरह बोल्ड न हो जो पहली मुलाकात में ही दोस्ती के लिए उतावले हो उठते हैं.’’ ‘‘यार तभी तो यह लड़का मुझे और भी ज्यादा पसंद आ रहा है. दिल कर रहा है कि किसी भी तरह यह मेरा बन जाए.’’

‘‘तू फिक्र मत कर. मैं इस के बारे में सारी बात पता करती हूं. सारी कुंडली निकलवा लूंगी,’’ मैं ने उस लड़के की तरफ देखते हुए कहा. जल्द ही कोशिश कर के मैं ने उस लड़के से जुड़ी काफी जानकारी इकट्ठी कर ली. वह हमारी कजिन के फ्रैंड का भाई था. उस का नाम मयूर था.

वह कहां काम करता है, कहां रहता है, क्या पसंद है, घर में कौनकौन हैं जैसी बातें मैं ने प्रिया को बता दीं. प्रिया ने फेसबुक, लिंक्डइन जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर जा कर उस लड़के के बारे में और भी जानकारी ले ली. प्रिया ने फेसबुक पर मयूर को फ्रैंड रिक्वैस्ट भी भेजी पर उस ने स्वीकार नहीं की. अब तो मैं अकसर देखती कि प्रिया उस लड़के के ही खयालों में खोई रहती है. उसी की तसवीरें देखती रहती है या उस की डिटेल्स ढूंढ़ रही होती है. मुझे समझ में आ गया कि प्रिया को उस लड़के से वास्तव में प्यार हो गया है.

एक दिन मैं ने यह बात पापा को बता दी और आग्रह किया कि वे उस लड़के के घर प्रिया का रिश्ता ले कर जाएं. पापा ने उस के परिवार वालों से बात चलाई तो पता चला कि वे लोग भी मयूर के लिए लड़की ढूंढ़ रहे हैं. पापा ने अपनी तरफ से प्रिया के लिए उन्हें प्रपोजल दिया.

रविवार के दिन मयूर और उस के परिवार वाले प्रिया को देखने आने वाले थे. प्रिया बहुत खुश थी. अपनी सब से अच्छी ड्रैस पहन कर वह तैयार हुई. मैं ने बहुत जतन से उस का मेकअप किया. मेकअप कर के बालों को खुला छोड़ दिया. वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

मगर आज पहली दफा प्रिया मुझे नर्वस दिखाई दे रही थी. जब प्रिया को उन के सामने लाया गया तो मयूर और उस की मां एकटक उसे देखते रह गए. मैं भी पास ही खड़ी थी. मयूर ने तो कुछ नहीं कहा पर उस की मां ने बगैर किसी औपचारिक बातचीत के जो कहा उसे सुन कर हम सब सकते में आ गए. लड़के की मां ने कहा, ‘‘खूबसूरती और आकर्षण तो लड़की में कूटकूट कर भरा है, मगर आगे कोई बात की जाए उस से पहले ही क्षमा मांगते हुए मैं यह रिश्ता अस्वीकार करती हूं.’’

प्रिया का चेहरा उतर गया. पापा भी इस अप्रत्याशित इनकार से हैरान थे. अजीब मुझे भी बहुत लग रहा था. आखिर प्रिया जैसी खूबसूरत और पढ़ीलिखी बड़े घर की लड़की को पाना किसी के लिए भी हार्दिक प्रसन्नता की बात होती और फिर प्रिया भी तो इस रिश्ते के लिए कितनी उत्साहित थी. पापा ने हाथ जोड़ते हुए धीरे से पूछा, ‘‘इस इनकार की वजह तो बता दीजिए. आखिर मेरी बच्ची में कमी क्या है?’’

लड़के की मां ने बात बदली और मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘मुझे यह लड़की पसंद है. यदि आप चाहें तो मैं इसे अपनी बहू बनाना पसंद करूंगी. आप घर में बात कर के जब चाहें अपना जवाब दे देना.’’ पापा ने उम्मीद के साथ मयूर की ओर देखा तो वह भी हाथ जोड़ता हुआ बोला, ‘‘अंकल, जैसा मम्मी कह रही हैं मेरा जवाब भी वही है. मैं भी चाहूंगा कि प्रज्ञा जैसी लड़की ही मेरी जीवनसाथी बने.’’

प्रिया रोती हुई अंदर भाग गई. मैं भी उस के पीछेपीछे अंदर चली गई. उन्हें बिदा कर मम्मीपापा भी जल्दी से प्रिया के कमरे में आ गए. मगर प्रिया किसी से भी बात करने को तैयार नहीं थी. रोती हुई बोली, ‘‘प्लीज, आप लोग बाहर जाएं, मैं अभी अकेली रहना चाहती हूं.’’

हम सब बाहर आ गए. इस समय मेरी स्थिति अजीब हो रही थी. समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूं. कुसूरवार न होते हुए भी आज मैं सब की आंखों में चुभ रही थी. मम्मी मुझे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं तो प्रिया भी नजरें चुरा रही थी. मुझे रात भर नींद नहीं आई.

अगली सुबह भी प्रिया बहुत उदास दिखी. उस की नजरों में दोषी मैं ही थी और यह बात सहन करना मेरे लिए बहुत कठिन था. मैं ने तय किया कि मैं मयूर के घर वालों के इनकार की वजह जान कर रहूंगी. प्रिया को छोड़ कर उन्होंने मुझे क्यों चुना जबकि प्रिया मुझ से लाख गुना ज्यादा खूबसूरत और स्मार्ट है, होशियार है. मैं तो कुछ भी नहीं. बात की तह तक पहुंचने का फैसला कर मैं मयूर के घर पहुंच गई. बहुत आलीशान और खूबसूरत घर था उन का. महरी ने दरवाजा खोला और मुझे अंदर आने को कहा. घर बहुत करीने से सजा था. मैं ड्राइंगरूम का जायजा ले रही थी कि तभी बगल के कमरे से चश्मा पोंछती बुजुर्ग महिला निकलीं.

मुझे उन्हें पहचानने में एक पल भी नहीं लगा. यह तो मैट्रो वाली वही बुजुर्ग महिला थीं जिन का चश्मा कुछ दिन पहले प्रिया ने गिरा दिया था. मैं ने उन्हें चश्मा उठा कर दिया था. मुझे सहसा सारी बात समझ में आने लगी कि क्यों प्रिया को रिजैक्ट कर उन्होंने मुझे चुना. सामने से मयूर की मां निकलीं. मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, मैं समझ सकती हूं कि तू क्या पूछने आई है. शायद तुझे अपने सवाल का जवाब मिल भी गया होगा. दरअसल, उस दिन मैट्रो में

मैं भी वहीं थी और सब कुछ अपनी नजरों से देखा था. खूबसूरती, रंगरूप, धन, इन सब से ऊपर एक चीज होती है और वह है संस्कार. हमें एक सभ्य और व्यवहारकुशल बहू चाहिए बिलकुल तुम्हारे जैसी.’’ मैं ने आगे बढ़ कर दोनों के पांव छूने चाहे पर अम्मांजी ने मुझे गले से लगा लिया.

घर पहुंची तो प्रिया ने पहले की तरह रूखेपन से मेरी तरफ देखा और फिर अपने काम में लग गई. मैं उस के पास जा कर धीरे से बोली, ‘‘कल के इनकार की वजह जानने मैं मयूर के घर गई थी. तुझे याद हैं वे बुजुर्ग महिला, जिन का चश्मा मैट्रो में तेरी टक्कर से नीचे गिर गया था? दरअसल, वे बुजुर्ग महिला मयूर की दादी हैं और इसी वजह से उन्होंने तुझे न कह दिया. पर तू परेशान मत हो प्रिया. तेरी पसंद के लड़के को मैं कभी अपना नहीं बनाऊंगी. मैं न कह कर आई हूं.’’

प्रिया खामोशी से मेरी तरफ देखती रही. उस की आंखों में रूखेपन की जगह बेचारगी और अफसोस ने ले ली थी. थोड़ी देर चुप बैठने के बाद वह धीरे से उठी और मुझे गले लगाती हुई बोली, ‘‘पागल है क्या? इतने अच्छे रिश्ते के लिए कभी न नहीं करते. मैं करवाऊंगी मयूर से तेरी शादी.’’

मैं आश्चर्य से उसे देखने लगी तो वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘आज तक तू मेरे लिए जीती रही है. आज समय है कि मैं भी तेरे लिए कुछ अच्छा करूं. खबरदार जो न कहा.’’ मेरे दिल पर पड़ा बोझ हट गया था. मैं ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया.

गंध मादन : कर्नल साहब क्यों निराश नहीं किया

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मौन: जब दो जवां और अजनबी दिल मिले – भाग 1

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे होें. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.

मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

नीरो अभी जिंदा है

बचपन में एक कहावत सुनी थी कि रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था, मगर जब इतिहास पढ़ना शुरू किया तो इस कहावत की जड़ तक पहुंचने की कोशिश की. कहावत से आगे एक तानाशाह राजा की कारिस्तानी पता चली.

हुआ यों कि सम्राट नीरो ने एक बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया था. तेसतीस के बाग में पार्टी रखी गई थी और रोम साम्राज्य के तमाम बड़े लोगों को न्योता दिया गया था. उस समय उस बगीचे में शाम को रोशनी का इंतजाम नहीं हो पाया था.

रोशनी का बंदोबस्त किस तरह किया जाए, इस के लिए सम्राट नीरो चिंता में पड़ गया. देशभर के इज्जतदार लोगों के बीच अपनी इज्जत का सवाल था. रोशनी व चमकदमक हर हाल में जरूरी थी.
सम्राट नीरो को आइडिया आया और जेल प्रहरियों व अनाथाश्रम संचालकों को निर्देश दिया गया कि जितने भी जेलों में व गरीब और लाचार लोग अनाथाश्रम में पड़े हैं, उन सब को बगीचे के चारों तरफ खड़ा कर के उन को आग के हवाले कर दो, ताकि पूरा बगीचा रोशन हो जाए और देशभर के नामचीन लोगों के बीच उस की इज्जत बरकरार रहे.

मेरे मन में सवाल यह नहीं था कि कितने लोगों को फूंका गया था या वे मरने वाले लोग कौन थे? सवाल यह था कि उस पार्टी में शामिल लोग कौन थे, जो अपना ईमान और इनसानियत सबकुछ ठेंगे पर रख कर पार्टी का लुत्फ उठाते रहे थे?

सवाल यह नहीं था कि विभिन्न आरोपों में जेलों में बंद पड़े लोगों को फूंक दिया गया और न न्यायपालिका बोल पाई और न ही आम जनता. सवाल यह भी था कि जब बेबस और बेसहारा लोगों को उस पार्टी के लिए फूंका जा रहा था, तो किसी ने विरोध क्यों नहीं किया?

जब मैं इतिहास के इन छिपे पन्नों की सचाई खोज रहा था, तो मेरे मन में सवाल यह नहीं था कि गड़े मुरदे उखाड़ कर वर्तमान व भविष्य के लिए बदले व नफरत की फसल की बोआई करूं, बल्कि मेरा ध्यान उसी सवाल पर लगा था कि उस पार्टी में वे मेहमान कौन थे?

देश के किसानों और कमेरों के निकलते जनाजे के बीच खुद को लाचार पाया, तो उस को भूल कर आज भाषण सुनने लग गया. मेरी दुविधा या सवाल यह नहीं है कि देश में किसानों की बरबादी कैसे हुई, बल्कि मेरा सवाल यह है कि किसानों की चिताएं जब बगीचे के चारों तरफ खड़ी कर के फूंकी जा रही हैं, तो इन की पार्टी में शामिल मेहमान कौन हैं?

आज पूरे 20 मिनट भाषण सुना, तो मुझे यकीन हो गया कि नीरो मरा नहीं था, वह अभी जिंदा है.
मेरा सवाल यह नहीं है कि नीरो ऐसा क्यों कर रहा है? मेरा सवाल यह नहीं है कि नीरो की पार्टी की इज्जत के लिए कौन लोग जिंदा फूंके जा रहे हैं?

मेरा असली सवाल यह है कि नीरो की पार्टी में शामिल वे मेहमान कौन हैं, जो तानाशाह राजशाही में बगावत  करने वाले जेलों में बंद आरोपी को फूंक रहे हैं, मगर ह्विस्की का मजा उठा रहे हैं?

वे मेहमान कौन हैं, जो भूखप्यास, सर्दीगरमी में दिल्ली बौर्डर पर बैठे किसानों को पार्टी की इज्जत के लिए जिंदा फूंकने की तैयारी कर रहे हैं, मगर उन के ऐशोआराम में कोई रुकावट नहीं पड़ने देना चाहते.
मेरा सवाल यह नहीं है कि नीरो की पार्टी के चलते वैश्विक महामारी कोरोना में देश क्यों फूंका जा रहा है, बल्कि मेरा असली सवाल यह है कि पार्टी का लुत्फ उठाने वाले कौन लोग हैं?

किसान, बीमार, मजदूर के मुद्दों में कुछ बदलाव हो सकता है, मगर उन का दर्द एक ही है कि वे दिल्ली में बैठे नीरो की पार्टी को रोशन करने के लिए जिंदा फूंके जा रहे हैं. अब मैं बताता हूं कि नीरो की पार्टी के मेहमान कौन थे. सम्राट नीरो, उस के मंत्रिमंडल के सदस्य, सरकारी अफसर, जज, पत्रकार, साहित्यकार, कलाकार, पढ़ाने वाले, क्रांतिकारी विचारक और समाज के बुद्धिजीवी लोग.

जो पार्टी में शामिल नहीं थे, वे जलते गरीबों के बुतों के बीच से ह्विस्की की गिलास लेदे रहे थे और जैसे ही एक लाश जल कर गिरती, वैसे ही अंदर से बाहर की तरफ ऐशोआराम की दवा फेंक दी जाती थी. कुसूर भूतकाल के नीरो का नहीं था और न ही वर्तमान के नीरो का है. कुसूर न किसानों और मजदूरों का है और न ही महामारी से पीडि़तों का है.

नीरो की पार्टी में शामिल कौन लोग हैं, बस इतना देखते रहिए. देशभर में तकरीबन 700 हाईटैक दफ्तर बनाए जा चुके हैं और काम जारी है, बाकी जनता आपस में सहयोग कर के देख ले, शायद बचने का और कोई रास्ता निकल आए.

प्रेम न बाड़ी उपजै : लीला का चैन किसने छीना

लीला ने जब से उस को देखा था, तब से ही उस के दिल में चैन ओ करार था ही नहीं. यह लड़का मनोज उस का सब सुकून छीन रहा था. इतना ही नहीं, सपनों में भी वह आ रहा था, पर वो जैसे कमजोर पड़ रही थी और आसक्ति में फंस कर खुद कुछ नहीं कर पा रही थी या शायद करना ही नहीं चाहती थी.

लीला कोई गईगुजरी तो थी नहीं. वह खुद एक दौलतमंद महिला थी. उस की इतनी लंबीचैड़ी जमींदारी थी, फिर भी वह साधना के पथ पर अपना आध्यात्मिक काम भी कर रही थी. वह जगहजगह यात्रा कर रही थी और प्रेम की कार्यशाला चला रही थी.

यों सच्ची बात यह थी कि साधना, वार्ता वगैरह यह सब वह अपने अकेलेपन की सूखी नदी को भरने के लिए ही कर रही थी. समाज उस को इतनी गपशप करने नहीं देता, मगर इस बहाने कितने चेहरे कितनी रसभरी बातें सब काम हो रहे थे. साथ ही, उस पर एक आवरण लग गया था त्याग करती महिला का, वह अपनी प्रेम पिपासा को ढंक कर, छिपा कर बहुत ही मजे में पूरा कर रही थी.

मगर, आज सुबह 3 बजे अचानक ही भद्देपन से फिर मनोज सपने में आ धमका और उस ने ही प्रीत की अगन जलाई और लीला को तत्परता से अपनी देह में भर कर यहांवहां टटोलने लगा. वह खुद भी बेसुध हो सब भूल सा गई थी. पुरुषोचित शौर्य से सम्मोहित वह कितनी पागल कैसी मोहित हो गई थी.

पर, आज वह 5 बजे जाग कर फिर से यही सोच रही थी कि कहीं कुछ जाहिर न हो जाए. मनोज को रोकना होगा. वह बेकार के लफडे़ में ही क्यों पड़ रही है, जबकि वह इस से पहले इसी तरह अचानक वहां, जहां उस के प्रवचन और वार्ता ही भलीभांति प्यास बुझा सकती हैं, कितने भी दर्जी बदल लो, न कपड़ा बदलता है, न तन और न ही मन. तो…, तो फिर खुद लीला क्या देहचक्र के साथ इतनी तेजी से खुद ही गोलगोल घूम रही थी?

यही सब सोचतेसोचते 6 बज गए. वह यों ही बाहर आंगन में निकल आई. देखा, अरे, मनोज  एक कुरसी पर बुत बना बैठा है. कम उजाले में अनिश्चितता में, उस के पदचाप सुन कर वह उठ खड़ी हुई और हंस दी.

यह हंसी मनोज की किसी सांस में झनझना उठी. वह चुपचाप उस के निकट गया. शायद वह देखना चाहता था, उस को आत्मा के भीतर बिलकुल उस की गहराई में देखना चाहता हो, पर यह तो, हमारा खयाल है, लीला ने एक मंत्र कहा और आवाज के तीव्र एकरस प्रकाश से उस का मुख एकबारगी चकाचौंध सा हो गया.

नहीं… यह खयाल नहीं है. मैं अभीअभी खेतों से चल कर यहां आया हूं.

और भरोसा दिलाने के लिए मनोज ने तिलमिला कर लीला को थाम लिया. उस की उंगली को 2-3 बार चूस कर छोड़ दिया.

‘‘ओह, बस… बस, मनोज बस… बहुत हुआ,‘‘ कह कर लीला ने हाथ छुड़ा लिया.

अब वे दोनों ही वहीं बैठ गए और फिर कोई जादू सा छाने लगा. उस खामोशी में जैसे मनोज अपने अंक में लीला को अचानक एक क्षण में पा गया.

‘‘फिर मिलेंगे. आज मैं चली जाऊंगी. अंतिम सत्र है आज मेरा,‘‘ वह जैसे इन एकएक शब्दों की सूक्ष्म ध्वनि नहीं, स्थूल शरीर दांतों से चबाना चाहती है. यह सुन कर मनोज जैसे हताश सा हो गया.

‘तो लीला, तुम्हारे आगे क्या इरादे हैं?’ जैसे इसी प्रश्न को करने के लिए शब्दों का दास बना हुआ है मनोज. जैसे उसे यह प्रश्न करने का निर्विवाद अधिकार है. लीला ने निर्विकार कहा, ‘कुछ… नहीं, नहीं.’

यह सुन कर वह चौंक उठा. एक विचित्र संतोष से, जैसे यह उत्तर पाने के लिए ही उस ने यह प्रश्न किया था, फिर बोला, ’क्या तुम मुझ से बंधी नहीं हो?’

‘बंधी’,  मैं तो जाने कब से जीवन के हर बंधन के मुंह पर थूक रही हूं. वह बोली, जैसे वह कुछ और कहना चाहती थी, ‘‘तो मुझे अभी और इसी समय प्रेम का रहस्य जानना है,‘‘ कह कर वह उस के पैरों से लिपट गया.

‘‘मगर, अभी तो भोर हुई है बस. ये क्या तमाशा कर रहे हो… यहां गेस्ट हाउस के नौकरचाकर आते ही होंगे,‘‘ लीला कुछ परेशान सी हो रही थी.

‘‘आने दो… आ जाते हैं तो भला हो क्या जाएगा? लीला, मैं तो तुम्हारा भक्त हो गया हूं. अब मैं अपनी देवी के पास जब चाहे आ सकता हूं… मुझे कोई डर नहीं है, कोई भय नहीं है.‘‘

सचमुच लीला यही सुनना चाहती थी. वह भी तो मन ही मन मनोज की दीवानी हो गई थी. उस ने यह भी नहीं पूछा कि 9 बजे का सत्र है. तुम इतनी सुबह क्यों खेतों से और कैसे पैदलपैदल ही आ धमके,‘‘ वह उस के गाल सहलाती हुई बोली, ‘‘मनोज, तुम बच्चे नहीं हो. तुम को यह पता होना चाहिए कि प्रेम करने की कला या किसी के प्यार में डूब जाने का गुर, किसी भी कार्यशाला में सीखे जाने लायक कौशल या हुनर बिलकुल नहीं है.”

‘‘हां… हां, जानता हूं,‘‘ मनोज ने बीच में टोका और कहने लगा, ‘‘लीला, ये बात अलग है कि कई विदेशी और भारतीय मीडिया में ‘क्रिएटिव लव’ यानी जादुई अटैचमेंट के फार्मूले सिखलाने के रसीले कोर्स बाकायदा चलाए जाते आ रहे हैं, और वे अकेले पड़ गए मनोज जैसे संकोची जीवों के बीच लोकप्रिय भी हैं.‘‘

‘‘लीला, मुझे मालूम है कि अकेले में मैं ने ही यही कोई 3,000 वैबसाइट देख रखी हैं, जो प्यार कैसे करें का बाकायदा लज्जतदार मसाला बना कर अनोखा आनंद भी देती हैं,‘‘ मनोज के  मुंह से निकल पड़ा.

यह सुनते ही लीला ने भी तपाक से कहा, ‘‘मनोज, मेरा मतलब प्रेम का आनंद आकर्षित करने वाली कुछ जरूरी चीजों की याद दिलाने की कोशिश तक ही सीमित नहीं है. मैं प्यार की कला के बारे में वे छोटीमोटी बातें कहूंगी, जिन्हें हम सब जानते हैं, पर जिन्हें हम अकसर भूल जाते हैं, इसलिए… और इस वार्ता के अंत में होने वाली निराशा के लिए मैं खासतौर पर मनोज तुम जैसे प्रेमियों से क्षमादान की उम्मीद करती हूं, जिन्होंने अपने दिल में ये छाप लिया है कि मैं तुम को आज प्यार करने के जादुई गुर सिखाने जा रही हूं… दुनिया में अनेक आविष्कार हुए हैं, पर प्यार करने, उस में डूबने का फार्मूला आज तक नहीं बना.‘‘

‘‘अच्छा… तो कब बनेगा? ऐसा करो, तुम ही बना दो ना,’’ मनोज ने उस की कलाई थाम ली.

‘‘मनोज, जहां तक सुंदर देह को सोचने का सवाल है, हमारे प्राचीन रसिकों ने, प्रेमशास्त्रियों ने 2 बातें जोर दे कर कही हैं- एक तो कल्पना और दूसरी लगाव. तुम जानते ही होगे या कभी सुना तो होगा ना…’’

‘‘क्या सुना होगा? साफसाफ कहो लीला?‘‘

‘‘वही मनोज, ‘करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’. मनोज, मेरा मतलब है कि देह की  आहट सुनो… भाव को दफनाओ मत.‘‘

यह सुन कर मनोज जोरों से हंस पड़ा. लीला समझ गई तो वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘मन में कोई देवी स्थापित कर लो मनोज इस की तर्ज पर, न सिर्फ अकेली सौंदर्य कला का आनंद मिल जाता है. साथ में लगाव का अभ्यास करते जाने से, बल्कि दोनों के आदर्श मेल से सुकून ही सुकून… इसलिए प्रेम प्रतिभा को भी युद्ध अभ्यास की तरह जरूरी बतलाया गया है.”

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर मनोज ने अपनी दोनों आंखों को बंद कर लिया.

‘‘देखो, तबला बजाना सीखना है, तो इस कला में  ‘रियाज’ का असाधारण महत्त्व है. मुझे लगता है, प्रेम में भी अभ्यास या रियाज शायद उतना ही उपयोगी और जरूरी चीज होनी चाहिए, मुझे उम्मीद है कि संकल्प ही प्रेम को झरने की तरह प्रस्फुटित करता है, बहने देता है. प्रेम की हर गली में नयापन खोजने की संभावना है? इस मामले में कल, आज और कल कोई पगडंडी नहीं है.

“इसलिए जादुई अहसास में डूबने को राजी मन, उस की कल्पनाशक्ति और गंध महसूस करना यही एक बेहतरीन प्रेमी होने के लिए 3 जरूरी औजार हैं,‘‘ लीला कहती रही.

‘‘मनोज, सुन लो, यह भी एक विचार है, सौंदर्य और आनंद को ‘देखने’ की आदत से बंधा विचार, जो यह बतलाता है कि हम कितना कम देखते हैं.‘‘

‘‘लीला, यह लगाव और देखने के अलावा एक और बात है, खुद अपनी देह की जरूरत उस से प्रेम करने की निरंतरता, अनिवार्यता, यही ना लीला,‘‘ मनोज ने कहा, तो लीला ने सहमति में सिर हिला दिया.

वह फिर उस का माथा चूम कर बोली, ‘‘सुनो मनोज, कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा है… और हां, एक बात और सुन लो, याद भी रखना, अचार, चटनी बेशक कम खाएं,  पर अच्छा खाएं.

‘‘यह लालसा भी वही है… समझे, यानी तुम्हारी सलाह है, प्रेमी, आशिक बेशक कम ही डूबें, पर शानदार ढंग से.‘‘

मनोज ने सवाल किया, “केवल आकर्षण के जोर से या केवल जरूरत के चमत्कार भर से कोई अच्छा प्रेम पूरा हो पाएगा, मुझे संदेह है.‘‘

मनोज के इस सवाल पर लीला ने उस को संकेत किया कि उसे तैयार होना है क्योंकि सत्र का समय हो रहा है और उसे आज यहां से लौट कर भी जाना था. आज इस गेस्ट हाउस में उस का अंतिम दिन था. अब वह यहां कब वापस लौटेगी, कुछ पता नहीं था.

मनोज ने सत्र में रुकना उचित नहीं समझा. वह किसान था. अब उस को फसल कटवानी थी. मजदूरों की व्यवस्था करनी थी. वह भी लौट चला. जब तक अपने खेतों मे पहुंचा, याद करता रहा कि लीला क्या कह रही थी…

‘‘मनोज, प्रेम की दुनिया वैसी ही दुनिया है, जिस में अनगिनत महकतेगमकते चित्रों का असमाप्त मेला है, हर कोने में हर कदम पर आप का साबका तसवीरों से पड़ता है, पर जिन के बारे में आप तब तक जागरूक नहीं होते, जब तक आप उन्हें देखने की सही कोशिश और अभ्यास न करें, जैसा रोमियो जैसे समर्पित प्रेमी ने कभी जूलियट से कहीं कहा था. हमें चाहिए कि हम थोडा सा रुकें और वे अद्भुतअनूठे चित्र देखें, जो सिर्फ प्रेम ही हमें दिखला सकता है.’’

‘‘हर पल, हर समय आनंद आने तक रोज कई घंटे बस एक ही रंगरूप का विचार इस बात का सब से बड़ा उदाहरण है… अब भले ही वह युद्ध जैसा उतना कठोर और भयानक न हो, पर हौलेहौले उस रूप को दिल की कल्पना की किताब में रोज लिख रहा था और यथासंभव कलापूर्ण तरीके से उस में अपने अनुभव लिखना प्रेम रियाज की एक शुरुआत हो चुकी थी. यह चौंकाने वाला अनुभव वह झरोखा बन गया, जो उस को घरबैठे संसारभर के आनंद  दिखला रही थी.

अब मनोज विधिवत अपना कामधंधा देख रहा था. अनाज मंडी जा रहा था. रुपया आ रहा था. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सब सिद्ध हो गए. हर काम हो रहा था. सबकुछ आसान था.

जहां जैसी जरूरत होती है, वो अपनी कल्पना का वैसा ही उपयोग कर रहा था. जैसी उस पल की मांग होती, पर अब उस के दिमाग में कल्पना का भंडार ही इतना चटपटा था कि अभिव्यक्ति भी वैसी ही होने लगी थी.

अब तो कल्पना की कामधेनु को वह कितना दुह सकता, यह उस की कलाकारी थी. अब वह माहिर हो गया तो वह जान चुका था कि कैसे आती है सुंदरी किसी दृश्य, किसी आवाज, किसी गंध, किसी आकृति, किसी याद, किसी स्पर्श में सुंदरी की आत्मा एक पल के हजारवें हिस्से में दिखती है और सांस की तरह उस में दाखिल हो जाती है… पर, वह जानता था कि वह बहुत देर रुकने वाला अनुभव नहीं. फौरन वह उस आत्मा को अपनी हैरत, अचरज के आभूषण पहना कर सफलतम लाभ ले लिया करता था. अब तो हर जादुई अनुभव उस के निकट उस अनुभव को व्यक्त करने की, ‘’मोहिनी विद्या का खुशबूदार- प्रस्ताव भी साथ ही लिए आता रहा.”

वह फांकी वाली : सुनसान गलियों की प्रेम कहानी

वह एक उमस भरी दोपहर थी. नरेंद्र बैठक में कूलर चला कर लेटा हुआ था. इस समय गलियों में लोगों का आनाजाना काफी कम हो जाता था और कभीकभार तो गलियां सुनसान भी हो जाती थीं.

उस दिन भी गलियां सुनसान थीं. तभी गली से एक फेरी वाली गुजरते हुए आवाज लगा रही थी, ‘‘फांकी ले लो फांकी…’’

जैसे ही आवाज नरेंद्र की बैठक के नजदीक आई तो उसे वह आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी. वह जल्दी से चारपाई से उठा और गली की तरफ लपका. तब तक वह फेरी वाली थोड़ा आगे निकल गई थी.

नरेंद्र ने पीछे से आवाज लगाई, ‘‘लच्छो, ऐ लच्छो, सुन तो.’’

उस फेरी वाली ने मुड़ कर देखा तो नरेंद्र ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया. वह फेरी वाली फांकी और मुलतानी मिट्टी बेचने के लिए उस के पास आई और बोली, ‘‘जी बाबूजी, फांकी लोगे या मुलतानी मिट्टी?’’

नरेंद्र ने उसे देखा तो देखता ही रह गया. दोबारा जब उस लड़की ने पूछा, ‘‘क्या लोगे बाबूजी?’’ तब उस की तंद्रा टूटी.

नरेंद्र ने पूछा, ‘‘तुम लच्छो को जानती हो, वह भी यही काम करती है?’’

उस लड़की ने मुसकरा कर कहा, ‘‘लच्छो मेरी मां है.’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘वह कहां रहती है?’’

उस लड़की ने कहा, ‘‘वह यहीं मेरे साथ रहती है. आप के गांव के स्कूल के पास ही हमारा डेरा है. हम वहीं रहते हैं. आज मां पास वाले गांव में फेरी लगाने गई है.’’

नरेंद्र ने उस लड़की को बैठक में बिठाया, ठंडा पानी पिलाया और उस से कहा कि कल वह अपनी मां को साथ ले कर आए. तब उन का सामान भी खरीदेंगे और बातचीत भी करेंगे.

अगले दिन वे मांबेटी फेरी लगाते हुए नरेंद्र के घर पहुंचीं. उस ने दोनों को बैठक में बिठाया, चायपानी पिलाया. इस के बाद नरेंद्र ने लच्छो से पूछा, ‘‘क्या हालचाल है तुम्हारा?’’

लच्छो ने कहा, ‘‘तुम देख ही रहे हो. जैसी हूं बस ऐसी ही हूं. तुम सुनाओ?’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. अभी 2 साल पहले रिटायर हुआ हूं. 2 बेटे हैं. दोनों सर्विस करते हैं. बेटीदामाद भी भी सर्विस में हैं.

‘‘पत्नी छोटे बेटे के पास चंडीगढ़ गई है. मैं यहां इस घर की देखभाल करने के लिए. तुम अपने परिवार के बारे में बताओ,’’ नरेंद्र ने कहा.

लच्छो बोली, ‘‘तुम से बाबा की नानुकर के बाद हमारी जात में एक लड़का देख कर बाबा ने मेरी शादी करा दी थी. पति तो क्या था, नशे ने उस को खत्म कर रखा था.

‘‘यह मेरी एकलौती बेटी है सन्नो. इस के जन्म के 2 साल बाद ही इस के पिता की मौत हो गई थी. तब से ले कर आज तक अपनी किस्मत को मैं इस फांकी की टोकरी के साथ ढो रही हूं.’’

उन दोनों के जाने के बाद नरेंद्र यादों में खो गया. बात उन दिनों की थी जब वह ग्राम सचिव था. उस की पोस्टिंग राजस्थानहरियाणा के एक बौर्डर के गांव में थी. वह वहीं गांव में एक कमरा किराए पर ले कर रहता था.

वह कमरा गली के ऊपर था. उस के आगे 4-5 फुट चौड़ा व 8-10 फुट लंबा एक चबूतरा बना हुआ था. उस चबूतरे पर गली के लोग ताश खेलते रहते थे. दोपहर में फेरी वाले वहां बैठ कर आराम करते थे यानी चबूतरे पर रात तक चहलपहल बनी रहती थी.

राजस्थान से फांकी, मुलतानी मिट्टी, जीरा, लहसुन व दूसरी चीजें बेचने वाले वहां बहुत आते थे. कड़तुंबा, काला नमक, जीरा वगैरह के मिश्रण से वे लोग फांकी तैयार करते थे जो पेटदर्द, गैस, बदहजमी जैसी बीमारियों के लिए इनसानों व पशुओं के लिए बेहद गुणकारी साबित होती है.

उस दिन भी गरमी की दोपहर थी. फेरी वाली गांव में फेरी लगा कर कमरे के बाहर चबूतरे पर आ कर आराम कर रही थी. उस ने किवाड़ की सांकल खड़काई. नरेंद्र ने दरवाजा खोल कर देखा कि 18-20 साल की एक लड़की राजस्थानी लिबास में चबूतरे पर बैठी थी.

नरेंद्र ने पूछा था, ‘क्या बात है?’

उस ने मुसकरा कर कहा था, ‘बाबूजी, प्यास लगी है. पानी है तो दे देना.’

नरेंद्र ने मटके से उस को पानी पिलाया था. पानी पी कर वह कुछ देर वहीं बैठी रही. नरेंद्र उस के गठीले बदन के उभारों को देखता रहा. वह लड़की उसे बहुत खूबसूरत लगी थी.

नरेंद्र ने उस से पूछ लिया, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

उस ने कहा था, ‘लच्छो.’

‘तुम लोग रहते कहां हो?’ नरेंद्र के यह पूछने पर उस ने कहा था, ‘बाबूजी,  हम खानाबदोश हैं. घूमघूम कर अपनी गुजरबसर करते हैं. अब कई दिनों से यहीं गांव के बाहर डेरा है. पता नहीं, कब तक यहां रह पाएंगे,’ समय बिताने के बहाने नरेंद्र लच्छो के साथ काफी देर तक बातें करता रहा था.

अगले दिन फिर लच्छो चबूतरे पर आ गई. वे फिर बातचीत में मसरूफ हो गए. धीरेधीरे बातें मुलाकातों में बदलने लगीं. लच्छो ने बाहर चबूतरे से कमरे के अंदर की चारपाई तक का सफर पूरा कर लिया था.

दोपहर के वीरानेपन का उन दोनों ने भरपूर फायदा उठाया था. अब तो उन का एकदूसरे के बिना दिल ही नहीं लगता था.

नरेंद्र अभी तक कुंआरा था और लच्छो भी. वह कभीकभार लच्छो के साथ बाहर घूमने चला जाता था. लच्छो उसे प्यारी लगने लगी थी. वह उस से दूर नहीं होना चाहता था. उधर लच्छो की भी यही हालत थी.

लच्छो ने अपने मातापिता से रिश्ते के बारे में बात की. वे लगातार समाज की दुहाई देते रहे और टस से मस नहीं हुए. गांव के सरपंच से भी दबाव बनाने को कहा.

सरपंच ने उन को बहुत समझाया और लच्छो का रिश्ता नरेंद्र के साथ करने की बात कही लेकिन लच्छो के पिताजी नहीं माने. ज्यादा दबाव देने पर वे अपने डेरे को वहां से उठा कर रातोंरात कहीं चले गए.

नरेंद्र पागलों की तरह मोटरसाइकिल ले कर उन्हें एक गांव से दूसरे गांव ढूंढ़ता रहा लेकिन वे नहीं मिले.

नरेंद्र की भूखप्यास सब मर गई. सरपंच ने बहुत समझाया, लेकिन कोई फायदा नहीं. बस हर समय लच्छो की ही तसवीर उन की आंखों के सामने छाई रहती. सरपंच ने हालत भांपते हुए नरेंद्र की बदली दूसरी जगह करा दी और उस के पिताजी को बुला कर सबकुछ बता दिया.

पिताजी नरेंद्र को गांव ले आए. वहां गांव के साथियों के साथ बातचीत कर के लच्छो से ध्यान हटा तो उन की सेहत में सुधार होने लगा. पिताजी ने मौका देख कर उस का रिश्ता तय कर दिया और कुछ समय बाद शादी भी करा दी.

पत्नी के आने के बाद लच्छो का बचाखुचा नशा भी काफूर हो गया था. फिर बच्चे हुए तो उन की परवरिश में वह ऐसा उलझा कि कुछ भी याद नहीं रहा.

आज 35 साल बाद सन्नो की आवाज ने, उस के रंगरूप ने नरेंद्र के मन में एक बार फिर लच्छो की याद ताजा कर दी.

आज लच्छो से मिल कर नरेंद्र ने आंखोंआंखों में कितने गिलेशिकवे किए.  लच्छो व सन्नो चलने लगीं तो नरेंद्र ने कुछ रुपए लच्छो की मुट्ठी में टोकरी उठाते वक्त दबा दिए और जातेजाते ताकीद भी कर दी कि कभी भी किसी चीज की जरूरत हो तो बेधड़क आ कर ले जाना या बता देना, वह चीज तुम तक पहुंच जाएगी.

लच्छो का भी दिल भर आया था. आवाज निकल नहीं पा रही थी. उस ने उसी प्यारभरी नजर से देखा, जैसे वह पहले देखा करती थी. उस की आंखें भर आई थीं. उस ने जैसे ही हां में सिर हिलाया, नरेंद्र की आंखों से भी आंसू बह निकले. वह अपने पहले की जिंदगी को दूर जाता देख रहा था और वह जा रही थी.

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