विषबेल- भाग 3: आखिर शर्मिला हर छोटी समस्या को क्यों विकराल बना देती थी

शाम को समीर ने अपने विवाह के उपलक्ष्य में एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया था. सारा इंतजाम होटल में रखा गया. कुछ वरिष्ठ, कुछ कनिष्ठ, कुछ सहकर्ता अफसर आमंत्रित थे. सभी आमंत्रित मेहमानों ने शर्मिला के रूप, लावण्य और शिक्षा की खूब प्रशंसा की, तो समीर ने भी पत्नी के गुणों की प्रशंसा की. साथ ही, यह भी कहा, ‘उच्च शिक्षित होने के बावजूद वह एक अच्छी गृहस्थन भी है.’ यह सुन शर्मिला अवाक रह गई.

आखिरकार, अपशब्दों पर उतर आई और समीर पर  झूठ बोलने का आरोप लगाया. ‘ झूठा’ संबोधन से ही समीर अवाक रह गया. ठंडी सांस ले कर बोला, ‘शर्मिला, मु झे आज तक किसी ने ‘ झूठा’ नहीं कहा और तुम्हें जरा भी  िझ झक नहीं हुई?’

‘नहीं, क्योंकि मैं जानती हूं तुम ने मेरी  झूठी प्रशंसा की है.’

‘लगता है, मां ने इस आंगन में तुलसी के स्थान पर नागफनी रोप ली है.’

‘इस नागफनी को तुम्हें पानी भी देना पड़ेगा और ध्यान भी रखना पड़ेगा.’ शर्मिला एकदम निर्लज्ज बनी थी.

उस रात समीर की हलक से एक निवाला नहीं उतरा. सारी रात यही सोचता रहा, ‘किस मिट्टी की बनी है शर्मिला. न वाणी में मिठास है, न व्यवहार में नम्रता, हर समय घात लगाए बैठी रहती है कि कैसे किसी का अपमान करे.’

एक दिन समीर के सिर में तेज दर्द था. उस ने शर्मिला को पुकारा. दफ्तर में वह अनुशासन अधिकारी था, उस की आवाज में दम था. सो, उस की सहज बातचीत में भी शर्मिला को आदेश की गंध आती थी. ऐसे वाक्यांशों को वह अनसुना कर देती थी. उस ने सुन कर भी अनसुना कर दिया. समीर का धैर्य टूट गया.

‘क्या कम सुनाई पड़ने लगा है?’ शर्मिला मौन रही.

‘क्या ऊंचा सुनने लगी हो?’

शर्मिला को अपनी मां से पता चल चुका था, इस घर में 7 पीढि़यों से किसी औरत पर हाथ नहीं उठाया गया है. सो, उस ने शेरनी की तरह व्यवहार किया, ‘‘इतवार को मेरा मूड खराब मत करो. मेरे कान बिलकुल ठीक हैं. अगर गुस्सा आ गया तो मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा लूंगी.’

‘क्या कहा?’’ समीर चीख कर उछल पड़ा, जैसे सांप ने सामने से फुफकार मारी हो.

‘जो तुम ने सुना,’ शर्मिला ने स्वर धीमा नहीं किया, ‘यही कि अधिक परेशान करोगे तो मैं आत्महत्या कर लूंगी. तुम्हारे साथ दूसरे भी बंधेबंधे फिरेंगे, सारी इंजीनियरिंग धरी की धरी रह जाएगी.’

‘कितने घटिया संस्कार हैं तुम्हारे?’

‘तो छोड़ दो मु झे, तलाक दे दो.’

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समीर बुरी तरह डर गया. डरी तो शर्मिला भी थी मगर नारीहठ पुरुष के अहं को पराजित करने के लिए मन प्राण से जुटा था. असल में कुतर्कपूर्ण असभ्य संवाद शैली के कारण शर्मिला का अकसर समीर से  झगड़ा हो जाता था. घर की बात घर से बाहर न निकले, इसलिए समीर हमेशा घुटने टेक देता था. शर्मिला इसे अपनी जीत सम झ कर अपनी मां और बहनों की वाहवाही बटोरती. संक्षेप में कहा जाए तो उस ने नंदन कानन को श्मशानभूमि में बदल सा दिया था.

समस्या ने विकराल रूप तब धारण किया, जब नन्हा गौरव इस परिवार का सदस्य बना. समीर को पूरी उम्मीद थी कि शर्मिला के स्वभाव में अब बदलाव आएगा. अब वह इस परिवार से जुड़ेगी. लेकिन जुड़ना तो दूर, उस ने देवयानी और सुधाकर को उसे छूने तक नहीं दिया और जता दिया कि वह अपने बच्चे की देखभाल भलीभांति कर सकती है. बढ़ावा देने के लिए बहनें तो थीं ही, अब उस के अभियान में मां भी शामिल हो गई.

‘मेरा बेटा है, चाहे जिस प्रकार रखूं, मारूं या पालपोस कर बड़ा करूं.’

समीर ने बड़े दुखी स्वर में कहा, ‘इस मासूम ने किसी का क्या बिगाड़ा है शर्मिला? अपने हठ में तुम ने गर्भ के समय भी किसी का कहना नहीं माना. न मां की सलाह सुनी, न डाक्टर की हिदायतें, न पौष्टिक आहार ही अपनी डाइट में शामिल किया, इसलिए गौरव इतना कमजोर है.’

‘तुम यही कहना चाहते हो न कि, ‘गौरव मेरी लापरवाही के कारण कमजोर है? नहीं, वह तुम्हारी बेवकूफी और गैरजिम्मेदाराना हरकतों की वजह से कमजोर है. तुम न अच्छे पति बन सके, न अच्छे पिता.’

समीर के भीतर की कड़वाहट उस के सामने फूट पड़ना चाहती थी, फिर भी वह खुद को बांधे रहा. जानता था कि शर्मिला कभी भी अपनी गलती नहीं मानेगी. उस की मां ने बचपन से ही अपनी बेटियों को समर्पण का जवाब ठोकर से देना सिखाया है.

अगर समीर उसे गोद में उठाना चाहता, तो शर्मिला उसे भी दो कड़वे बोल सुना कर दूर छिटक देती. अगर देवयानी और सुधाकर उसे खिलाना चाहते, तो ऐसा कुहराम मचाती कि पूरा घर ज्वालामुखी के मुहाने पर जा बैठता.

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समीर तर्क देता, ‘एक व्यक्ति को कई लोग एकसाथ प्यार कर सकते हैं क्योंकि वह किसी का बेटा, किसी का भाई, किसी का पति और किसी का मित्र होता है. सभी तो उसे चाहेंगे. गौरव पर निश्चय ही सब से अधिक तुम्हारा अधिकार है, किंतु मेरे परिवार के लोग भी तो उस से स्नेह करते हैं और उस के सच्चे हितैषी हैं.’

किंतु शर्मिला ने किसी की न सुनी और गौरव को ले कर मायके चली गई ताकि उस की मां गौरव का लालनपालन कर सके. बहनों के सामने उस ने बढ़चढ़ कर अपनी विजय पताका लहराने के किस्से सुनाए तो तलाकशुदा बहन नीरा और छोटी बहन शिल्पा ने उस के समर्थन में सिर हिला दिया.

शर्मिला को मायके आए हुए एक महीने से ऊपर हो चुका था. शुरू में मां ने दुलारा, पुचकारा, सहानुभूति जतलाई, सांत्वना भी प्रकट की. बहनों ने भी उस के साहस की खूब प्रशंसा की. फिर, सभी अपनीअपनी राह हो लिए. मां अपनी सभासोसाइटियों और भजन मंडलियों में व्यस्त हो गई. बहनों का पूरा दिन सैरसपाटे, किटी पार्टियों और शौपिंग में बीत जाता. उस के बाद जो समय बचता, उस दौरान मन बहलाने के लिए फेसबुक और व्हाट्सऐप जैसी विधाएं तो थीं ही.

हताश जिंदगी का अंत- भाग 1: क्यों श्यामा जिंदगी से हार गई थी?

श्यामा निरंकारी बालिका इंटर कालेज में रसोइया के पद पर कार्यरत थी. वह छात्राओं के लिए मिडडे मील तैयार करती थी. श्यामा 2 दिन से काम पर नहीं आ रही थी. जिस से छात्राओं को मिडडे मील नहीं मिल पा रहा था. श्यामा शांति नगर में रहती थी. वह काम पर क्यों नहीं आ रही है, इस की जानकारी करने के लिए कालेज की प्रधानाचार्य ने एक छात्रा प्रीति को उस के घर भेजा. प्रीति, श्यामा के पड़ोस में रहती थी. और उसे अच्छी तरह से जानतीपहचानती थी.

प्रीति सुबह 9 बजे श्यामा के घर पहुंची. घर का दरवाजा अंदर से बंद था. छात्रा प्रीति ने दरवाजे की कुंडी खटखटाई लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं मिला और न ही कोई हलचल हुई. श्यामा की बेटी प्रियंका, प्रीति की सहेली थी और उस की कक्षा में पढ़ती थी. सो, प्रीति ने आवाज दी, ‘‘प्रियंका, ओ प्रियंका, दरवाजा खोलो. मु झे मैडम ने भेजा है.’’ पर फिर भी दरवाजा नहीं खुला और न ही किसी प्रकार की हलचल हुई.

पड़ोस में श्यामा का ससुर रामसागर रहता था. प्रीति ने दरवाजा न खोलने की जानकारी उसे दी तो रामसागर मौके पर आ गया. उस ने दरवाजा पीटा और बहूबहू कह कर आवाज दी, परंतु दरवाजा नहीं खुला. रामसागर ने दरवाजे की  िझर्री से  झांकने का प्रयास किया तो उस के नथुनों में तेज बदबू समा गई. उस ने किसी गंभीर वारदात की आंशका से पड़ोसियों को बुला लिया. पड़ोसियों ने उसे पुलिस में सूचना देने की सलाह दी. यह बात 1 फरवरी 2020 की है.

सुबह 10 बजे रामसागर बदहवास फतेहपुर सदर कोतवाली पहुंचा. उस समय कोतवाल रवींद्र कुमार कोतवाली में मौजूद थे. उन्होंने एक वृद्ध व्यक्ति को बदहवास हालत में देखा तो पूछा, ‘‘क्या परेशानी है. तुम इतने घबराए हुए क्यों हो? जो भी परेशानी हो, बताओ. हम तुम्हारी मदद करेंगे.’’

‘‘हुजुर, मेरा नाम रामसागर है. मै कोतवाली थाने के शांतिनगर महल्ले में रहता हूं. पड़ोस में हमारा पुत्र रामभरोसे अपनी पत्नी श्यामा व 4 पुत्रियों के साथ रहता है. उस के कमरे का दरवाजा अंदर से बंद है और भीतर से दुर्गंध आ रही है. हमें किसी अनिष्ट की आशंका है. आप मेरे साथ जल्दी चलने की कृपा करें.

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रामसागर ने जो बात बताई थी, वह वास्तव में गंभीर थी. सो, थाना प्रभारी रवींद्र कुमार ने आवश्यक पुलिस बल साथ लिया और रामसागर के साथ उस के पुत्र रामभरोसे के घर पहुंच गए. उस समय वहां पड़ोसियों का जमघट था और लोग दबी जबान से अनेक प्रकार के कयास लगा रहे थे. थाना प्रभारी रवींद्र कुमार लोगों को परे हटाते दरवाजे पर पहुंचे. दरवाजा अंदर से बंद था. उन्होंने आवाज दे कर दरवाजा खुलवाने का प्रयास किया लेकिन असफल रहे. कमरे के अंदर मां और उस की 4 बेटियां थीं. कमरे के अंदर से दुर्गंध भी आ रही थी. स्पष्ट था कि कोई गंभीर बात है. थाना प्रभारी रवींद्र कुमार ने पुलिस अधिकारियों को जानकारी दी.

जानकारी प्राप्त होते ही पुलिस अधीक्षक प्रशांत, अपर पुलिस अधीक्षक राजेश कुमार तथा सीओ (सिटी) कपिल देव मौके पर आ गए. पुलिस अधिकारियों ने पहले जानकारी जुटाई. फिर थाना प्रभारी रवींद्र कुमार को कमरे का दरवाजा तोड़ने का आदेश दिया. आदेश पाते ही उन्होंने अन्य पुलिस कर्मियों की मदद से कमरे का दरवाजा तोड़ दिया. दरवाजा टूटते ही तेज दुर्गंध का भभूका सभी के नथुनों में समा गया.

पुलिस अधिकारियों ने कमरे के अंदर प्रवेश किया तो उन के दिल कांप उठे. कमरे का दृश्य बड़ा ही वीभत्स था. कमरे के अंदर 5 लाशें आड़ीतिरछी एकदूसरे के ऊपर पड़ी थीं. मृतकों की पहचान राम सागर ने की. उस ने बताया कि मृतकों में एक उस की बहू श्यामा है तथा अन्य 4 उस की नातिन पिंकी (20 वर्ष), प्रियंका (14 वर्ष), वर्षा (13 वर्ष) तथा रूबी उर्फ ननकी (10 वर्ष) है.

सभी लाशें फर्श पर पड़ी थीं. देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी ने जहरीला पदार्थ पी कर आत्महत्या की थी. क्योंकि लाशों के पास ही एक भगैने में जहरीला पदार्थ आटे में घोला गया था. शायद इसी पदार्थ को पी कर मां तथा बेटियों ने आत्महत्या की थी. पुलिस अधिकारियों ने मौके पर जांच हेतु फोरैंसिक टीम को भी बुलवा लिया. फोरैंसिक टीम ने जांच की और कमरे से 7 पैकेट जहरीला पदार्थ (क्विक फौस) बरामद किया. इन में 4 पैकेट खाली थे और 3 पैकेट भरे थे.

फोरैंसिक टीम ने जहरीले पदार्थ के पैकेट जांच हेतु सुरक्षित कर लिए. भगोना तथा उस में घोला गया जहरीला पदार्थ भी जांच हेतु सुरक्षित कर लिया. इस के अलावा टीम ने अन्य साक्ष्य भी जुटाए.

अब तक मां व उस की 4 बेटियों द्वारा आत्महत्या कर लेने की खबर जंगल की आग की तरह शांतिनगर एवं आसपास के महल्लों मे फैल गई थी. सैकड़ों की भीड़ घटनास्थल पर इकट्ठी हो गई थी. जिस ने भी मांबेटियों के शवों को देखा उसी की आंखों में आंसू आ गए. पड़ोसी महिलाएं तो फूटफूट कर रो रही थीं.

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श्यामा तथा उस की बेटियों की मौत की खबर निरंकारी बालिका इंटर कालेज पहुंची तो शोक की लहर दैड़ गई. प्रधानाचार्य ने कालेज में शोक संवेदना व्यक्त की, उस के बाद कालेज में छुट्टी कर दी गई. छुट्टी के बाद अनेक छात्राएं शांतिनगर स्थित मृतकों के घर पहुंचीं और सहेलियों के शव देख कर फूटफूट कर रोईं. दरअसल, मृतका प्रियंका, रूबी और वर्षा निरंकारी बालिका इंटर कालेज में ही पढ़ती थीं. उन के साथ पढ़ने वाली छात्राएं ही अंतिम विदाई के वक्त घर पहुंची थीं.

जांचपड़ताल के बाद पुलिस अधिकारी इस नतीजे पर पहुंचे कि श्यामा ने आर्थिक तंगी व शराबी पति की क्रूरता से तंग आ कर अपनी पुत्रियों सहित आत्महत्या की है. हत्या जैसी कोई बात नही थी. सो, पुलिस अधिकारियों ने पांचों शवों का पंचनामा भरवा कर और अलगअलग सील मोहर करा कर पोस्टमार्टम हेतु जिला अस्पताल भिजवा दिया.

घर से 5 लाशें जरूर बरामद हुई थीं लेकिन घर के मुखिया रामभरोसे का कुछ अतापता न था. पुलिस अधिकारियों ने उस के संबंध में पिता रामसागर से पूछताछ की तो उस ने बताया कि रामभरोसे शराबी है. वह दिनभर मजदूरी करता है और शाम को शराब के ठेके पर पहुंच कर शराब पीता है. उस की तलाश ढाबों व शराब ठेकों पर की जाए तो वह मिल सकता है.

पुलिस अधीक्षक प्रशांत ने सीओ (सिटी) कपिल देव की निगरानी में पुलिस की एक टीम बनाई और रामभरोसे की खोज में लगा दी. पुलिस टीम ने कई शराब ठेकों पर उस की खोज की, लेकिन उस का पता नहीं चला. पुलिस टीम रामभरोसे की खोज करते जब जीटी रोड स्थित एक ढाबे पर पहुंची तो वह वहां बरतन साफ करते मिल गया. रामभरोसे को हिरासत में ले कर पुलिस टीम वापस सदर कोतवाली लौट आई.

थाना प्रभारी रवींद्र कुमार ने मृतका श्यामा के नशेड़ी पति राम भरोसे के पकड़े जाने की खबर पुलिस अधिकारियों को दी तो पुलिस अधीक्षक प्रशांत वर्मा तथा अपर पुलिस अधीक्षक राजेश कुमार कोतवाली आ गए. पुलिस अधिकारियों ने जब रामभरोसे को पत्नी और 4 पुत्रियों द्वारा आत्महत्या करने की जानकारी दी तो उस के चेहरे पर पत्नी व बेटियों के खोने का कोई गम नहीं दिखा. पूछताछ में उस ने बताया कि उस की नशेबाजी को ले कर घर में अकसर  झगड़ा होता था. 3 दिन पूर्व उस का पत्नी से  झगड़ा व मारपीट हुई थी. परेशान हो कर श्यामा ने जहर खा कर जान देने की धमकी दी थी. लेकिन उस ने यह नहीं सोचा था कि श्यामा सचमुच बेटियों संग जान दे देगी. हुजूर, पूरा परिवार चौपट हो गया है. अब ऐसा लगता है कि कोई उसे भी ला कर जहर देदे तो खा कर मर जाए.

अपर पुलिस अधीक्षक राजेश कुमार ने एक नफरतभरी दृष्टि रामभरोसे पर डाली फिर बोले, ‘‘रामभरोसे, तुम्हारी क्रूरता और नशेबाजी के कारण तुम्हारी पत्नी व बेटियों ने अपनी जान दे दी. वह तो मर गईं, लेकिन तु झे तिलतिल मरने को छोड़ गईं. अब पश्चात्ताप के आंसू बहाने से कोई फायदा नहीं. तुम्हें तुम्हारे किए कर्म की सजा कानून देगा. वक्त की मार से न कोई बच पाया है और न तुम बचोगे. तुम्हारी पत्नीबेटियों को इंसाफ जरूर मिलेगा.

पूछताछ के बाद पुलिस अधिकारियों ने थाना प्रभारी रवींद्र कुमार को आदेश दिया कि वे रामभरोसे के विरुद्ध आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने का मुकदमा दर्ज करें और उसे जेल भ्ेजें. आदेश पाते ही रवींद्र कुमार ने मृतका श्यामा के ससुर रामसागर को वादी बना कर भा.द.वि. की धारा 309 के तहत राम भरोसे के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर लिया और उसे विधि सम्मत बंदी बना लिया. पूछताछ में श्यामा की हताश जिंदगी की अंत की सनसनीखेज घटना प्रकाश में आई.

फतेहपुर जनपद की खागा तहसील के बहुआ ब्लौक के अंतर्गत एक गांव पड़ता है-नौगांव. दलितबाहुल्य इस गांव में जयराम रैदास अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी के अलावा 3 संतानें थीं. बेटे का नाम रामप्रकाश था, जबकि बेटियों में श्यामा व रामदेवी थीं. जयराम के पास कृषि योग्य भूमि नाममात्र की थी. सो, वह दूसरों की जमीन बंटाई पर ले कर फसल तैयार करता था. कृषि उपज से ही वह अपने परिवार का भरणपोषण करता था. अतिरिक्त आमदनी के लिए जयराम साप्ताहिक बाजार में जूताचप्पल की मरम्मत का काम भी करता था.

श्यामा जयराम की संतानों में सब से बड़ी थी. श्यामा बचपन से ही खूबसूरत थी. उस ने जब जवानी की दहलीज पर कदम रखा तो उस का जिस्म खिल उठा. श्यामा अपने मातापिता के साथ खेत पर काम करने जाती थी. आतेजाते गांव के मनचले युवक उसे घूरघूर कर देखते थे. भद्दे मजाक व फब्तियां कसते  थे लेकिन श्यामा उन को भाव नहीं देती थी.

श्यामा को चाहने वालों में एक गनपत भी था. वह उसी की जातिबिरादरी का था और दिखने में स्मार्ट था. वह गांव के जूनियर हायर सैकंडरी स्कूल में सफाई कर्मचारी था. श्यामा भी उसे मन ही मन चाहती थी. लेकिन दिल की बात कभी जबान पर नहीं ला पाती थी. श्यामा और गनपत की उम्र में यद्यपि 5-6 वर्ष का अंतर था फिर भी वह उस की ओर आकृष्ट थी.

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एक रोज श्यामा और गनपत को बगीचे में हंसतेबतियाते श्यामा के भाई प्रकाश ने देख लिया. उस ने यह बात अपने मांबाप को बता दी. इस के बाद तो घर में कलह मच गई. जयराम ने श्यामा को ख्ूब खरीखोटी सुनाई और गनपत से न मिलने की हिदायत दी. मां ने भी श्यामा को प्यार से सम झाया और गनपत से नयनमटक्का न करने की सलाह दी. दरअसल, जयराम और उस की पत्नी गांव के युवक के साथ बेटी की शादी करने को राजी न थे. दूसरे, जयराम की गनपत के परिवार से पुरानी दुश्मनी भी थी.

श्यामा अपने मांबाप की चहेती थी. वह उन की कद्र भी करती थी. इसलिए उस ने बड़ी आसानी से मांबाप की बात मान ली और गनपत से मिलनाजुलना बंद कर दिया. एक दिन गनपत ने उस का रास्ता  रोका और जबरदस्ती हाथ पकड़ा तो उस ने उस की शिकायत अपने तथा गनपत के घर वालों से कर दी. छेड़छाड़ को ले कर तब दोनों परिवारों में जम कर तूतू मैंमैं हुई. लेकिन इस छेड़छाड़ से जयराम को आभास हो गया कि उस की बेटी श्यामा अब जवान हो गई है. अब उसे उस की शादी जल्द ही कर देनी चाहिए.

जयराम ने इस बाबत अपनी पत्नी से विचारविमर्श किया. उस के बाद वह श्यामा के योग्य घरवर की खोज में जुट गया. उस ने नातेरिश्तेदारों को भी कोई बेटी के योग्य लड़का बताने को कहा. जयराम ने खागा, धाता तथा किशनपुर में बेटी के योग्य लड़के पसंद किए. लेकिन आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वह रिश्ता पक्का न कर सका. आखिर में एक रिश्तेदार के माध्यम से उसे एक लड़का रामभरोसे पसंद आ गया.

रामभरोसे का पिता रामसागर रैदास, फतेहपुर शहर के शांतिनगर महल्ले में रहता था. उस के परिवार में पत्नी गौरादेवी के अलावा 2 पुत्र दिनेश तथा रामभरोसे थे. रामसागर का शांति नगर में पुश्तैनी मकान था.

वह ट्रक व ट्रैक्टर की कमानी की मरम्मत करने वाली दुकान पर काम करता था. उस ने रामभरोसे को भी इसी दुकान पर काम करने के लिए लगा लिया था. रामभरोसे शरीर से तो स्वस्थ था किंतु उस का रंग काला था. राम भरोसे के पिता रामसागर से जयराम ने अपनी बेटी श्यामा की शादी की बात चलाई तो वह बिना दहेज बेटे की शादी करने को राजी हो गया. इस के बाद वर्ष 1996 में श्यामा का विवाह रामभरोसे के साथ हो गया.

शादी के लाल जोडे़ में लिपटी श्यामा पहली बार ससुराल पहुंची तो सभी ने उस के रूपसौंदर्य की प्रशंसा की. सुहागरात को रामभरोसे ने जब उस का घूंघट पलटा तो चांद सा सुंदर मुखड़ा देख कर वह ठगा सा रहा गया. वहीं दूसरी ओर, जब श्यामा ने कालेकलूटे पति को देखा तो उस के सपने बिखर गए. श्यामा ने जिस सुदर्शन युवक के सपने संजोए थे रामभरोसे उस के जैसा नहीं था. लेकिन श्यामा ने यह मान कर कि जैसा पति लिखा था वैसा मिला. रामभरोसे को स्वीकार कर लिया.

श्यामा ने ससुराल आते ही घरगृहस्थी का काम संभाल लिया था. उस ने अपने सरल स्वभाव तथा सेवासुश्रुषा से सासससुर का दिल जीत लिया था. वे उस की तारीफ करते नहीं अघाते थे. हंसीखुशी से जीवन व्यतीत करते 3 वर्ष बीत गए. इन 3 वर्षों में श्यामा ने एक सुंदर सी बच्ची को जन्म दिया. उस का नाम उस ने पिंकी रखा. पिंकी के जन्म से पूरे घर में खुशी छा गई. उस की किलकारियों से उस का घरआंगन गूंजने लगा.

पिंकी के जन्म के 5 वर्ष बाद श्यामा ने एक और बेटी को जन्म दिया. उस का नाम उस ने प्रियंका रखा. रामभरोसे का परिवार बढ़ा तो उसे खर्च की चिंता सताने लगी. रामभरोसे की आय सीमित थी. दुकान पर उसे जो पैसा मिलता उसे वह घरगृहस्थी चलाने को पिता को देता था. पत्नी के हाथ पर कुछ भी नहीं रख पाता था. जिस से श्यामा को छोटेछोटे खर्च के लिए भी ससुर रामसागर का मुंह देखना पड़ता था. रामसागर कभी तो पैसे दे देता तो कभी इंकार भी कर देता था.

श्यामा को एक पुत्र की चाहत थी, ताकि वंशबेल आगे बढ़े. कुदरत ने उस की यह चाहत तो पूरी नहीं की बल्कि उस की गोद में एक के बाद एक 2 बेटियां और डाल दीं. इन बेटियों का नाम उस ने वर्षा तथा रूबी रखा. इस तरह अब श्यामा की 4 बेटियां पिंकी, प्रियंका, वर्षा और रूबी घरआंगन में कूदनेफुदकने लगीं. श्यामा की सास बारबार बेटी के जन्म से श्यामा से नाराज रहने लगी थी. अब वह उसे हीनभावना से देखने लगी थी और उस के काम में टोकाटाकी करने लगी थी.

4-4 बच्चों का पालनपोषण कोई साधारण बात नहीं होती. श्यामा भी जब बच्चों के पालनपोषण में व्यस्त रहने लगी तो उस की घरेलू काम में व्यस्तता कम हो गई. काम न करने को ले कर श्यामा और उस की जेठानी सुषमा में  झगड़ा होने लगा. सुषमा चालाक और चापलूस औरत थी. वह श्यामा के रूपसौंदर्य से जलती थी. उस की बेटियों से भी नफरत करती थी. साथ ही, सास के कान उस के विरुद्ध भरती रहती थी. सास, तब सुषमा का पक्ष ले कर श्यामा को भलाबुरा कहती थी.

देवरानीजेठानी का  झगड़ा बढ़ा तो कलह ने घर में पांव पसार लिए. इस कलह का परिणाम यह हुआ कि रामभरोसे शराब पीने लगा. जिस दिन घर में कलह होती उस दिन वह कुछ ज्यादा ही पी कर आता. श्यामा उसे टोकती तो वह उसे मारनेपीटने लगता. नशे में वह मांबाप तथा भाईभैजाई को भी खूब खरीखोटी सुनाता. यही नहीं, वह घर में तोड़फोड़ भी करता. उस के उत्पात से पूरा घर सहम जाता. रामभरोसे अब अपनी पूरी कमाई नशाखोरी में ही उड़ाने लगा.

सजा- भाग 3: तरन्नुम ने असगर को क्यों सजा दी?

असगर ने तरन्नुम का हाथ दबाया, ‘‘मेरे दोस्त अपने घर में मुझे मेहमान रखने की इजाजत नहीं देंगे.’’

‘‘पर मैं तो मेहमान नहीं, आप की बीवी हूं,’’ तरन्नुम ने मरियल आवाज में दोहराया.

‘‘उन की पहली शर्त ही कुंआरे को रखने की थी और ऐसी जल्दी भी क्या थी. मैं ने लिखा था कि घर मिलते ही बुला लूंगा,’’ असगर का दबा गुस्सा बाहर आया.

‘‘हमारी शादी को 8 महीने हो गए. तब से अभी तक अगर अपना घर नहीं मिला तो क्या किराए का भी नहीं मिल सकता था,’’ तरन्नुम ने खीज कर पूछा. उसे दिल ही दिल में बहुत बुरा लग रहा था कि शादी के चंद महीने बाद ही वह खास औरताना अंदाज में मियांबीवी वाला झगड़ा कर रही थी.

‘‘ठीक है,’’ असगर ने कहा, ‘‘अब तुम दिल्ली आ ही गई हो तो घरों की खोज भी कर लो. तुम्हें खुद ही पता लग जाएगा कि घर ढूंढ़ना कितना आसान है,’’ होटल में आ कर भी तरन्नुम महसूस कर रही थी कहीं कुछ है जो असगर को सामान्य नहीं होने दे रहा.

अगले दिन असगर जब दफ्तर चला गया तब तरन्नुम ने अपनी सहेली रीता अरोड़ा को फोन किया और अपनी घर न मिलने की मुश्किल बताई. रीता ने कहा कि वह शाम को अपने परिचितों, मित्रों से बातचीत कर के कुछ इंतजाम करेगी.

दूसरे दिन रीता अपनी कार ले कर तरन्नुम को लेने आई. रास्ते से उन्होंने एक दलाल को साथ लिया जो विभिन्न स्थानों में उन्हें मकान दिखाता रहा. शाम होने को आई लेकिन अभी तक जैसा घर तरन्नुम चाहती थी वैसा एक भी नहीं मिला. कहीं घर ठीक नहीं लगा तो कहीं पड़ोस तरीके का नहीं. अगर दोनों ठीक मिल गए तो आसपास का माहौल बेतुका. दलाल को छोड़ते हुए रीता ने घर के बारे में पूरी तरह अपनी इच्छा समझाई.

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दलाल ने कहा 2-3 दिन के अंदर ही ऐसे कुछ घर खाली होने वाले हैं तब वह खुद ही उन्हें फोन कर के सही घर दिखाएगा.

असगर तरन्नुम से पहले ही होटल आ गया था. थकी, बदहवास तरन्नुम को देख कर उसे बहुत अफसोस हुआ. फोन पर चाय का आदेश दे कर बोला, ‘‘कहां मारीमारी फिर रही हो? यह काम तुम्हारे बस का नहीं है.’’

‘‘वाह, जब शादी की है तो घर भी बसा कर दिखा देंगे. आप हमारे लिए घर नहीं खोज सके तो क्या. हम ही आप को घर ढूंढ़ कर रहने को बुला लेंगे,’’ तरन्नुम खुशी से छलकती हुई बोली.

‘‘चलो, यही सही,’’ असगर ने कहा, ‘‘चायवाय पी कर नहा कर ताजा हो लो फिर घर पर फोन कर देना. अभी अब्बू परेशान हो रहे होंगे. उस के बाद नाटक देखने चलेंगे. और हां, साड़ी की जगह सूट पहनना. तुम पर बहुत फबता है.’’

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असगर की इस बात पर तरन्नुम इठलाई, ‘‘अच्छा मियांजी.’’

रात देर से लौटे, दिन भर की थकान थी, इतना तो तरन्नुम कभी नहीं घूमी थी. पर अब रात को भी उसे नींद नहीं आ रही थी. कल देखे जाने वाले घरों के बारे में वह तरहतरह के सपने संजो रही थी. उस का अपना घर, उस का अपना खोजा घर.

नाश्ते के बाद असगर दफ्तर चला गया. तरन्नुम रीता के इंतजार में तैयार हो कर बैठी उपन्यास पढ़ रही थी. उस का मन सुबह से ही किसी भी चीज में नहीं लग रहा था. होटल भला घर हो सकता है कभी? उसे लग रहा था जैसे वह मुसाफिरखाने में अपने सामान के साथ बैठी अपनी मंजिल का इंतजार कर रही है और गाड़ी घंटों नहीं, हफ्तों की देर से आने का सिर्फ ऐलान ही कर रही है और हर पल उस की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है.

अचानक फोन की घंटी से जैसे वह गहरी सोच से जाग उठी. रीता ने होटल की लौबी से फोन किया था. रीता की आवाज खुशी से खनक रही थी. तरन्नुम ने झटपट पर्स उठाया और लौबी में आ गई. रीता ने बाहर आतेआते कहा, ‘‘आज ही सुबह बिन्नी दी का फोन आया था. उन के पड़ोस में कोई मुसलिम परिवार है, उन्हीं की कोठी का ऊपरी हिस्सा खाली हुआ था. उस घर की मालकिन बिन्नी दी की खास सहेली हैं. उन्हीं की गारंटी पर तुम्हें घर देने के लिए तैयार हैं. जितना किराया तुम दे सकोगी उन्हें मंजूर होगा.’’

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रीता और तरन्नुम पंचशील पार्क की उस कोठी में गए. तरन्नुम को गेट खोलते ही बहुत अच्छा लगा. घर के बाहर छोटा सा लेकिन बहुत खूबसूरत लौन, इस भरी गरमी में भी हराभरा नजर आ रहा था.

गृहप्रवेश- भाग 1: किसने उज्जवल और अमोदिनी के साथ विश्वासघात किया?

पीड़ा और विश्वासघात या तो पराजित कर देते हैं या एक शक्ति प्रदान करते हैं. और वह शक्ति वेदना को प्रेरणा की दृष्टि प्रदान कर देती है. आज सोचती हूं तो लगता है, किन परिस्थितियों में मैं ने अपने स्वप्नों की मृत्यु को होते देखा और फिर अपनी बु झती जीवनज्योति को फूंकफूंक कर कुछ देर और जीवित रखने की चेष्टा करती रही.

मैं बचपन से ही साहसी रही हूं. मेरे मम्मीपापा मेरा विवाह विनय से करना चाहते थे. शुरू में मु झे भी विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी. मेरे एमएड पूरा होने के बाद हमारा विवाह होना तय हुआ. सरल स्वभाव का विनय मेरा अच्छा मित्र था. किंतु हमारे मध्य प्रेम जैसा कुछ नहीं था. उस समय मेरा मानना था कि मित्रता, विवाह के पश्चात प्रेम का रूप खुद ही ले लेगी. परंतु तब मैं कहां जानती थी कि प्रेम एक ऐसी वृष्टि का नाम है जो अबाध्य है. जब उज्जवल नाम का एक बादल मेरे तपते जीवन में ठंडक ले कर आया, मैं पिघलती चली गई थी.

मेरा बंजर हृदय उज्जवल के प्रेम की वर्षा में भीग गया और मम्मीपापा के निर्णय के खिलाफ जा कर मैं ने उज्जवल से विवाह कर लिया था. हमारे विवाह के समय तक मेरी नौकरी एडहौक टीचर के रूप में एक प्राइवेट कालेज में लग गई थी. उज्जवल चार्टर्ड अकाउंटैंट था. थोड़े से विरोध के बाद दोनों परिवारों ने हमारा रिश्ता मंजूर कर लिया. हम प्यार में थे, खुश थे.

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परिवर्तन एक दैनिक प्रक्रिया है. हमारा जीवन भी बदला. विवाह के 12 वर्ष सपनों की नदी पर नंगे पैर चलते हुए पार हो गए.

उज्जवल के नाम और काम दोनों में बढ़ोतरी हुई. उस ने अपना कर्मस्थल लखनऊ से बदल कर इंदौर कर लिया. और मैं? मेरे वर्क प्रोफाइल में भी परिवर्तन आया था. पार्टटाइम शिक्षिका के स्थान पर अब मैं फुलटाइम प्रशिक्षक बन गई थी. मैं मां भी बन गई थी.

स्त्री के भीतर एक मां का जन्म कोई सामान्य घटना नहीं होती. एक बालिका जब एक युवती बनती है और जब यही युवती एक प्रेयसी बनती है, तो उस का हृदय अनेक भावनात्मक परिवर्तनों से हो कर गुजरता है. हृदय और शरीर में संघर्ष होता है, और फिर इन की इच्छाओं व संवेदनाओं का परस्पर मिलन हो जाता है.

किंतु जब प्रेयसी मां बनती है तो परिवर्तनों की एक अथवा दो नहीं, बल्कि अनेक स्याह गुफाओं से हो कर आगे बढ़ती है. गर्भावस्था के प्रथम प्रहर में एक प्रेयसी खुद को मां के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाती. फिर शरीर में आ रहे परिवर्तन उसे एक नवजीवन का खुद के भीतर अनुभव प्रदान करते हैं. मातृत्व की यह भावना शब्दों के परे होती है. मात्र शिशु को जन्म दे देने से कोई महिला मां नहीं बन जाती, खुद के भीतर मातृत्व का जन्म होना आवश्यक है.

मेरे बेटे स्नेह का जन्म हुआ और मु झे लगा, मेरी जीवन की बगिया में वसंत खिल रहा हो. किंतु, मैं अपनी बगिया के अंतिम कोने में छिप कर बैठे पत झड़ को देख ही नहीं पाई, और जब देखा, वसंत जा चुका था.

हर घर की एक गंध होती है. किंतु, इसे वह ही पढ़ सकता है जिस ने घर की दीवारों और वस्तुओं से ले कर, रिश्तों को भी सजाने व संवारने में अपना सौरभ बिखेरा हो. इसलिए, अपने घर में उस अनाधिकार प्रवेश करने वाली अजनबी गंध को मैं ने भांप लिया था.

कुछ दिन इसे अपनी भूल सम झ, मैं ने स्वीकार नहीं किया. लेकिन जब यह जिद्दी गंध अपनी उपस्थिति उज्जवल की कमीज पर छोड़ने लगी, तो मैं चुप न रह सकी.

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‘तुम कोई नया परफ्यूम लगा रहे हो?’

‘नहीं तो, क्यों?’

गालों पर शेविंगक्रीम लगी होने के कारण चेहरे के भाव स्पष्ट नहीं थे. अलबता, आंखें कुछ चुगली कर रही थीं. मैं उस की आंखों के संदेश को पढ़ने का प्रयास कर ही रही थी कि उज्जवल अपने गीले चेहरे को मेरे गालों पर मलते हुए बोला, ‘हमारी सांसों में तो आज भी आप महकती हैं. जिस के पास बगीचा हो वह कागज के फूलों में खुशबू क्यों ढूंढ़ेगा?’

मेरा मुखमंडल लज्जा से अरुण हो आया. प्यार से ‘धत’ कह कर मैं ने उसे धकेल दिया और रसोई में नाश्ता बनाने चली गई थी.

लॉकडाउन का शिकार

लेखक- प्रो. अलखदेव प्रसाद अचल

सूरज बचपन से ही पढ़नेलिखने में काफी मन लगाता था, पर जिस महल्ले में वह रह रहा था, वहां का माहौल काफी खराब था. ज्यादातर बच्चे स्कूल पढ़ने नहीं जाते थे. जो जाते भी थे वे या तो मिड डे मील के चक्कर में जाते थे या फिर मुफ्त में मिलने वाली स्कूल पोशाक के लालच में.

महल्ले के लोग यही सम झते थे कि पढ़नेलिखने का काम बाबुओं का है. वैसे भी पढ़नेलिखने से कुछ नहीं होता. किस्मत में जो होता है वही होता है. यही सोच उस तबके के लोगों को तरक्की की सीढ़ी पर ऊपर बढ़ने नहीं दे रही थी.

उन लोगों के बीच सूरज हकीकत में सूरज की तरह चमकता दिखाई दे रहा था. वह गांव के लड़कों के साथ खेलकूद करने के बजाय पढ़ाई करता और उस के बाद जो समय बचता, उस में अपने मांबाप के साथ दूसरे जरूरी कामों में लगा रहता था. यह देख कर गांव के बच्चे उस पर तरहतरह की फब्तियां भी कसते रहते थे, पर सूरज इस की परवाह नहीं करता था.

सूरज का बाप रामदहिन जिन मालिकों के यहां मजदूरी करता था, उसे मालिक यही नसीहत देता, ‘तुम बेकार ही अपने बेटे पर पैसे बरबाद कर रहे हो. अगर तुम्हारे साथ वह भी कमाता, तो तुम्हारी आमदनी दोगुनी हो जाती और घर में ज्यादा खुशहाली आ जाती.’

पर रामदहिन अपने मालिक की बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देता था. उसे लगता कि हम लोग तो जिंदगीभर अंगूठाछाप ही रह गए. चलो, जब बेटा अच्छा निकला है, तो उसे पढ़ा ही देते हैं.

पढ़ने के दौरान सूरज को कुछ खास तबके के लड़कों द्वारा छुआछूत की भावना का शिकार भी होना पड़ता था. क्लास में वह जिस बैंच पर बैठता, तो ऊंची जाति के बच्चे उस बैंच से उठ कर दूसरी बैंच पर बैठ जाते या फिर उसे साफसाफ कह देते कि पीछे चले जाओ, इस सीट पर मत बैठना.

सूरज जानता था कि इन लफंगों से  झगड़ा मोल लेना बेकार है. इन्हें तो पढ़ना है नहीं, तो इन से उल झ कर अपना समय क्यों बरबाद किया जाए.

पर हां, गांव में सूरज की पूछ जरूर थी. जब से उस ने हाईस्कूल में दाखिला लिया था, तभी से गांव में ‘कला संगम’ नामक एक संस्था बनाई गई थी, जिस का वह सचिव था. तकरीबन हर तबके के लड़के उस संस्था से जुड़े हुए थे. उसी संस्था के जरीए सूरज कभी नाटक का कार्यक्रम कराता, तो कभी किसी दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रम का.

गांव में चाहे किसी के यहां शादी समारोह हो या फिर श्राद्ध, सूरज अपने साथियों के साथ शुरू से आखिर तक वहां मुस्तैदी से रहता था. इस की वजह से लोग उस की तारीफ करते. शायद इसी वजह से अपने समाज में भी उस की लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही थी.

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अब तो देखादेखी और लोग भी अपने बच्चों को सूरज की तरह पढ़ने और नेक काम करने की नसीहत देने लगे थे. सूरज भी गांव में ऐसे लोगों को सम झाता, जो अपने बच्चे को स्कूल न भेज कर काम में लगाए रहते या फिर पढ़ाई की अहमियत को न सम झते हुए उस के प्रति लापरवाह रहते.

इस का नतीजा यह हुआ कि उस के गांव के गरीबगुरबों के बच्चे भी स्कूल जाने लगे. यह बात अलग थी कि सरकारी स्कूल में मास्टरों द्वारा ध्यान न देने की वजह से बच्चों का जिस रूप में विकास होना चाहिए था, वह नहीं हो पाता था.

हाईस्कूल से सूरज को स्कौलरशिप मिलनी शुरू हो गई थी, जिस से कुछ राहत मिल जाती थी, पर हाईस्कूल पास करने के बाद जब कालेज में नामांकन की बारी आई, तो सूरज ने कालेज में नामांकन तो करा लिया, पर कालेजों में पढ़ाई नहीं होती थी, सिर्फ छात्रछात्राओं का नामांकन होता. समय पर रजिस्ट्रेशन होता. समय पर इम्तिहान होते. इसी तरह नतीजे भी आते रहते.

जो पैसे वाले होते, वे आईएससी में नामांकन कराते. निजी शिक्षण संस्थानों में या तो अलगअलग विषयों की ट्यूशन पढ़ते या फिर एकसाथ कोचिंग में पढ़ते, पर जिन की माली हालत सही नहीं थी या कोई सुविधाएं नहीं थीं, वे आर्ट्स ही लेना मुनासिब सम झते थे.

सूरज के पास न तो पैसे थे कि वह 1,000 रुपए महीना दे कर कोचिंग में पढ़ सकता था और न ही किसी शहर में ही रह कर पढ़ सकता था, इसलिए उस ने आर्ट्स लेना ही मुनासिब सम झा. वह घर पर ही पढ़ाई करता रहता. इस की ही बदौलत इंटर में संतोषजनक नतीजा भी आया था उस का.

जैसे ही सूरज ने अपना नामांकन बीए में कराया, वैसे ही उस के पिता ने उस की शादी तय कर दी, जबकि सूरज नहीं चाहता था कि अभी उस की शादी हो. इसलिए उस ने विरोध इस का करते हुए कहा, ‘पिताजी, आप इतनी जल्दी मेरी शादी क्यों करना चाहते हैं?’

पिताजी ने कहा, ‘बेटा, हर मांबाप अपनी जिंदगी में सपने बुनते हैं. तुम्हारी शादी हो जाएगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा?’

सूरज ने कहा, ‘जो भी बिगड़ेगा, उसे भोगना तो मु झे ही पड़ेगा.’

पिता ने कहा, ‘तो क्या इस बुढ़ापे में तुम्हारी बूढ़ी मां चूल्हे पर अपने हाथ जलाती रहे?’

सूरज ने कहा, ‘मां के तो हाथ ही जल रहे हैं पिताजी, मेरी तो जिंदगी ही जल जाएगी. पर चलिए, आप लोगों को इसी में खुशी है, तो मैं कुछ नहीं कहूंगा.’

सूरज की शादी के बाद घर के काम में मांबाप को काफी राहत मिलने लगी, इसीलिए वे दोनों भी काफी खुश रहने लगे. इधर सूरज भी अपनी पत्नी पुष्पा के प्रेमपाश में धीरेधीरे जकड़ता चला गया.

पुष्पा जब भी अपने मायके चली जाती, तो महीने के अंदर ही यह कहते हुए सूरज उसे लेने पहुंच जाता कि मां से ज्यादा काम नहीं होता है.

वैसे तो सूरज हर तरह से प्रगतिशील सोच रखता था, पर वर्तमान सरकार की नाकामियों के खिलाफ कोई बोल देता, तो उसे वह बरदाश्त नहीं करता था. कर्म के साथसाथ वह ऊपर वाले पर भी खूब यकीन रखता था. जब भी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव आता, तो सूरज पार्टी का  झंडा उठाए रहता. जब कभी राजनीतिक बातें निकलतीं, तो वह सरकार की खूब तारीफ करता.

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इसी तरह दिन गुजरते चले गए. सूरज बीए हो गया. अब वह घर पर रह कर ही किसी कंपीटिशन इम्तिहान की तैयारी के लिए सोचता, पर मुमकिन होता दिखाई नहीं देता, जबकि उसी दौरान उस ने कंपीटिशन की तैयारी के लिए कई प्रतियोगी पत्रिकाएं भी खरीदी थीं, घर पर रह कर पढ़ाई की थी, पर कामयाबी नहीं मिल सकी थी.

सूरज जानता था कि परिवार के बीच रह कर प्रतियोगिता का इम्तिहान पास करना टेढ़ी खीर जैसा है और शहर में रह कर तैयारी करने के लिए उस के पास पैसे नहीं हैं. इधर बुढ़ापे की वजह से उस के मांबाप भी मेहनतमजदूरी करने से लाचार होते जा रहे थे.

उसी दौरान सूरज 2-2 बेटियों का बाप भी बन चुका था. उन में एक ढाई साल की थी, तो दूसरी 6 महीने की. न चाहते हुए भी 2-2 बच्चियों का पिता बनने पर सूरज इस हकीकत को अच्छी तरह सम झता था कि बिलकुल ही छोटे से घर में पत्नी से दूरियां बना कर रहना मुमकिन नहीं था, जबकि उन दोनों बच्चियों के जन्म पर सूरज के मांबाप की सोच थी कि ऊपर वाला देता है, तो वह पार भी लगाता है.

जबकि सूरज की सोच अपने मांबाप से अलग थी. वह जानता था कि अब कुछ करना होगा वरना या तो हम लोग फटेहाली के कगार पर पहुंच जाएंगे या फिर इतना पढ़लिख कर भी उसे बंधुआ मजदूर बनने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

आश्विन का महीना था. चारों तरफ दुर्गा पूजा की तैयारियां चल रही थीं. जगहजगह रंगारंग कार्यक्रम के आयोजन होने वाले थे. दीवाली भी सिर पर थी. इसी मौके पर बगल के गांव का साथी रोहित छुट्टी पर घर आया था. वह कभी सूरज के साथ ही पढ़ता था, पर घर की माली तंगी की वजह से इंटर पास करने के बाद ही गुजरात चला गया था और प्राइवेट कंपनी में काम करने लगा था.

सूरज ने इस बार साथ चलने को कहा, तो रोहित जब वापस जाने लगा, तो सूरज को भी साथ लेता गया और प्राइवेट कंपनी में काम दिलवा दिया.

सूरज जिस कंपनी में काम करता था, उस में 8 घंटे के बजाय काम तो 12 घंटे करना पड़ता था, पर तनख्वाह 10,000  रुपए महीने ही मिलती थी. इस के अलावा कंपनी की तरफ से ही खानेपीने और रहने का इंतजाम था.

अब सूरज हर महीने सिर्फ घर पर पैसे ही नहीं भेजता था, बल्कि दोनों बच्चियों के नाम से बीमा भी करवा लिया था. फोन पर मांबाप को कह दिया था कि अब उन्हें मेहनतमजदूरी करने की कोई जरूरत नहीं है. आराम से खाइए, पीजिए और मस्त रहिए.

यह सुन कर मांबाप की आंखों में खुशी के आंसू भी छलक पड़े.

इस के साथ ही सूरज अपने मन में तरहतरह के सपने भी बुनने लगा था. उन सपनों में छोटा ही सही, पर अच्छा मकान बनाने, बच्चियों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने और घर में तरहतरह की सुविधाएं शामिल थीं. इन्हीं सपनों के साथ समय अपनी रफ्तार से बढ़ता जा रहा था.

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जब फागुन का महीना आया, वसंत का मदमाता मौसम लोगों के मन को गुदगुदाने लगा, तो पुष्पा को सूरज की कमी खलने लगी. इस दौरान उस की सूरज से बातें हुईं, तो पुष्पा ने पूछा, ‘क्या होली में अकेले ही रहना पड़ेगा?’

सूरज ने कहा, ‘इच्छा तो मेरी भी थी कि घर आऊं, पर लग नहीं रहा है. कंपनी के ऐसे बहुत सारे लोग होली की छुट्टी में अपने घर जा रहे हैं, जो सालभर से घर नहीं गए थे.

‘पुष्पा, अगर होली में नहीं आ पाऊंगा, तो शायद छठ के मौके पर एक हफ्ते के लिए ही सही, पर जरूर आऊंगा.’

लेकिन होली के बाद कोरोना की महामारी की सुगबुगाहट शुरू हो गई. देखते ही देखते सरकार ने स्कूलकालेजों, मौल, सिनेमाघरों, बाजारों को बंद करने का ऐलान कर दिया. लोगों में डर का माहौल काले बादलों की तरह छाने लगा.

फिर एकाएक सरकार ने एक दिन के लौकडाउन का भी ऐलान कर दिया. तब लगा, शायद इस से महामारी से नजात मिल जाएगी, पर दूसरी तरफ अखबारों और टीवी चैनलों में देश के कोनेकोने में कोरोना वायरस से प्रभावित लोगों की सूचना आने लगी.

फिर क्या था, सरकार ने आम लोगों की सुविधाओं का खयाल रखे बिना  21 दिन के लिए लौकडाउन का ऐलान कर दिया. इस के बाद हवा में खबर भी तैरने लगी कि लौकडाउन का समय बढ़ भी सकता है.

यह देख कर पूरे देश में अफरातफरी मच गई. देश के कोनेकोने में सरकारी और गैरसरकारी कंपनियों को बंद करा दिया गया, पर उस में काम करने वाले मुलाजिम कहां रहेंगे? कैसे रहेंगे? इस बारे में सरकार ने जरा भी नहीं सोचा.

सरकारी व गैरसरकारी कंपनियों के मालिकों ने अपने मुलाजिमों को सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में अपने हाथ खड़े कर दिए. शहर में खानेपीने जैसी सारी दुकानें बंद करवा दी गईं. यातायात सुविधाएं एकाएक ठप हो गईं. अब मुलाजिमों के सामने सब से बड़ा संकट खड़ा हो गया कि कहां जाएं, क्योंकि भूखेप्यासे हजारों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करना मौत को न्योता देने से कम नहीं लग रहा था.

सूरज इसी लौकडाउन में बुरी तरह फंस चुका था. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कई सालों से सूरज जिस सरकार की तारीफ करता आ रहा था, अब वही सरकार बुरी लगने लगी थी. वह रहरह कर गालियां भी बकने लगा था. सोच रहा था कि जब खुद की लापरवाही की वजह से इतने दिनों में कुछ नहीं बिगड़ा था, तो 3-4 दिनों में क्या बिगड़ जाता? अगर बिगड़ ही जाता, तो हम जैसे लोगों पर ध्यान देने की जवाबदेही तो उठानी चाहिए थी.

अब तो मोबाइल से घर पर बातें भी हो रही थीं, पर बातों से खुशियां पूरी तरह गायब थीं. जब सूरज ने देख लिया कि किसी भी सूरत में गुजरात में रह पाना मुमकिन नहीं है, तो एक दिन वह पैदल ही घर के लिए चल दिया, जबकि ऐसा भी नहीं था कि रास्ते में पैदल चलने वालों में सूरज सिर्फ अकेला था. उस की तरह सैकड़ोंहजारों लोग सड़कों पर उमड़े दिखाई पड़ रहे थे.

रास्ते में कहीं कोई सुविधा नहीं थी. अगर कहीं होता तो पुलिस वालों के डंडे का शिकार होना पड़ता. न रहने का ठिकाना, न खाने का. दिन में तेज धूप का सामना करना पड़ता, तो रात में  ठंड का.

धीरेधीरे सूरज के शरीर ने जवाब देना शुरू कर दिया. फिर भी दम मारता, पैर घसीटता वह आगे बढ़ता चला जा रहा था. उसी बीच एक रात सूरज पूरी थकावट में सोया था कि उस की जेब से मोबाइल फोन, कुछ नकदी और एटीएम कार्ड गायब हो गए.

अब सूरज के सामने मौत के सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था. शरीर पूरी तरह से जवाब दे चुका था. वैसे तो उस समय तक वह कुछ दिनों में सैकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय कर चुका था, पर अभी भी कई ज्यादा किलोमीटर की दूरियां तय करना बाकी थी.

चलतेचलते सूरज की तबीयत पूरी तरह खराब हो चुकी थी. वह सर्दी, खांसी, जुकाम का शिकार हो चुका था. इसी बीच पुलिस वालों ने उसे गाड़ी में बैठाया और अस्पताल के जनरल वार्ड में भरती करा दिया.

इधर घर वालों की घबराहट काफी बढ़ती चली जा रही थी. उन की नींद हराम हो चुकी थी. इसी बीच 2 दिनों के बाद घर फोन आया कि कोरोना की चपेट में आने की वजह से सूरज की मौत हो गई है.

यह सुनते ही घर में जोरजोर से छाती पीट कर रोने की चीखें सुनाई पड़ने लगीं. गांव से ले कर ससुराल तक में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि सूरज कोरोना का शिकार हो गया, पर यह किस को पता कि सूरज कोरोना वायरस का नहीं, बल्कि लौकडाउन का शिकार हो गया था.

अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का- भाग 1: जब प्रभा को अपनी बेटी की असलियत पता चली!

‘‘वाह मां, ये झुमके तो बहुत सुंदर हैं, कब खरीदे?’’ रंजो ने अपनी मां प्रभा के कानों में झूलते झुमकों को देख कर कहा.

‘‘पिछले महीने हमारी शादी की सालगिरह थी न, तभी अपर्णा बहू ने मुझे ये झुमके और तुम्हारे पापा को घड़ी दी थी. पता नहीं कब वह यह सब खरीद लाई,’’ प्रभा ने कहा.

अपनी आंखें बड़ी कर रंजो बोली, ‘‘भाभी ने, क्या बात है.’’ फिर आह भरते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे तो कभी इस तरह से कुछ नहीं दिया उन्होंने. हां भई, सासससुर को मक्खन लगाया जा रहा है, लगाओ,’ लगाओ, खूब मक्खन लगाओ.’’ उस का ध्यान उन झुमकों पर ही अटका हुआ था, कहने लगी, ‘‘जिस ने भी दिए हों मां, पर मेरा दिल तो इन झुमकों पर आ गया.’’

‘‘हां, तो ले लो न, बेटा. इस में क्या है,’’ कह कर प्रभा ने वे झुमके उतार कर तुरंत अपनी बेटी रंजो को दे दिए. उस ने एक बार यह नहीं सोचा कि अपर्णा को कैसा लगेगा जब वह जानेगी कि उस के दिए उपहारस्वरूप झुमके उस की सास ने अपनी बेटी को दे दिए.

प्रभा के देने भर की देरी थी कि रंजो ने झट से वे झुमके अपने कानों में डाल लिए, फिर बनावटी मुंह बना कर कहने लगी, ‘‘मन नहीं है तो ले लो मां, नहीं तो फिर मेरे पीठपीछे घर वाले, खासकर पापा, कहेंगे कि जब आती है रंजो, कुछ न कुछ ले कर ही जाती है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बेटा, कोई क्यों कुछ कहेगा. और क्या तुम्हारा हक नहीं है इस घर में? तुम्हें पसंद है तो रख लो न, इस में क्या है. तुम पहनो या मैं पहनूं, बात बराबर है.’’

‘‘सच में मां? ओह मां, आप कितनी अच्छी हो,’’ कह कर रंजो अपनी मां के गले लग गई. हमेशा से तो वह यही करती आई है, जो पसंद आया उसे रख लिया, यह कभी न सोचा कि वह चीज किसी के लिए कितना माने रखती है. कितने प्यार से और किस तरह से पैसे जोड़ कर अपर्णा ने अपनी सास के लिए वे झुमके खरीदे थे, पर प्रभा ने बिना सोचेसमझे उठा कर झुमके अपनी बेटी को दे दिए.

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अरे, वह यह तो कह सकती थी कि ये झुमके तुम्हारी भाभी ने बड़े शौक से मुझे खरीद कर दिए हैं, इसलिए मैं तुम्हें दूसरे बनवा कर दे दूंगी. पर नहीं, कभी उस ने बेटी के आगे बहू की भावना को समझा है, जो अब समझेगी?

‘‘मां, देखो तो मेरे ऊपर ये झुमके कैसे लग रहे हैं, अच्छे लग रहे हैं न, बोलो न मां?’’ आईने में खुद को निहारते हुए रंजो कहने लगी, ‘‘वैसे मां, आप से एक शिकायत है.’’

‘‘अब किस बात की शिकायत है?’’ प्रभा ने पूछा.

‘‘मुझे नहीं, बल्कि आप के जमाई को, कह रहे थे आप ने वादा किया था उन से ब्रेसलेट देने का, जो अब तक नहीं दिया.’’

‘‘ओ, हां, याद आया, पर अभी पैसे की थोड़ी तंगी है, बेटा. तुझे तो पता ही है कि तेरे पापा को कितनी कम पैंशन मिलती है. घर तो अपर्णा बहू और मानव की कमाई से ही चलता है,’’ अपनी मजबूरी बताते हुए प्रभा ने कहा.

‘‘वह सब मुझे नहीं पता है मां, वह आप जानो और आप के जमाई. बीच में मुझे मत घसीटो,’’ झुमके अपने पर्स में सहेजते हुए रंजो ने कहा और चलती बनी.

‘‘बहू के दिए झुमके तुम ने रंजो को दे दिए?’’ हैरत से भरत ने अपनी पत्नी प्रभा से पूछा.

‘‘हां, उसे पसंद आ गए तो दे दिए,’’ बस इतना ही कहा प्रभा ने और वहां से जाने लगी, जानती थी वह कि अब भरत चुप नहीं रहने वाले.

‘‘क्या कहा तुम ने, उसे पसंद आ गए? हमारे घर की ऐसी कौन सी चीज है जो उसे पसंद नहीं आती है, बोलो? जब भी आती है कुछ न कुछ उठा कर ले ही जाती है. जरा भी शर्म नहीं है उसे. उस दिन आई तो बहू का पर्स, जो उस की दोस्त ने उसे दिया था, उठा कर ले गई. कोई कुछ नहीं कहता तो इस का मतलब यह नहीं कि वह अपनी मनमरजी करेगी,’’ गुस्से से आगबबूला होते हुए भरत ने कहा.

तिलमिला उठी प्रभा. अपने पति की बातों पर बोली, ‘‘ऐसा कौन सी जायदाद उठा कर ले गई वह, जो तुम इतना सुना रहे हो? अरे एक जोड़ी झुमके ही तो ले गई है. जाने क्यों रंजो, हमेशा तुम्हारी आंखों में खटकती रहती है?’’

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भरत भी चुप नहीं रहे. कहने लगे, ‘‘किस ने मना किया तुम्हें जायदाद देने से, दे दो न जो देना है, पर किसी का प्यार से दिया हुआ उपहार यों ही किसी और को देना, क्या यह सही है? अगर बहू ऐसा करती तो तुम्हें कैसा लगता? कितने अरमानों से वह तुम्हारे लिए झुमके खरीद कर लाई थी और तुम ने एक मिनट भी नहीं लगाया उसे रंजो को देने में.’’

‘‘किसी को नहीं, बेटी को दिए हैं, समझे, बड़े आए बहू के चमचे, हूं…’’

‘‘अरे, तुम्हारी बेटी तुम्हारी ममता का फायदा उठा रही है और कुछ नहीं. किस बात की कमी है उसे? हमारे बेटेबहू से ज्यादा कमाते हैं वे दोनों पतिपत्नी, फिर भी कभी हुआ उसे कि अपने मांबाप के लिए

मां जल्दी आना- भाग 3: विनीता अपनी मां को क्यों साथ रखना चाहती थी?

एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना तो पसंद करता है परंतु सासससुर की सेवा करने में अपनी हेठी समझता है. समाज की इस दोहरी मानसिकता से अमन भी अछूता नहीं था. यदि वह चाहता तो मां के साथ भलीभांति तालमेल बैठा कर नित नई उत्पन्न होने वाली समस्याओं को काफी हद तक कम कर सकता था. यों भी हम दोनों मिल कर अब तक के जीवन में आई प्रत्येक समस्या का सामना करते ही आए थे परंतु जब से मां आई हैं अमन ने उसे अकेला कर दिया. बीती यादों को सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह बैड के बगल की खिड़की के झीने परदों से आती सूरज की मद्धिम

रोशनी और चिडि़यों की चहचहाहट से उस की नींद खुल गई. तभी अमन ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया, ‘‘उठिए मैडम मेरे हाथों की चाय से अपने संडे का आगाज कीजिए.’’

‘‘ओह क्या बात है आज तो मेरा संडे बन गया,’’ मैं फ्रैश हो कर चाय का कप ले कर अमन के बगल में बैठ गई.

‘‘तो आज संडे का क्या प्लान है मैडम, मम्मी और अवनि भी आते ही होंगे.’’

‘‘मम्मा आज हम लोग वंडरेला पार्क चलेंगे फोर होल डे इंजौयमैंट. चलोगे न मम्मा और नानी भी हमारे साथ चलेंगी.’’ मां के साथ वाक करके  लौटी अवनि ने हमारी बातें सुन कर संडे का अपना प्लान बताया.

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‘‘हांहां हम सब चलेंगे. चलो जल्दी से ब्रेकफास्ट कर के सब तैयार हो जाओ.’’ मेरे बोलने से पहले ही अमन ने घोषणा कर दी. पूरे दिन के इंजौयमैंट के बाद लेटनाइट जब घर लौटे तो सब थक कर चूर हो चुके थे सो नींद के आगोश में चले गए. मुझे लेटते ही वह दिन याद आ गया जब मां के आने के बाद एक दिन यूएस से अमन की मां ने फोन कर के बताया कि अगले हफ्ते वे इंडिया वापस आ रहीं हैं. 4 साल पहले अमन के पिता का एक बीमारी के चलते देहांत हो गया था. उस के बाद से उन की मां ने ही अपने दोनों बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया. अमन 2 ही भाई बहन हैं जिन में दीदी की शादी एक एनआरआई से हुई तो वे विवाह के बाद से ही अमेरिका जा बसीं थी. पिछले दिनों उन की डिलीवरी के समय मम्मीजी वहां गई थीं और अब उन का वापसी का समय हो गया था सो आ रही थीं. दोनों बच्चे अपनी मां से बहुत अटैच्ड हैं. उस दिन मैं बैंक से वापस आई तो अमन का मुंह फूला हुआ था. जैसे ही मां सोसाइटी के मंदिर में गईं थी वे फट पड़े.

‘‘अब बताओ मेरी मां कहां रहेंगी? क्या सोचेंगी वे कि मेरे बेटे के घर में तो मेरे लिए जगह तक नहीं है. आखिर इंडिया में है ही

कौन मेरे अलावा जो उन्हें पूछेगा. तुम्हारे तो

और भाईबहन भी हैं मैं तो एक ही हूं न मेरी मां के लिए.’’

‘‘अमन थोड़ी शांति तो रखो, आने दो मम्मीजी को सब हो जाएगा. मैं ने कहां मना किया है उन की जिम्मेदारी उठाने से पर अपनी मां की जिम्मेदारी भी है मेरे ऊपर. यह कह कर कि और भाईबहन उन्हें रखेंगे अपने पास मैं कैसे अकेला छोड़ दूं उन्हें. आखिर मेरा भी पालनपोषण उन्होंने ही किया है.’’

मेरी इतनी दलीलों में से एक भी शायद अमन को पसंद नहीं आई थी और वे अपने

फूले मुंह के साथ बैडरूम में जा कर टीवी देखने लगे थे. एक सप्ताह बाद जब सासू मां आईं तो मैं बहुत डरी हुई थी कि अब न जाने किन नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. यद्यपि मैं अपनी सास की समझदारी की शुरू से ही कायल रही हूं. परंतु मेरी मां को यहां देख कर उन की प्रतिक्रिया से तो अंजान ही थी.

मैं ने सासूमां के रहने का इंतजाम भी मां के कमरे में ही कर दिया था जो अमन को पसंद तो नहीं आया था परंतु 2 बैडरूम में फ्लैट में और कोई इंतजाम होना संभव भी नहीं था. मेरी मां की अपेक्षा सासू मां कुछ अधिक यंग, खुशमिजाज समझदार और सकारात्मक विचारधारा की थीं. मेरी भी उन से अच्छी पटती थी. इसीलिए तो उन के आने के दूसरे दिन अवसर देख कर अपनी सारी परेशानियां बयां करते हुए रो पड़ी थी मैं.

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उन्होंने मुझे गले लगाया और बोलीं, ‘‘तू चिंता मत कर मैं कोई समाधान निकालती हूं. सब ठीक हो जाएगा.’’ उन की अपेक्षा मेरी मां का जीवन के प्रति उदासीन और नकारात्मक होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पहले बेटे की चाह में बेटियों की कतार फिर बेटेबहू की उपेक्षा आखिर इंसान की सहने की भी सीमा होती है. परिस्थितियों ने उन्हें एकदम शांत, निरुत्साही बना दिया था. वहीं सासूमां के 2 बच्चे और दोनों ही वैल सैटल्ड.

दोचार दिन सब औब्जर्व करने के बाद उन्होंने अपने साथ मां को भी

मौर्निंग वाक पर ले जाना प्रारंभ कर दिया था. वापस आ कर दोनों एकसाथ पेपर पढ़ते हुए चाय पीतीं थी जिस से अमन और मुझे अपने पर्सनल काम करने का अवसर प्राप्त हो जाता था. दोनों किचन में आ कर मेड की मदद करतीं जिस से मेरा काम बहुत आसान हो जाता. जब तक मैं और अमन तैयार होते मां और सासूमां मेड के साथ मिल कर नाश्ता टेबल पर लगा लेते. हम चारों साथसाथ नाश्ता करते और औफिस के लिए निकल जाते. अपनी मां को यों खुश देख कर अमन भी खुश होते. कुल मिला कर सासूमां के आने से मेरी कई समस्याओं का अंत होने लगा था. सासूमां को देख कर मेरी मां भी पौजिटिव होने लगीं थी. एक दिन जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो सासूमां बोलीं, ‘‘विनीता आज से अवनि अपनी दादीनानी के साथ सोएगी. कितनी किस्मत वाली है कि दादीनानी दोनों का प्यार एक साथ लेगी क्यों अवनि.’’

‘‘हां मां, अब से मैं आप दोनों के नहीं बल्कि दादीनानी के बीच में सोऊंगी. उन्होंने मुझे रोज एक नई कहानी सुनाने का प्रौमिस किया है.’’ अवनि ने भी चहकते हुए कहा.

इस बात से अमन भी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उन का पर्सनल स्पेस वापस जो मिल गया था. सासूमां के आने के बाद मैं ने भी चैन की सांस ली थी. और बैंक पर वापस ध्यान केंद्रित कर लिया था. अब 3 माह तक हमारे बीच रह कर सासूमां वापस कुछ दिनों के लिए दिल्ली चलीं गई थीं. पर इन 3 महीनों में उन्होंने मेरे लिए जो किया वह मैं ताउम्र नहीं भूल सकती. सच में इंसान अपनी सकारात्मक सोच और समझदारी से बड़ी से बड़ी समस्याओं को भी चुटकियों में हल कर सकता है जैसा कि मेरी सासूमां ने किया था. मां के मेरे साथ रहने पर भी उन्होंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था.

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‘‘जब मेरी बेटी मेरा ध्यान रख सकती है तो मेरी बहू अपनी मां का ध्यान क्यों नहीं रख सकती और मुझे फक्र है अपनी बहू पर कि अपने 3 अन्य भाईबहनों के होते हुए भी उस ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और निभाया.’’ तभी तो उन के जाने के समय मैं फफकफफक कर रो पड़ी थी और उन के गले लग के बोली थी, ‘‘मां जल्दी आना.’’

श्यामली- भाग 1: जब श्यामली ने कुछ कर गुजरने की ठानी

‘श्यामली बुटीक’ लखनऊ शहर में किसी परिचय का मुहताज नहीं था. होता भी क्यों, क्योंकि श्यामलीजी के जीवन का मोटो था कि अपने काम में परफैक्शन. इसी लक्ष्य के कारण कुछ वर्षों में ही उन का बुटीक शहर का सब से अच्छा बुटीक बन गया.

श्यामलीजी की मीठी, मधुर आवाज और चेहरे पर खिली मुसकान के साथ कस्टमर की पसंद को समझते हुए समय पर काम पूरा कर के वे उन्हें खुश कर देती थीं.

अब तो उन की बेटी राशि भी फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर के आ गई थी और बुटीक में उन का हाथ बंटा रही थी. बेटा शुभ अमेरिका पढ़ने गया तो वहीं का हो कर रह गया.

सोम उन के बुटीक के मैनेजर बन गए थे. उन के बालों की चांदनी, आंखों में चश्मा और थकती काया उन से रिटायरमैंट का इशारा करती दिखाई देती थी.

रात के 8 बजने वाले थे. श्यामलजी बुटीक बंद करवाने की सोच ही रही थीं कि दौड़तीहांफती वन्या उन के सामने आ कर खड़ी हो गई. फिर बोली, ‘‘मैम, मेरा लहंगा रैडी है?’’

‘हां…हां… आप ट्रायल कर लो, तो मैं फिनिशिंग करवा दूं.’

वन्या ट्रायलरूम में लहंगा पहन कर बाहर आते ही उन से लिपट कर बोली, ‘‘थैंक्यू मैम, आप के हाथ में जादू है.’’

वन्या की मां प्रज्ञा ने अपने बैग से कार्ड निकाला और फिर उन्हें देती हुए बोलीं, ‘‘दी, आप को शादी में जरूर आना है.’’

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श्यामलीजी ने कार्ड को खोल कर देखते हुए कहा, ‘‘वैरी नाइस कार्ड.’’

‘‘7 दिसंबर… वाह जरूरी आऊंगी.’’

7 दिसंबर तारीख देखते ही श्यामलीजी अपने अतीत में खो गईं. पुरानी यादें चलचित्र की तरह उन की आंखों के सामने सजीव हो उठीं…

लखनऊ के पास सुलतानपुर एक छोटा सा शहर है. वे वहां रहती थीं. 3 बहनों और 2 भाइयों में वे सब से बड़ी थीं. पढ़ाई से अधिक सिलाईकढ़ाई में रुचि थी. जब वे छोटी थीं, तभी मां के दुपट्टे या साड़ी से अपनी गुडि़या के लिए तरहतरह के डिजाइनर लहंगे और दूसरी पोशाकें बनाया करती थीं.

ये सब देख कर मां कहतीं कि तुम्हें फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करवा देंगे. बीए पास करने के बाद फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर लिया. पापा को शादी की फिक्र होने लगी थी. उन के पास दहेज देने के लिए बड़ी रकम तो थी नहीं. वे नैट पर लड़कों का प्रोफाइल देखने में लगे रहते थे.

श्यामली का चेहरा गोल था, रंग गेहुंआ, लेकिन कटीले नैननक्श की वे नाजुक सी आकर्षक लड़की थीं. चचंल चितवन और प्यारी सी मुसकराहट सब को आकर्षित कर लेती. वे खाना बहुत अच्छा बनातीं इसलिए अपने पापा की अन्नपूर्णा थीं.

पापा को सोम का प्रोफाइल पसंद आया था. उन्होंने उन का बायोडाटा और छोटा सा फोटो उन के पिता के पास भेज दिया. सोम के पिता का लखनऊ के अमीनाबाद में खूब चलता हुआ बड़ा सा मैडिकल स्टोर था. अच्छाखासा संपन्न परिवार और साथ में इकलौता बेटा तो सोने में सुहागा जैसा था.

सोम के पिता केशवजी के फोन ने उन के घर में खुशियों की हलचल मचा दी. उन्होंने मेल आईडी मांगी. बस फिर शुरू हो गई थी सोम के साथ चैटिंग. सोम की प्यारभरी मीठीमीठी बातों ने श्यामलीजी के दिल के तार झंकृत कर दिए.

जल्दी ही शादी की शहनाइयां बज उठीं. वे अपने मन में सुनहरे भविष्य के रंगबिरंगे सपने संजो कर सोम का हाथ पकड़ कर उन की बड़ी सी कोठी में प्रवेश कर गईं. वे खुशी से फूली नहीं समा रही थीं.

सोम की बांहों के घेरे में सिमट कर वे विश्वास ही नहीं कर पा रहीं थीं कि उन की दुनिया इतनी हसीन भी हो सकती है.

श्यामली सोम के प्यार में डूबी थीं, लेकिन उन का रवैया कुछ समझ नहीं आ रहा था. 1-2 महीनों में उन्हें थोड़ा बहुत इशारा मिल गया कि सोम दुकान पर केवल पैसा लेने जाते और फिर दोस्तों के साथ सिगरेट, शराब और लड़कियों की संगत में ऐश की लाइफ जीने के शौकीन हैं.

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सोम बातबात पर उन्हें डांट देते थे, इसलिए वे उन से डरने लगी थीं. एक शाम सोम ने उन से क्लब चलने के लिए तैयार होने को कहा. वे अपने कमरे में तैयार हो रही थीं. तभी उन्हें सोम की पापा के साथ जोरजोर की कहासुनी की आवाजें सुनाई देने लगीं.

सोम के चेहरे पर तनाव देख कर उन्होंने उन से पूछा भी था कि क्या बात है? पापा क्यों नाराज हो रहे थे? इस पर सोम का जवाब था कि अपने काम से काम रखा करो.

उस दिन श्यामलीजी बड़े मन से तैयार हुई थीं. ब्लैक साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थीं.

ट्रैफिक में फंस जाने के कारण वे लोग क्लब काफी देर से पहुंचे. वहां कौकटेल पार्टी चल रही थी. सैक्सी ड्रैसेज पहनी महिलाओं के हाथ में डिं्रक के गिलास थे. श्यामली घबरा कर सोम के पीछे छिपने लगी थीं. उन के लिए वहां का माहौल एकदम से नया और अजीब सा था.

विषबेल- भाग 4: आखिर शर्मिला हर छोटी समस्या को क्यों विकराल बना देती थी

काम करने की आदत शर्मिला को नहीं थी, ससुराल में तो नंदिनी मौसी गरमगरम पका कर थाली हाथ में पकड़ाती थीं. उस पर भी वह मीनमेख निकालती रहती थी, अब मायके में काम करना पड़ा तो पैरोंतले से जमीन खिसकने लगी. नीरा और जया खाना होटल से मंगवाने की राय देतीं. 2-4 बार उस ने मंगवाया भी, लेकिन बजट बिगड़ने लगा, तो हाथ रोकना पड़ा. फिर, नवजात गौरव के लिए दलिया और सूप तो बनाना ही पड़ता था.

शर्मिला से जितना बन पड़ता, घर का काम करती. गौरव को भी संभालती. पिता की छोटी सी दुकान थी. मुट्ठीभर कमाई से क्या खाते क्या निचोड़ते? इतना पैसा नहीं था कि एक नौकर रखा जा सके. अपने रोजमर्रा के खर्चे शर्मिला एटीएम से पैसे निकाल कर पूरे कर लेती थी. जो थोड़ीबहुत रकम बचती, उसे उस की बहनें उड़ा देतीं.

शर्मिला के न दिल को आराम था न शरीर को. एक बार उस के मन में आया कि वापस लौट जाए अपने घर, फिर अहम आड़े आ गया. खुद घर छोड़ कर आई थी, बिन बुलाए जाने का मतलब था समीर के तलवे चाटना और उसे यह कतई मंजूर नहीं था.

इधर, समीर का बुरा हाल था. शर्मिला  झगड़ालू थी, किसी की इज्जत नहीं करती थी, कोई बात ही नहीं मानती थी, फिर भी उस के रहने से घर में चहलपहल रहती थी. कोई बोलने वाला तो था. गौरव के आने के बाद तो घर की सूनी दीवारें भी बोलने लगी थीं.

पुरानी बातें याद कर समीर का सिर भारी हो गया था.

देवयानीजी अब रोज पूछतीं, ‘‘शर्मिला कब आ रही है?’’ समीर हर संभव नियंत्रण करता, लेकिन उस के भीतर का हाहाकार साफ दिखाई दे जाता. पिता सम झाते, ‘‘पतिपत्नी के बीच अहम का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. स्नेहवश  झुकना पराजय की स्वीकृति नहीं होती, जा कर बहू को ले आ.’’

शर्मिला ऐसे ही विचारों में खोई थी, तभी उस के पिता कन्हैया लाल ने प्रवेश किया, बोले, ‘‘बेटी, समीर आया था तु झे लेने दुकान पर. अरविंद को लखनऊ से आए हुए 3 महीने हो गए हैं, अब उस की क्लीनिक का शुभारंभ होने वाला है. मैं और जया भी चलेंगे.’’

‘‘जया भी…’’

‘‘हां, सोचता हूं कि अरविंद के साथ जया का रिश्ता पक्का कर दूं, जानापहचाना परिवार है. तू भी वहीं है, तेरे सासससुर और समीर सभी सज्जन हैं. जया खुश रहेगी.’’

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‘‘कहां है समीर?’’

‘‘दुकान पर. तेरी प्रशंसा कर रहा था. उस ने तेरी कोई शिकायत नहीं की. मैं ने अरविंद के साथ जया के रिश्ते की बात की, तो बोला, ‘‘अगर शर्मिला को यह रिश्ता पसंद है तो मैं अरविंद से बात करता हूं.’’

शर्मिला मन ही मन सोच रही थी, ‘‘निहायत बदतमीज, धूर्त और समूचे घर की दुश्मन होने पर भी मेरे ऊपर इतना भरोसा?’’

‘‘मैं गंगा तर जाऊंगी बेटी,’’ शर्मिला की मां ने भी पति का पक्ष लिया.

शर्मिला सोच में पड़ गई.

‘‘यह रहा निमंत्रणपत्र,’’ कन्हैया लाल ने निमंत्रणपत्र आगे बढ़ाया तो शर्मिला निमंत्रणपत्र पढ़ कर अवाक रह गई, ‘‘क्लिनिक का उद्घाटन मेरे करकमलों द्वारा, सरकारी अस्पताल के सिविल सर्जन और मैडिकल कालेज के प्रख्यात प्रोफैसरों को छोड़ कर?

‘‘समीर से कह दीजिए, हम पहली ट्रेन से ही चलेंगे.’’

‘‘लेकिन समीर को भोजन आदि? पहली बार आए हैं.’’

‘‘आप चिंता न करें. बस, मेरी बात जा कर कह दें. हम रास्ते में ही कहीं कुछ खा लेंगे,’’ शर्मिला तैयारी में जुट गई.

सुहागशृंगार से सजी पत्नी को देख

कर समीर सुखद आश्चर्य में डूब

गया, ‘‘शर्मिला?’’

समीर को गौरव थमा कर शर्मिला बोली, ‘‘तुम ने मु झे माफ कर दिया?’’

‘‘मैं तुम से रूठा ही कब था, नाराज तो तुम थीं.’’

‘‘तभी तुम ने अरविंद के आने की मु झे कोई सूचना नहीं दी?’’ उस ने तनिक रूठ कर उलाहना दिया.

‘‘अरविंद तुम्हारा बहुत आदर करता है. वह तुम्हें सरप्राइज देना चाहता था. इसीलिए अपने क्लीनिक के रेनोवेशन में लगा हुआ था.’’

क्लीनिक के उद्घाटन समारोह के बाद एकांत पाते ही कन्हैया लाल ने शर्मिला को घेरा, ‘‘मैं जया को इसलिए साथ लाया हूं बेटी कि बात अभी पक्की हो जाए.’’

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‘‘पिताजी, आप ने देखा शहर के प्रतिठित लोगों के बीच अरविंद और उस के नौजवान साथी डाक्टरों ने मेरे पैर छू कर मु झ से आशीर्वाद मांगा. विश्वास कीजिए उन क्षणों में मेरी उम्र बढ़ गई और मैं सम झदार हो गई. पिताजी रूप, लावण्य तो कुदरत की देन है, असली सुंदरता तो गुणों और संस्कारों से आती है. अफसोस है कि मां और आप ने मु झे इस अमूल्य धरोहर से वंचित रखा,’’ शर्मिला ने गंभीर स्वर में पिता को उलाहना दिया, ‘‘पिताजी इस घर के लोग बड़े सरलसीधे और सच्चे हैं, आज की दुनियादारी और चालाकी से कोसों दूर.

‘‘मैं इन्हें तिलतिल कर के मार रही थी, किंतु अब इन्हें और मरने नहीं दूंगी. मेरा अरविंद तो एकदम भोला है, हमेशा दूसरों पर निर्भर और विश्वास करने वाला. जया तो उस की जिंदगी में जहर घोल देगी. मैं उस के लिए ऐसी सुंदर, सुशिक्षित और संस्कारी लड़की लाऊंगी, जो अरविंद के जीवन को सुवासित फूलों से भर दे.’’

‘‘यह क्या कह रही है तू शर्मिला?’’

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‘‘हां पिताजी, मैं आप की बेटी हूं मगर बाद में. पहले मैं इस घर की बहू हूं और मेरे लिए जो असंदिग्ध आस्था प्रकट की गई है उस का निर्वाह मैं करूंगी. जया के लिए ऐसा मूर्ख घरबार मिलने में देर नहीं लगेगी जो कन्या के सौंदर्य और शिक्षा के सामने संस्कारों की तलाश नहीं करता. अरविंद के साथ जया की शादी हरगिज नहीं होगी.’’

और शर्मिला की बड़ीबड़ी आंखों में अडिग संकल्प के साथ पानी तैर आया. कन्हैया लाल प्रकाशहीन विद्युत स्तंभ की भांति निश्छल खड़े थे.

मेरी खातिर- भाग 3: झगड़ों से तंग आकर क्या फैसला लिया अनिका ने?

‘‘बच्चे थोड़े हैं जो हाथ पकड़ कर डाक्टर के पास ले जाऊं,’’ मम्मी के स्वर में झुंझलाहट थी.

‘‘मम्मा आप भी हद करती हैं… पापा को तेज बुखार है और आप… मानती हूं आप सारी रात परेशान हुईं. पर अपनी बात को रखने का भी एक समय होता है.’’

‘‘तू भी अपने पापा की ही तरफदारी करेगी न…’’

मेरी हालत भी पेंडुलम की तरह थी… कभी मेरी संवेदनाएं मम्मी की तरफ और कभी मम्मी से हट कर बिलकुल पापा की तरफ हो जाती थी. प्रकृति पूरा साल अपने मौसम बदलती पर हमारे घर में बारहों मास एक ही मौसम रहता था कलह और तनाव का. मैं उन दोनों के बीच की वह डोर थी जिस के सहारे उन के रिश्ते की गाड़ी डगमग करती खिंच रही थी.

उस दिन मेरा अंतिम पेपर था. मैं बहुत हलका महसूस कर रही थी. मैं अपने अच्छे परिणाम को ले कर आश्वस्त थी. आज बहुत दिनों बाद हम तीनों इकट्ठे डिनर टेबल पर थे. मम्मी ने आज सबकुछ मेरी पसंद का बनाया था.

‘‘मम्मीपापा, मैं आप दोनों से कुछ कहना चाहती हूं.’’ आज अनिका की भावभंगिता कुछ गंभीरता लिए थी, जिस के मम्मीपापा अभ्यस्त नहीं थे.

‘‘बोलो बेटे… कुछ परेशान सी लग रही हो?’’ वे दोनों एकसाथ बोल चिंतित निगाहों से उसे देखने लगे.

उस ने बहुत आहिस्ता से कहना शुरू किया जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य उजागर करने जा रही हो, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई सूरत में नहीं, बल्कि अहमदाबाद से करना चाहती हूं.’’

‘‘ये कैसी बातें कर रही हो बेटा… तुम्हें तो सूरत के एनआईटी कालेज में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा.’’

‘‘मिल तो जाएगा पापा, पर सूरत के कालेजों की रेटिंग काफी नीचे है.’’

‘‘बेटे, यह तुम्हारा ही फैसला था न कि ग्रैजुएशन सूरत से ही कर पोस्टग्रैजुएशन विदेश से कर लोगी, तुम्हारे अचानक बदले इस फैसले का कारण क्या हम जान सकते हैं?’’ पापा के माथे पर तनाव की रेखाएं साफ झलक रही थी.

घर में अनजानी खामोशी पसर गई. यह खामोशी उस खामोशी से बिलकुल अलग थी जो मम्मीपापा की बहस के बाद घर में पसर जाती थी…बस आ रही थी तो घड़ी की टिकटिक की आवाज.

अपनी जान से प्यारे अपने मम्मीपापा को उदास देख अनिका के गले से रोटी

कैसे उतर सकती थी. वह एक रोटी खा कर वाशबेसिन पर पर हाथ धोने लगी. मुंह धोने के बहाने नल से निकलते पानी के साथ उस के आंसू भी धुल गए. वह नैपकिन से अपना मुंह पोंछ रही थी तो सामने लगे आइने में उस ने देखा मम्मीपापा की निगाहें उस पर ही टिकी हैं जिन में बेबस सी अनुनय है.

‘‘आज मुझे महसूस हो रहा है कि सच में जमाना बहुत फौरवर्ड हो गया है… आखिर हमारी बेटी भी इस जमाने के तौरतरीकों बहाव में खुद को बहने से नहीं रोक पाई,’’ पापा के रुंधे स्वर

में कहा.

‘‘ये सब आप के लाडप्यार का नतीजा है, और सुनाओ उसे अपने हौस्टल लाइफ के किस्से चटखारे ले कर… तुम तो चाहते ही थे न कि तुम्हारी बेटी तुम्हारी तरह स्मार्ट बने. तो चली हमारी बेटी आजाद पंछी बन जमाने के साथ

ताल मिलाने. उस ने एक बार भी हमारे बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘पापामम्मी के बीच चल रही बातचीत

के कुछ अंश अनिका के कानों में भी पड़ गए

थे. मम्मी ने रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली थीं, नाक लाल हो गई थी. पर क्या किया जा

सकता था, आखिर यह उस की पूरी जिंदगी

का सवाल था.’’

आज अनिका स्कूल गई थी. उस ने अपने सारे

कागजात निकलवा कर उन की फोटोकौपी बनवानी थी. वहां जा कर उसे ध्यान आया वह अपनी 10वीं और 11वीं कक्षा की मार्कशीट्स घर पर ही भूल गई है. उस ने तुरंत मम्मी को फोन लगाया, ‘‘मम्मा, मेरी अलमारी में दाहिनी तरफ की दराज में आप को लाल रंग की एक फाइल दिखेगी, उस में से प्लीज मेरी 10वीं और 11वीं की मार्कशीट्स के फोटो भेज दो.’’

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फोटो भेजने के बाद उस फाइल के नीचे दबी एक गुलाबी डायरी पर लिखे सुंदर शब्दों ने मम्मी का ध्यान अपनी ओर खींचा-

‘‘की थी कोशिश, पलभर में काफूर उन लमहों को पकड़ लेने की जो पलभर पहले हमारे घर के आंगन में बिखरे पड़े थे.’’

शायद मेरे चले जाने के बाद उन दोनों का अकेलापन उन्हें एकदूसरे के करीब ले आए. इसीलिए तो अपने दिल पर पत्थर रख उसे

इतना कठोर फैसला लेना पड़ा था. पेज पर

तारीख 15 जून अंकित थी यानी अनिका का जन्मदिन.

मम्मी के मस्तिष्क में उस रात हुई कलह के चित्र सजीव हो गए. एक मां हो कर मैं अपनी बच्ची की तकलीफ को नहीं समझ पाई. अपने अहम की तुष्टि के लिए वक्तबेवक्त वाक्युद्ध पर उतर जाते थे बिना यह सोचे कि उस बच्ची के दिल पर क्या गुजरती होगी.

उन की नजर एक अन्य पेज पर गई,

‘‘मुझे आज रात रोतेरोते नींद लग गई और मैं

सोने से पहले बाथरूम जाना भूल गई और मेरा बिस्तर गीला हो गया. अब मैं मम्मा को क्या जवाब दूंगी.’’

पढ़कर निकिता अवाक रह गई थी. जगहजगह पर उस के आंसुओं ने शब्दों की स्याही को फैला दिया था, जो उस के कोमल मन की पीड़ा के गवाह थे. जिस उम्र में बच्चे नर्सरी राइम्ज पढ़ते हैं उस उम्र में उन की बच्ची की ये संवेदनशीलता और जिस किशोरवय में लड़कियां रोमांटिक काव्य में रुचि रखती हैं उस उम्र में

यह गंभीरता. आज अगर यह डायरी उन के

हाथ नहीं लगी होती तो वे तो अपनी बेटी के फैसले के पीछे का कठोर सच कभी जान ही

नहीं पातीं.

‘‘आप आज अनिका के घर पहुंचने से पहले घर आ जाना, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ मम्मी ने तुरंत पापा को फोन मिलाया.

‘‘निक्की, मुझे ध्यान है नया फ्रिज खरीदना है पर मेरे पास अभी उस से भी महत्त्वपूर्ण काम है… और फिलहाल सब से जरूरी है अनिका का कालेज में एडमिशन.’’

‘‘और मैं कहूं बात उस के बारे में ही है.’’

‘‘मम्मी के इस संयमित लहजे के पापा आदी नहीं थे. अत: उन की अधीरता जायज थी,’’

‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘आप घर आ जाइए, फिर शांति से बैठ कर बात करते हैं.’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ क्यों नहीं कहती हो, जब बात अनिका से जुड़ी थी तो पापा कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे. अत: काम छोड़ तुरंत घर के लिए निकल गए.’’

‘‘देखिए यह अनिका की डायरी.’’

पापा जैसेजैसे पन्ने पलटते गए, अनिका के दिल में घुटी भावनाएं परतदरपरत खुलने लगीं और पापा की आंखें अविरल बहने लगीं. मम्मी भी पहली बार पत्थर को पिघलते देख रही थी.

‘‘कितना गलत सोच रहे थे हम अपनी बेटी के बारे में इस तरह दुखी कर के तो हम उसे घर से हरगिज नहीं जाने दे सकते,’’ उन्होंने अपना फोन निकाल अनिका को मैसेज भेज दिया.

‘‘कोशिश को तेरी जाया न होने देंगे, उस कली को मुरझाने न देंगे,

जो 17 साल पहले हमारे आंगन में खिली थी.’’

‘‘शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर… वाह पापा आप का यह कवि रूप तो पहली बार दिखा,’’ कहती हुई अनिका घर में घुसी और मम्मीपापा को गले लगा लिया.

‘‘हमें माफ कर दे बेटा.’’

‘‘अरे, माफी तो आप लोगों से मुझे मांगनी चाहिए, मैं ने आप लोगों को बुद्धू जो बनाया.’’

‘‘मतलब?’’ मम्मीपापा आश्चर्य के साथ बोले.

‘‘मतलब यह कि घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. इतनी आसानी से आप लोगों का पीछा थोड़े छोड़ने वाली हूं. हां, बस यह अफसोस है कि मुझे अपनी डायरी आप लोगों से शेयर करनी पड़ी. पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है न?’’

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‘‘अच्छा तो यह बाहर जा कर पढ़ने का फैसला सिर्फ नाटक था…’’

‘‘सौरी मम्मीपापा आप लोगों को करीब लाने का मुझे बस यही तरीका सूझा,’’ अनिका अपने कान पकड़ते हुए बोली.

‘‘नहीं बेटे, कान तुम्हें नहीं, हमें पकड़ने चाहिए.’’

‘‘हां, और मुझे इस ऐतिहासिक पल को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए,’’ कह वह तीनों की सैल्फी लेने लगी.

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